Monday, 31 December 2012
Wednesday, 26 December 2012
'' गणेश चतुर्थी मे क्यों करते हैं चन्द्र दर्शन ''
धार्मिक मान्यतानुसार हिन्दू धर्म में गणेश जी सर्वोपरि स्थान रखते हैं।
सभी देवताओं में इनकी पूजा-अर्चना सर्वप्रथम की जाती है। श्री गणेश जी
विघ्न विनायक हैं। भगवान गणेश गजानन के नाम से भी जाने जाते हैं क्योंकि
उनका मुख हाथी का है|
ब्रह्मांड पुराण में कहा गया है कि जिस समय माता पार्वती ने भगवान श्री गणेश को जन्म दिया उस समय इन्द्रदेव समेत कई देवी- देवता उनके दर्शनों के लिए उपस्थित हुए| जिस समय यह देवी देवता पधारे उसी समय न्यायाधीश कहे जाने वाले शनिदेव भी वहां आये| शनिदेव के बारे में कहा जाता है कि उनकी क्रूर दृष्टि जहां भी पड़ेगी, वहां हानि होगी। उनकी उपस्थिति से माता पार्वती रुष्ट हो गईं| फिर भी शनि देव की दृष्टि गणेशजी पर पड़ी और दृष्टिपात होते ही श्री गणेश का मस्तक अलग होकर चन्द्रमण्डल में चला गया।
इसी तरह दूसरे प्रसंग के मुताबिक, एक बार कीबात है माता पार्वती स्नान करने जा रही थीं। वह चाहती थी की स्नान करते समय उन्हें कोई परेशान न करें। तब उन्होंने स्नान से पहले अपने मैल से एक सुंदर बालक को उत्पन्न किया और उसे अपना द्वारपाल बनाकर दरवाजे पर पहरा देने का आदेश दिया। उसी समय वहाँ भगवान शिवजी आये और अन्दर प्रवेश करने लगे, तब बालक ने उन्हें बाहर रोक दिया। शिव जी ने उस बालक को कई बार समझाया लेकिन वह नहीं माना। इस पर शिवगणों ने भगवान शिवजी के कहने पर उस बालक को द्वार से हटाने के लिए उससे भयंकर युद्ध किया। लेकिन उसे कोई पराजित नहीं कर सका। बालक के पराक्रम और हठधर्मिता से क्रोधित होकर शिवजी ने उस बालक का सिर काट दिया। जो चंद्रलोक चला गया|जब माता पार्वती स्नान करके निकली तो अपने पुत्र का कटा हुआ सिर देखकर क्रोधित हो उठीं और शिवजी से उसे पुनः जीवित करने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि अगर उनके पुत्र को जीवित नहीं किया गया तो प्रलय आ जाएगी। यह सब देखकर सारे देवी-देवता भयभीत हो गये। तब देवर्षि नारद नेपार्वती जी को शांत किया और बालक को जिन्दा करने का अनुरोध भगवान शिवजी से करने लगे। बड़ी समस्या यह थी कि कटा हुआ सिर वापस धड के साथ जुड नही सकता था। अतः यह तय हुआ कि अगर किसी दूसरे जीव का सिर मिल जाए तो यह बालक वापस जिन्दा हो जाएगा।शिव जी के आदेशानुसार शिवगण जब दूसरा सिर खोजने निकले तो उन्हें एक जंगल में एक हाथी का बच्चा मिला। शिवगणउस हाथी के बच्चे का सिर काटकर ले आए। इसके पश्चात शिव जी ने उस गज के कटे हुए मस्तक को बालक के धड पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया और इस बालक का नाम गणेश पड़ा।
ऐसी मान्यता है कि श्री गणेश का असल मस्तक चन्द्रमण्डल में है, इसी आस्था से धर्म परंपराओं में गणेश चतुर्थी तिथि पर चन्द्रदर्शन व अर्घ्य देकर श्री गणेश की उपासना व भक्ति द्वारा संकटनाश व मंगल कामना की जाती है।
ब्रह्मांड पुराण में कहा गया है कि जिस समय माता पार्वती ने भगवान श्री गणेश को जन्म दिया उस समय इन्द्रदेव समेत कई देवी- देवता उनके दर्शनों के लिए उपस्थित हुए| जिस समय यह देवी देवता पधारे उसी समय न्यायाधीश कहे जाने वाले शनिदेव भी वहां आये| शनिदेव के बारे में कहा जाता है कि उनकी क्रूर दृष्टि जहां भी पड़ेगी, वहां हानि होगी। उनकी उपस्थिति से माता पार्वती रुष्ट हो गईं| फिर भी शनि देव की दृष्टि गणेशजी पर पड़ी और दृष्टिपात होते ही श्री गणेश का मस्तक अलग होकर चन्द्रमण्डल में चला गया।
इसी तरह दूसरे प्रसंग के मुताबिक, एक बार कीबात है माता पार्वती स्नान करने जा रही थीं। वह चाहती थी की स्नान करते समय उन्हें कोई परेशान न करें। तब उन्होंने स्नान से पहले अपने मैल से एक सुंदर बालक को उत्पन्न किया और उसे अपना द्वारपाल बनाकर दरवाजे पर पहरा देने का आदेश दिया। उसी समय वहाँ भगवान शिवजी आये और अन्दर प्रवेश करने लगे, तब बालक ने उन्हें बाहर रोक दिया। शिव जी ने उस बालक को कई बार समझाया लेकिन वह नहीं माना। इस पर शिवगणों ने भगवान शिवजी के कहने पर उस बालक को द्वार से हटाने के लिए उससे भयंकर युद्ध किया। लेकिन उसे कोई पराजित नहीं कर सका। बालक के पराक्रम और हठधर्मिता से क्रोधित होकर शिवजी ने उस बालक का सिर काट दिया। जो चंद्रलोक चला गया|जब माता पार्वती स्नान करके निकली तो अपने पुत्र का कटा हुआ सिर देखकर क्रोधित हो उठीं और शिवजी से उसे पुनः जीवित करने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि अगर उनके पुत्र को जीवित नहीं किया गया तो प्रलय आ जाएगी। यह सब देखकर सारे देवी-देवता भयभीत हो गये। तब देवर्षि नारद नेपार्वती जी को शांत किया और बालक को जिन्दा करने का अनुरोध भगवान शिवजी से करने लगे। बड़ी समस्या यह थी कि कटा हुआ सिर वापस धड के साथ जुड नही सकता था। अतः यह तय हुआ कि अगर किसी दूसरे जीव का सिर मिल जाए तो यह बालक वापस जिन्दा हो जाएगा।शिव जी के आदेशानुसार शिवगण जब दूसरा सिर खोजने निकले तो उन्हें एक जंगल में एक हाथी का बच्चा मिला। शिवगणउस हाथी के बच्चे का सिर काटकर ले आए। इसके पश्चात शिव जी ने उस गज के कटे हुए मस्तक को बालक के धड पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया और इस बालक का नाम गणेश पड़ा।
ऐसी मान्यता है कि श्री गणेश का असल मस्तक चन्द्रमण्डल में है, इसी आस्था से धर्म परंपराओं में गणेश चतुर्थी तिथि पर चन्द्रदर्शन व अर्घ्य देकर श्री गणेश की उपासना व भक्ति द्वारा संकटनाश व मंगल कामना की जाती है।
Tuesday, 25 December 2012
'' मां वैष्णो देवी ''
इस बीच, श्री राम ने त्रिकुटा से उत्तर भारत में स्थित माणिक पहाड़ियों की त्रिकुटा श्रृंखला में अवस्थित गुफ़ा में ध्यान में लीन रहने के लिए कहा.रावण के विरुद्ध श्री राम की विजय के लिए मां ने 'नवरात्र' मनाने का निर्णय लिया. इसलिए उक्त संदर्भ में लोग, नवरात्र के 9 दिनों की अवधि में रामायण का पाठ करते हैं. श्री राम ने वचन दिया था कि समस्त संसार द्वारा मां वैष्णो देवी की स्तुति गाई जाएगी. त्रिकुटा, वैष्णो देवी के रूप में प्रसिद्ध होंगी और सदा के लिए अमर हो जाएंगी.[2]
समय के साथ-साथ, देवी मां के बारे में कई कहानियां उभरीं. ऐसी ही एक कहानी है श्रीधर की.
श्रीधर मां वैष्णो देवी का प्रबल भक्त थे. वे वर्तमान कटरा कस्बे से 2 कि.मी. की दूरी पर स्थित हंसली गांव में रहता थे. एक बार मां ने एक मोहक युवा लड़की के रूप में उनको दर्शन दिए. युवा लड़की ने विनम्र पंडित से 'भंडारा' (भिक्षुकों और भक्तों के लिए एक प्रीतिभोज) आयोजित करने के लिए कहा. पंडित गांव और निकटस्थ जगहों से लोगों को आमंत्रित करने के लिए चल पड़े. उन्होंने एक स्वार्थी राक्षस 'भैरव नाथ' को भी आमंत्रित किया. भैरव नाथ ने श्रीधर से पूछा कि वे कैसे अपेक्षाओं को पूरा करने की योजना बना रहे हैं. उसने श्रीधर को विफलता की स्थिति में बुरे परिणामों का स्मरण कराया. चूंकि पंडित जी चिंता में डूब गए, दिव्य बालिका प्रकट हुईं और कहा कि वे निराश ना हों, सब व्यवस्था हो चुकी है.उन्होंने कहा कि 360 से अधिक श्रद्धालुओं को छोटी-सी कुटिया में बिठा सकते हो. उनके कहे अनुसार ही भंडारा में अतिरिक्त भोजन और बैठने की व्यवस्था के साथ निर्विघ्न आयोजन संपन्न हुआ. भैरव नाथ ने स्वीकार किया कि बालिका में अलौकिक शक्तियां थीं और आगे और परीक्षा लेने का निर्णय लिया. उसने त्रिकुटा पहाड़ियों तक उस दिव्य बालिका का पीछा किया. 9 महीनों तक भैरव नाथ उस रहस्यमय बालिका को ढूँढ़ता रहा, जिसे वह देवी मां का अवतार मानता था. भैरव से दूर भागते हुए देवी ने पृथ्वी पर एक बाण चलाया, जिससे पानी फूट कर बाहर निकला. यही नदी बाणगंगा के रूप में जानी जाती है. ऐसी मान्यता है कि बाणगंगा (बाण: तीर) में स्नान करने पर, देवी माता पर विश्वास करने वालों के सभी पाप धुल जाते हैं.नदी के किनारे, जिसे चरण पादुका कहा जाता है, देवी मां के पैरों के निशान हैं, जो आज तक उसी तरह विद्यमान हैं.इसके बाद वैष्णो देवी ने अधकावरी के पास गर्भ जून में शरण ली, जहां वे 9 महीनों तक ध्यान-मग्न रहीं और आध्यात्मिक ज्ञान और शक्तियां प्राप्त कीं. भैरव द्वारा उन्हें ढूंढ़ लेने पर उनकी साधना भंग हुई. जब भैरव ने उन्हें मारने की कोशिश की, तो विवश होकर वैष्णो देवी ने महा काली का रूप लिया. दरबार में पवित्र गुफ़ा के द्वार पर देवी मां प्रकट हुईं. देवी ने ऐसी शक्ति के साथ भैरव का सिर धड़ से अलग किया कि उसकी खोपड़ी पवित्र गुफ़ा से 2.5 कि.मी. की दूरी पर भैरव घाटी नामक स्थान पर जा गिरी.
भैरव ने मरते समय क्षमा याचना की. देवी जानती थीं कि उन पर हमला करने के पीछे भैरव की प्रमुख मंशा मोक्ष प्राप्त करने की थी.उन्होंने न केवल भैरव को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति प्रदान की, बल्कि उसे वरदान भी दिया कि भक्त द्वारा यह सुनिश्चित करने के लिए कि तीर्थ-यात्रा संपन्न हो चुकी है, यह आवश्यक होगा कि वह देवी मां के दर्शन के बाद, पवित्र गुफ़ा के पास भैरव नाथ के मंदिर के भी दर्शन करें.इस बीच वैष्णो देवी ने तीन पिंड (सिर) सहित एक चट्टान का आकार ग्रहण किया और सदा के लिए ध्यानमग्न हो गईं.
इस बीच पंडित श्रीधर अधीर हो गए. वे त्रिकुटा पर्वत की ओर उसी रास्ते आगे बढ़े, जो उन्होंने सपने में देखा था.अंततः वे गुफ़ा के द्वार पर पहुंचे. उन्होंने कई विधियों से 'पिंडों' की पूजा को अपनी दिनचर्या बना ली. देवी उनकी पूजा से प्रसन्न हुईं. वे उनके सामने प्रकट हुईं और उन्हें आशीर्वाद दिया. तब से, श्रीधर और उनके वंशज देवी मां वैष्णो देवी की पूजा करते आ रहे हैं
Saturday, 22 December 2012
'' माँ ज्वाला जी की कथा .''
हिमाचल के काँगड़ा स्थित माँ ज्वाला जी माँ का मंदिर अपनी आप मे अनूठा
है।यहाँ की मुख्य विशेषता यह है की यहाँ माँ के दरबार मे किसी मूर्ति या
पिंडी के दर्शन नहीं होते। माँ ज्वाला जी के दरबार मे माँ की 9 दिव्य
ज्योतिया बिना किसी घी ,तेल या रुई के , पहाड़ो मे से ऐसे ही जल रही है। माँ
की एक ज्योति नहर के बहते हुए पानी मे भी जल रही है।जो नहर बादशाह अकबर ने माँ
की ज्योति को बुझाने के लिए मंदिर में बनवाई थी।माँ के मंदिर का इत्तिहास बहुत पुराना है।यह मंदिर गुरु गोरख नाथ जी की तपस्या स्थली है। गुरु गोरखनाथ जी यहाँ से माँ के दर्शन पा कर गोरखपुर गए थे जहा उन्होंने समाधी ली।ऐसा कहा जाता है की दक्ष की कन्या सती जो माँ जगदम्बा का रूप थी उनका शव जब शिव जी आकाश मार्ग से ले जा रहे थे।तब विष्णु जी के सुदर्शन
चक्कर से उस शव का खंण्ड करने पर माँ सती की जीभ यहाँ ज्वाला जी मे गिरी
थी।तब से यह स्थान शक्तिपीठ कहलाया।
माँ ज्वाला जी ने अपना पहला दर्शन तमिलनाडु राज्य के एक ब्राह्मण देविदास को स्वप्न मे दिया। माँ ने उन ब्राह्मण से कहा की वह हिमालय पर विराजमान है।ब्राह्मण माँ का आदेश पा कर ज्वालामुखी आ गए। तब देखा की माँ की 9 दिव्या ज्योतिय जमीन मे से निकल रही है। ब्राह्मण वह माँ की सेवा पूजा करने लग गए।माँ के दरबार मे आज भी उन ब्राह्मण के वंशज जो ''भोजक'' जाती के है ,वही सेवा करते है। कुछ समय बाद एक दिन पास के ही एक गाव में एक ग्वाला था। उसकी गाये रोज दूध नहीं देती थी। ऐसा लगता था की उसका दूध कोई निकाल लेता है।एक दिन उस ग्वाले ने निश्चय किया की आज वो उस दूध निकालने वाले को पकड़ के ही रहेगा । ग्वाले ने गाय का पीछा किया तो देखा की ......एक ज्योति आकाश मार्ग से आती है और गाये के नीचे कन्या बन के बैठ जाती है और सारा दूध पी जाती है।ग्वाले ने चुपके से उस दिव्या ज्योति का पीछा किया और ज्वाला जी मे आ पंहुचा।वह माँ की 9 दिव्या ज्योति देख कर हैरान रह गया। उन दिनों हिमाचल जालंधर राज्य में आता था।ग्वाले ने जालंधर के राजा महाराज रणजीत सिंह को यह बात बताई।उस रात ही , महाराज रणजीत सिंह को स्वप्न मे काली माँ ने दर्शन दिए। और कहा की ....''वह स्थान मेरा सिद्ध शक्तिपीठ है।वहाँ तुम मेरा मंदिर बनवाओ।माँ की आज्ञा मान के राजा रणजीत सिंह ने माँ ज्वाला जी का भव्य मंदिर बनवाया। जिस पर समय समय पर अनेक राजाओ ने काम करवाया। ऐसा कहा जाता है की जब माँ ने अकबर का घम्मंड दूर कर दिया था और अकबर भी माँ का सेवक बन गया था,तब अकबर ने भी माँ के भगतो के लिए सराय बनवाए।
अकबर के बाद जहाँगीर काँगड़ा जैसे पहाड़ी राज्य को अपनी राजधानी बनवाना चाहता था।जहाँगीर ने काँगड़ा के किले पर कब्ज़ा भी कर लिया था, काँगड़ा के राजा भी माँ के भक्त थे। वो अपना राज्य जहाँगीर को नहीं देना चाहते थे। जहाँगीर काँगड़ा के किले पर दीवार बनवा रहा था। लेकिन वह दीवार अपने आप ही गिर जाती थी। जहाँगीर ने बहुत कोशिश करी लेकिन दीवार नहीं बन पाई।जहाँगीर के दरबार मे मोजूद हिन्दू दरबारियो को दीवार का यह बार बार आश्चर्यजनक तरीके से बार बार गिरजाना सही नहीं लगा।तब उन्होंने माँ के दरबार से इसकी आज्ञा मांगने को कहा। माँ के दरबार से जहाँगीर को आदेश आया की काँगड़ा उसके लिए सुरक्षित नहीं है।वो यहाँ अपनी राजधानी नहीं बनाये।तब जहाँगीर माँ की आगया मान कर वापस आगरा चला गया।और काँगड़ा का राज्य फिर से काँगड़ा के राजा को लौटा दिया।
माँ ज्वाला जी ने अपना पहला दर्शन तमिलनाडु राज्य के एक ब्राह्मण देविदास को स्वप्न मे दिया। माँ ने उन ब्राह्मण से कहा की वह हिमालय पर विराजमान है।ब्राह्मण माँ का आदेश पा कर ज्वालामुखी आ गए। तब देखा की माँ की 9 दिव्या ज्योतिय जमीन मे से निकल रही है। ब्राह्मण वह माँ की सेवा पूजा करने लग गए।माँ के दरबार मे आज भी उन ब्राह्मण के वंशज जो ''भोजक'' जाती के है ,वही सेवा करते है। कुछ समय बाद एक दिन पास के ही एक गाव में एक ग्वाला था। उसकी गाये रोज दूध नहीं देती थी। ऐसा लगता था की उसका दूध कोई निकाल लेता है।एक दिन उस ग्वाले ने निश्चय किया की आज वो उस दूध निकालने वाले को पकड़ के ही रहेगा । ग्वाले ने गाय का पीछा किया तो देखा की ......एक ज्योति आकाश मार्ग से आती है और गाये के नीचे कन्या बन के बैठ जाती है और सारा दूध पी जाती है।ग्वाले ने चुपके से उस दिव्या ज्योति का पीछा किया और ज्वाला जी मे आ पंहुचा।वह माँ की 9 दिव्या ज्योति देख कर हैरान रह गया। उन दिनों हिमाचल जालंधर राज्य में आता था।ग्वाले ने जालंधर के राजा महाराज रणजीत सिंह को यह बात बताई।उस रात ही , महाराज रणजीत सिंह को स्वप्न मे काली माँ ने दर्शन दिए। और कहा की ....''वह स्थान मेरा सिद्ध शक्तिपीठ है।वहाँ तुम मेरा मंदिर बनवाओ।माँ की आज्ञा मान के राजा रणजीत सिंह ने माँ ज्वाला जी का भव्य मंदिर बनवाया। जिस पर समय समय पर अनेक राजाओ ने काम करवाया। ऐसा कहा जाता है की जब माँ ने अकबर का घम्मंड दूर कर दिया था और अकबर भी माँ का सेवक बन गया था,तब अकबर ने भी माँ के भगतो के लिए सराय बनवाए।
अकबर के बाद जहाँगीर काँगड़ा जैसे पहाड़ी राज्य को अपनी राजधानी बनवाना चाहता था।जहाँगीर ने काँगड़ा के किले पर कब्ज़ा भी कर लिया था, काँगड़ा के राजा भी माँ के भक्त थे। वो अपना राज्य जहाँगीर को नहीं देना चाहते थे। जहाँगीर काँगड़ा के किले पर दीवार बनवा रहा था। लेकिन वह दीवार अपने आप ही गिर जाती थी। जहाँगीर ने बहुत कोशिश करी लेकिन दीवार नहीं बन पाई।जहाँगीर के दरबार मे मोजूद हिन्दू दरबारियो को दीवार का यह बार बार आश्चर्यजनक तरीके से बार बार गिरजाना सही नहीं लगा।तब उन्होंने माँ के दरबार से इसकी आज्ञा मांगने को कहा। माँ के दरबार से जहाँगीर को आदेश आया की काँगड़ा उसके लिए सुरक्षित नहीं है।वो यहाँ अपनी राजधानी नहीं बनाये।तब जहाँगीर माँ की आगया मान कर वापस आगरा चला गया।और काँगड़ा का राज्य फिर से काँगड़ा के राजा को लौटा दिया।
Tuesday, 18 December 2012
'' सुलोचना की कथा ''
श्री राम -रावण का भयंकर युद्ध चल रहा है. इंदरजीत ने रावण से कहा कि मै शत्रुओ का संहार करूँगा. रावण को हिम्मत बंधाकर इंदरजीत युद्ध करने गया. इंदरजीत और लक्ष्मण भयंकर युद्ध हुआ. युद्ध में लक्ष्मण जी ने इंदरजीत कि भुजा का छेदन किया. वह भुजा इंदरजीत के आँगन में जा पड़ी. इंदरजीत का छिन्न मस्तक उठाकर वानर श्री राम जी के पास ले गए. इंदरजीत कि पत्नी सुलोचना महान पतिव्रता स्त्री थी . आँगन में आये पतिदेव के कटे हुए हाथ को देखकर रोने लगे "ये युद्ध करने रणभूमि गए हुए है. मैंने यदि पतिव्रत धर्म बराबर पालन किया है तो यह हाथ लिखकर मुझको बतावे कि क्या हुआ है" तब हाथ ने लिखा "लक्ष्मण जी के साथ युद्ध करते हुए मेरा मरण हुआ है. मै तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हू" सोलोचना ने सतीधर्म के अनुसार अग्नि में प्रवेश करने का निश्चय किया
सुलोचना रावण का वन्दन करने गई और कहा कि मुझे अग्नि में प्रवेश करना है , आप आज्ञा दे
उस समय रावण पुत्र - वियोग में रो रहा था. इंदरजीत जैसे अप्रितम वीर युवा पुत्र कि मृत्यु हो चुकी है और अभी पुत्रवधू अग्नि में प्रवेश करने कि आज्ञा मांगती है . रावण का हृदय अतिशय भर आया. उसने सुलोचना से कहा "पुत्रि! मै तुमसे और कोई बात तो कहता नहीं, अग्नि में प्रवेश करने से तुम्हारा मरण मंगलमय होगा परन्तु तुम एक बार रामजी के दर्शन करो, रामजी का वंदन करो. तुम्हारा जीवन और मरण दोनों सुधरेंगे
सुलोचना अत्यंत सुंदर थी. अत्यंत सुंदर पुत्रवधू को कट्टर शत्रु के पास जाने के लिए रावण ने कहा. उससे सुलोचना को बहुत आश्चर्य हुआ. उसने रावण से कहा. "आप मुझे शत्रु के घर भेजते है? वहा मेरे साथ अन्याय हुआ तो ?"
