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Monday, 22 October 2012

'' दुर्गाष्टमी और महानवमी का महत्व ''

दुर्गाष्टमी  और महानवमी  का महत्व.......
आदि शक्ति जगदम्बा की परम कृपा प्राप्त करने हेतु सम्पूर्ण भारत वर्ष में नवरात्रि का पर्व वर्ष में दो बार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तथा आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को बड़ी श्रद्धा, भक्ति व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। जिसे वसन्त व शारदीय नवरात्रि के नाम से जाना जाता है। इस कर्म भूमि के सपूतों के लिए माँ 'दुर्गा' की पूजा व आराधना ठीक उसी प्रकार कल्याणकारी है जिस प्रकार अंधेरे में घिरे हुए संसार के लिए भगवान सूर्य की एक किरण।
नवरात्रि में दुर्गाष्टमी व महानवमी पूजन का बड़ा ही महत्व है। इस अष्टमी व नवमी की कल्याणप्रद, शुभ बेला श्रद्धालु भक्तजनों को मनोवांछित फल देकर नव दिनों तक लगातार चलने वाले व्रत व पूजन महोत्सव के सम्पन्न होने के संकेत देती है। माँ दुर्गा की आराधना से व्यक्ति एक सद्गृहस्थ जीवन के अनेक शुभ लक्षणों धन, ऐश्वर्य, पत्नी, पुत्र, पौत्र व स्वास्थ्य से युक्त हो जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष को भी सहज ही प्राप्त कर लेता है। इतना ही नहीं बीमारी, महामारी, बाढ़, सूखा, प्राकृतिक उपद्रव व शत्रु से घिरे हुए किसी राज्य, देश व सम्पूर्ण विश्व के लिए भी माँ भगवती की आराधना परम कल्याणकारी है।
इस पूजा में पवित्रता, नियम व संयम तथा ब्रह्मचर्य का विषेश महत्व है। पूजा के समय घर व देवालय को तोरण व विविध प्रकार के मांगलिक पत्र, पुष्पों से सजाना चाहिए तथा स्थापित समस्त देवी-देवताओं का आवाह्‌न उनके ''नाम मंत्रो'' द्वारा कर षोडषोपचार पूजा करनी चाहिए जो विशेष फलदायनी है। भविष्य पुराण के उत्तर-पूर्व में महानवमी व दुर्गाष्टमी पूजन के विषय में भगवान श्रीकृष्ण से धर्मराज युधिष्ठिर का संवाद मिलता है। जिसमें नवमी व दुर्गाष्टमी पूजन का स्पष्ट उल्लेख है।
यह पूजन प्रत्येक युगों, सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग तथा कल्पों व मन्वन्तरों आदि में भी प्रचलित था। माँ भगवती सम्पूर्ण जगत्‌ में परमशक्ति अनन्ता, सर्वव्यापिनी, भावगम्या, आद्या आदि नाम से विख्यात हैं जिन्हें माया, कात्यायिनी, काली, दुर्गा, चामुण्डा, सर्वमंगला, शंकरप्रिया, जगत जननी, जगदम्बा, भवानी आदि अनेक रूपों में देव, दानव, राक्षस, गन्धर्व, नाग, यक्ष, किन्नर, मनुष्य आदि अष्टमी व नवमी को पूजते है। माँ भगवती का पूजन अष्टमी व नवमी को करने से कष्ट, दुःख मिट जाते हैं और शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती। यह तिथि परम कल्याणकारी, पवित्र, सुख को देने वाली और धर्म की वृद्धि करने वाली है।
अनेक प्रकार मंत्रोंपचार से विधि प्रकार पूजा करते हुए भगवती से सुख, समृद्धि, यश, कीर्ति, विजय, आरोग्यता की कामना करनी चाहिए। नवरात्रि के आठवें दिन की देवी माँ महागौरी हैं। परम कृपालु माँ महागौरी कठिन तपस्या कर गौरवर्ण को प्राप्त कर भगवती महागौरी के नाम से सम्पूर्ण विश्व में विख्यात हुई। भगवती महागौरी की आराधना सभी मनोवांछित को पूर्ण करने वाली और भक्तों को अभय, रूप व सौदर्य प्रदान करने वाली है। अर्थात्‌ शरीर में उत्पन्न नाना प्रकार के विष व्याधियों का अंत कर जीवन को सुख-समृद्धि व आरोग्यता से पूर्ण करती हैं। माँ की शास्त्रीय पद्धति से पूजा करने वाले सभी रोगों से मुक्त हो जाते हैं और धन वैभव सम्पन्न होते हैं। नवें दिन की दुर्गा सिद्धिदात्री हैं यह दिन माँ सिद्धिदात्री दुर्गा की पूजा के लिए विशेष महत्वपूर्ण है। माँ भगवती ने नवें दिन देवताओं और भक्तों के सभी वांछित मनोरथों को सिद्ध कर दिया, जिससे माँ सिद्धिदात्री के रूप में सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हुई। परम करूणामयी सिद्धिदात्री की अर्चना व पूजा से भक्तों के सभी कार्य सिद्ध होते हैं। बाधाएँ समाप्त होती हैं एवं सुख व मोक्ष की प्राप्ति होती है। 
इस प्रकार अष्टमी को विविध प्रकार से भगवती जगदम्बा का पूजन कर रात्रि को जागरण करते हुए भजन, कीर्तन, नृत्यादि उत्सव मनाना चाहिए तथा नवमी को विविध प्रकार से पूजा-हवन कर नौ कन्याओं को भोजन खिलाना चाहिए और हलुआ आदि प्रसाद वितरित करना चाहिए और पूजन हवन की पूर्णाहुति कर दशमी तिथि को व्रती को व्रत खोलना (पारण) चाहिए। यदि नवमी तिथि की वृद्धि हो तो एक नवमी को व्रत कर दूसरे नवमी में अर्थात्‌ दसवें दिन पारण करने का विधान शास्त्रों मे मिलता है। जो सभी प्रकार के अमंगल को दूर कर जीवन को सुखद व सुन्दर बना देता है।

'' महागौरी ''


महागौरी                                                                                                                                                                
माँ दुर्गा अष्टमी की आप सभी को बहुत बहुत बधाई ..