रावण ने कहा "मैंने रामजी के साथ वैर किया है, परन्तु रामजी मुझे शत्रु नहीं मानते. " रावण का रामजी के प्रति कितना विश्वास है? जवान योद्दा वीर पुत्र युद्ध में मृतक हुआ है. और उस समय रावण रामजी के प्रशंसा कर रहा है. पुत्र-वियोग मे रामजी कि आहुति कर रहा है. उसने कहा "मुझे विश्वास है कि राम जी के दरबार मे अन्याय होता नहीं. रामजी तुझे माता समान मानकर तुझको सम्मान देंगे. तुम्हारी प्रशंसा करेंगे. जहा एक्पत्नीव्रतधारी रामजी है, जहाँ जितेन्द्रिय लक्ष्मण जी है, जहाँ बाल ब्रह्मचारी हनुमान जी विराजमान है, उस राम दरबार मे अन्याय नहीं. मेरा एसा विश्वास है कि रामजी के दर्शन से ही जीवन सफल होता है. अग्नि में प्रवेश करने के पहले रामजी के दर्शन कर लो
अतिसुंदर पुत्रवधू को श्री राम के पास जाने कि आज्ञा रावण देता है. सुलोचना रामचंदर जी के पास जाती है. प्रभु ने सुलोचना कि प्रशंसा कि है और कहा है कि यह दो वीर योदाओ के बीच का युद्ध नहीं था. ये दो पतिव्रता स्त्रियों के बीच का युद्ध था. लक्ष्मण कि धर्म पत्नी उर्मिला महान पतिव्रता है और यह सुलोचना भी महान पतिव्रता है. यह लक्ष्मण और इंदरजीत के मध्य का युद्ध नहीं था. उर्मिला और सुलोचना के मध्य का युद्ध था. दो पतिव्रताओ का युद्ध था.
सुग्रीव ने पूछा कि महाराज! सुलोचना महान पतिव्रता है, ऐसा आप जोर देकर वर्णन कर रहे है तो फिर उसके पति का मरण क्यों हुआ?
रामजी ने कहा - 'सुलोचना के पति को कोई मार नहीं सकता था. परन्तु उर्मिला कि जीत हुई. उसका एक ही कारण है कि सुलोचना के पति ने परस्त्री में कुभाव रखनेवाले रावण कि मदद कि और उर्मिला के पति परस्त्री में माँ का भाव रखनेवाले के पक्ष में थे. इससे उर्मिला का जोर अधिक था. नहीं तो सुलोचना के पति को कोई मार नहीं सकता था.
सुलोचना को रामदर्शन करने में आनंद हुआ. प्रभु ने उसके पति का मस्तक उसको दिया. पति देव के मस्तक को देखकर सुलोचना रोने लगी. रामजी को दया आयी, रामजी ने कहा "बेटी! रोओ नहीं, तू हमारी पुत्रि है. तेरी इच्छा हो तो तेरे पति को जीवित कर दू. एक हजार वर्ष कि आयु दे दू. तुम लंका में आनद से राज्य करो. मै यही से वापिस लौट जाऊ, तू रोती है वह मुझे तनिक भी सहन नहीं .
सुलोचना को आश्चर्य हुआ. लोग रामजी के विषय में जो वर्णन करते है वह बहुत ही सामान्य करते है. राक्षसों को भी रामजी भले लगते है. रामजी का बखान करते है, तब फिर देवता और ऋषि रामजी
का बखान करे, इसमें कोई आश्चर्य नहीं, मै कैसे उन का बखान कर सकता हु. रामजी अतिशय सरल है.......
जयश्री राम जी |
Thursday, 13 December 2012
'' धार्मिक क्रियाकलापों का वैज्ञानिक महत्त्व ''
धार्मिक क्रियाकलापों का वैज्ञानिक महत्त्व
हमारा पूरा ब्रह्मांड ऊर्जा के प्रवाह पर ही आधारित है। ऊर्जा अलग-अलग रंगों की कंपन शक्ति से मिलकर कहीं अधिक, कहीं कम, कहीं सकारात्मक तथा कहीं नकारात्मक रूप में प्रवाह होती रहती है। यदि ऊर्जा का प्रवाह हमारे शरीर, घर, मंदिर या किसी भी स्थान पर असंतुलित होता है, तो वह किसी भी सजीव वस्तु के लिए शारीरिक या मानसिक असंतुलन पैदा करने का कारण होता है। प्राचीन समय में हमारे ऋषि-मुनियों को हर प्रकार की ऊर्जा के बारे में ज्ञात था, इसीलिए उन्होंने हमारी पूजा के क्रियाकलाप या धार्मिक क्रियाकलाप को इस तरह से बनाया कि वह हमारी शारीरिक व मानसिक ऊर्जा को सकारात्मक तरीके से संतुलित बनाये रखता है। इसी प्रकार कुछ ऐसे पशुओं व पेड़ों को पहचान लिया था जिनका ऊर्जा क्षेत्र मानव के ऊर्जा क्षेत्र से दोगुना या चैगुना बड़ा है | ऐसे पशुओं व वृक्षों को हमारी धार्मिक क्रिया में शामिल किया गया था।
नकारात्मक ऊर्जाएं हमारे शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को बुरी तरह से प्रभावित करती हैं। यदि हम नकारात्मक विचार रखते हैं, तो मानसिक अस्थिरता का कारण होते हैं और हमारे शरीर की कंपन शक्ति में बदलाव आता है। न केवल हमारे शरीर में, बल्कि यह हमारे घर के वातावरण को भी प्रभावित करती है क्योंकि यह नकारात्मक विचार एक कंपन शक्ति के रूप में प्रवाह करते हैं। हमारी मानसिक स्थिति वास्तु दोष की तीव्रता को दोगुना याचौगुना कर देती है। हमारे नकारात्मक विचार कंपन शक्ति के रूप में उसमें जुड़ते रहते हैं | इसी तरह से रत्नों तंत्र-मंत्र तथा यंत्रो मे भी सकारात्मक व नकारात्मक ऊर्जा होती है |
घर में प्रतिदिन हम दीपक जलाते हैं, दीपक जलाते समय हम गाय का घी, सरसों का तेल या तिल का तेल आदि प्रयोग करते हैं। इसका वैज्ञानिक कारण यह है, कि गाय का घी सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाता है तथा सरसों का तेल व तिल का तेल नकारात्मक ऊर्जा को खत्म करता है। अतः हमें दीपक जलाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि हम किस उद्देश्य से दीपक जला रहे हैं। हम घर में कपूर भी जलाते हैं , कपूर को जलाने से पहले उसकी कंपन शक्ति कम होती है, परंतु जलाने के बाद उसकी कंपन शक्ति बढ़ जाती है। तिरुपति भगवान के प्रसाद के लड्डू में भी खाने वाले कपूर का प्रयोग किया जाता है। कपूर वायरस को रोकता है। घर या मंदिर में पूजा करते समय जो हम घंटी बजाते हैं, उस ध्वनि से एक कंपन शक्ति उत्पन्न होती है जो नकारात्मक ऊर्जा को काटती है। इसीलिए घर के हर कोने में घंटी बजानी चाहिए। पूजा में नारियल का भी अपना महत्व है,नारियल को पंचभूतों का प्रतीक माना जाता है। जब हम चोटी वाला नारियल हाथ से पकड़कर तोड़ते हैं, तो हमारी हथेली के सारे एक्यूप्रेशर बिंदुओं पर दवाब पड़ता है।
इसी प्रकार जब हम किसी को तिलक लगाते हैं तो उसका भी एक अपना महत्व है। हमारी पांचों अंगुलियां पंचभूतों का प्रतीक हैं। अंगूठा अग्नि का, तर्जनी अंगुली वायु का, मध्यमा अंगुली गगन का, अनामिका पृथ्वी का तथा कनिष्ठिका जल का प्रतीक होती हैं। हम तिलक लगाने में अधिकतर अनामिका अंगुली का प्रयोग करते हैं इसका अर्थ है, कि जिसको तिलक लगा रहे हैं वह भूमि तत्व से जुड़ा रहे। प्राचीन समय में योद्धा जब युद्ध पर जाते थे, तो उन्हें अंगूठे से त्रिकोण के रूप में तिलक लगाया जाता था, अग्नि वाली अंगुली से अग्नि के प्रतीक के रूप में तिलक लगाने से उनके आग्नेय चक्र में अग्नि रूप शक्ति समाहित हो जाती थी, जिससे वह बड़ी वीरता के साथ युद्ध स्थल में युद्ध करते थे। तिलक हमेशा गोलाकार या त्रिकोण (पिरामिड आकार) के रूप में ही लगाया जाता है। पहले समय में तिलक को लगाने के लिए कुमकुम, सिंदूर और केसर को मिलाकर प्रयोग किया जाता था, जिससे बैंगनी रंग की ऊर्जा निकलती थी जो हमारी आग्नेय चक्र की आध्यात्मिक शक्ति को बढ़ाती थी। उस समय स्त्रियां जब तिलक लगाती थीं तथा मांग भरती थीं, तो वह हमारे ऊपर के चक्रों को बैंगनी रंग की ऊर्जा से हमारे आध्यात्मिक चक्रों को ऊर्जा प्रदान करती थी। आजकल हम बिंदी के नाम पर स्टीकर लगाते हैं उसके पीछे जो चिपकाने वाला पदार्थ होता है वह सूअर की चर्बी से बना होता है, जिनको लगाने से हमारी बुद्धि भ्रष्ट होती जा रही है।
स्त्रियां जो कांच की चूड़ियां पहनती हैं वह सिलीकान मिट्टी से बनी होती हैं तथा ये भूमि तत्व का प्रतीक होती हैं। स्त्रियों के ऊपर नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होने पर चूड़ियां उस ऊर्जा को अपने ऊपर लेकर टूट जाती है। स्त्रियों की कलाई में गर्भाशय के एक्यूप्रेशर बिदुं भी होते हैं, चूड़ियों के इधर-उधर खिसकने से उन पर दवाब पड़ता रहता है जिससे वे सक्रिय रहते हैं और स्त्रियों को गर्भाशय संबंधी परेशानी का सामना बहुत कम करना पड़ता है | परंतु आजकल फैशन के इस दौर में केवल शादी या पार्टी के समय जब साड़ी पहनते हैं तभी कुछ स्त्रियाँ कभी-कभी एक-दो घंटे के लिए कांच की चूड़ियां पहन लेती हैं, अन्यथा इनका प्रयोग विशेषकर शहरों में स्त्रियों ने बिल्कुल ही बंद कर दिया है।यह सब घोर मूर्खता के कारण हो रहा है |
नवजात शिशु को काली पोत की माला पहनाने से उनपर राहु-केतू व शनि की नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव नहीं होता है। स्त्रियों को कमर से निचले भाग में चांदी का आभूषण पहनने के लिए कहा गया है । इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि चांदी नकारात्मक ऊर्जा को रोकती है, स्त्री का गर्भाशय एक उल्टा पिरामिड शेप में है जिसका नीचे का नुकीला हिस्सा ऊर्जा ऊपर की तरफ खींचता है तथा स्त्री जब गर्भधारण करती है, तब गर्भाशय मूलाधार चक्र से ऊपर की तरफ ऊर्जा खींचता है जो बच्चे के विकास में सहायक होता है। पैरों से होती हुई नकारात्मक ऊर्जा गर्भाशय तक न पहुंचे, उसे रोकने के लिए पैरों में चांदी की पायल तथा कमर बंध का प्रयोग किया जाता था। दक्षिण भारत की स्त्रियां पैरों में हल्दी लगाती हैं, जो नकारात्मक ऊर्जा को रोकने में सहायक होती है। प्राचीन समय में पुरुष भी पैरों में चांदी के मोटे-मोटे कड़े पहनते थे जिसका कारण था कि वे नगें पैर लंबा सफर भी पैदल ही करते थे। पैरों के द्वारा नकारात्मक ऊर्जा उनके शरीर में न आ सके, इसलिए पैरों में चांदी का प्रयोग किया जाता था। हमारे भारत में मेंहदी लगाने का एक विशेष महत्व है। जब मौसम बदलता है तो शरीर की सारी गर्मी निकालने के लिए मेंहदी का प्रयोग हाथ और पैरों में लगाकर करते हैं क्योंकि हाथ-पैरों में हमारे नाड़ियों के बिंदु होते हैं जिसके द्वारा यह ऊर्जा बाहर निकलती है।
भारत में शादी भी एक उच्चतर वैज्ञानिक प्रक्रिया है। शादी से पहले लड़के और लड़की को हल्दी और बेसन का उबटन लगाया जाता है जो शरीर के अंदर वाली नकारात्मक ऊर्जा को बाहर निकालती है तथा बाहर से आने वाली नकारात्मक ऊर्जा को रोकती है। आग के चारों तरफ भांवर या सात फेरे लेने का भी अपना महत्व है क्योंकि पंचभूतों में अग्नि ही सबसे पवित्र ऊर्जा मानी जाती है। किसी भी वस्तु को शुद्ध करने के लिए उसे आग में तपाया जाता है तथा इच्छानुसार आकार दिया जा सकता है| इसी तरह वर-वधु एक-दूसरे का हाथ पकड़कर जब सात फेरे अग्नि के चारों तरफ लेते हैं, तो उन दोनों के बीच की जो नकारात्मक ऊर्जा होती है वह उस अग्नि में भस्म हो जाती है और उनका एक नया रिश्ता आकार लेता है। सात फेरे सात दिन का भी प्रतीक होते हैं। वधू को लाल कपड़े पहनने को कहा जाता है क्योंकि लाल और पीला रंग नकारात्मक शक्ति को रोकता है। शादी के बाद लड़की को काली पोत का मंगल सूत्र पहनाया जाता है जिससे उसको कोई नकारात्मक शक्ति प्रभावित न करे। पूजा स्थल जैसे, मंदिर हमारे यहां सबसे ज्यादा सकारात्मक ऊर्जा का स्थान माना जाता है। यहां पर लोग अपने दुःख-दर्द लेकर आते हैं तथा यहां पर आकर उनको मानसिक शांति का अनुभव होता है। इसलिए इनकी स्थापना करते समय हमें बहुत ही ध्यान रखना चाहिए। मंदिर को बहुत ही सकारात्मक ऊर्जा का क्षेत्र बनाना चाहिए। जब मंदिर के लिए भूमि पूजन होते हैं व वहां पर मूर्ति की स्थापना होनी होती है, वहां पर नव धान्य नवरत्न गाड़ देते हैं तथा वहां पर गायमूत्र छिड़कते थे | मंदिर में हमेशा मंत्रोंच्चारण होते रहते हैं तथा हवन व यज्ञ होते रहते हैं जिससे मंदिर की सकारात्मक ऊर्जा बनी रहती है| भगवान को फूलों से अलंकृत किया जाता है क्योंकि प्रत्येक फूल का ऊर्जा क्षेत्र मानव के ऊर्जा से अधिक होता है इसलिए दक्षिण भारत की स्त्रियां अपने बालों में फूलों व गजरों का प्रयोग करती हैं। पूजा के समय हाथ में कलावा बांधा जाता है। यह बाहरी नकारात्मक ऊर्जा को रोकता है तथा शरीर के अंदर की ऊर्जा को खींचता है। जब इसका रंग फीका पड़ने लगे या अधिक से अधिक नौ दिनों में हमें इसे अपने हाथ से खोल देना चाहिए। वेद मंत्रों का उच्चारण कपूर आदि जलाकर मंदिर की सकारात्मक ऊर्जा इतनी बढ़ायी जाती है कि वहां पर जाकर हमें एक आत्मिक आनंद का अहसास होता है। भारत में कई तीर्थ स्थल ऐसे हैं, जिनका अपना एक विशेष महत्व है तथा वह ऐसी ऊर्जा ग्रहित क्षेत्रों में स्थापित किये गये हैं कि वहां जाने पर वहां की सकारात्मक ऊर्जा हमारी नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट कर देती है|