                     श्वेते वृषे समारूढा श्वेताम्बरधरा शुचिः |महागौरी शुभं दद्यान्त्र महादेव प्रमोददा || 

दुर्गा पूजा के अष्टमी तिथि को माता महागौरी की पूजा इस मंत्र से करना चाहिए l इस दिन साधक का मन 'सोम' चक्र में स्थित होता है । भक्तों के सारे पापों को जला देने वाली और आदिशक्ति मां दुर्गा की 9 शक्तियों की आठवीं स्वरूपा महागौरी की पूजा नवरात्र के अष्टमी तिथि को किया जाता है l पौराणिक कथानुसार मां महागौरी ने अपने पूर्व जन्म में भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी, जिसके कारण इनके शरीर का रंग एकदम काला पड़ गया था l तब मां की भक्ति से प्रसन्न होकर स्वयं शिवजी ने इनके शरीर को गंगाजी के पवित्र जल से धोया, जिससे इनका वर्ण विद्युत-प्रभा की तरह कान्तिमान और गौर वर्ण का हो गया और उसी कारणवश माता का नाम महागौरी पड़ा l माता महागौरी की आयु आठ वर्ष मानी गई है l इनकी चार भुजाएं हैं, जिनमें एक हाथ में त्रिशूल है, दूसरे हाथ से अभय मुद्रा में हैं, तीसरे हाथ में डमरू सुशोभित है और चौथा हाथ वर मुद्रा में है l इनका वाहन वृष है l नवरात्र की अष्टमी तिथि को मां महागौरी की पूजा का बड़ा महात्म्य है, मान्यता है कि भक्ति और श्रद्धा पूर्वक माता की पूजा करने से भक्त के घर में सुख-शांति बनी रहती है और उसके यहां माता अन्नपूर्णा स्वरुप होती है l इस दिन माता की पूजा में कन्या पूजन और उनके सम्मान का विधान है l महागौरी रूप में देवी करूणामयी, स्नेहमयी, शांत और मृदुल दिखती हैं l देवी के इस रूप की प्रार्थना करते हुए देव और ऋषिगण कहते हैं
                     “सर्वमंगल मंग्ल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके. शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते..”
महागौरी : माता का रंग पूर्णत: गौर अर्थात् गौरा है इसीलिए वे महागौरी कहलाती है। महागौरी आदी शक्ति हैं इनके तेज से संपूर्ण विश्व प्रकाश-मान होता है, इनकी शक्ति अमोघ फलदायिनी है l माँ महागौरी की अराधना से भक्तों को सभी कष्ट दूर हो जाते हैं तथा देवी का भक्त जीवन में पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी बनता है l दुर्गा सप्तशती में शुभ-निशुम्भ से पराजित होकर गंगा के तट पर जिस देवी की प्रार्थना देवतागण कर रहे थे वह महागौरी हैं l देवी गौरी के अंश से ही कौशिकी का जन्म हुआ, जिसने शुम्भ-निशुम्भ के प्रकोप से देवताओं को मुक्त कराया l यह देवी गौरी शिव की पत्नी हैं, यही शिवा और शाम्भवी के नाम से भी पूजित होती हैं l


Sunday, 21 October 2012

'' कालरात्रि ''

                                                                     7  कालरात्रि

                          एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
                          लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥
                          वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।

                          वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी॥  
नवरात्र का सातवां दिन मां कालरात्रि का दिन होता है। मां के इस सातवें स्वरूप की आराधना व्यक्ति के भीतर की तामसी शक्तियों का नाश करती है। तामसी प्रवृत्तियों की समाप्ति के साथ ही व्यक्ति के भीतर कल्याणकारी गुणों का प्रादुर्भाव करता है।मां का यह रूप वर्ण रात्रि के गहन अंधकार की तरह काला है। उनके गले में बिजली की भांति चमकने वाली माला है जो ब्राह्मण्ड की तरह गोल है। इस माला में हर पल एक ज्योति जलती रहती है जो मानव जीवन का सही राह दिखाती है।मां कालरात्रि दुर्गा माता का सांतवा रूप है। मां शक्ति का यह रूप अपने भक्तों को बुरे कर्मो से दूर रहकर अच्छे व सदगुणों के निकट ले जाता है। कहा जाता है कि नवरात्र के सातवें दिन जो भी व्यक्ति सच्चे हृदय से मां की आराधना करता है उसके भीतर के सभी बुरी व तामसी शक्तियां नष्ट हो जाती हैं। मां अपने भक्तों को विपत्तियों व कठिनाइयों से जूझने की क्षमता प्रदान करती है तथा वास्तविक व ईश्वरीय सुख की अनुभूति कराती है।मां का यह रूप देखने में भयावह लगता है जो व्यक्ति के भीतर एक डर भी पैदा करता है लेकिन यह डर उसे अच्छे व सदकर्मों की ओर ले जाता है। यह रूप सदैव शुभ फल देताहै। मां के इस स्वरूप को शुभंकरी भी कहा जाता है। कालरात्रि दुष्टों व शत्रुओं का संहार करती है। काले रंग वाली केशों का फैला कर रखने वाली चार भुजाओं वाली दुर्गा का यह वर्ण और वेश में अद्र्धनारीश्वर शिव की तांडव मुद्रा में नजर आती है।मां की आखों से अग्नि की वर्षा होती है। एक हाथ में दुष्टों की गर्दन तथा दूसरे हाथ में खड्ग लिए मां कालरात्रि पापियों का नाश कर रही है। मां की सवारी गधर्व यानि गधा है जो समस्त जीव जन्तुओं में सबसे परिश्रमी है। मां का यह स्वरूप भक्तों का आर्शीवाद देता है कि व्यक्ति अपने योग्यता व क्षमता का सदुपयोग करता हुआ अपने आवश्यकताओं की पूर्ति करे और अपने परिजनों व अन्य सगे सम्बन्धियों का भला करता चले। 
        ध्याम मंत्र    .........
                          करालरूपा कालाब्जसमानाकृति विग्रहा।
                          कालरात्रि: शुभु दद्यात देवी चंडाट्टहासिनी॥

Saturday, 20 October 2012

'' कात्यायनी ''


                                                               6. कात्यायनी
(ध्यान मंत्र)
                      चन्द्रहासोज्जवलकरा शार्दूलवरवाहना |
                     कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवदातिनी ||
अर्थात्- मां दुर्गा छठवें स्वरुप का नाम कात्यायनी है | इनका स्वरुप अत्यंत ही भव्य और दिव्य है | इनका वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला है | इनकी चार भुजाएं है | माताजी का दाहिनी तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में तथा नीचे वाला वर मुद्रा में है | बांई तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ में कमलपुष्प सुशोभित है | इनका वाहन सिंह है |
जप मंत्र
                      ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं कात्यायन्यै नमः
अर्थात्- कात्यायनी माता की उपासना से मनुष्य को बड़ी सरलता से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति होती है | रोग, शोक, भय, संताप और पाप नष्ट होते हैं |
श्री महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया था। इसलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं। नवरात्रि के षष्ठम दिन इनकी पूजा और आराधना होती है।इनकी आराधना से भक्त का हर काम सरल एवं सुगम होता है। चन्द्रहास नामक तलवार के प्रभाव से जिनका हाथ चमक रहा है, श्रेष्ठ सिंह जिसका वाहन है, ऐसी असुर संहारकारिणी देवी कात्यायनी कल्यान करें।महर्षि कात्यायन की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर उनकी इच्छानुसार उनके यहां पुत्री के रूप में पैदा हुई थीं. महर्षि कात्यायन ने इनका पालन-पोषण किया तथा महर्षि कात्यायन की पुत्री और उन्हीं के द्वारा सर्वप्रथम पूजे जाने के कारण देवी दुर्गा को कात्यायनी कहा गया. देवी कात्यायनी अमोद्य फलदायिनी हैं इनकी पूजा अर्चना द्वारा सभी संकटों का नाश होता है, माँ कात्यायनी दानवों तथा पापियों का नाश करने वाली हैं. देवी कात्यायनी जी के पूजन से भक्त के भीतर अद्भुत शक्ति का संचार होता है. इस दिन साधक का मन ‘आज्ञा चक्र’ में स्थित रहता है. योग साधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है. साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित होने पर उसे सहजभाव से मां कात्यायनी के दर्शन प्राप्त होते हैं. साधक इस लोक में रहते हुए अलौकिक तेज से युक्त रहता है. 
माँ कात्यायनी का स्वरूप अत्यन्त दिव्य और स्वर्ण के समान चमकीला है. यह अपनी प्रिय सवारी सिंह पर विराजमान रहती हैं. इनकी चार भुजायें भक्तों को वरदान देती हैं, इनका एक हाथ अभय मुद्रा में है, तो दूसरा हाथ वरदमुद्रा में है अन्य हाथों में तलवार तथा कमल का फूल है.


'' स्कन्दमाता ''


                                                                             5 स्कन्दमाता
(ध्यान मंत्र)
                            सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितंकरद्वया |
                           शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी ||

     जप मंत्र
                         ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं स्कन्दमातायै नमः
 स्कन्दमाता की उपासना भक्त सभी इच्छाएं पूर्ण होती है | उसे परम शांति और सुख का अनुभव होता है | इनका उपासक अलौकिक तेज एवं कांति से सम्पन्न हो जाता है | 
भगवती दुर्गा के पांचवें स्वरूप को स्कन्दमाताके रूप में जाना जाता है। स्कन्द कुमार अर्थात् काíतकेय की माता होने के कारण इन्हें स्कन्दमाताकहते हैं। इनका वाहन मयूर है। मंगलवार के दिन साधक का मन विशुद्ध चक्र में अवस्थितहोता है। इनके विग्रह में भगवान स्कन्दजीबाल रूप में इनकी गोद में बैठे होते हैं। स्कन्द मातुस्वरूपणीदेवी की चार भुजाएं हैं। ये दाहिनी तरफ की ऊपर वाली भुजा से भगवान स्कन्द्रको गोद में पकडे हुए हैं और दाहिने तरफ की नीचे वाली भुजा वरमुद्रामें तथा नीचे वाली भुजा जो ऊपर उठी हुई है, इसमें भी कमल पुष्प ली हुई हैं। इनका वर्ण पूर्णत:शुभ है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसी कारण से इन्हें पद्मासनादेवी कहा जाता है। सिंह भी इनका वाहन है

Friday, 19 October 2012

'' कूष्माण्डा ''

                                                              4. कूष्माण्डा
(ध्यान मंत्र)
                 सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च |
                 दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुबदास्तु मे ||
अर्थात्- मां दुर्गा के चौथे स्वरुप का नाम कूष्माण्डा है | अपनी मंद, हल्की हंसी द्वारा ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से अभिहित किया गया है | इनकी आठ भुजाएं है | अतः ये अष्टभुजा देवी के नाम से विख्यात है | इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डलु, धनुष, बाण, कमलपुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा | इनका वाहन सिंह है |
जप मंत्र,,,,,,
                                  ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं कूष्माण्डायै नमः
अर्थात्- मां कूष्माण्डा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक मिट जाते हैं | इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है | यदि सच्चे मन से इनकी आराधना की जाए, तो साधक को सुगमता से परम पद की प्राप्ति होती है |
अपनी मंद, हल्की हंसी के द्वारा ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इस देवी को कुष्मांडा नाम से अभिहित किया गया है।इस देवी की आठ भुजाएं हैं, इसलिए अष्टभुजा कहलाईं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जप माला है। इस देवी का वाहन सिंह है और इन्हें कुम्हड़े की बलि प्रिय है। संस्कृति में कुम्हड़े को कुष्मांड कहते हैं इसलिए इस देवी को कुष्मांडा। जब सृष्टि नहीं थी, चारों तरफ अंधकार ही अंधकार था, तब इसी देवी ने अपने ईषत्‌ हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी। इसीलिए इसे सृष्टि की आदिस्वरूपा या आदिशक्ति कहा गया है।इस देवी का वास सूर्यमंडल के भीतर लोक में है। सूर्यलोक में रहने की शक्ति क्षमता केवल इन्हीं में है। इसीलिए इनके शरीर की कांति और प्रभा सूर्य की भांति ही दैदीप्यमान है। इनके ही तेज से दसों दिशाएं आलोकित हैं। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में इन्हीं का तेज व्याप्त है।ये देवी अत्यल्प सेवा और भक्ति से ही प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती हैं। सच्चे मन से पूजा करने वाले को सुगमता से परम पद प्राप्त होता है।विधि-विधान से पूजा करने पर भक्त को कम समय में ही कृपा का सूक्ष्म भाव अनुभव होने लगता है। ये देवी आधियों-व्याधियों से मुक्त करती हैं और उसे सुख समृद्धि और उन्नाति प्रदान करती हैं। अंततः इस देवी की उपासना में भक्तों को सदैव तत्पर रहना चाहिए।
अचंचल और पवित्र मन से नवरात्रि के चौथे दिन इस देवी की पूजा-आराधना करना चाहिए। इससे भक्तों के रोगों और शोकों का नाश होता है तथा उसे आयु, यश, बल और आरोग्य प्राप्त होता है।



Wednesday, 17 October 2012

'' चन्द्रघंटा ''

                                                                         3. चन्द्रघंटा
(ध्यान मंत्र)                                                                     
                          पिण्डजप्रवरारुढ़ा चण्डकोपास्त्रकैर्युता | 
                          प्रसादं तुनते मह्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता ||
 