हमारा पूरा ब्रह्मांड ऊर्जा के प्रवाह पर ही आधारित है। ऊर्जा अलग-अलग रंगों की कंपन शक्ति से मिलकर कहीं अधिक, कहीं कम, कहीं सकारात्मक तथा कहीं नकारात्मक रूप में प्रवाह होती रहती है। यदि ऊर्जा का प्रवाह हमारे शरीर, घर, मंदिर या किसी भी स्थान पर असंतुलित होता है, तो वह किसी भी सजीव वस्तु के लिए शारीरिक या मानसिक असंतुलन पैदा करने का कारण होता है। प्राचीन समय में हमारे ऋषि-मुनियों को हर प्रकार की ऊर्जा के बारे में ज्ञात था, इसीलिए उन्होंने हमारी पूजा के क्रियाकलाप या धार्मिक क्रियाकलाप को इस तरह से बनाया कि वह हमारी शारीरिक व मानसिक ऊर्जा को सकारात्मक तरीके से संतुलित बनाये रखता है। इसी प्रकार कुछ ऐसे पशुओं व पेड़ों को पहचान लिया था जिनका ऊर्जा क्षेत्र मानव के ऊर्जा क्षेत्र से दोगुना या चैगुना बड़ा है | ऐसे पशुओं व वृक्षों को हमारी धार्मिक क्रिया में शामिल किया गया था।
नकारात्मक ऊर्जाएं हमारे शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को बुरी तरह से प्रभावित करती हैं। यदि हम नकारात्मक विचार रखते हैं, तो मानसिक अस्थिरता का कारण होते हैं और हमारे शरीर की कंपन शक्ति में बदलाव आता है। न केवल हमारे शरीर में, बल्कि यह हमारे घर के वातावरण को भी प्रभावित करती है क्योंकि यह नकारात्मक विचार एक कंपन शक्ति के रूप में प्रवाह करते हैं। हमारी मानसिक स्थिति वास्तु दोष की तीव्रता को दोगुना याचौगुना कर देती है। हमारे नकारात्मक विचार कंपन शक्ति के रूप में उसमें जुड़ते रहते हैं | इसी तरह से रत्नों तंत्र-मंत्र तथा यंत्रो मे भी सकारात्मक व नकारात्मक ऊर्जा होती है |
घर में प्रतिदिन हम दीपक जलाते हैं, दीपक जलाते समय हम गाय का घी, सरसों का तेल या तिल का तेल आदि प्रयोग करते हैं। इसका वैज्ञानिक कारण यह है, कि गाय का घी सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाता है तथा सरसों का तेल व तिल का तेल नकारात्मक ऊर्जा को खत्म करता है। अतः हमें दीपक जलाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि हम किस उद्देश्य से दीपक जला रहे हैं। हम घर में कपूर भी जलाते हैं , कपूर को जलाने से पहले उसकी कंपन शक्ति कम होती है, परंतु जलाने के बाद उसकी कंपन शक्ति बढ़ जाती है। तिरुपति भगवान के प्रसाद के लड्डू में भी खाने वाले कपूर का प्रयोग किया जाता है। कपूर वायरस को रोकता है। घर या मंदिर में पूजा करते समय जो हम घंटी बजाते हैं, उस ध्वनि से एक कंपन शक्ति उत्पन्न होती है जो नकारात्मक ऊर्जा को काटती है। इसीलिए घर के हर कोने में घंटी बजानी चाहिए। पूजा में नारियल का भी अपना महत्व है,नारियल को पंचभूतों का प्रतीक माना जाता है। जब हम चोटी वाला नारियल हाथ से पकड़कर तोड़ते हैं, तो हमारी हथेली के सारे एक्यूप्रेशर बिंदुओं पर दवाब पड़ता है।
इसी प्रकार जब हम किसी को तिलक लगाते हैं तो उसका भी एक अपना महत्व है। हमारी पांचों अंगुलियां पंचभूतों का प्रतीक हैं। अंगूठा अग्नि का, तर्जनी अंगुली वायु का, मध्यमा अंगुली गगन का, अनामिका पृथ्वी का तथा कनिष्ठिका जल का प्रतीक होती हैं। हम तिलक लगाने में अधिकतर अनामिका अंगुली का प्रयोग करते हैं इसका अर्थ है, कि जिसको तिलक लगा रहे हैं वह भूमि तत्व से जुड़ा रहे। प्राचीन समय में योद्धा जब युद्ध पर जाते थे, तो उन्हें अंगूठे से त्रिकोण के रूप में तिलक लगाया जाता था, अग्नि वाली अंगुली से अग्नि के प्रतीक के रूप में तिलक लगाने से उनके आग्नेय चक्र में अग्नि रूप शक्ति समाहित हो जाती थी, जिससे वह बड़ी वीरता के साथ युद्ध स्थल में युद्ध करते थे। तिलक हमेशा गोलाकार या त्रिकोण (पिरामिड आकार) के रूप में ही लगाया जाता है। पहले समय में तिलक को लगाने के लिए कुमकुम, सिंदूर और केसर को मिलाकर प्रयोग किया जाता था, जिससे बैंगनी रंग की ऊर्जा निकलती थी जो हमारी आग्नेय चक्र की आध्यात्मिक शक्ति को बढ़ाती थी। उस समय स्त्रियां जब तिलक लगाती थीं तथा मांग भरती थीं, तो वह हमारे ऊपर के चक्रों को बैंगनी रंग की ऊर्जा से हमारे आध्यात्मिक चक्रों को ऊर्जा प्रदान करती थी। आजकल हम बिंदी के नाम पर स्टीकर लगाते हैं उसके पीछे जो चिपकाने वाला पदार्थ होता है वह सूअर की चर्बी से बना होता है, जिनको लगाने से हमारी बुद्धि भ्रष्ट होती जा रही है।
स्त्रियां जो कांच की चूड़ियां पहनती हैं वह सिलीकान मिट्टी से बनी होती हैं तथा ये भूमि तत्व का प्रतीक होती हैं। स्त्रियों के ऊपर नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होने पर चूड़ियां उस ऊर्जा को अपने ऊपर लेकर टूट जाती है। स्त्रियों की कलाई में गर्भाशय के एक्यूप्रेशर बिदुं भी होते हैं, चूड़ियों के इधर-उधर खिसकने से उन पर दवाब पड़ता रहता है जिससे वे सक्रिय रहते हैं और स्त्रियों को गर्भाशय संबंधी परेशानी का सामना बहुत कम करना पड़ता है | परंतु आजकल फैशन के इस दौर में केवल शादी या पार्टी के समय जब साड़ी पहनते हैं तभी कुछ स्त्रियाँ कभी-कभी एक-दो घंटे के लिए कांच की चूड़ियां पहन लेती हैं, अन्यथा इनका प्रयोग विशेषकर शहरों में स्त्रियों ने बिल्कुल ही बंद कर दिया है।यह सब घोर मूर्खता के कारण हो रहा है |
नवजात शिशु को काली पोत की माला पहनाने से उनपर राहु-केतू व शनि की नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव नहीं होता है। स्त्रियों को कमर से निचले भाग में चांदी का आभूषण पहनने के लिए कहा गया है । इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि चांदी नकारात्मक ऊर्जा को रोकती है, स्त्री का गर्भाशय एक उल्टा पिरामिड शेप में है जिसका नीचे का नुकीला हिस्सा ऊर्जा ऊपर की तरफ खींचता है तथा स्त्री जब गर्भधारण करती है, तब गर्भाशय मूलाधार चक्र से ऊपर की तरफ ऊर्जा खींचता है जो बच्चे के विकास में सहायक होता है। पैरों से होती हुई नकारात्मक ऊर्जा गर्भाशय तक न पहुंचे, उसे रोकने के लिए पैरों में चांदी की पायल तथा कमर बंध का प्रयोग किया जाता था। दक्षिण भारत की स्त्रियां पैरों में हल्दी लगाती हैं, जो नकारात्मक ऊर्जा को रोकने में सहायक होती है। प्राचीन समय में पुरुष भी पैरों में चांदी के मोटे-मोटे कड़े पहनते थे जिसका कारण था कि वे नगें पैर लंबा सफर भी पैदल ही करते थे। पैरों के द्वारा नकारात्मक ऊर्जा उनके शरीर में न आ सके, इसलिए पैरों में चांदी का प्रयोग किया जाता था। हमारे भारत में मेंहदी लगाने का एक विशेष महत्व है। जब मौसम बदलता है तो शरीर की सारी गर्मी निकालने के लिए मेंहदी का प्रयोग हाथ और पैरों में लगाकर करते हैं क्योंकि हाथ-पैरों में हमारे नाड़ियों के बिंदु होते हैं जिसके द्वारा यह ऊर्जा बाहर निकलती है।
भारत में शादी भी एक उच्चतर वैज्ञानिक प्रक्रिया है। शादी से पहले लड़के और लड़की को हल्दी और बेसन का उबटन लगाया जाता है जो शरीर के अंदर वाली नकारात्मक ऊर्जा को बाहर निकालती है तथा बाहर से आने वाली नकारात्मक ऊर्जा को रोकती है। आग के चारों तरफ भांवर या सात फेरे लेने का भी अपना महत्व है क्योंकि पंचभूतों में अग्नि ही सबसे पवित्र ऊर्जा मानी जाती है। किसी भी वस्तु को शुद्ध करने के लिए उसे आग में तपाया जाता है तथा इच्छानुसार आकार दिया जा सकता है| इसी तरह वर-वधु एक-दूसरे का हाथ पकड़कर जब सात फेरे अग्नि के चारों तरफ लेते हैं, तो उन दोनों के बीच की जो नकारात्मक ऊर्जा होती है वह उस अग्नि में भस्म हो जाती है और उनका एक नया रिश्ता आकार लेता है। सात फेरे सात दिन का भी प्रतीक होते हैं। वधू को लाल कपड़े पहनने को कहा जाता है क्योंकि लाल और पीला रंग नकारात्मक शक्ति को रोकता है। शादी के बाद लड़की को काली पोत का मंगल सूत्र पहनाया जाता है जिससे उसको कोई नकारात्मक शक्ति प्रभावित न करे। पूजा स्थल जैसे, मंदिर हमारे यहां सबसे ज्यादा सकारात्मक ऊर्जा का स्थान माना जाता है। यहां पर लोग अपने दुःख-दर्द लेकर आते हैं तथा यहां पर आकर उनको मानसिक शांति का अनुभव होता है। इसलिए इनकी स्थापना करते समय हमें बहुत ही ध्यान रखना चाहिए। मंदिर को बहुत ही सकारात्मक ऊर्जा का क्षेत्र बनाना चाहिए। जब मंदिर के लिए भूमि पूजन होते हैं व वहां पर मूर्ति की स्थापना होनी होती है, वहां पर नव धान्य नवरत्न गाड़ देते हैं तथा वहां पर गायमूत्र छिड़कते थे | मंदिर में हमेशा मंत्रोंच्चारण होते रहते हैं तथा हवन व यज्ञ होते रहते हैं जिससे मंदिर की सकारात्मक ऊर्जा बनी रहती है| भगवान को फूलों से अलंकृत किया जाता है क्योंकि प्रत्येक फूल का ऊर्जा क्षेत्र मानव के ऊर्जा से अधिक होता है इसलिए दक्षिण भारत की स्त्रियां अपने बालों में फूलों व गजरों का प्रयोग करती हैं। पूजा के समय हाथ में कलावा बांधा जाता है। यह बाहरी नकारात्मक ऊर्जा को रोकता है तथा शरीर के अंदर की ऊर्जा को खींचता है। जब इसका रंग फीका पड़ने लगे या अधिक से अधिक नौ दिनों में हमें इसे अपने हाथ से खोल देना चाहिए। वेद मंत्रों का उच्चारण कपूर आदि जलाकर मंदिर की सकारात्मक ऊर्जा इतनी बढ़ायी जाती है कि वहां पर जाकर हमें एक आत्मिक आनंद का अहसास होता है। भारत में कई तीर्थ स्थल ऐसे हैं, जिनका अपना एक विशेष महत्व है तथा वह ऐसी ऊर्जा ग्रहित क्षेत्रों में स्थापित किये गये हैं कि वहां जाने पर वहां की सकारात्मक ऊर्जा हमारी नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट कर देती है|
'' स्त्रियाँ क्योँ लगाती हैँ माँग मेँ सिन्दूर ''
स्त्रियाँ क्योँ लगाती हैँ माँग मेँ सिन्दूर और इसकी वैज्ञानिकता क्या?