अर्थात्- मां दुर्गा की तीसरी शक्ति का नाम चन्द्रघण्टा है | इनके मस्तक में घंटे के आकार का अर्धचन्द्र है | इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है | इनके दस हाथ है | इनके दस हाथों में शस्त्र तथा बाण आदि शस्त्र विभूषित है | इनका वाहन सिंह है | इनकी मुद्रा ; युद्ध के लिए अद्यत रहने की होती है | इनके घंटे की सी भयानक चण्डध्वनि से अत्याचारी दानव-दैत्य-राक्षस सदैव डरते रहते है |
जप मंत्र
                                ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चन्द्रघण्टायै नमः
महत्व्- इनकी आराधना से साधक में वीरता, निर्भरता के साथ सौम्यता व विनम्रता का विकास भी होता है | उसके मुख, नेत्र व सम्पूर्ण काया में कांति गुण की वृद्धि होती है | स्वर में माधुर्य का समावेश होता है | 
मार्कंडेय पुराण के अनुसार तृतीय नवरात्र की देवी का नाम चंद्रघंटा देवी है, निगम ग्रंथों में निहित कथा के अनुसार जब भगवान् शिव ने देवी को समस्त विद्ययों का ज्ञान प्रदान करना शुरू किया तो देवी उस ज्ञान का तप के लिए प्रयोग करने लगी, लगातार आगम निगमों का ज्ञान प्राप्त कर देवी महातेजस्विनी हो गयी व सभी कलाओं सहित तेज पुंज बन योगमाया के रूप में स्थित हो गयी, तब प्रसन्न हो कर शिव ने देवी को अपने साथ एकाकार कर अर्धनारीश्वर रूप धरा, उस समय देवी पार्वती जी को अपने वास्तविक स्वरुप का बोद्ध हुआ, तब शिव से अलग हो आकाश में देवी ने सिंह पर स्वर हो दस भुजाओं वाला एक अद्भुत रूप धारण किया, हाथों में कमल पुष्प धनुष त्रिशूल,गदा, तलवार सहित वर अभी मुद्रा धारण की, क्योंकि देवी तपस्विनी रूप में थी तो एक हाथ में माला और एक हाथ में उनहोंने कमंडल धारण कर लिया, सभी ऋषि मुनि देवता देवी के तेज को सः नहीं पा रहे थे तो भगवान शिव ने चन्द्रमा को देवी के शीर्षस्थान पर बिराजने को कहा, जिससे उनका तेजस्वी स्वरूप अब और भी सुन्दर तथा शीतल हो गया, तब सभी देवताओं नें देवी की जय जयकार की तथा उनको चंद्रघंटा देवी के नाम से पुकारा,जो भी भक्त देवी के ऐसे दिव्य रूप की पूजा करता है, वो एक साथ संसार में भी तथा मुक्ति के मार्ग पर भी एक ही समय चल सकता है, भौतिक संसार में तो आगे बढ़ता ही है साथ अध्यात्म में भी शिखर पर रहता है, सभी विद्यार्थियों, साधको, भक्तों को ऐसी देवी के दर्शनों से महासिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, ऐसे व्यक्ति को अहंकार रहित ज्ञान प्राप्त होता है, देवी को पूजने वाले को सवयम देवता भी पूजते हैंआकाश मंडल में चन्द्रमा को अपने शीश पर धारण करने के कारण देवी का नाम पड़ा चंद्रघंटा, महाशक्ति चंद्रघंटा माँ पार्वती जी का तेजोमय स्वरुप हैं जो सर्व कलाओं को धारण करने से उत्पन्न हुआअपनी सभी कलाओं को अध्यात्म धर्म सहित धारण करने के कारण ही देवी को चंद्रघंटा कहा जाता है, देवी के उपासक एक साथ ही संसार में जीते हुये परम मुक्ति के मार्ग पर भी चल सकते है, जिस कारण देवी की बड़ी महिमा गई जाती है, देवी कृपा से ही भक्त को संसार के सभी सुख तथा मुक्ति प्राप्त होती है, देवी को प्रसन्न करने के लिए तीसरे नवरात्र के दिन दुर्गा सप्तशती के चौथे अध्याय का पाठ करना चाहिए, पाठ करने से पहले कुंजिका स्तोत्र का पाठ करें, फिर क्रमश: कवच का, अर्गला स्तोत्र का, फिर कीलक स्तोत्र का पाठ करें, मनोकामना की पूर्ती के लिए दुर्गा सप्तशती का पाठ कर रहे हैं तो कीलक स्तोत्र के बाद रात्रिसूक्त का पाठ करना अनिवार्य होता हैयदि आप ब्रत कर रहे हैं तो लगातार देवी के नवारण महामंत्र का जाप करते रहें ।
                     जय माता की . .


'' ब्रह्मचारिणी ''

2. ब्रह्मचारिणी
(ध्यान मंत्र)
                               दधाना करमद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू |
                                देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा ||
अर्थात्- मां दुर्गा की नवशक्तियों का दूसरा स्वरुप ब्रह्मचारिणी है | ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरुप पूर्ण ज्योर्तिमय एवं अत्यंत भव्य है | इनके दाहिने हाथ में जाप की माला एवं बाएं हाथ में कमण्डल रहता है |
जप मंत्र 
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं ब्रह्मचारिण्यै नमः अर्थात्- मां दुर्गाजी का यह दूसरा स्वरुप भक्तों और सिद्धों को अनंत फल देने वाला है| इनकी उपासना से मनुष्य में तप त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है | जीवन के कठिन संघर्षो में भी उसका मन कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं होता | मां ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से उसे सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है |


Tuesday, 16 October 2012

'' शैलपुत्री ''



1. शैलपुत्री
(ध्यान मंत्र)
वन्दे वांच्छितलाभाय चन्द्रा.र्धकृतशेखराम् |
वृषारुढ़ां शूलधरां यशस्विनीम् ||
अर्थात्- देवी वृषभ पर स्थित हैं, इनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बांए हाथ में कमल पुष्प सुशोभित है | यही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा है | नवरात्र के प्रथम दिन देवी उपासना के अंतर्गत सविधि शैलपुत्री का पूजन व जाप मंत्र करना चाहिए |
जप मंत्र
                   ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं शैलपुत्र्यै नमः
अर्थात्- शैलपुत्री देवी का विवाह शंकरजी से ही हुआ | पूर्वजन्म की भांति इस जन्म में भी वह शिवजी का अर्द्धांगिनी बनीं | नवदुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री दुर्गा का महत्व और शक्तियां अनन्त हैं | नवरात्र पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है और यहीं से दुर्गा की योगसाधना प्रारम्भ होती है |



Monday, 15 October 2012

शरद नवरात्रों के शुभ अवसर पर

शरद नवरात्रों के शुभ अवसर पर '' जागरण एवं भागवत परिवार '' की तरफ से आप सभी को बहुत बहुत बधाई ...........


Saturday, 13 October 2012

केवट और भगवान


  जब केवट प्रभु के चरण धो चूका तो भगवान कहते है - भाई ! अब तो गंगा पार करा दे, इसपर केवट कहता है प्रभु नियम तो आपको पता ही है कि जो पहले आता है उसे पहले पारउतारा जाता है इसलिए प्रभु अभी थोडा और रुको. भगवान कहते है -भाई ! यहाँ तो मेरे सिवा और कोई दिखायी नहीं देता इस घाट पर तो केवलमै ही हूँ फिर पहले किसे पार लगना है.?
 केवट बोला - प्रभु! अभी मेरे पूर्वज बैठे हुए है जिनको पार लगाना है.झट गंगा जी मेंउतरकर प्रभु के चरणामृत से अपने पूर्वजो का तर्पण करता है,धन्य है केवट जिसने अपना,अपने परिवार और सारे कुल का उद्धार करवाया.फिर भगवान को नाव में बैठाता है,दूसरे किनारे तक ले जाने से पहले फिर घुमाकर वापसले जाता है,जब बार-बार केवट ऐसा करता है तो प्रभु पूछतें हैं  -भाई बार बार चक्कर क्यों लगवाता हैमुझे चक्कर आने लगे हैं |केवट कहता है - प्रभु ! यही तो मै भी कह रहा हूँ | ८४ लाख योनियों के चक्कर लगातेलगाते मेरी बुद्धि भी चक्कर खाने लगी है, अब और चक्कर मत लगवाओ. गंगा पार पहुँचकर केवट प्रभु को दंडवत प्रणाम करता है | उसे दंडवत करते देख भगवान कोसंकोच हुआ कि मैंने इसे कुछ दिया नहीं.
                   "केवट उतरि दंडवत कीन्हा,प्रभुहि सकुच एहि नहि कछु दीन्हा"
कितना विचित्र द्रश्य है जहाँ देने वाले को संकोच हो रहा है और लेने वाला केवट उसकीभी विचित्र दशा है कहता है-
                      "नाथ आजु मै काह न पावा मिटे दोष दुःख दारिद्र दावा
                  बहुत काल मै कीन्ह मजूरी आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी"

लेने वाला कहे  बिना लिए ही कह रहा है कि हे नाथ !आज मैंने क्या नहीं पाया मेरे दोषदुःख और दरिद्रता सब मिट गई | आज विधाता ने बहुत अच्छी मजदूरी दे दी |आपकी कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिये | भगवान उसे को सोने की अंगूठी देने लगतेहै | केवट कहता है प्रभु उतराई कैसे ले सकता हूँ. हम दोनों एक ही बिरादरी के है औरबिरादरी वाले से मज़दूरी  नहीं लिया करते.
           दरजी, दरजी से न ले सिलाई धोबी, धोबी से न ले धुलाई
           नाई, नाई से न ले बाल कटाई फिर केवट, केवट से कैसे ले उतराई
 आप भी केवट, हम भी केवट, अंतर इतना है हम नदी मे  इस पार से उस पार लगाते है, आप संसारसागर से पार लगाते हो, हमने आपको पार लगा दिया, अब जब मेरी बारी आये तो आप मुझे पारलगा देना |  प्रभु आज तो सबसे बड़ा धनी मै ही हूँ क्योकि वास्तव में धनी कौन है? जिसकेपास आपका नाम है, आपकी कृपा है, आज मेरे पास दोनों ही है. मै ही सबसे बड़ा धनी हूँ.





Thursday, 11 October 2012

'' सरस्वती को ही ज्ञान की देवी क्यों माना जाता है ? ''

सरस्वती को ही ज्ञान की देवी क्यों माना जाता है ?
माँ सरस्वती विद्या , संगीत और बुद्धि की देवी मानी गई है. देवीपुराण में सरस्वती को सावित्री, गायत्री, सती, लक्ष्मी और अम्बिका नाम से संबोधित किया गया है, प्राचीन ग्रंथो में उन्हें वाग्देवी , वाणी, शारदा, भारती , वीणापाणी, विद्याधरी , सर्वमंगला आदि नामो से अलंकृत किया गया है, यह सम्पूर्ण संशयो का उच्छेद करने वाली तथा बोधस्वरुप्नी है. इनकी उपासना से सब प्रकार की सिद्धिया प्राप्त होती है. ये संगीतशास्त्र की भी अधिष्ठात्री देवी है, ताल, स्वर , लय, राग-रागिनी आदि का प्रदुभार्व भी इन्ही से हुआ है. सात प्रकार के स्वरों द्वारा इनका स्मरण किया जाता है, इसलिए ये स्वरात्मिका कहलाती है, सप्तविध स्वरों का ज्ञान प्रदान करने के कारण ही इनका नाम सरस्वती है. वीणावादिणी ,सरस्वती संगीतमय आह्लादित जीवन जीने की प्रेरनावस्था है, वीणावादन शरीर यंत्र को एकदम स्थैर्य प्रदान करता है. इसमें शरीर का अंग-अंग परस्पर गुंथकर समाधि अवस्था को प्राप्त हो जाता है.

सरस्वती के सभी अंग शवेताम्भ है , जिसका तात्पर्य यह है की सरस्वती स्त्वगुनी प्रतिभा स्वरूप है.. इसी गुण की उपलब्धि जीवन का अभीष्ट है, कमल गतिशीलता का प्रतीक है.. यह निरपेक्ष जीवन जीने की प्रेरणा देता है... हाथ में पुस्तक सभी कुछ जान लेने, सभी कुछ समझ लेने की सीख देती है ..
देवी भागवत के अनुसार, सरस्वती को ब्रह्मा, विष्णु, महेश द्वारा पूजा जाता है, जो सरस्वती की आराधना करता है, उसमे उनके वहां हंस के नीर-क्षीर-विवेक गुण अपने आप ही आ जाते है, माघ माह में शुकल पक्ष की पंचमी को बसंत पंचमी पर्व मनाया जाता है. तब सम्पूर्ण विधि-विधान से माँ सरस्वती का पूजन करने का विधान है. लेखक, कवि, संगीतकार सभी सरस्वती की प्रथम वंदना करते है. उनका विश्वास है की इससे उनके भीतर रचना की उर्जा शक्ति उत्पन्न होती है. इसके आलावा माँ सरस्वती देवी की पूजा से रोग, शोक , चिंताए और मन का संचित विकार भी दूर होता है.
एक समय ब्रह्माजी ने सरस्वती से कहा - 'तुम किसी योग्य पुरष के मुख में कवित्वशक्ति होकर निवास करो' उनकी आज्ञानुसार सरस्वती योग्य पात्र की तलाश में निकल पड़ी. पीड़ा से तड़प रहे एक पक्षी को देखकर जब महर्षि वाल्मीकि ने द्रवीभूत होकर यह श्लोक कहा :---
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा: ।
यत क्रोञ्च्मिथुनदेक्म्व्धी: काममोहितम ।।
वाल्मीकि कि असाधारण योग्यता और प्रतिभा का परिचय पाकर सरस्वती ने उन्ही के मुख में सर्वप्रथम प्रवेश किया. सरस्वती के कृपापात्र होकर मह्रिषी वाल्मीकि जी ही "आदिकवि" के नाम से संसार में विख्यात हुए.
रामायण के एक प्रसंग के अनुसार जब कुम्भकर्ण कि तपस्या से संतुष्ट होकर ब्रह्मा जी उसे वरदान देने पहुंचे , तो उन्होंने सोचा कि यह दुष्ट कुछ भी ना करे, केवल बैठकर भोजन ही करे, तो यह संसार उजड़ जायेगा.. अत: उन्होंने सरस्वती को बुलाया और कहा कि इसकी बुद्धि को भ्रमित कर दो. सरस्वती ने कुम्भकर्ण कि बुद्धि विकृत कर दी.. प्रणाम यह हुआ कि छह माह कि नींद मांग बैठा .. इस प्रकार कुम्भकर्ण में सरस्वती का प्रवेश उनकी मृत्यु का कारण बना  |
अब बोलिए जय माँ सरस्वती. जय माता दी

Tuesday, 9 October 2012

'' अमीर आदमी , गरीब आदमी ''