(1)भारतीय वैदिक परंपरा खासतौर पर हिंदू समाज में शादी के बाद महिलाओं को मांग में सिंदूर भर
ना
आवश्यक हो जाता है। आधुनिक दौर में अब सिंदूर की जगह कुंकु और अन्य चीजों
ने ले ली है। सवाल यह उठता है कि आखिर सिंदूर ही क्यों लगाया जाता है।
दरअसल इसके पीछे एक बड़ा वैज्ञानिक कारण है। यह मामला पूरी तरह स्वास्थ्य
से जुड़ा है। सिर के उस स्थान पर जहां मांग भरी जाने की परंपरा है,
मस्तिष्क की एक महत्वपूर्ण ग्रंथी होती है, जिसे ब्रह्मरंध्र कहते हैं। यह
अत्यंत संवेदनशील भी होती है।
यह मांग के स्थान यानी कपाल के अंत से लेकर सिर के मध्य तक होती है। सिंदूर इसलिए लगाया जाता है क्योंकि इसमें पारा नाम की धातु होती है। पारा ब्रह्मरंध्र के लिए औषधि का काम करता है। महिलाओं को तनाव से दूर रखता है और मस्तिष्क हमेशा चैतन्य अवस्था में रखता है। विवाह के बाद ही मांग इसलिए भरी जाती है क्योंकि विवाहके बाद जब गृहस्थी का दबाव महिला पर आता है तो उसे तनाव, चिंता और अनिद्रा जैसी बीमारिया आमतौर पर घेर लेती हैं।पारा एकमात्र ऐसी धातु है जो तरल रूप में रहती है। यह मष्तिष्क के लिए लाभकारी है, इस कारण सिंदूर मांग में भरा जाता है।
(2)मांग में सिंन्दूर भरना औरतों के लिए सुहागिन होने की निशानी माना जाता है। विवाह के समय वर द्वारा वधू की मांग मे सिंदूर भरने के संस्कार को सुमंगली क्रिया कहते हैं।
इसके बाद विवाहिता पति के जीवित रहने तक आजीवन अपनी मांग में सिन्दूर भरती है। हिंदू धर्म के अनुसार मांग में सिंदूर भरना सुहागिन होने का प्रतीक है। सिंदूर नारी श्रंगार का भी एक महत्तवपूर्ण अंग है। सिंदूर मंगल-सूचक भी होता है। शरीर विज्ञान में भी सिंदूर का महत्त्व बताया गया है।
सिंदूर में पारा जैसी धातु अधिक होनेके कारण चेहरे पर जल्दी झुर्रियां नहीं पडती। साथ ही इससे स्त्री के शरीर में स्थित विद्युतीय उत्तेजना नियंत्रित होती है। मांग में जहां सिंदूर भरा जाता है, वह स्थान ब्रारंध्र और अध्मि नामक मर्म के ठीक ऊपर होता है।
सिंदूर मर्म स्थान को बाहरी बुरे प्रभावों से भी बचाता है। सामुद्रिक शास्त्र में अभागिनी स्त्री के दोष निवारण के लिए मांग में सिंदूर भरने की सलाह दी गई है।
यह मांग के स्थान यानी कपाल के अंत से लेकर सिर के मध्य तक होती है। सिंदूर इसलिए लगाया जाता है क्योंकि इसमें पारा नाम की धातु होती है। पारा ब्रह्मरंध्र के लिए औषधि का काम करता है। महिलाओं को तनाव से दूर रखता है और मस्तिष्क हमेशा चैतन्य अवस्था में रखता है। विवाह के बाद ही मांग इसलिए भरी जाती है क्योंकि विवाहके बाद जब गृहस्थी का दबाव महिला पर आता है तो उसे तनाव, चिंता और अनिद्रा जैसी बीमारिया आमतौर पर घेर लेती हैं।पारा एकमात्र ऐसी धातु है जो तरल रूप में रहती है। यह मष्तिष्क के लिए लाभकारी है, इस कारण सिंदूर मांग में भरा जाता है।
(2)मांग में सिंन्दूर भरना औरतों के लिए सुहागिन होने की निशानी माना जाता है। विवाह के समय वर द्वारा वधू की मांग मे सिंदूर भरने के संस्कार को सुमंगली क्रिया कहते हैं।
इसके बाद विवाहिता पति के जीवित रहने तक आजीवन अपनी मांग में सिन्दूर भरती है। हिंदू धर्म के अनुसार मांग में सिंदूर भरना सुहागिन होने का प्रतीक है। सिंदूर नारी श्रंगार का भी एक महत्तवपूर्ण अंग है। सिंदूर मंगल-सूचक भी होता है। शरीर विज्ञान में भी सिंदूर का महत्त्व बताया गया है।
सिंदूर में पारा जैसी धातु अधिक होनेके कारण चेहरे पर जल्दी झुर्रियां नहीं पडती। साथ ही इससे स्त्री के शरीर में स्थित विद्युतीय उत्तेजना नियंत्रित होती है। मांग में जहां सिंदूर भरा जाता है, वह स्थान ब्रारंध्र और अध्मि नामक मर्म के ठीक ऊपर होता है।
सिंदूर मर्म स्थान को बाहरी बुरे प्रभावों से भी बचाता है। सामुद्रिक शास्त्र में अभागिनी स्त्री के दोष निवारण के लिए मांग में सिंदूर भरने की सलाह दी गई है।
Monday, 10 December 2012
भारतीय विद्यानों ने सात लोगों को चिरंजीवी माना है :-
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनुमांन विभीषण।कृप: परशुराम सप्तैते चिरंजीवीतः||
अश्वत्थामा, राजा बलि, महर्षि वेद व्यास, हनुमान , विभीषण , कृपाचार्य व परुशाराम को चिरंजीवी माना गया है | इसी श्रृंखला में हनुमान जी का नाम सबसे पहले आता है क्योंकि हनुमान जी का लक्ष्य इनमे सबसे बडा है, बल्कि अनन्त है। उसे एक सामान्य मानव जीवन अवधि तो क्या ऊपर वर्णित दीर्घायु में भी प्राप्त करना संभव नहीं। यह तो तभी संभव है जब प्राणी अनन्त समय तक अहर्निश सशरीर प्रयास रत रहे। अब प्रश्न उठता है कौन सा है वह लक्ष्य है व क्यों होती है आवश्यकता उसे पाने के लिए अहर्निश प्रयास की | वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के चालीसवें सत्र में इस बारे में प्रकाश डाला गया है। लंका विजय कर अयोध्या लौटने पर जब श्रीराम उन्हें युद्घ में सहायता देने वाले विभीषण, सुग्रीव, अंगद आदि को कृतज्ञता स्वरूप उपहार देते हैं तो हनुमान जी श्री राम से याचना करते हैं कि-
यावद् रामकथा वीर चरिष्यति महीतले। तावच्छरीरे वत्स्युन्तु प्राणामम न संशय: ||"
अर्थात हे वीर श्रीराम ! इस पृथ्वी पर जब तक रामकथा प्रचलित रहे, तब तक निस्संदेह मेरे प्राण इस शरीर में बसे रहे।"" इस पर श्रीराम उन्हें आशीर्वाद देते है कि-
एवमेतत् कपिश्रेष्ठ भविता नात्र संशय:। चरिष्यति कथा यावदेषा लोके च मामिका तावत् ते भविता कीर्ति: शरीरे प्यवस्तथा। लोकाहि यावत्स्थास्यन्ति तावत् स्थास्यन्ति में कथा ।
अर्थात् ""हे कपिश्रेष्ठ। ऎसा ही होगा। इसमें संदेह नहीं है। संसार में मेरी कथा जब तक प्रचलित रहेगी, तब तक तुम्हारी कीर्ति अमिट रहेगी और तुम्हारे शरीर में प्राण भी रहेंगे ही। जब तक ये लोक बने रहेंगे, तब तक मेरी कथाएं भी स्थिर रहेगी।"" स्पष्ट है हनुमान जी ने जब श्रीराम कथा के प्रचलित रहने तक शरीर में प्राण रखने की कामना प्रकट की तो श्रीराम ने उन्हें न केवल तब तक उनके शरीर में प्राण रहने का आर्शीवाद दिया अपितु इन लोकों अर्थात् ब्रह्माण्ड के बने रहने तक रामकथा के स्थिर रहने का वचन भी दिया।सीधे शब्दों में कहा जा सकता है कि जब तक यह ब्रह्माण्ड रहेगा रामकथा स्थिर रहेगी और रामकथा की स्थिरता तक हनुमान जी सशरीर विद्यमान रहेगें। राम चरित मानस में माँ जानकी ने भी उन्हें अजर एवं अमर होने का आर्शीवाद दिया है।
अजर अमर गुन निधि सुत होहु। करहु बहुत रघुनायक छोहु
स्पष्ट है हनुमान जी 6 चिरंजीवियों से भी आगे बढकर अजर एवं अमर हैं और फिर वे अजर एवं अमर क्यों नहीं हो जब इन्होंने संकल्प लिया है कि -
वांछितार्थ प्रदस्यामि भक्तानां राघवस्य तु। सर्वदा जागरूको स्मि, राम कार्य धुरंधर: ।
श्री राम रहस्योपनिषद में उनकी यह घोषणा है कि वह श्रीराम के भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने के लिए संकल्पित एवं मनसा-वाचा-कर्मणा सचेष्ट हैं। वह राम काज करने में न केवल धुरंधर हैं अपितु सदैव सजग एवं क्रियाशील भी हैं। रामकाज प्रारम्भ करने पर उसे पूर्ण किये बिना विश्राम लेना उन्हें तनिक भी पसन्द नहीं।
उनकी रामकथा सुनने
की आतुरता एवं रामकाज के प्रति उत्साह की झलक हमें हर युग में मिलती है।
त्रेता युग में दशरथ पुत्र श्रीराम की सेवा में अपलक समर्पित हैं तो द्वापर
में अर्जुन के रथ के ध्वज पर आसीन होकर महाभारत के चक्षुदर्शी साक्षी है।
महाभारत की समाप्त पर भीम के बल दर्प को दूर करने के लिए वृद्ध बानर के
रूप में प्रस्तुत हैं तो कलियुग में भक्त कवि तुलसीदास को चित्रकूट के घाट
पर श्रीराम के दर्शन कराने के लिए विप्ररूप में उपस्थित हैं। ये कुछ घटनाएं
मात्र उदाहरण स्वरूप हैं वरना वे प्रतिदिन उन करोडों लोगों की प्रत्यक्ष
अप्रत्यक्ष सहायता करते हैं जो श्रीराम का स्मरण करते हैं और हाँ वे उनके
सामने सशरीर प्रकट होने को भी आतुर हैं जो उन्हें अपने दृढ संकल्प, अगाध
श्रद्घा एवं पूर्ण समर्पण से प्राप्त करने की क्षमता एवं पात्रता रखते हैं।
'' भगवान के चौबीस अवतार ''
श्रीमद्भागवत कथा मे सुना ......सुबह शाम भगवान के चौबीस अवतारों का नामों का स्मरण करने से दुःख और क्लेश से मुक्ति मिलती है ।पुराणानुसार चौबीस अवतार कहे जाते हैं।
सनकादि ऋषि: (ब्रह्मा के चार पुत्र)
नारद
वाराह
मत्स्य
यज्ञ (विष्णु कुछ काल के लिये इंद्र रूप में)
नर-नारायण
कपिल
दत्तात्रेय
हयग्रीव
हंस पुराण।हंस
पृष्णिगर्भ
ऋषभदेव
पृथु
नृसिंह
कूर्म
धनवंतरी
मोहिनी
वामन
परशुराम
राम
व्यास
कृष्ण
बलराम
गौतम बुद्ध
कल्कि
Sunday, 9 December 2012
'' चरणामृत का क्या महत्व है? ''
चरणामृत का क्या महत्व है?
अक्सर जब हम मंदिर जाते है तो पंडित जी हमें भगवान का चरणामृत देते है.क्या कभी हमने ये जानने की कोशिश की.कि चरणामृतका क्या महत्व है शास्त्रों में कहा गया है
अक्सर जब हम मंदिर जाते है तो पंडित जी हमें भगवान का चरणामृत देते है.क्या कभी हमने ये जानने की कोशिश की.कि चरणामृतका क्या महत्व है शास्त्रों में कहा गया है
अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णो: पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ।।
"अर्थात भगवान विष्णु के चरण का अमृत रूपी जल समस्त पाप- व्याधियोंका शमन करने वाला है तथा औषधी के समान है।जो चरणामृत पीता है उसका पुनः जन्म नहीं होता"जल तब तक जल ही रहता है जब तक भगवान के चरणों से नहीं लगता,जैसे ही भगवान के चरणों से लगा तो अमृत रूप हो गया और चरणामृत बन जाता है.
जब भगवान का वामन अवतार हुआ,और वे राजा बलि की यज्ञ शाला में दान लेने गए तब उन्होंने तीन पग में तीन लोक नाप लिए जब उन्होंने पहले पग में नीचे के लोक नाप लिए और दूसरे मेंऊपर के लोक नापने लगे तो जैसे ही ब्रह्म लोक में उनका चरण गया तो ब्रह्मा जी ने अपने कमंडलु में से जल लेकरभगवान के चरण धोए और फिर चरणामृतको वापस अपनेकमंडल में रख लिया.वह चरणामृत गंगा जी बन गई,जो आज भी सारी दुनिया के पापों को धोती है,ये शक्ति उनके पास कहाँ से आई ये शक्ति है भगवान के चरणों की.जिस पर ब्रह्मा जी ने साधारण जल चढाया था पर चरणों का स्पर्श होते ही बन गई गंगा जी .जब हम बाँके बिहारी जीकीआरती गाते है तो कहते है -
"चरणों से निकली गंगा प्यारी , जिसने सारी दुनिया तारी "
धर्म में इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है तथा मस्तक से लगाने के बाद इसका सेवनकिया जाता है।
चरणामृत का सेवन अमृत के समान माना गया है।कहते हैं भगवान श्री राम के चरण धोकर उसे चरणामृत के रूप में स्वीकार कर केवट न केवल स्वयं भव-बाधा से पार हो गया बल्कि उसने अपने पूर्वजों को भी तार दिया।
चरणामृत का महत्व सिर्फ धार्मिक ही नहीं चिकित्सकीय भी है।चरणामृत का जल हमेशा तांबे के पात्र में रखा जाता है।आयुर्वेदिक मतानुसार तांबे के पात्र में अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति होती है जो उसमें रखे जल में आ जाती है।उस जल का सेवन करने से शरीर में रोगों से लडऩे की क्षमता पैदा हो जाती है तथा रोग नहीं होते।इसमें तुलसी के पत्ते डालने की परंपरा भी है जिससे इस जल की रोगनाशक क्षमता और भी बढ़ जाती है।तुलसी के पत्ते पर जल इतने परिमाण में होना चाहिए कि सरसों का दाना उसमें डूब जाए।ऐसा माना जाता है कि तुलसी चरणामृत लेने से मेधा, बुद्धि, स्मरण शक्ति को बढ़ाता है।इसीलिए यह मान्यता है कि भगवान का चरणामृत औषधी के समान है। यदि उसमें तुलसी पत्र भी मिला दिया जाए तो उसके औषधीय गुणों में और भी वृद्धि हो जाती है।कहते हैं सीधे हाथ में तुलसी चरणामृत ग्रहण करने से हर शुभ काम या अच्छे काम का जल्द परिणाम मिलता है। इसीलिए चरणामृत हमेशा सीधे हाथ से लेना चाहिये, लेकिन चरणामृत लेने के बाद अधिकतर लोगों की आदत होती है कि वे अपना हाथ सिर पर फेरते हैं।
चरणामृत लेने के बाद सिर पर हाथ रखना सही है या नहीं यह बहुत कम लोग जानते हैं?दरअसल शास्त्रों के अनुसार चरणामृत लेकर सिर पर हाथ रखना अच्छा नहीं माना जाता है।कहते हैंइससेविचारोंमेंसकारात्मकता नहीं बल्कि नकारात्मकता बढ़ती है।इसीलिए चरणामृत लेकर कभी भी सिर पर हाथ नहीं फेरना चाहिए।..
विष्णो: पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ।।
"अर्थात भगवान विष्णु के चरण का अमृत रूपी जल समस्त पाप- व्याधियोंका शमन करने वाला है तथा औषधी के समान है।जो चरणामृत पीता है उसका पुनः जन्म नहीं होता"जल तब तक जल ही रहता है जब तक भगवान के चरणों से नहीं लगता,जैसे ही भगवान के चरणों से लगा तो अमृत रूप हो गया और चरणामृत बन जाता है.
जब भगवान का वामन अवतार हुआ,और वे राजा बलि की यज्ञ शाला में दान लेने गए तब उन्होंने तीन पग में तीन लोक नाप लिए जब उन्होंने पहले पग में नीचे के लोक नाप लिए और दूसरे मेंऊपर के लोक नापने लगे तो जैसे ही ब्रह्म लोक में उनका चरण गया तो ब्रह्मा जी ने अपने कमंडलु में से जल लेकरभगवान के चरण धोए और फिर चरणामृतको वापस अपनेकमंडल में रख लिया.वह चरणामृत गंगा जी बन गई,जो आज भी सारी दुनिया के पापों को धोती है,ये शक्ति उनके पास कहाँ से आई ये शक्ति है भगवान के चरणों की.जिस पर ब्रह्मा जी ने साधारण जल चढाया था पर चरणों का स्पर्श होते ही बन गई गंगा जी .जब हम बाँके बिहारी जीकीआरती गाते है तो कहते है -
"चरणों से निकली गंगा प्यारी , जिसने सारी दुनिया तारी "
धर्म में इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है तथा मस्तक से लगाने के बाद इसका सेवनकिया जाता है।
चरणामृत का सेवन अमृत के समान माना गया है।कहते हैं भगवान श्री राम के चरण धोकर उसे चरणामृत के रूप में स्वीकार कर केवट न केवल स्वयं भव-बाधा से पार हो गया बल्कि उसने अपने पूर्वजों को भी तार दिया।
चरणामृत का महत्व सिर्फ धार्मिक ही नहीं चिकित्सकीय भी है।चरणामृत का जल हमेशा तांबे के पात्र में रखा जाता है।आयुर्वेदिक मतानुसार तांबे के पात्र में अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति होती है जो उसमें रखे जल में आ जाती है।उस जल का सेवन करने से शरीर में रोगों से लडऩे की क्षमता पैदा हो जाती है तथा रोग नहीं होते।इसमें तुलसी के पत्ते डालने की परंपरा भी है जिससे इस जल की रोगनाशक क्षमता और भी बढ़ जाती है।तुलसी के पत्ते पर जल इतने परिमाण में होना चाहिए कि सरसों का दाना उसमें डूब जाए।ऐसा माना जाता है कि तुलसी चरणामृत लेने से मेधा, बुद्धि, स्मरण शक्ति को बढ़ाता है।इसीलिए यह मान्यता है कि भगवान का चरणामृत औषधी के समान है। यदि उसमें तुलसी पत्र भी मिला दिया जाए तो उसके औषधीय गुणों में और भी वृद्धि हो जाती है।कहते हैं सीधे हाथ में तुलसी चरणामृत ग्रहण करने से हर शुभ काम या अच्छे काम का जल्द परिणाम मिलता है। इसीलिए चरणामृत हमेशा सीधे हाथ से लेना चाहिये, लेकिन चरणामृत लेने के बाद अधिकतर लोगों की आदत होती है कि वे अपना हाथ सिर पर फेरते हैं।
चरणामृत लेने के बाद सिर पर हाथ रखना सही है या नहीं यह बहुत कम लोग जानते हैं?दरअसल शास्त्रों के अनुसार चरणामृत लेकर सिर पर हाथ रखना अच्छा नहीं माना जाता है।कहते हैंइससेविचारोंमेंसकारात्मकता नहीं बल्कि नकारात्मकता बढ़ती है।इसीलिए चरणामृत लेकर कभी भी सिर पर हाथ नहीं फेरना चाहिए।..
'' हमेशा अच्छा करो ''
एक औरत अपने परिवार के सदस्यों के लिए रोजाना भोजन पकाती थी और एक रोटी वह वहां से ...गुजरने वाले किसी भी भूखे के लिए पकाती थी ,वह उस रोटी को खिड़की के सहारे रख दिया करती थी जिसे कोई भी ले सकता था .एक कुबड़ा व्यक्ति रोज उस रोटी को ले जाता और वजाय धन्यवाद देने के अपने रस्ते पर चलता हुआ वह कुछ इस तरह बडबडाता "जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा "
दिन गुजरते गए और ये सिलसिला चलता रहा ,वो कुबड़ा रोज रोटी लेके जाता रहा और इन्ही शब्दों को बडबडाता"जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा "
वह औरत उसकी इस हरकत से तंग आ गयी और मन ही मन खुद से कहने लगी कि "कितना अजीब व्यक्ति है ,एक शब्द धन्यवाद का तो देता नहीं है और न जाने क्या क्या बडबडाता रहता है ,
मतलब क्या है इसका ".एक दिन क्रोधित होकर उसने एक निर्णय लिया और बोली "मैं इस कुबड़े से निजात पाकर रहूंगी ".और उसने क्या किया कि उसने उस रोटी में जहर मिला दीया जो वो रोज उसके लिए बनाती थी और जैसे ही उसने रोटी को को खिड़की पर रखने कि कोशिश कि अचानक उसके हाथ कांपने लगे और रुक गये और वह बोली "हे भगवन मैं ये क्या करने जा रही थी ?" और उसने तुरंत उस रोटी को चूल्हे कि आँच में जला दीया .एक ताज़ा रोटी बनायीं और खिड़की के सहारे रख दी ,
हर रोज कि तरह वह कुबड़ा आया और रोटी लेके "जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा " बडबडाता हुआ चला गया इस बात से बिलकुल बेखबर कि उस महिला के दिमाग में क्या चल रहा है .हर रोज जब वह महिला खिड़की पर रोटी रखती थी तो वह भगवान से अपने पुत्र कि सलामती और अच्छी सेहत और घर वापसी के लिए प्रार्थना करती थी जो कि अपने सुन्दर भविष्य के निर्माण के लिए कहीं बाहर गया हुआ था .महीनों से उसकी कोई खबर नहीं थी.
शाम को उसके दरवाजे पर एक दस्तक होती है ,वह दरवाजा खोलती है और भोंचक्की रह जाती है ,
अपने बेटे को अपने सामने खड़ा देखती है.वह पतला और दुबला हो गया था. उसके कपडे फटे हुए थे और वह भूखा भी था ,भूख से वह कमजोर हो गया था. जैसे ही उसने अपनी माँ को देखा,उसने कहा, "माँ, यह एक चमत्कार है कि मैं यहाँ हूँ. जब मैं एक मील दूर है, मैं इतना भूखा था कि मैं गिर. मैं मर गया होता,
लेकिन तभी एक कुबड़ा वहां से गुज़र रहा था ,उसकी नज़र मुझ पर पड़ी और उसने मुझे अपनी गोद में उठा लीया,भूख के मरे मेरे प्राण निकल रहे थे , मैंने उससे खाने को कुछ माँगा ,उसने नि:संकोच अपनी रोटी मुझे यह कह कर दे दी कि "मैं हर रोज यही खाता हूँ लेकिन आज मुझसे ज्यादा जरुरत इसकी तुम्हें है सो ये लो और अपनी भूख को तृप्त करो " .जैसे ही माँ ने उसकी बात सुनी माँ का चेहरा पिला पड़ गया और अपने आप को सँभालने के लिए उसने दरवाजे का सहारा लीया ,उसके मस्तिष्क में वह बात घुमने लगी कि कैसे उसने सुबह रोटी में जहर मिलाया था.अगर उसने वह रोटी आग में जला के नष्ट नहीं की होती तो उसका बेटा उस रोटी को खा लेता और अंजाम होता उसकी मौतऔर इसके बाद उसे उन शब्दों का मतलब बिलकुल स्पष्ट हो चूका था
"जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा।
" निष्कर्ष "
~हमेशा अच्छा करो और अच्छा करने से अपने आप को कभी मत रोको फिर चाहे उसके लिए उस समय आपकी सराहना या प्रशंसा हो या न हो .
-
अगर आपको ये कहानी पसंद आई हो तो इसे दूसरों के साथ शेयर करें , ये बहुत लोगों के जीवन को छुएगी .
वह औरत उसकी इस हरकत से तंग आ गयी और मन ही मन खुद से कहने लगी कि "कितना अजीब व्यक्ति है ,एक शब्द धन्यवाद का तो देता नहीं है और न जाने क्या क्या बडबडाता रहता है ,
मतलब क्या है इसका ".एक दिन क्रोधित होकर उसने एक निर्णय लिया और बोली "मैं इस कुबड़े से निजात पाकर रहूंगी ".और उसने क्या किया कि उसने उस रोटी में जहर मिला दीया जो वो रोज उसके लिए बनाती थी और जैसे ही उसने रोटी को को खिड़की पर रखने कि कोशिश कि अचानक उसके हाथ कांपने लगे और रुक गये और वह बोली "हे भगवन मैं ये क्या करने जा रही थी ?" और उसने तुरंत उस रोटी को चूल्हे कि आँच में जला दीया .एक ताज़ा रोटी बनायीं और खिड़की के सहारे रख दी ,
हर रोज कि तरह वह कुबड़ा आया और रोटी लेके "जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा " बडबडाता हुआ चला गया इस बात से बिलकुल बेखबर कि उस महिला के दिमाग में क्या चल रहा है .हर रोज जब वह महिला खिड़की पर रोटी रखती थी तो वह भगवान से अपने पुत्र कि सलामती और अच्छी सेहत और घर वापसी के लिए प्रार्थना करती थी जो कि अपने सुन्दर भविष्य के निर्माण के लिए कहीं बाहर गया हुआ था .महीनों से उसकी कोई खबर नहीं थी.
शाम को उसके दरवाजे पर एक दस्तक होती है ,वह दरवाजा खोलती है और भोंचक्की रह जाती है ,
अपने बेटे को अपने सामने खड़ा देखती है.वह पतला और दुबला हो गया था. उसके कपडे फटे हुए थे और वह भूखा भी था ,भूख से वह कमजोर हो गया था. जैसे ही उसने अपनी माँ को देखा,उसने कहा, "माँ, यह एक चमत्कार है कि मैं यहाँ हूँ. जब मैं एक मील दूर है, मैं इतना भूखा था कि मैं गिर. मैं मर गया होता,
लेकिन तभी एक कुबड़ा वहां से गुज़र रहा था ,उसकी नज़र मुझ पर पड़ी और उसने मुझे अपनी गोद में उठा लीया,भूख के मरे मेरे प्राण निकल रहे थे , मैंने उससे खाने को कुछ माँगा ,उसने नि:संकोच अपनी रोटी मुझे यह कह कर दे दी कि "मैं हर रोज यही खाता हूँ लेकिन आज मुझसे ज्यादा जरुरत इसकी तुम्हें है सो ये लो और अपनी भूख को तृप्त करो " .जैसे ही माँ ने उसकी बात सुनी माँ का चेहरा पिला पड़ गया और अपने आप को सँभालने के लिए उसने दरवाजे का सहारा लीया ,उसके मस्तिष्क में वह बात घुमने लगी कि कैसे उसने सुबह रोटी में जहर मिलाया था.अगर उसने वह रोटी आग में जला के नष्ट नहीं की होती तो उसका बेटा उस रोटी को खा लेता और अंजाम होता उसकी मौतऔर इसके बाद उसे उन शब्दों का मतलब बिलकुल स्पष्ट हो चूका था
"जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा।
" निष्कर्ष "
~हमेशा अच्छा करो और अच्छा करने से अपने आप को कभी मत रोको फिर चाहे उसके लिए उस समय आपकी सराहना या प्रशंसा हो या न हो .
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Friday, 7 December 2012
यदि
कर्म का फल तुरन्त नहीं मिलता तो इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि उसके
भले-बुरे परिणाम से हम सदा के लिए बच गयें । कर्म-फल एक ऐसा अमिट तथ्य है
जो आज नहीं तो कल भुगतना अवश्य ही पड़ेगा । कभी-कभी इन परिणामों में देर
इसलिये होती है कि ईश्वर मानवीय बुद्धि की परीक्षा करना चाहता है कि
व्यक्ति अपने कर्तव्य-धर्म समझ सकने और निष्ठापूर्वक पालन करने लायक विवेक
बुद्धि संचित कर सका या नहीं । जो दण्ड भय से डरे बिना दुष्कर्मों से बचना
मनुष्यता का गौरव समझता है और सदा सत्कर्मों तक ही सीमित रहता है, समझना
चाहिए कि उसने सज्जनता की परीक्षा पास कर ली और पशुता से देवत्व की और बढऩे
का शुभारम्भ कर दिया ।,,,,,,,,,,,,,
भगवान से जो मदद चाहता है उसे मदद मिलती है। जो यह प्रार्थना करता है कि हे भगवान् ! मेरा मन निरन्तर भजन-ध्यान में लगा रहे तो उसे भगवान् मदद देते हैं। सामान्य मदद तो सभी को है किन्तु विशेष मदद जो चाहता है, उसे दी जाती है। इसलिये उनसे प्रार्थना करनी चाहिये जिससे कि वह स्थिति छूटे नहीं। जिसका ऐसा विश्वास होता कि मैं भगवान् की शरण हूँ-मेरी धारणाको दृढ़ और अन्तःकरण शुद्धि भगवान् ही करते हैं, उसकी हो जाती है। एक सज्जन चाहते हैं कि मैं अमुक आज्ञानुकूल चेष्टा करूँ, कभी-कभी कुछ चेष्टा करते भी हैं पर मौका पड़ने पर पीछे हट जाते हैं तो यही समझना चाहिये कि उसका इस बातमें पूरा विश्वास नहीं है कि चाहे प्राण भले ही चले जायँ इनकी आज्ञा ही पालनीय है। अगर भगवान में पूरा विश्वास करके भगवान् से मदद माँगे तो भगवान इसके लिये भी मदद दे सकते हैं।,,,,,,,,,,,
Sunday, 18 November 2012
'' बिल्वपत्र ''
एक
कथा के अनुसार श्रीविष्णु पत्नी लक्ष्मी ने शंकर के प्रिय श्रावण माह में
शिवलिंग पर प्रतिदिन 1001 सफेद कमल अर्पण करने का निश्चय किया। स्वर्ण
तश्तरी में उन्होंने गिनती के कमल रखे, लेकिन मंदिर पहुँचने पर तीन कमल
अपने आप कम हो जाते थे। सो मंदिर पहुँचकर उन्होंने उन कमलों पर जल छींटा,
तब उसमें से एक पौधे का निर्माण हुआ। इस पर त्रिदल ऐसे हजारों पत्ते थे,
जिन्हें तोड़कर लक्ष्मी शिवलिंग पर चढ़ाने लगीं, सो त्रिदल के कम होने का
तो सवाल ही खत्म हो गया।और लक्ष्मी ने भक्ति के सामर्थ्य पर
निर्माण किए बिल्वपत्र शिव को प्रिय हो गए। लक्ष्मी यानी धन-वैभव, जो कभी
बासी नहीं होता। यही वजह है कि लक्ष्मी द्वारा पैदा किया गया बिल्वपत्र भी
वैसा ही है। ताजा बिल्वपत्र न मिलने की दशा में शिव को अर्पित बिल्वपत्र
पुनः चढ़ाया जा सकता है। बिल्वपत्र का वृक्ष प्रकृति का मनुष्य को दिया
वरदान है।,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
जय भोले नाथ..............
Saturday, 17 November 2012
अरण्यकाण्ड का प्रसंग है,
एक बार भगवान श्रीराम सुन्दर फूलो को चुनकर अपने हाथो सेभांति-भांति के गहने बनाकर सीताजी को पहना रहे थे,सीता जी को आश्चर्य हुआ, प्रभु येआप क्या कर रहे है? ये तो मेरा काम है, मानो भगवान बताना चाहते है,पत्नी तो सदा हीसेवा करती है. कुछ उसके प्रति हमारा भी कर्तव्य है. और यहाँ से जानकी जी को अपनीलीला का आरंभ करना है,तो मानो भगवान उनको हार पहनाकर उनका स्वागत कर रहे है कि देवीअपनी लीला का श्रीगणेश करो.यही श्रेष्ठ दाम्पत्य जीवन है.
तभी इंद्र का पुत्र जयंत कौआ का वेष बनाकर सीता जी के चरणों में चोच मारकर भागा, जबरक्त बह चला तब रघुनाथ जी ने जाना और सरकंडे का बाण संधान किया और मंत्र से प्रेरितबाण उस कौए के पीछे दौड़ा.कभी किसी के दाम्पत्य जीवन में चोच मत मारो, जो ऐसा करते है, वे कौए ही है, क्योकिहंस ऐसा कभी नहीं करते. जिस सम्बन्ध को विधाता ने जोड़ा है हमें कोई अधिकार नहीं हमउनके जीवन में विक्षेप डाले. जयंत अपने पिता इंद्र के पास गया, पर श्रीराम काविरोधी जान, उन्होंने उसे नहीं रखा, ब्रह्मलोक, शिवलोक समस्त लोको में गया.रखना तोदूर उसे किसी ने बैठने को भी नहीं कहा.क्यों ?क्योकि अपराध किसी का करे और क्षमाकिसी और से माँगे.
नारद जी मिले संत है उनका ह्रदय कोमल होता है बोले - जिनका अपराध किया उसी के पासजाओ. हम भी अपराध करते है परिवार का, समाज का, और जब उसका दंड भोगना पडता है, तोशनि राहू केतु को दोष देते है और क्षमा मांगनी पड़ती है तो हनुमान जी के मंदिर मेंघी का दीपक जलाते है.वे भी यही कहते है जिसका अपराध किया उसके पास जाओ.
जयंत बोला - मेरी रक्षा तो पहले कीजिये.
नारद जी बोले - जयंत यदि ये बाण तुम्हे लगना होता तो कब का लग गया होता, एक पल मेंही तुम्हारा काम तमाम कर देता, प्रभु बड़े कृपालु है.
जयंत - मै उनसे क्या कहूँगा ?
नारद जी बोले - कहना पहले प्रभाव देखने आया था, अब स्वभाव देखने आया हूँ.कौआ कामांध था,
भगवान ने उसे द्रष्टि प्रदान की एक आँख से काना करके छोड़ दिया .।
बोलिए सीता पति रामचन्द्र भगवान की जय ,,,,
एक बार भगवान श्रीराम सुन्दर फूलो को चुनकर अपने हाथो सेभांति-भांति के गहने बनाकर सीताजी को पहना रहे थे,सीता जी को आश्चर्य हुआ, प्रभु येआप क्या कर रहे है? ये तो मेरा काम है, मानो भगवान बताना चाहते है,पत्नी तो सदा हीसेवा करती है. कुछ उसके प्रति हमारा भी कर्तव्य है. और यहाँ से जानकी जी को अपनीलीला का आरंभ करना है,तो मानो भगवान उनको हार पहनाकर उनका स्वागत कर रहे है कि देवीअपनी लीला का श्रीगणेश करो.यही श्रेष्ठ दाम्पत्य जीवन है.
तभी इंद्र का पुत्र जयंत कौआ का वेष बनाकर सीता जी के चरणों में चोच मारकर भागा, जबरक्त बह चला तब रघुनाथ जी ने जाना और सरकंडे का बाण संधान किया और मंत्र से प्रेरितबाण उस कौए के पीछे दौड़ा.कभी किसी के दाम्पत्य जीवन में चोच मत मारो, जो ऐसा करते है, वे कौए ही है, क्योकिहंस ऐसा कभी नहीं करते. जिस सम्बन्ध को विधाता ने जोड़ा है हमें कोई अधिकार नहीं हमउनके जीवन में विक्षेप डाले. जयंत अपने पिता इंद्र के पास गया, पर श्रीराम काविरोधी जान, उन्होंने उसे नहीं रखा, ब्रह्मलोक, शिवलोक समस्त लोको में गया.रखना तोदूर उसे किसी ने बैठने को भी नहीं कहा.क्यों ?क्योकि अपराध किसी का करे और क्षमाकिसी और से माँगे.
नारद जी मिले संत है उनका ह्रदय कोमल होता है बोले - जिनका अपराध किया उसी के पासजाओ. हम भी अपराध करते है परिवार का, समाज का, और जब उसका दंड भोगना पडता है, तोशनि राहू केतु को दोष देते है और क्षमा मांगनी पड़ती है तो हनुमान जी के मंदिर मेंघी का दीपक जलाते है.वे भी यही कहते है जिसका अपराध किया उसके पास जाओ.
जयंत बोला - मेरी रक्षा तो पहले कीजिये.
नारद जी बोले - जयंत यदि ये बाण तुम्हे लगना होता तो कब का लग गया होता, एक पल मेंही तुम्हारा काम तमाम कर देता, प्रभु बड़े कृपालु है.
जयंत - मै उनसे क्या कहूँगा ?
नारद जी बोले - कहना पहले प्रभाव देखने आया था, अब स्वभाव देखने आया हूँ.कौआ कामांध था,
भगवान ने उसे द्रष्टि प्रदान की एक आँख से काना करके छोड़ दिया .।
Friday, 16 November 2012
'' हनुमान जी का बुद्धि चातुर्य ''
‘अर्गलास्तोत्र’ का वह मूल मंत्र इस प्रकार है-
जय त्वं चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तुते॥
हनुमान जी ने वर याचना में ‘भूतार्तिहारिणि’ में ‘ह’ के स्थान पर ‘क’ उच्चारण करने का निवेदन किया, जिस पर ब्राह्मणों ने ‘तथास्तु’ कहा। इससे सब कुछ उलट गया। ‘भूतार्तिहारिणि’ का अर्थ होता है- ‘संपूर्ण प्राणियों की पीड़ा हरने वाली।’ जबकि अक्षर परिवर्तन से हो गया ‘भूतार्तिकारिणि।’ इसका शाब्दिक अर्थ होता है- ‘प्राणियों को पीडि़त करने वाली।’अर्थान्तर तथा अक्षर विपर्यय ने अपना प्रभाव दिखाया। विजय के बजाय दशानन का कुल समेत नाश हो गया। यह हनुमान जी के चातुर्य से ही संभव हुआ। इससे मंत्रों के सूक्ष्म ज्ञान पर बजरंगबली की मजबूत पकड़ का भी पता चलता है। वह श्रेष्ठ तांत्रिक भी थे। उनके बुद्धि चातुर्य से खुश होकर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने एक बार सीता जी से यह कहा था कि यदि उन्हें मारुतिनंदन का सहयोग लंका विजय में न मिला होता, तो वह सीता वियोगी ही बने रहते।
जय श्रीराम ।
Sunday, 4 November 2012
'' मोर पंख का महत्त्व ''
मोर पंख का महत्त्व
.प्राचीन काल से ही नजर उतारने व भगवान् की प्रतिमा के आगे वातावरण को
पवित्र करने के लिए मोर पंख का प्रयोग होता आया है.....निगम ग्रंथों में
भगवान् शिव माँ पार्वती को कहते हैं कि देवी योगिनी मंडल के रहस्य वो
नहीं जानता जिसने पक्षी शास्त्र में मोर का महत्त्व न जाना हो....तो
पार्वती माता पूछती हैं कि भगवान मोर पंख का रहस्य क्या हैं तो शिव उत्तर
देते हुए कहते हैं कि असुर कुल में संध्या नाम का प्रतापी दैत्य उत्त्पन्न
हुआ.....लेकिन वो गुरु शुकाचार्य के कारण देवताओं का शत्रु बन बैठा....
वो परम शिव भक्त था.....उसने विन्द्यांचल पर्वत पर कठोर तप कर मुझे
प्रसन्न किया....और अति बीर होने का वर प्राप्त किया.....ब्रह्मा जी भी
उसके घोर तप से प्रसन्न हुए.....बर प्राप्त करने के बाद वो हर एक घर में
अपना एक रूप बना कर विष्णु भक्तों को प्रताड़ित करने लगा....देवताओं पर
आक्रमण कर उसने अलकापुरी जीत ली....देवताओं को बंदी बना वो शिव आराधना में
फिर लीन हो गया....उसकी भक्ति के कारण भगवान् विष्णु भी उसका बध करने में
समर्थ नहीं थे.......तो सभी देव देवताओं ने मिल कर एक रन नीति तैयारकी .
जब में महासमाधि में लीन था....उस समय संध्या दैत्य सागर के तट पर अपनी
रानी के साथ विहार कर रहा था...तो देवताओं ने योगमाया को सहायता के लिए
पुकारा....सभी मात्र शक्तियों के तेज से व नव ग्रहों सहित देवताओं के तेज
से एक पक्षी पैदा हुया जो मोर कहलाया उस दिव्य मोर के पंखों में सभी देवी
देवता छुप गए और शक्ति बढ़ाने लगे....अति विशाल मोर को आक्रमण करने आया
देख संध्या दैत्य उससे युद्ध करने लगा लेकिन योगमाया भगवान् विष्णु सहित
नव ग्रहों एवं देवताओं की शक्ति से लड़ रही थी तो इसी कारण संध्या नाम का
दैत्य युद्द में वीरगति को प्राप्त हुया......हे पार्वती तभी से मोर के
पंखों में नव ग्रहों, देवी देवताओं सहित अन्य शक्तियों के अंश समाहित हो
गए.......इस लिए पक्षी शास्त्र में मोर...गरुड़ और उल्लूक के पंखों का
महत्त्व हो गया.....किन्तु केवल वहीँ पंख इन गुणों को संजोता हैं जो
स्वभावतय: पक्षी त्याग देता है....