हर कोई अमीर आदमी को चाहता हैं ! हर कोई अमीर आदमी को अपना बनाना चाहता हैं ! सारे लोग अमीर व्यक्ति के पीछे लगे रहते हैं ! गरीब को कोई नहीं पूछता ! गरीबों से सब नफरत करते हैं ! गरीब आदमी कि कोई मदद नहीं करता ! पर एक बात...हमेशा याद रखना कि भगवान ने हमेशा गरीबों का साथ दिया हैं ! भगवान ने हमेशा गरीब व्यक्ति की मददकी हैं..........
भगवान राम ने गरीब शबरी के झूठे बेर खाए और उसका उद्धार किया !
भगवान कृष्ण ने गरीब कुबजा का रोग दूर किया था ! ---भगवान ने गरीब आम बेचने वाली का भी उद्धारकिया था ! ---भगवान कृष्ण ने अपने बचपन के दीन हीन गरीब मित्र सुधामा के पाँव अपने आसुओं से धोए और उसके तीन मुट्ठी चावल के बदले तीनोँ लोक उसको देने लगे थे ! ---भगवान कृष्ण ने ही दुरीयोधन का मेवा त्याग कर गरीब विदुर के घर का साग खाया था ! इसलिए मेरे दोस्तों गरीबो से नफरत मत करो ! गरीबो कि हमेशा मदद करो,जो व्यक्ति गरीबो की मदद करता हैं, भगवान उसकी मदद करते हैं और उसकी सभी मनोकामनाओ को पूरा करते हैं और हमेशा याद रखो कि भेदभाव सिर्फइंसान करतें हैं पर भगवान कभी नहीं !
 जय श्री कृष्ण...!



Monday, 8 October 2012

" पारद लक्ष्मी "

 आज बात करेगे - ऐसी " देवी " की - जिसकी जरूरत सभी को है आज भारतवर्ष में तो इसको लेकर खलबली मची हुई है
  जी हां = मै बात कर रहा हु = धन की देवी ="माँ लक्ष्मी " की - आज बताता हूँ - " पारद लक्ष्मी " के बारे में =
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1 = अगर आप ब्यवसायिक समस्याओ - सरकारी समस्याओ से ग्रसित है - तो " ऐं श्रीं ह्रीं क्लीं " मंत्र का 108 जाप - और प्रत्येक मंत्र के साथ एक - एक लाल फुल चढाते जाये - घी का दीपक - अगरवत्ती जलाना मत भूलियेगा = आर्थिक समस्याओ से मुक्ति तुरंत =
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2 = अगर आपको नोकरी नहीं मिल रही है - और कोई भी काम मिलने में बाधा आ रही है तो - " ॐ श्रीं विघ्न हराय पारदेश्वरी महालक्ष्म्ये नमः " का एक माला जाप " कमलगट्टे " की माला से प्रतिदिन करे =
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3 = अगर आपका प्रमोशन नहीं हो रहा है = " श्रीं ऐं फट क्लीं " की एक माला जाप " कमलगट्टे " की माला से प्रतिदिन करे =
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4 = क्या आप जानते है = माँ लक्ष्मी को दूध से स्नान कराने से शक्ति और बल की प्राप्ति होती है =
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5 = दही का स्नान कराने से संपत्ति में बढ़ोतरी होती है =
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6 = तिल स्नान कराने से धन की प्राप्ति होती है =
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7 = घी का स्नान से आयु - आरोग्य और एश्वर्या की प्राप्ति होती है =
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8 = माँ लक्ष्मी की आराधना में = कमल फुल - कौड़ी - शंख आदि रखना मत भूलियेगा ==




Sunday, 7 October 2012

पूर्वजों का श्राद्ध कर्म करना आवश्यक क्यों?

ब्रह्मपुराण के मतानुसार अपने मृत पितृगण के उद्देश्य से पितरों के लिए श्रद्धा पूर्वक किये जाने वाले कर्म विशेष को श्राद्ध कहते है, श्राद्ध से ही श्रद्धा कायम रहती है. कृतज्ञता की भावना प्रकट करने के लिए किया हुआ श्राद्ध समस्त प्राणियों में शांतिमयी सद्दभावना की लहरें पहुंचाता है. ये लहरें, तरंगे ना केवल जीवित को बल्कि मृतक को भी तृप्त करती है. श्राद्ध द्वारा मृतात्मा को शांति-सद्गति मोक्ष मिलने की मान्यता के पीछे यही तथ्य है.. इसके आलावा श्राद्धकर्ता को भी विशिष्ट फल की प्राप्ति होती है
मनुस्मृति में लिखा है. :- मनुष्य श्रद्धावान होकर जो - जो पदार्थ अच्छी तरह विधि पूर्वक पितरो को देता है, वह - वह परलोक में पितरों को आनंद और अक्षेय रूप में प्राप्त होता है .
ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में यमराज सभी पितरो को अपने यह यहाँ 

 से छोड़ देते है, ताकि वे अपनी संतान से श्राद्ध के निमित्त भोजन ग्रेहण कर ले. इस माह में श्राद्ध ना करने वालों के पितृ अतृप्त उन्हें शाप देकर पितृ लोक को चले जाते है. इससे आने वाली पीढियो को भारी कष्ट उठाना पडता है, उसे ही पितृदोष कहते है. पितृ जन्य समस्त दोषों कि शांति के लिए पूर्वजों कि मृत्यु तिथि के दिन श्राद्ध कर्म किया जाता है, इसमें ब्राह्मणों को भोजन कराकर तृप्त करने का विधान है, श्राद्ध करने वाले व्याक्ति को क्या फल मिलता है , इस बारे में गरुंडपुराण में कहा गया है :-
श्राद्ध कर्म करने से संतुष्ट होकर पितृ मनुष्यों के लिए आयु, पुत्र, यश, मोक्ष , स्वर्ग, कीर्ति, पुष्ठि, बल, वैभव, पशुधन, सुख, धन और धान्य वृद्धि का आशीष प्रदान करते है.
यमस्मृति 36.37 में लिखा है कि पिता, दादा और परदादा ये तीनो ही श्राद्ध की ऐसे आशा करते है , जैसे वृक्ष पर रहते हुए पक्षी वृक्ष में फल लगने की आशा करते है, उन्हें आशा रहती है कि शहद , दूध व् खीर से हमारी संतान हमारे लिए श्राद्ध करेगी
देवताओ के लिए जो हव्य और पितरो के लिए कव्य दिया जाता है, ये दोनों देवताओ और पितरो को कैसे मिलता है , इसके सम्बंध में यमराज ने अपनी स्मृति में कहा है :- मन्त्र्वेक्त्ता ब्रह्मण श्राद्ध के अन्न के जितने कौर अपने पेट में डालता है, उन कौरों को श्राद्धकर्ता का पिता ब्राह्मण के शरीर में स्थित होकर पा लेता है.
विष्णुपुराण में लिखा है की श्रद्धायुक्त होकर श्राद्धकर्म करने से केवल पितृगण ही तृप्त नहीं होते, बल्कि ब्रह्मा, इंद्र, रूद्र, आशिवनिकुमार, सूर्य, अग्नि, अष्टवसु , वायु, ऋषि , मनुष्य, पशु, पक्षी और सरीसृप आदि समस्त भूत प्राणी तृप्त होते है.
अब बोलिए जय माता दी, जय पितरो की.