बिभिन्न लाभ
मोर पंख वशीकरण...कार्यसिद्धि....भूत बाधा....रोग मुक्ति.....ग्रह वाधा....वास्तुदोष निग्रह आदि में बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया हैं...
सर पर धारण करने से विद्या लाभ मिलता है. सरस्वती माता के उपासक और विद्यार्थी पुस्तकों के मध्य अभिमंत्रित मोर पंख रख कर लाभ उठा सकते हैं.....मंत्र सिद्धि के लिए जपने वाली माला को मोर पंखों के बीच रखा जाता हैं....घर में अलग अलग स्थान पर मोर पंख रखने से घर का वास्तु बदला जा सकता है...नव ग्रहों की दशा से बचने के लिए भी होता है मोर पंख का प्रयोग......कक्ष में मोर पंख वातावरण को सकारात्मक बनाने में लाभदायक होता है......भूत प्रेत की बाधा भी मोर पंख से दूर होती है.....
ग्रह बाधा से मुक्ति
यदि आप पर कोई ग्रह अनिष्ट प्रभाव ले कर आया हो....आपको मंगल शनि या राहु केतु बार बार परेशान करते हों तो मोर पंख को 21 बार मंत्र सहित पानी के छीटे दीजिये और घर में स्थापित कीजिये...कुछ प्रयोग निम्न हैं
सूर्य की दशा से मुक्ति
रविवार के दिन नौ मोर पंख ले कर आयें
पंख के नीचे रक्तबर्ण या मेरून रंग का धागा बाँध लेँ
एक थाली में पंखों के साथ नौ सुपारियाँ रखें
गंगाजल छिड़कते हुए 21 बार ये मंत्र पढ़ें
ॐ सूर्याय नमः जाग्रय स्थापय स्वाहा:
दो नारियल सूर्य भगवान् को अर्पित करें
लड्डुओं का प्रसाद चढ़ाएं
चंद्रमा की दशा से मुक्ति
सोमवार के दिन आठ मोर पंख ले कर आयें
पंख के नीचे सफेद रंग का धागा बाँध लेँ
एक थाली में पंखों के साथ आठ सुपारियाँ रखें
गंगाजल छिड़कते हुए 21 बार ये मंत्र पढ़ें
ॐ सोमाय नमः जाग्रय स्थापय स्वाहा:
पांच पान के पत्ते चंद्रमा को अर्पित करें
बर्फी का प्रसाद चढ़ाएं
मंगल की दशा से मुक्ति
मंगलवार के दिन सात मोर पंख ले कर आयें
पंख के नीचे लाल रंग का धागा बाँध लेँ
एक थाली में पंखों के साथ सात सुपारियाँ रखें
गंगाजल छिड़कते हुए 21 बार ये मंत्र पढ़ें
ॐ भू पुत्राय नमः जाग्रय स्थापय स्वाहा:
दो पीपल के पत्तों पर अक्षत रख कर मंगल ग्रह को अर्पित करें
बूंदी का प्रसाद चढ़ाएं
बुद्ध की दशा से मुक्ति
बुद्धबार के दिन छ: मोर पंख ले कर आयें
पंख के नीचे हरे रंग का धागा बाँध लेँ
एक थाली में पंखों के साथ छ: सुपारियाँ रखें
गंगाजल छिड़कते हुए 21 बार ये मंत्र पढ़ें
ॐ बुधाय नमः जाग्रय स्थापय स्वाहा:
जामुन अथवा बेरिया बुद्ध ग्रह को अर्पित करें
केले के पत्ते पर मीठी रोटी का प्रसाद चढ़ाएं
बृहस्पति की दशा से मुक्ति
बीरवार के दिन पांच मोर पंख ले कर आयें
पंख के नीचे पीले रंग का धागा बाँध लेँ
एक थाली में पंखों के साथ पांच सुपारियाँ रखें
गंगाजल छिड़कते हुए 21 बार ये मंत्र पढ़ें
ॐ ब्रहस्पते नमः जाग्रय स्थापय स्वाहा:
ग्यारह केले बृहस्पति देवता को अर्पित करें
बेसन का प्रसाद बना कर चढ़ाएं
शुक्र की दशा से मुक्ति
शुक्रवार के दिन चार मोर पंख ले कर आयें
पंख के नीचे गुलाबी रंग का धागा बाँध लेँ
एक थाली में पंखों के साथ चार सुपारियाँ रखें
गंगाजल छिड़कते हुए 21 बार ये मंत्र पढ़ें
ॐ शुक्राय नमः जाग्रय स्थापय स्वाहा:
तीन मीठे पान शुक्र देवता को अर्पित करें
गुड चने का प्रसाद बना कर चढ़ाएं
शनि की दशा से मुक्ति
शनिवार के दिन तीन मोर पंख ले कर आयें
पंख के नीचे काले रंग का धागा बाँध लेँ
एक थाली में पंखों के साथ तीन सुपारियाँ रखें
गंगाजल छिड़कते हुए 21 बार ये मंत्र पढ़ें
ॐ शनैश्वराय नमः जाग्रय स्थापय स्वाहा:
तीन मिटटी के दिये तेल सहित शनि देवता को अर्पित करें
गुलाबजामुन या प्रसाद बना कर चढ़ाएं
राहु की दशा से मुक्ति
शनिवार के दिन सूर्य उदय से पूर्व दो मोर पंख ले कर आयें
पंख के नीचे भूरे रंग का धागा बाँध लेँ
एक थाली में पंखों के साथ दो सुपारियाँ रखें
गंगाजल छिड़कते हुए 21 बार ये मंत्र पढ़ें
ॐ राहवे नमः जाग्रय स्थापय स्वाहा:
चौमुखा दिया जला कर राहु को अर्पित करें
कोई भी मीठा प्रसाद बना कर चढ़ाएं
केतु की दशा से मुक्ति
शनिवार के दिन सूर्य अस्त होने के बाद एक मोर पंख ले कर आयें
पंख के नीचे स्लेटी रंग का धागा बाँध लेँ
एक थाली में पंख के साथ एक सुपारी रखें
गंगाजल छिड़कते हुए 21 बार ये मंत्र पढ़ें
ॐ केतवे नमः जाग्रय स्थापय स्वाहा:
पानी के दो कलश भर कर राहु को अर्पित करें
फलों का प्रसाद चढ़ाएं
वास्तु में सुधार
घर का द्वार यदि वास्तु के विरुद्ध हो तो द्वार पर तीन मोर पंख स्थापित करें , मंत्र से अभिमंत्रित कर पंख के नीचे गणपति भगवान का चित्र या छोटी प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए
मंत्र है-ॐ द्वारपालाय नम: जाग्रय स्थापय स्वाहा:
यदि पूजा का स्थान वास्तु के विपरीत है तो पूजा स्थान को इच्छानुसार मोर पंखों से सजाएँ, सभी मोर पंखो को कुमकुम का तिलक करें व शिवलिंग् की स्थापना करें पूजा घर का दोष मिट जाएगा, प्रस्तुत मंत्र से मोर पंखों को अभी मंत्रित करें
मंत्र है-ॐ कूर्म पुरुषाय नम: जाग्रय स्थापय स्वाहा:
यदि रसोईघर वास्तु के अनुसार न बना हो तो दो मोर पंख रसोईघर में स्थापित करें, ध्यान रखें कि भोजन बनाने वाले स्थान से दूर हो, दोनों पंखों के नीचे मौली बाँध लेँ, और गंगाजल से अभिमंत्रित करें
मंत्र-ॐ अन्नपूर्णाय नम: जाग्रय स्थापय स्वाहा:
और यदि शयन कक्ष वास्तु अनुसार न हो तो शैय्या के सात मोर पंखों के गुच्छे स्थापित करें, मौली के साथ कौड़ियाँ बाँध कर पंखों के मध्य भाग में सजाएं, सिराहने की और ही स्थापित करें, स्थापना का मंत्र है
मंत्र-ॐ स्वप्नेश्वरी देव्यै नम: जाग्रय स्थापय स्वाहा:
बिभिन्न लाभ
मोर पंख वशीकरण...कार्यसिद्धि....भूत बाधा....रोग मुक्ति.....ग्रह वाधा....वास्तुदोष निग्रह आदि में बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया हैं...
सर पर धारण करने से विद्या लाभ मिलता है. सरस्वती माता के उपासक और विद्यार्थी पुस्तकों के मध्य अभिमंत्रित मोर पंख रख कर लाभ उठा सकते हैं.....मंत्र सिद्धि के लिए जपने वाली माला को मोर पंखों के बीच रखा जाता हैं....घर में अलग अलग स्थान पर मोर पंख रखने से घर का वास्तु बदला जा सकता है...नव ग्रहों की दशा से बचने के लिए भी होता है मोर पंख का प्रयोग......कक्ष में मोर पंख वातावरण को सकारात्मक बनाने में लाभदायक होता है......भूत प्रेत की बाधा भी मोर पंख से दूर होती है.....
ग्रह बाधा से मुक्ति
यदि आप पर कोई ग्रह अनिष्ट प्रभाव ले कर आया हो....आपको मंगल शनि या राहु केतु बार बार परेशान करते हों तो मोर पंख को 21 बार मंत्र सहित पानी के छीटे दीजिये और घर में स्थापित कीजिये...कुछ प्रयोग निम्न हैं
सूर्य की दशा से मुक्ति
रविवार के दिन नौ मोर पंख ले कर आयें
पंख के नीचे रक्तबर्ण या मेरून रंग का धागा बाँध लेँ
एक थाली में पंखों के साथ नौ सुपारियाँ रखें
गंगाजल छिड़कते हुए 21 बार ये मंत्र पढ़ें
ॐ सूर्याय नमः जाग्रय स्थापय स्वाहा:
दो नारियल सूर्य भगवान् को अर्पित करें
लड्डुओं का प्रसाद चढ़ाएं
चंद्रमा की दशा से मुक्ति
सोमवार के दिन आठ मोर पंख ले कर आयें
पंख के नीचे सफेद रंग का धागा बाँध लेँ
एक थाली में पंखों के साथ आठ सुपारियाँ रखें
गंगाजल छिड़कते हुए 21 बार ये मंत्र पढ़ें
ॐ सोमाय नमः जाग्रय स्थापय स्वाहा:
पांच पान के पत्ते चंद्रमा को अर्पित करें
बर्फी का प्रसाद चढ़ाएं
मंगल की दशा से मुक्ति
मंगलवार के दिन सात मोर पंख ले कर आयें
पंख के नीचे लाल रंग का धागा बाँध लेँ
एक थाली में पंखों के साथ सात सुपारियाँ रखें
गंगाजल छिड़कते हुए 21 बार ये मंत्र पढ़ें
ॐ भू पुत्राय नमः जाग्रय स्थापय स्वाहा:
दो पीपल के पत्तों पर अक्षत रख कर मंगल ग्रह को अर्पित करें
बूंदी का प्रसाद चढ़ाएं
बुद्ध की दशा से मुक्ति
बुद्धबार के दिन छ: मोर पंख ले कर आयें
पंख के नीचे हरे रंग का धागा बाँध लेँ
एक थाली में पंखों के साथ छ: सुपारियाँ रखें
गंगाजल छिड़कते हुए 21 बार ये मंत्र पढ़ें
ॐ बुधाय नमः जाग्रय स्थापय स्वाहा:
जामुन अथवा बेरिया बुद्ध ग्रह को अर्पित करें
केले के पत्ते पर मीठी रोटी का प्रसाद चढ़ाएं
बृहस्पति की दशा से मुक्ति
बीरवार के दिन पांच मोर पंख ले कर आयें
पंख के नीचे पीले रंग का धागा बाँध लेँ
एक थाली में पंखों के साथ पांच सुपारियाँ रखें
गंगाजल छिड़कते हुए 21 बार ये मंत्र पढ़ें
ॐ ब्रहस्पते नमः जाग्रय स्थापय स्वाहा:
ग्यारह केले बृहस्पति देवता को अर्पित करें
बेसन का प्रसाद बना कर चढ़ाएं
शुक्र की दशा से मुक्ति
शुक्रवार के दिन चार मोर पंख ले कर आयें
पंख के नीचे गुलाबी रंग का धागा बाँध लेँ
एक थाली में पंखों के साथ चार सुपारियाँ रखें
गंगाजल छिड़कते हुए 21 बार ये मंत्र पढ़ें
ॐ शुक्राय नमः जाग्रय स्थापय स्वाहा:
तीन मीठे पान शुक्र देवता को अर्पित करें
गुड चने का प्रसाद बना कर चढ़ाएं
शनि की दशा से मुक्ति
शनिवार के दिन तीन मोर पंख ले कर आयें
पंख के नीचे काले रंग का धागा बाँध लेँ
एक थाली में पंखों के साथ तीन सुपारियाँ रखें
गंगाजल छिड़कते हुए 21 बार ये मंत्र पढ़ें
ॐ शनैश्वराय नमः जाग्रय स्थापय स्वाहा:
तीन मिटटी के दिये तेल सहित शनि देवता को अर्पित करें
गुलाबजामुन या प्रसाद बना कर चढ़ाएं
राहु की दशा से मुक्ति
शनिवार के दिन सूर्य उदय से पूर्व दो मोर पंख ले कर आयें
पंख के नीचे भूरे रंग का धागा बाँध लेँ
एक थाली में पंखों के साथ दो सुपारियाँ रखें
गंगाजल छिड़कते हुए 21 बार ये मंत्र पढ़ें
ॐ राहवे नमः जाग्रय स्थापय स्वाहा:
चौमुखा दिया जला कर राहु को अर्पित करें
कोई भी मीठा प्रसाद बना कर चढ़ाएं
केतु की दशा से मुक्ति
शनिवार के दिन सूर्य अस्त होने के बाद एक मोर पंख ले कर आयें
पंख के नीचे स्लेटी रंग का धागा बाँध लेँ
एक थाली में पंख के साथ एक सुपारी रखें
गंगाजल छिड़कते हुए 21 बार ये मंत्र पढ़ें
ॐ केतवे नमः जाग्रय स्थापय स्वाहा:
पानी के दो कलश भर कर राहु को अर्पित करें
फलों का प्रसाद चढ़ाएं
वास्तु में सुधार
घर का द्वार यदि वास्तु के विरुद्ध हो तो द्वार पर तीन मोर पंख स्थापित करें , मंत्र से अभिमंत्रित कर पंख के नीचे गणपति भगवान का चित्र या छोटी प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए
मंत्र है-ॐ द्वारपालाय नम: जाग्रय स्थापय स्वाहा:
यदि पूजा का स्थान वास्तु के विपरीत है तो पूजा स्थान को इच्छानुसार मोर पंखों से सजाएँ, सभी मोर पंखो को कुमकुम का तिलक करें व शिवलिंग् की स्थापना करें पूजा घर का दोष मिट जाएगा, प्रस्तुत मंत्र से मोर पंखों को अभी मंत्रित करें
मंत्र है-ॐ कूर्म पुरुषाय नम: जाग्रय स्थापय स्वाहा:
यदि रसोईघर वास्तु के अनुसार न बना हो तो दो मोर पंख रसोईघर में स्थापित करें, ध्यान रखें कि भोजन बनाने वाले स्थान से दूर हो, दोनों पंखों के नीचे मौली बाँध लेँ, और गंगाजल से अभिमंत्रित करें
मंत्र-ॐ अन्नपूर्णाय नम: जाग्रय स्थापय स्वाहा:
और यदि शयन कक्ष वास्तु अनुसार न हो तो शैय्या के सात मोर पंखों के गुच्छे स्थापित करें, मौली के साथ कौड़ियाँ बाँध कर पंखों के मध्य भाग में सजाएं, सिराहने की और ही स्थापित करें, स्थापना का मंत्र है
मंत्र-ॐ स्वप्नेश्वरी देव्यै नम: जाग्रय स्थापय स्वाहा:
Thursday, 1 November 2012
'' दौरा करती हैं लक्ष्मी शरद पूर्णिमा के दिन ''
दीपावली के ठीक 15 दिन पहले शरद पूर्णिमा आती है। इस समय तक दशहरा समाप्त
हो जाता है। मस्ती करने वालों का पूरा ध्यान दीवाली की मिठाइयों और पटाखों
पर चला जाता है। मूलत: यह त्योहार फसलों से संबंधित है। कहा जाता है
कि इस रात धन और उन्नति की देवी लक्ष्मी सारे घरों का दौरा करती है और साथ
ही सारे बच्चों, बूढ़ों और जवान को अच्छी किस्मत के लिए गुडलक कहती है।इस विशेष रात को कोजागिरी भी कहा जाता है। इस रात को बर्फ और केसरियायुक्त
दूध पिया जाता है। इस पूरे चंद्रमा वाली रात को नवन्ना पूर्णिमा कहा जाता
है। ऐसा आभास होता है कि नए भोजन के स्वागत के लिए चांदनी रात अपना दामन
पसारे हुए है। इस अवसर पर भगवान को नया उपजाया हुआ चावल भेंट करते हैं और पूर्ण रूप से खिले चांद के सामने लैम्प जलाते हैं। शरद पूर्णिमा किसानों की जिंदगियों में दो तरह का महत्वपूर्ण संदेश लाती
है। पहला जो कड़ी मेहनत करेगा भगवान उसे अवश्य फल प्रदान करेगा और दूसरा यह
कि प्रभु मनुष्य के द्वारा की जा रही सारी गतिविधियों पर नजर रखता है। बहुत सारे दुर्गा मंदिरों में शरद पूर्णिमा के शुभ अवसर पर गीत संगीत से
मां दुर्गा को जगाया जाता है। इसके पीछे ऐसी मान्यता है कि मां दुर्गा नौ
दिनों तक महिषासुर से लड़कर थकने के बाद सो गई थीं।
शरद पूर्णिमा वर्त कथा
आश्विन मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला त्यौहार शरद पूर्णिमा की कथा कुछ इस प्रकार से है- एक साहूकार के दो पुत्रियां थी. दोनों पुत्रियां पूर्णिमा का व्रत रखती थी, परन्तु बड़ी पुत्री विधिपूर्वक पूरा व्रत करती थी जबकि छोटी पुत्री अधूरा व्रत ही किया करती थी. परिणामस्वरूप साहूकार के छोटी पुत्री की संतान पैदा होते ही मर जाती थी. उसने पंडितों से अपने संतानों के मरने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि पहले समय में तुम पूर्णिमा का अधूरा व्रत किया करती थी, जिस कारणवश तुम्हारी सभी संतानें पैदा होते ही मर जाती है. फिर छोटी पुत्री ने पंडितों से इसका उपाय पूछा तो उन्होंने बताया कि यदि तुम विधिपूर्वक पूर्णिमा का व्रत करोगी, तब तुम्हारे संतान जीवित रह सकते हैं.साहूकार की छोटी कन्या ने उन भद्रजनों की सलाह पर पूर्णिमा का व्रत विधिपूर्वक संपन्न किया. फलस्वरू
प उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई परन्तु वह शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो गया. तब छोटी पुत्री ने उस लड़के को पीढ़ा पर लिटाकर ऊपर से पकड़ा ढ़क दिया. फिर अपनी बड़ी बहन को बुलाकर ले आई और उसे बैठने के लिए वही पीढ़ा दे दिया. बड़ी बहन जब पीढ़े पर बैठने लगी तो उसका घाघरा उस मृत बच्चे को छू गया, बच्चा घाघरा छूते ही रोने लगा. बड़ी बहन बोली- तुम तो मुझे कलंक लगाना चाहती थी. मेरे बैठने से तो तुम्हारा यह बच्चा यह मर जाता. तब छोटी बहन बोली- बहन तुम नहीं जानती, यह तो पहले से ही मरा हुआ था, तुम्हारे भाग्य से ही फिर से जीवित हो गया है. तेरे पुण्य से ही यह जीवित हुआ है. इस घटना के उपरान्त ही नगर में उसने पूर्णिमा का पूरा व्रत करने का ढ़िंढ़ोरा पिटवा दिया.
शरद पूर्णिमा व्रत विधि
इस दिन प्रात:काल में व्रत कर अपने इष्ट देव का पूजन करना चाहिए. इस पूर्णिमा को रात में ऎरावत हाथी पर चढे हुए इन्द्र और महालक्ष्मी जी का पूजन करके घी के दीपक जलाकर उसकी गन्ध पुष्प आदि से पूजा कर दीपावली की तरह रोशनी कि जाती है. इस दिन कम से कम 100 दीपक और अधिक से अधिक एक लाख तक हों. इस तरह दीपक जलाकर अगले दिन इन्द्र देव का पूजन किया जाता है. ब्राह्माणों को शक्कर में घी मिला हुआ, ओर खीर का भोजन करायें. धोती, गमच्छा, आदि वस्त्र और दीपक (अगर सम्भव हों, तो सोने का) तथा दक्षिणा दान करें. लक्ष्मी प्राप्ति के लिए इस व्रत को विशेष रुप से किया जाता है. यह माना जाता है, कि इस रात को इन्द्र और लक्ष्मी जी यह देखते है, कि कौन जाग रहा है, इसलिये इस दिन जागरण करने वाले की धन -संपति में वृ्द्धि होती है. इस व्रत को मुख्य रुप से स्त्रियों के द्वारा किया जाता है. उपवास करने वाली स्त्रियां इस दिन लकडी की चौकी पर सातिया बनाकर पानी का लोटा भरकर रखती है. एक गिलास में गेहूं भरकर उसके ऊपर रुपया रखा जाता है. और गेहूं के 13 दाने हाथ में लेकर कहानी सुनी जाती है.गिलास और रुपया कथा कहने वाली स्त्रियों को पैर छुकर दिये जाते है. कहानी सुने हुए पानी का रात को चन्द्रमा को अर्ध्य देना चाहिए. और इसके बाद ही भोजन करना चाहिए. मंदिर में खीर आदि दान करने का विधि-विधान है. विशेष रुप से इस दिन तरबूज के दो टुकडे करके रखे जाते है. साथ ही कोई भी एक ऋतु का फल रखा और खीर चन्द्रमा की चांदनी में रखा जाता है. ऎसा कहा जाता है, कि इस दिन चांद की चांदनी से अमृ्त बरसता है.
शरद पूर्णिमा वर्त कथा
आश्विन मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला त्यौहार शरद पूर्णिमा की कथा कुछ इस प्रकार से है- एक साहूकार के दो पुत्रियां थी. दोनों पुत्रियां पूर्णिमा का व्रत रखती थी, परन्तु बड़ी पुत्री विधिपूर्वक पूरा व्रत करती थी जबकि छोटी पुत्री अधूरा व्रत ही किया करती थी. परिणामस्वरूप साहूकार के छोटी पुत्री की संतान पैदा होते ही मर जाती थी. उसने पंडितों से अपने संतानों के मरने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि पहले समय में तुम पूर्णिमा का अधूरा व्रत किया करती थी, जिस कारणवश तुम्हारी सभी संतानें पैदा होते ही मर जाती है. फिर छोटी पुत्री ने पंडितों से इसका उपाय पूछा तो उन्होंने बताया कि यदि तुम विधिपूर्वक पूर्णिमा का व्रत करोगी, तब तुम्हारे संतान जीवित रह सकते हैं.साहूकार की छोटी कन्या ने उन भद्रजनों की सलाह पर पूर्णिमा का व्रत विधिपूर्वक संपन्न किया. फलस्वरू
प उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई परन्तु वह शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो गया. तब छोटी पुत्री ने उस लड़के को पीढ़ा पर लिटाकर ऊपर से पकड़ा ढ़क दिया. फिर अपनी बड़ी बहन को बुलाकर ले आई और उसे बैठने के लिए वही पीढ़ा दे दिया. बड़ी बहन जब पीढ़े पर बैठने लगी तो उसका घाघरा उस मृत बच्चे को छू गया, बच्चा घाघरा छूते ही रोने लगा. बड़ी बहन बोली- तुम तो मुझे कलंक लगाना चाहती थी. मेरे बैठने से तो तुम्हारा यह बच्चा यह मर जाता. तब छोटी बहन बोली- बहन तुम नहीं जानती, यह तो पहले से ही मरा हुआ था, तुम्हारे भाग्य से ही फिर से जीवित हो गया है. तेरे पुण्य से ही यह जीवित हुआ है. इस घटना के उपरान्त ही नगर में उसने पूर्णिमा का पूरा व्रत करने का ढ़िंढ़ोरा पिटवा दिया.
शरद पूर्णिमा व्रत विधि
इस दिन प्रात:काल में व्रत कर अपने इष्ट देव का पूजन करना चाहिए. इस पूर्णिमा को रात में ऎरावत हाथी पर चढे हुए इन्द्र और महालक्ष्मी जी का पूजन करके घी के दीपक जलाकर उसकी गन्ध पुष्प आदि से पूजा कर दीपावली की तरह रोशनी कि जाती है. इस दिन कम से कम 100 दीपक और अधिक से अधिक एक लाख तक हों. इस तरह दीपक जलाकर अगले दिन इन्द्र देव का पूजन किया जाता है. ब्राह्माणों को शक्कर में घी मिला हुआ, ओर खीर का भोजन करायें. धोती, गमच्छा, आदि वस्त्र और दीपक (अगर सम्भव हों, तो सोने का) तथा दक्षिणा दान करें. लक्ष्मी प्राप्ति के लिए इस व्रत को विशेष रुप से किया जाता है. यह माना जाता है, कि इस रात को इन्द्र और लक्ष्मी जी यह देखते है, कि कौन जाग रहा है, इसलिये इस दिन जागरण करने वाले की धन -संपति में वृ्द्धि होती है. इस व्रत को मुख्य रुप से स्त्रियों के द्वारा किया जाता है. उपवास करने वाली स्त्रियां इस दिन लकडी की चौकी पर सातिया बनाकर पानी का लोटा भरकर रखती है. एक गिलास में गेहूं भरकर उसके ऊपर रुपया रखा जाता है. और गेहूं के 13 दाने हाथ में लेकर कहानी सुनी जाती है.गिलास और रुपया कथा कहने वाली स्त्रियों को पैर छुकर दिये जाते है. कहानी सुने हुए पानी का रात को चन्द्रमा को अर्ध्य देना चाहिए. और इसके बाद ही भोजन करना चाहिए. मंदिर में खीर आदि दान करने का विधि-विधान है. विशेष रुप से इस दिन तरबूज के दो टुकडे करके रखे जाते है. साथ ही कोई भी एक ऋतु का फल रखा और खीर चन्द्रमा की चांदनी में रखा जाता है. ऎसा कहा जाता है, कि इस दिन चांद की चांदनी से अमृ्त बरसता है.
Monday, 22 October 2012
'' दुर्गाष्टमी और महानवमी का महत्व ''
दुर्गाष्टमी और महानवमी का महत्व.......
आदि शक्ति जगदम्बा की परम कृपा प्राप्त करने हेतु सम्पूर्ण भारत वर्ष में नवरात्रि का पर्व वर्ष में दो बार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तथा आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को बड़ी श्रद्धा, भक्ति व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। जिसे वसन्त व शारदीय नवरात्रि के नाम से जाना जाता है। इस कर्म भूमि के सपूतों के लिए माँ 'दुर्गा' की पूजा व आराधना ठीक उसी प्रकार कल्याणकारी है जिस प्रकार अंधेरे में घिरे हुए संसार के लिए भगवान सूर्य की एक किरण।
नवरात्रि में दुर्गाष्टमी व महानवमी पूजन का बड़ा ही महत्व है। इस अष्टमी व नवमी की कल्याणप्रद, शुभ बेला श्रद्धालु भक्तजनों को मनोवांछित फल देकर नव दिनों तक लगातार चलने वाले व्रत व पूजन महोत्सव के सम्पन्न होने के संकेत देती है। माँ दुर्गा की आराधना से व्यक्ति एक सद्गृहस्थ जीवन के अनेक शुभ लक्षणों धन, ऐश्वर्य, पत्नी, पुत्र, पौत्र व स्वास्थ्य से युक्त हो जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष को भी सहज ही प्राप्त कर लेता है। इतना ही नहीं बीमारी, महामारी, बाढ़, सूखा, प्राकृतिक उपद्रव व शत्रु से घिरे हुए किसी राज्य, देश व सम्पूर्ण विश्व के लिए भी माँ भगवती की आराधना परम कल्याणकारी है।
इस पूजा में पवित्रता, नियम व संयम तथा ब्रह्मचर्य का विषेश महत्व है। पूजा के समय घर व देवालय को तोरण व विविध प्रकार के मांगलिक पत्र, पुष्पों से सजाना चाहिए तथा स्थापित समस्त देवी-देवताओं का आवाह्न उनके ''नाम मंत्रो'' द्वारा कर षोडषोपचार पूजा करनी चाहिए जो विशेष फलदायनी है। भविष्य पुराण के उत्तर-पूर्व में महानवमी व दुर्गाष्टमी पूजन के विषय में भगवान श्रीकृष्ण से धर्मराज युधिष्ठिर का संवाद मिलता है। जिसमें नवमी व दुर्गाष्टमी पूजन का स्पष्ट उल्लेख है।
यह पूजन प्रत्येक युगों, सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग तथा कल्पों व मन्वन्तरों आदि में भी प्रचलित था। माँ भगवती सम्पूर्ण जगत् में परमशक्ति अनन्ता, सर्वव्यापिनी, भावगम्या, आद्या आदि नाम से विख्यात हैं जिन्हें माया, कात्यायिनी, काली, दुर्गा, चामुण्डा, सर्वमंगला, शंकरप्रिया, जगत जननी, जगदम्बा, भवानी आदि अनेक रूपों में देव, दानव, राक्षस, गन्धर्व, नाग, यक्ष, किन्नर, मनुष्य आदि अष्टमी व नवमी को पूजते है। माँ भगवती का पूजन अष्टमी व नवमी को करने से कष्ट, दुःख मिट जाते हैं और शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती। यह तिथि परम कल्याणकारी, पवित्र, सुख को देने वाली और धर्म की वृद्धि करने वाली है।
अनेक प्रकार मंत्रोंपचार से विधि प्रकार पूजा करते हुए भगवती से सुख, समृद्धि, यश, कीर्ति, विजय, आरोग्यता की कामना करनी चाहिए। नवरात्रि के आठवें दिन की देवी माँ महागौरी हैं। परम कृपालु माँ महागौरी कठिन तपस्या कर गौरवर्ण को प्राप्त कर भगवती महागौरी के नाम से सम्पूर्ण विश्व में विख्यात हुई। भगवती महागौरी की आराधना सभी मनोवांछित को पूर्ण करने वाली और भक्तों को अभय, रूप व सौदर्य प्रदान करने वाली है। अर्थात् शरीर में उत्पन्न नाना प्रकार के विष व्याधियों का अंत कर जीवन को सुख-समृद्धि व आरोग्यता से पूर्ण करती हैं। माँ की शास्त्रीय पद्धति से पूजा करने वाले सभी रोगों से मुक्त हो जाते हैं और धन वैभव सम्पन्न होते हैं। नवें दिन की दुर्गा सिद्धिदात्री हैं यह दिन माँ सिद्धिदात्री दुर्गा की पूजा के लिए विशेष महत्वपूर्ण है। माँ भगवती ने नवें दिन देवताओं और भक्तों के सभी वांछित मनोरथों को सिद्ध कर दिया, जिससे माँ सिद्धिदात्री के रूप में सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हुई। परम करूणामयी सिद्धिदात्री की अर्चना व पूजा से भक्तों के सभी कार्य सिद्ध होते हैं। बाधाएँ समाप्त होती हैं एवं सुख व मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार अष्टमी को विविध प्रकार से भगवती जगदम्बा का पूजन कर रात्रि को जागरण करते हुए भजन, कीर्तन, नृत्यादि उत्सव मनाना चाहिए तथा नवमी को विविध प्रकार से पूजा-हवन कर नौ कन्याओं को भोजन खिलाना चाहिए और हलुआ आदि प्रसाद वितरित करना चाहिए और पूजन हवन की पूर्णाहुति कर दशमी तिथि को व्रती को व्रत खोलना (पारण) चाहिए। यदि नवमी तिथि की वृद्धि हो तो एक नवमी को व्रत कर दूसरे नवमी में अर्थात् दसवें दिन पारण करने का विधान शास्त्रों मे मिलता है। जो सभी प्रकार के अमंगल को दूर कर जीवन को सुखद व सुन्दर बना देता है।
आदि शक्ति जगदम्बा की परम कृपा प्राप्त करने हेतु सम्पूर्ण भारत वर्ष में नवरात्रि का पर्व वर्ष में दो बार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तथा आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को बड़ी श्रद्धा, भक्ति व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। जिसे वसन्त व शारदीय नवरात्रि के नाम से जाना जाता है। इस कर्म भूमि के सपूतों के लिए माँ 'दुर्गा' की पूजा व आराधना ठीक उसी प्रकार कल्याणकारी है जिस प्रकार अंधेरे में घिरे हुए संसार के लिए भगवान सूर्य की एक किरण।
नवरात्रि में दुर्गाष्टमी व महानवमी पूजन का बड़ा ही महत्व है। इस अष्टमी व नवमी की कल्याणप्रद, शुभ बेला श्रद्धालु भक्तजनों को मनोवांछित फल देकर नव दिनों तक लगातार चलने वाले व्रत व पूजन महोत्सव के सम्पन्न होने के संकेत देती है। माँ दुर्गा की आराधना से व्यक्ति एक सद्गृहस्थ जीवन के अनेक शुभ लक्षणों धन, ऐश्वर्य, पत्नी, पुत्र, पौत्र व स्वास्थ्य से युक्त हो जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष को भी सहज ही प्राप्त कर लेता है। इतना ही नहीं बीमारी, महामारी, बाढ़, सूखा, प्राकृतिक उपद्रव व शत्रु से घिरे हुए किसी राज्य, देश व सम्पूर्ण विश्व के लिए भी माँ भगवती की आराधना परम कल्याणकारी है।
इस पूजा में पवित्रता, नियम व संयम तथा ब्रह्मचर्य का विषेश महत्व है। पूजा के समय घर व देवालय को तोरण व विविध प्रकार के मांगलिक पत्र, पुष्पों से सजाना चाहिए तथा स्थापित समस्त देवी-देवताओं का आवाह्न उनके ''नाम मंत्रो'' द्वारा कर षोडषोपचार पूजा करनी चाहिए जो विशेष फलदायनी है। भविष्य पुराण के उत्तर-पूर्व में महानवमी व दुर्गाष्टमी पूजन के विषय में भगवान श्रीकृष्ण से धर्मराज युधिष्ठिर का संवाद मिलता है। जिसमें नवमी व दुर्गाष्टमी पूजन का स्पष्ट उल्लेख है।
यह पूजन प्रत्येक युगों, सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग तथा कल्पों व मन्वन्तरों आदि में भी प्रचलित था। माँ भगवती सम्पूर्ण जगत् में परमशक्ति अनन्ता, सर्वव्यापिनी, भावगम्या, आद्या आदि नाम से विख्यात हैं जिन्हें माया, कात्यायिनी, काली, दुर्गा, चामुण्डा, सर्वमंगला, शंकरप्रिया, जगत जननी, जगदम्बा, भवानी आदि अनेक रूपों में देव, दानव, राक्षस, गन्धर्व, नाग, यक्ष, किन्नर, मनुष्य आदि अष्टमी व नवमी को पूजते है। माँ भगवती का पूजन अष्टमी व नवमी को करने से कष्ट, दुःख मिट जाते हैं और शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती। यह तिथि परम कल्याणकारी, पवित्र, सुख को देने वाली और धर्म की वृद्धि करने वाली है।
अनेक प्रकार मंत्रोंपचार से विधि प्रकार पूजा करते हुए भगवती से सुख, समृद्धि, यश, कीर्ति, विजय, आरोग्यता की कामना करनी चाहिए। नवरात्रि के आठवें दिन की देवी माँ महागौरी हैं। परम कृपालु माँ महागौरी कठिन तपस्या कर गौरवर्ण को प्राप्त कर भगवती महागौरी के नाम से सम्पूर्ण विश्व में विख्यात हुई। भगवती महागौरी की आराधना सभी मनोवांछित को पूर्ण करने वाली और भक्तों को अभय, रूप व सौदर्य प्रदान करने वाली है। अर्थात् शरीर में उत्पन्न नाना प्रकार के विष व्याधियों का अंत कर जीवन को सुख-समृद्धि व आरोग्यता से पूर्ण करती हैं। माँ की शास्त्रीय पद्धति से पूजा करने वाले सभी रोगों से मुक्त हो जाते हैं और धन वैभव सम्पन्न होते हैं। नवें दिन की दुर्गा सिद्धिदात्री हैं यह दिन माँ सिद्धिदात्री दुर्गा की पूजा के लिए विशेष महत्वपूर्ण है। माँ भगवती ने नवें दिन देवताओं और भक्तों के सभी वांछित मनोरथों को सिद्ध कर दिया, जिससे माँ सिद्धिदात्री के रूप में सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हुई। परम करूणामयी सिद्धिदात्री की अर्चना व पूजा से भक्तों के सभी कार्य सिद्ध होते हैं। बाधाएँ समाप्त होती हैं एवं सुख व मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार अष्टमी को विविध प्रकार से भगवती जगदम्बा का पूजन कर रात्रि को जागरण करते हुए भजन, कीर्तन, नृत्यादि उत्सव मनाना चाहिए तथा नवमी को विविध प्रकार से पूजा-हवन कर नौ कन्याओं को भोजन खिलाना चाहिए और हलुआ आदि प्रसाद वितरित करना चाहिए और पूजन हवन की पूर्णाहुति कर दशमी तिथि को व्रती को व्रत खोलना (पारण) चाहिए। यदि नवमी तिथि की वृद्धि हो तो एक नवमी को व्रत कर दूसरे नवमी में अर्थात् दसवें दिन पारण करने का विधान शास्त्रों मे मिलता है। जो सभी प्रकार के अमंगल को दूर कर जीवन को सुखद व सुन्दर बना देता है।
'' महागौरी ''
8 महागौरी
माँ दुर्गा अष्टमी की आप सभी को बहुत बहुत बधाई ..