Thursday, 4 October 2012

'' एक सच्चा दोस्त ''

इंसान को दोस्ती बडी ही सोच समझ कर करनी चाहिए । एक सच्चा दोस्त वही है जो आपकी खुशी मे खुश होने के साथ साथ आपके दुखों को भी अपना बना ले। जो मुसीबत में एक मांझी की तरह तरह आपकी नैया को पार लगाने में आपकी मदद करे।ऐसा ही एक उदाहरण है कृष्ण और द्रोपदी की दोस्ती।एक बार पाण्डवों ने राजसूय यज्ञ में श्री कृष्ण को प्रथम पद प्रदान किया। शिशुपाल ने इस बात पर अपना विरोध जताया और श्री कृष्ण को खूब भला बुरा कहा। तब श्री कृष्ण ने अपने सुर्दशन चक्र से शिशुपाल का वध कर दिया। इस काम में असावधानी के कारण उनकी उंगली से खून बहने लगा सब घबराकर इधर उधर देखने लगे उसी समय द्रोपदी ने अपनी साड़ी को फाड़ कर पटटी बांधी।एक बार पाण्डव द्रोपदी को जुए में दाव पर लगाकर हार गए। सारे कौरवों ने भरी सभा में द्रोपदी का खूब अपमान किया। दुशाषन जब द्रोपदी की साड़ी खींचने लगा तब उसकी लाज बचाने के लिए श्रीकृष्ण ने स्वयं द्रोपदी की चीर बड़ाकर उसकी लाज बचाई। इसलिए कहते हैं कि मुसीबत के समय जो आपके साथ होता है वही आपका सच्चा दोस्त होता है।

Wednesday, 3 October 2012

'' हनुमान जी का जन्म ''


हनुमान जी का जन्म त्रेता युग मे अंजना(एक नारी वानर) के पुत्र के रूप मे हुआ था। अंजना असल मे पुन्जिकस्थला नाम की एक अप्सरा थीं, मगर एक शाप के कारण उन्हें नारी वानर के रूप मे धरती पे जन्म लेना पडा। उस शाप का प्रभाव शिव के अन्श को जन्म देने के बाद ही समाप्त होना था। अंजना केसरी की पत्नी थीं। केसरी एक शक्तिशाली वानर थे जिन्होने एक बार एक भयंकर हाथी को मारा था। उस हाथी ने कई बार असहाय साधु-संतों को विभिन्न प्रकार से कष्ट पँहुचाया था। तभी से उनका नाम केसरी पड गया, "केसरी" का अर्थ होता है सिंह। उन्हे "कुंजर सुदान"(हाथी को मारने वाला) के नाम से भी जाना जाता है।केसरी के संग मे अंजना ने भगवान शिव कि बहुत कठोर तपस्या की जिसके फ़लस्वरूप अंजना ने हनुमान(शिव के अन्श) को जन्म दिया।जिस समय अंजना शिव की आराधना कर रहीं थीं उसी समय अयोध्या-नरेश दशरथ, पुत्र प्राप्ति के लिये पुत्र कामना यज्ञ करवा रहे थे। फ़लस्वरूप उन्हे एक दिव्य फल प्राप्त हुआ जिसे उनकी रानियों ने बराबर हिस्सों मे बाँटकर ग्रहण किया। इसी के फ़लस्वरूप उन्हे राम, लषन, भरत और शत्रुघन पुत्र रूप मे प्राप्त हुए।विधि का विधान ही कहेंगे कि उस दिव्य फ़ल का छोटा सा टुकडा एक चील काट के ले गई और उसी वन के ऊपर से उडते हुए(जहाँ अंजना और केसरी तपस्या कर रहे थे) चील के मुँह से वो टुकडा नीचे गिर गया। उस टुकडे को पवन देव ने अपने प्रभाव से याचक बनी हुई अंजना के हाथों मे गिरा दिया। ईश्वर का वरदान समझकर अंजना ने उसे ग्रहण कर लिया जिसके फ़लस्वरूप उन्होंने पुत्र के रूप मे हनुमान को जन्म दिया।अंजना के पुत्र होने के कारण ही हनुमान जी को अंजनेय नाम से भी जाना जाता है जिसका अर्थ होता है 'अंजना द्वारा उत्पन्न...............

Tuesday, 2 October 2012

'' श्राद्ध कर्म की बहुत ही सरल विधि ''

आइये जानते है की किस विधि से या कैसे करे श्राद्ध ??....
जिस तिथि को आपको घर मे श्राद्ध करना हो उस दिन प्रात: काल जल्दी उठ कर स्नान आदी  से निवर्त हो जाये . पितरो के निम्मित भगवन सूर्य देव को जल अर्पण करे और अपने नित्य नियम की पूजा करके अपने रसोई घर की शुद्ध जल से साफ़ सफाई करे. और पितरो की सुरुचि यानि उनके पसंद का स्वादिष्ट भोजन बनाये . भोजन को एक थाली मे रख ले और पञ्च बलि के लिए पांच जगह २- २ पुड़ी या रोटी जो भी आपने बनायीं है उस पर थोड़ी सी खीर रख कर पञ्च पत्तलों पर रख ले . एक उपला यानि गाय के गोबर का कंडे को गरम करके किसी पात्र मे रख दे. अब आप अपने घर की दक्षिण दिशा की तरफ मुख करके बैठ जाये . अपने सामने अपने पितरो की तस्वीर को एक चोकी पर स्थापित कर दे . एक महत्वपूर्ण बात जो मै बताना चाहता हू वो यह हैकी पितरो की पूजा मे रोली और चावल वर्जित है। । रोली रजोगुणी होने के कारण पितरों को नहीं चढ़ती, चंदन सतोगुणी होता है अतः भगवान शिव की तरह पितरों को भी चन्दन अर्पण किया जाता है। इसके अलावा पितरों को सफेद फूल चढ़ाए जाते हैं तो आप भी अपने पितरो को चन्दन का टिका लगाये और सफ़ेद पुष्प अर्पण करे . उनके समक्ष २ अगरबत्ती और शुद्ध घी का दीपक जलाये. हाथ जोड़ कर अपने पितरो से प्रार्थना करे और जाने अनजाने मे हुई गलती के लिए माफ़ी मांगे , अपने घर की सुख शांति और सम्रिध्ही का आशीर्वाद मांगे और उन्हें भोजन का निमंत्रण दे. भोजन की थाली और पांच जगह जो आपने पितरो की बलि रखी है उसे पितरो की तस्वीर के सामने रख दे .
गरम उपला यानि कंडे पर आप शुद्ध घी और भोजन की थाली मे से थोडा थोडा समस्त पकवानों को लेकर शुद्ध घी मे मिलाकर उपले (कंडे ) पर अपने पितरो को भोग अर्पण करे जिसे हम धूप भी कहते है . मुख्य बात यह ध्यान रखने की है की जब तक आप इस प्रकार अपने पितरो को इस प्रकार धूप नहीं देंगे तब तक आपके घर के पितृ देवता भोजन ग्रहण नहीं करते है. उस धूप से उठने वाली सुगंध से ही वो भोजन को ग्रहण करते है . धूप देने के बाद अपने सीधे हाथ मे जल लेकर भोजन की थाली के चारो और तीन भर घुमा कर अगुठे की तरफ से जल जमीन पर छोड़ दे. आप मे से बहुत से दर्शक ऐसे होंगे जीने यह नहीं पता होगा की जब हम अंगुलियों की तरफ से जल छोड़ते है तो वो जल देवता ग्रहण करते है और जब हम अंगूठे की तरफ से जल छोड़ते है तो वह जल आपके पितृ ग्रहण करते है . बहुत छोटी सी किन्तु आपक सभी के लिए बहुत ज्ञानवर्धक बात है यह. तो अगर आप चाहते है ही आपके पितृ आपका दिया हुआ भोजन और जल ग्रहण करे तो इस विधि से धूप दे और जल को अंगूठे की तरफ से छोड़े. एक बार पुन: उनसे मंगल आशीर्वाद की कामना करे . पांच बलि मे से एक एक बलि क्रमश गाय को , कुत्ते को , कौए को, एक किसी भी मांगने वाले को और एक चींटी को दे दे .भोजन की थाली घर मे बुलाये ब्राह्मिन के सामने रखे . उसे आत्मीयता से भोजन करवाए . भोजन के पश्चात ब्राह्मिन देवता के चरण छुकर आशीर्वाद प्राप्त करे और ब्राह्मिन देवता को यथा शक्ति दक्षिणा, वस्त्र आदि दे कर विदा करे ..................