दुर्गा पूजा के अष्टमी तिथि को माता महागौरी की पूजा इस मंत्र से करना चाहिए l इस दिन साधक का मन 'सोम' चक्र में स्थित होता है । भक्तों के सारे पापों को जला देने वाली और आदिशक्ति मां दुर्गा की 9 शक्तियों की आठवीं स्वरूपा महागौरी की पूजा नवरात्र के अष्टमी तिथि को किया जाता है l पौराणिक कथानुसार मां महागौरी ने अपने पूर्व जन्म में भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी, जिसके कारण इनके शरीर का रंग एकदम काला पड़ गया था l तब मां की भक्ति से प्रसन्न होकर स्वयं शिवजी ने इनके शरीर को गंगाजी के पवित्र जल से धोया, जिससे इनका वर्ण विद्युत-प्रभा की तरह कान्तिमान और गौर वर्ण का हो गया और उसी कारणवश माता का नाम महागौरी पड़ा l माता महागौरी की आयु आठ वर्ष मानी गई है l इनकी चार भुजाएं हैं, जिनमें एक हाथ में त्रिशूल है, दूसरे हाथ से अभय मुद्रा में हैं, तीसरे हाथ में डमरू सुशोभित है और चौथा हाथ वर मुद्रा में है l इनका वाहन वृष है l नवरात्र की अष्टमी तिथि को मां महागौरी की पूजा का बड़ा महात्म्य है, मान्यता है कि भक्ति और श्रद्धा पूर्वक माता की पूजा करने से भक्त के घर में सुख-शांति बनी रहती है और उसके यहां माता अन्नपूर्णा स्वरुप होती है l इस दिन माता की पूजा में कन्या पूजन और उनके सम्मान का विधान है l महागौरी रूप में देवी करूणामयी, स्नेहमयी, शांत और मृदुल दिखती हैं l देवी के इस रूप की प्रार्थना करते हुए देव और ऋषिगण कहते हैं
महागौरी : माता का रंग पूर्णत: गौर अर्थात् गौरा है इसीलिए वे महागौरी कहलाती है। महागौरी आदी शक्ति हैं इनके तेज से संपूर्ण विश्व प्रकाश-मान होता है, इनकी शक्ति अमोघ फलदायिनी है l माँ महागौरी की अराधना से भक्तों को सभी कष्ट दूर हो जाते हैं तथा देवी का भक्त जीवन में पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी बनता है l दुर्गा सप्तशती में शुभ-निशुम्भ से पराजित होकर गंगा के तट पर जिस देवी की प्रार्थना देवतागण कर रहे थे वह महागौरी हैं l देवी गौरी के अंश से ही कौशिकी का जन्म हुआ, जिसने शुम्भ-निशुम्भ के प्रकोप से देवताओं को मुक्त कराया l यह देवी गौरी शिव की पत्नी हैं, यही शिवा और शाम्भवी के नाम से भी पूजित होती हैं l
Sunday, 21 October 2012
'' कालरात्रि ''
7 कालरात्रि
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी॥
नवरात्र का सातवां दिन मां कालरात्रि का दिन होता है। मां के इस सातवें
स्वरूप की आराधना व्यक्ति के भीतर की तामसी शक्तियों का नाश करती है। तामसी
प्रवृत्तियों की समाप्ति के साथ ही व्यक्ति के भीतर कल्याणकारी गुणों का
प्रादुर्भाव करता है।मां का यह रूप वर्ण रात्रि के गहन अंधकार की तरह
काला है। उनके गले में बिजली की भांति चमकने वाली माला है जो ब्राह्मण्ड की
तरह गोल है। इस माला में हर पल एक ज्योति जलती रहती है जो मानव जीवन का
सही राह दिखाती है।मां कालरात्रि दुर्गा माता का सांतवा रूप है। मां
शक्ति का यह रूप अपने भक्तों को बुरे कर्मो से दूर रहकर अच्छे व सदगुणों के
निकट ले जाता है। कहा जाता है कि नवरात्र के सातवें दिन जो भी व्यक्ति
सच्चे हृदय से मां की आराधना करता है उसके भीतर के सभी बुरी व तामसी
शक्तियां नष्ट हो जाती हैं। मां अपने भक्तों को विपत्तियों व कठिनाइयों से
जूझने की क्षमता प्रदान करती है तथा वास्तविक व ईश्वरीय सुख की अनुभूति कराती है।मां का यह रूप देखने में भयावह लगता है जो व्यक्ति के भीतर एक डर भी पैदा
करता है लेकिन यह डर उसे अच्छे व सदकर्मों की ओर ले जाता है। यह रूप सदैव
शुभ फल देताहै। मां के इस स्वरूप को शुभंकरी भी कहा जाता है। कालरात्रि
दुष्टों व शत्रुओं का संहार करती है। काले रंग वाली केशों का फैला कर रखने
वाली चार भुजाओं वाली दुर्गा का यह वर्ण और वेश में अद्र्धनारीश्वर शिव की
तांडव मुद्रा में नजर आती है।मां की आखों से अग्नि की वर्षा होती है।
एक हाथ में दुष्टों की गर्दन तथा दूसरे हाथ में खड्ग लिए मां कालरात्रि
पापियों का नाश कर रही है। मां की सवारी गधर्व यानि गधा है जो समस्त जीव
जन्तुओं में सबसे परिश्रमी है। मां का यह स्वरूप भक्तों का आर्शीवाद देता
है कि व्यक्ति अपने योग्यता व क्षमता का सदुपयोग करता हुआ अपने आवश्यकताओं
की पूर्ति करे और अपने परिजनों व अन्य सगे सम्बन्धियों का भला करता चले।
ध्याम मंत्र .........
करालरूपा कालाब्जसमानाकृति विग्रहा।
कालरात्रि: शुभु दद्यात देवी चंडाट्टहासिनी॥
Saturday, 20 October 2012
'' कात्यायनी ''
6. कात्यायनी
(ध्यान मंत्र)
चन्द्रहासोज्जवलकरा शार्दूलवरवाहना |
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवदातिनी ||
अर्थात्- मां दुर्गा छठवें स्वरुप का नाम कात्यायनी है | इनका स्वरुप अत्यंत ही भव्य और दिव्य है | इनका वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला है | इनकी चार भुजाएं है | माताजी का दाहिनी तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में तथा नीचे वाला वर मुद्रा में है | बांई तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ में कमलपुष्प सुशोभित है | इनका वाहन सिंह है |
जप मंत्र
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं कात्यायन्यै नमः
अर्थात्- कात्यायनी माता की उपासना से मनुष्य को बड़ी सरलता से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति होती है | रोग, शोक, भय, संताप और पाप नष्ट होते हैं |
श्री महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया था। इसलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं। नवरात्रि के षष्ठम दिन इनकी पूजा और आराधना होती है।इनकी आराधना से भक्त का हर काम सरल एवं सुगम होता है। चन्द्रहास नामक तलवार के प्रभाव से जिनका हाथ चमक रहा है, श्रेष्ठ सिंह जिसका वाहन है, ऐसी असुर संहारकारिणी देवी कात्यायनी कल्यान करें।महर्षि कात्यायन की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर उनकी इच्छानुसार उनके यहां पुत्री के रूप में पैदा हुई थीं. महर्षि कात्यायन ने इनका पालन-पोषण किया तथा महर्षि कात्यायन की पुत्री और उन्हीं के द्वारा सर्वप्रथम पूजे जाने के कारण देवी दुर्गा को कात्यायनी कहा गया. देवी कात्यायनी अमोद्य फलदायिनी हैं इनकी पूजा अर्चना द्वारा सभी संकटों का नाश होता है, माँ कात्यायनी दानवों तथा पापियों का नाश करने वाली हैं. देवी कात्यायनी जी के पूजन से भक्त के भीतर अद्भुत शक्ति का संचार होता है. इस दिन साधक का मन ‘आज्ञा चक्र’ में स्थित रहता है. योग साधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है. साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित होने पर उसे सहजभाव से मां कात्यायनी के दर्शन प्राप्त होते हैं. साधक इस लोक में रहते हुए अलौकिक तेज से युक्त रहता है.
माँ कात्यायनी का स्वरूप अत्यन्त दिव्य और स्वर्ण के समान चमकीला है. यह अपनी प्रिय सवारी सिंह पर विराजमान रहती हैं. इनकी चार भुजायें भक्तों को वरदान देती हैं, इनका एक हाथ अभय मुद्रा में है, तो दूसरा हाथ वरदमुद्रा में है अन्य हाथों में तलवार तथा कमल का फूल है.
(ध्यान मंत्र)
चन्द्रहासोज्जवलकरा शार्दूलवरवाहना |
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवदातिनी ||
अर्थात्- मां दुर्गा छठवें स्वरुप का नाम कात्यायनी है | इनका स्वरुप अत्यंत ही भव्य और दिव्य है | इनका वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला है | इनकी चार भुजाएं है | माताजी का दाहिनी तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में तथा नीचे वाला वर मुद्रा में है | बांई तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ में कमलपुष्प सुशोभित है | इनका वाहन सिंह है |
जप मंत्र
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं कात्यायन्यै नमः
अर्थात्- कात्यायनी माता की उपासना से मनुष्य को बड़ी सरलता से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति होती है | रोग, शोक, भय, संताप और पाप नष्ट होते हैं |
श्री महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया था। इसलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं। नवरात्रि के षष्ठम दिन इनकी पूजा और आराधना होती है।इनकी आराधना से भक्त का हर काम सरल एवं सुगम होता है। चन्द्रहास नामक तलवार के प्रभाव से जिनका हाथ चमक रहा है, श्रेष्ठ सिंह जिसका वाहन है, ऐसी असुर संहारकारिणी देवी कात्यायनी कल्यान करें।महर्षि कात्यायन की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर उनकी इच्छानुसार उनके यहां पुत्री के रूप में पैदा हुई थीं. महर्षि कात्यायन ने इनका पालन-पोषण किया तथा महर्षि कात्यायन की पुत्री और उन्हीं के द्वारा सर्वप्रथम पूजे जाने के कारण देवी दुर्गा को कात्यायनी कहा गया. देवी कात्यायनी अमोद्य फलदायिनी हैं इनकी पूजा अर्चना द्वारा सभी संकटों का नाश होता है, माँ कात्यायनी दानवों तथा पापियों का नाश करने वाली हैं. देवी कात्यायनी जी के पूजन से भक्त के भीतर अद्भुत शक्ति का संचार होता है. इस दिन साधक का मन ‘आज्ञा चक्र’ में स्थित रहता है. योग साधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है. साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित होने पर उसे सहजभाव से मां कात्यायनी के दर्शन प्राप्त होते हैं. साधक इस लोक में रहते हुए अलौकिक तेज से युक्त रहता है.
माँ कात्यायनी का स्वरूप अत्यन्त दिव्य और स्वर्ण के समान चमकीला है. यह अपनी प्रिय सवारी सिंह पर विराजमान रहती हैं. इनकी चार भुजायें भक्तों को वरदान देती हैं, इनका एक हाथ अभय मुद्रा में है, तो दूसरा हाथ वरदमुद्रा में है अन्य हाथों में तलवार तथा कमल का फूल है.
'' स्कन्दमाता ''
5 स्कन्दमाता
(ध्यान मंत्र)
सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितंकरद्वया |
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी ||
जप मंत्र
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं स्कन्दमातायै नमः
स्कन्दमाता की उपासना भक्त सभी इच्छाएं पूर्ण होती है | उसे परम शांति और सुख का अनुभव होता है | इनका उपासक अलौकिक तेज एवं कांति से सम्पन्न हो जाता है |
भगवती दुर्गा के पांचवें स्वरूप को स्कन्दमाताके रूप में जाना जाता है। स्कन्द कुमार अर्थात् काíतकेय की माता होने के कारण इन्हें स्कन्दमाताकहते हैं। इनका वाहन मयूर है। मंगलवार के दिन साधक का मन विशुद्ध चक्र में अवस्थितहोता है। इनके विग्रह में भगवान स्कन्दजीबाल रूप में इनकी गोद में बैठे होते हैं। स्कन्द मातुस्वरूपणीदेवी की चार भुजाएं हैं। ये दाहिनी तरफ की ऊपर वाली भुजा से भगवान स्कन्द्रको गोद में पकडे हुए हैं और दाहिने तरफ की नीचे वाली भुजा वरमुद्रामें तथा नीचे वाली भुजा जो ऊपर उठी हुई है, इसमें भी कमल पुष्प ली हुई हैं। इनका वर्ण पूर्णत:शुभ है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसी कारण से इन्हें पद्मासनादेवी कहा जाता है। सिंह भी इनका वाहन है
Friday, 19 October 2012
'' कूष्माण्डा ''
4. कूष्माण्डा
(ध्यान मंत्र)
सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च |
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुबदास्तु मे ||
अर्थात्- मां दुर्गा के चौथे स्वरुप का नाम कूष्माण्डा है | अपनी मंद, हल्की हंसी द्वारा ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से अभिहित किया गया है | इनकी आठ भुजाएं है | अतः ये अष्टभुजा देवी के नाम से विख्यात है | इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डलु, धनुष, बाण, कमलपुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा | इनका वाहन सिंह है |
जप मंत्र,,,,,,
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं कूष्माण्डायै नमः
(ध्यान मंत्र)
सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च |
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुबदास्तु मे ||
अर्थात्- मां दुर्गा के चौथे स्वरुप का नाम कूष्माण्डा है | अपनी मंद, हल्की हंसी द्वारा ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से अभिहित किया गया है | इनकी आठ भुजाएं है | अतः ये अष्टभुजा देवी के नाम से विख्यात है | इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डलु, धनुष, बाण, कमलपुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा | इनका वाहन सिंह है |
जप मंत्र,,,,,,
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं कूष्माण्डायै नमः
अर्थात्- मां कूष्माण्डा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक मिट जाते
हैं | इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है | यदि सच्चे
मन से इनकी आराधना की जाए, तो साधक को सुगमता से परम पद की प्राप्ति होती
है |
अपनी मंद, हल्की हंसी के द्वारा ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इस देवी को कुष्मांडा नाम से अभिहित किया गया है।इस देवी की आठ भुजाएं हैं, इसलिए अष्टभुजा कहलाईं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जप माला है। इस देवी का वाहन सिंह है और इन्हें कुम्हड़े की बलि प्रिय है। संस्कृति में कुम्हड़े को कुष्मांड कहते हैं इसलिए इस देवी को कुष्मांडा। जब सृष्टि नहीं थी, चारों तरफ अंधकार ही अंधकार था, तब इसी देवी ने अपने ईषत् हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी। इसीलिए इसे सृष्टि की आदिस्वरूपा या आदिशक्ति कहा गया है।इस देवी का वास सूर्यमंडल के भीतर लोक में है। सूर्यलोक में रहने की शक्ति क्षमता केवल इन्हीं में है। इसीलिए इनके शरीर की कांति और प्रभा सूर्य की भांति ही दैदीप्यमान है। इनके ही तेज से दसों दिशाएं आलोकित हैं। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में इन्हीं का तेज व्याप्त है।ये देवी अत्यल्प सेवा और भक्ति से ही प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती हैं। सच्चे मन से पूजा करने वाले को सुगमता से परम पद प्राप्त होता है।विधि-विधान से पूजा करने पर भक्त को कम समय में ही कृपा का सूक्ष्म भाव अनुभव होने लगता है। ये देवी आधियों-व्याधियों से मुक्त करती हैं और उसे सुख समृद्धि और उन्नाति प्रदान करती हैं। अंततः इस देवी की उपासना में भक्तों को सदैव तत्पर रहना चाहिए।
अचंचल और पवित्र मन से नवरात्रि के चौथे दिन इस देवी की पूजा-आराधना करना चाहिए। इससे भक्तों के रोगों और शोकों का नाश होता है तथा उसे आयु, यश, बल और आरोग्य प्राप्त होता है।
अपनी मंद, हल्की हंसी के द्वारा ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इस देवी को कुष्मांडा नाम से अभिहित किया गया है।इस देवी की आठ भुजाएं हैं, इसलिए अष्टभुजा कहलाईं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जप माला है। इस देवी का वाहन सिंह है और इन्हें कुम्हड़े की बलि प्रिय है। संस्कृति में कुम्हड़े को कुष्मांड कहते हैं इसलिए इस देवी को कुष्मांडा। जब सृष्टि नहीं थी, चारों तरफ अंधकार ही अंधकार था, तब इसी देवी ने अपने ईषत् हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी। इसीलिए इसे सृष्टि की आदिस्वरूपा या आदिशक्ति कहा गया है।इस देवी का वास सूर्यमंडल के भीतर लोक में है। सूर्यलोक में रहने की शक्ति क्षमता केवल इन्हीं में है। इसीलिए इनके शरीर की कांति और प्रभा सूर्य की भांति ही दैदीप्यमान है। इनके ही तेज से दसों दिशाएं आलोकित हैं। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में इन्हीं का तेज व्याप्त है।ये देवी अत्यल्प सेवा और भक्ति से ही प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती हैं। सच्चे मन से पूजा करने वाले को सुगमता से परम पद प्राप्त होता है।विधि-विधान से पूजा करने पर भक्त को कम समय में ही कृपा का सूक्ष्म भाव अनुभव होने लगता है। ये देवी आधियों-व्याधियों से मुक्त करती हैं और उसे सुख समृद्धि और उन्नाति प्रदान करती हैं। अंततः इस देवी की उपासना में भक्तों को सदैव तत्पर रहना चाहिए।
अचंचल और पवित्र मन से नवरात्रि के चौथे दिन इस देवी की पूजा-आराधना करना चाहिए। इससे भक्तों के रोगों और शोकों का नाश होता है तथा उसे आयु, यश, बल और आरोग्य प्राप्त होता है।
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