Monday, 1 October 2012

'' 2012 मे श्राद्ध की तिथियां ''




श्राद्ध की तिथि
पूर्णिमा तिथि का श्राद्ध 29 सितम्बर शनिवार
प्रतिपदा तिथि का श्राद्ध 30 सितम्बर रविवार
 द्वितीया तिथि का श्राद्ध 1 अक्तूबर सोमवार
तृतीया तिथि का श्राद्ध 2 अक्तूबर मंगलवार (दिन में 11.48 के बाद )
चतुर्थी तिथि का श्राद्ध 4 अक्तूबर बृहस्पतिवार
पंचमी तिथि का श्राद्ध 5 अक्तूबर शुक्रवार
षष्ठी तिथि का श्राद्ध 6 अक्तूबर शनिवार
सप्तमी तिथि का श्राद्ध 7 अक्तूबर रविवार
अष्टमी तिथि का श्राद्ध 8 अक्तूबर सोमवार
नवमी तिथि का श्राद्ध 9 अक्तूबर मंगलवार
दशमी तिथि का श्राद्ध 10 अक्तूबर बुधवार
एकादशी तिथि का श्राद्ध 11 अक्तूबर बृहस्पतिवार
द्वादशी तिथि(सन्यासियों) का श्राद्ध 12 अक्तूबर शुक्रवार
त्रयोदशी तिथि का श्राद्ध 13 अक्तूबर शनिवार
चतुर्दशी तिथि का श्राद्ध 14 अक्तूबर रविवार
अमावस/सर्वपितृ श्राद्ध 15 अक्तूबर सोमवार



चतुर्दशी तिथि के श्राद्ध की विशेषता
  
ऎसे सभी जो आज किसी कारण वश हमारे मध्य नहीं तथा इस लोक को छोड कर परलोक में वास कर रहे है, तथा इस लोक को छोडने का कारण अगर शस्त्र, विष या दुर्घटना आदि हो तो ऎसे पूर्वजों का श्राद्ध चतुर्दशी तिथि को किया जाता है.
 चतुर्दशी तिथि में सामान्य रूप मे लोक छोडने वाले व्यक्तियों का श्राद्ध अमावस्या तिथि में करने का विधान है.

'' श्राद्ध के लिए कुछ नियम ''

श्राद्ध के लिए कुछ नियम :
     दूसरेकी भूमिपर श्राद्ध नहीं करना चाहिये। जंगल, पर्वत, पुण्यतीर्थ और देवमन्दिर – ये दूसरेकी भुमिमें नहीं आते; क्योंकि इनपर किसीका स्वामित्व नहीं होता ।
- कूर्मपुराण
श्राद्धमें पितरोंकी तृप्ति ब्राह्मणोंके द्वारा ही होती है।
-स्कन्दपुराण
श्राद्धकालमें आये हुए अतिथिका अवश्य सत्कार करे। उस समय अतिथिका सत्कार न करनेसे वह श्राद्ध कर्मके सम्पूर्ण फलको नष्ट कर देता है।
- वराहपुराण
जहाँ रजस्वला स्त्री, चाण्डाल और सुअर श्राद्धके अन्नपर दृष्टि डाल देते हैं, वह अन्न प्रेत ही ग्रहण करते हैं।
-स्कन्दपुराण
श्राद्धमें पहले अग्निको ही भाग अर्पित किया जाता है। अग्निमें हवन करनेके बाद जो पितरोंके निमित्त पिण्डदान किया जाता है, उसे ब्रह्मराक्षस दूषित नहीं करते।
- महाभारत, अनु. ९२।११-१२
जो अज्ञानी मनुष्य अपने घर श्राद्ध करके फिर दुसरे के घर भोजन करता है, वह पाप का भागी होता है और उसे श्राद्धका फल नहीं मिलता।
- स्कन्दपुराण
एक हाथसे लाया गया जो अन्न (अन्नपात्र) ब्राह्मणोंके आगे परोसा जाता है, उस अन्नको राक्षस छीन लेते हैं।
- मनुस्मृति ३।२२५
वस्त्रके बिना कोई क्रिया, यज्ञ, वेदाध्ययन और तपस्या नहीं होती । अतः श्राद्धकालमें वस्त्रका दान विशेषरुपसे करना चाहिये।
-ब्रह्मपुराण
श्राद्ध और हवनके समय तो एक हाथसे पिण्ड एवं आहुति दे, पर तर्पणमें दोनों हाथोंसे जल देना चाहिये।
- पद्मपुराण,नारदपुराण,मत्स्यपुराण,ब्रह्मपुराण,लघुयमस्मृति
श्राद्धके पिण्डोंको गौ, ब्राह्मण या बकरीको खिला दे अथवा अग्नि या पानीमें छोड दे ।
- मनुस्मृति ३।२६०, महाभारत,अनु. १४५
जो सफेद तिलोंसे पितरोंका तर्पण करता है, उसका किया हुआ तर्पण व्यर्थ होता है ।
- पद्मपुराण
रात्रिमें श्राद्ध नहीं करना चाहिये, उसे राक्षसी कहा गया है। दोनों सन्ध्याओंमें तथा पूर्वाह्णकालमें भी श्राद्ध नहीं करना चाहिये ।
- मनुस्मृति ३।२८०