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Monday, 22 October 2012

'' दुर्गाष्टमी और महानवमी का महत्व ''

दुर्गाष्टमी  और महानवमी  का महत्व.......
आदि शक्ति जगदम्बा की परम कृपा प्राप्त करने हेतु सम्पूर्ण भारत वर्ष में नवरात्रि का पर्व वर्ष में दो बार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तथा आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को बड़ी श्रद्धा, भक्ति व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। जिसे वसन्त व शारदीय नवरात्रि के नाम से जाना जाता है। इस कर्म भूमि के सपूतों के लिए माँ 'दुर्गा' की पूजा व आराधना ठीक उसी प्रकार कल्याणकारी है जिस प्रकार अंधेरे में घिरे हुए संसार के लिए भगवान सूर्य की एक किरण।
नवरात्रि में दुर्गाष्टमी व महानवमी पूजन का बड़ा ही महत्व है। इस अष्टमी व नवमी की कल्याणप्रद, शुभ बेला श्रद्धालु भक्तजनों को मनोवांछित फल देकर नव दिनों तक लगातार चलने वाले व्रत व पूजन महोत्सव के सम्पन्न होने के संकेत देती है। माँ दुर्गा की आराधना से व्यक्ति एक सद्गृहस्थ जीवन के अनेक शुभ लक्षणों धन, ऐश्वर्य, पत्नी, पुत्र, पौत्र व स्वास्थ्य से युक्त हो जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष को भी सहज ही प्राप्त कर लेता है। इतना ही नहीं बीमारी, महामारी, बाढ़, सूखा, प्राकृतिक उपद्रव व शत्रु से घिरे हुए किसी राज्य, देश व सम्पूर्ण विश्व के लिए भी माँ भगवती की आराधना परम कल्याणकारी है।
इस पूजा में पवित्रता, नियम व संयम तथा ब्रह्मचर्य का विषेश महत्व है। पूजा के समय घर व देवालय को तोरण व विविध प्रकार के मांगलिक पत्र, पुष्पों से सजाना चाहिए तथा स्थापित समस्त देवी-देवताओं का आवाह्‌न उनके ''नाम मंत्रो'' द्वारा कर षोडषोपचार पूजा करनी चाहिए जो विशेष फलदायनी है। भविष्य पुराण के उत्तर-पूर्व में महानवमी व दुर्गाष्टमी पूजन के विषय में भगवान श्रीकृष्ण से धर्मराज युधिष्ठिर का संवाद मिलता है। जिसमें नवमी व दुर्गाष्टमी पूजन का स्पष्ट उल्लेख है।
यह पूजन प्रत्येक युगों, सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग तथा कल्पों व मन्वन्तरों आदि में भी प्रचलित था। माँ भगवती सम्पूर्ण जगत्‌ में परमशक्ति अनन्ता, सर्वव्यापिनी, भावगम्या, आद्या आदि नाम से विख्यात हैं जिन्हें माया, कात्यायिनी, काली, दुर्गा, चामुण्डा, सर्वमंगला, शंकरप्रिया, जगत जननी, जगदम्बा, भवानी आदि अनेक रूपों में देव, दानव, राक्षस, गन्धर्व, नाग, यक्ष, किन्नर, मनुष्य आदि अष्टमी व नवमी को पूजते है। माँ भगवती का पूजन अष्टमी व नवमी को करने से कष्ट, दुःख मिट जाते हैं और शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती। यह तिथि परम कल्याणकारी, पवित्र, सुख को देने वाली और धर्म की वृद्धि करने वाली है।
अनेक प्रकार मंत्रोंपचार से विधि प्रकार पूजा करते हुए भगवती से सुख, समृद्धि, यश, कीर्ति, विजय, आरोग्यता की कामना करनी चाहिए। नवरात्रि के आठवें दिन की देवी माँ महागौरी हैं। परम कृपालु माँ महागौरी कठिन तपस्या कर गौरवर्ण को प्राप्त कर भगवती महागौरी के नाम से सम्पूर्ण विश्व में विख्यात हुई। भगवती महागौरी की आराधना सभी मनोवांछित को पूर्ण करने वाली और भक्तों को अभय, रूप व सौदर्य प्रदान करने वाली है। अर्थात्‌ शरीर में उत्पन्न नाना प्रकार के विष व्याधियों का अंत कर जीवन को सुख-समृद्धि व आरोग्यता से पूर्ण करती हैं। माँ की शास्त्रीय पद्धति से पूजा करने वाले सभी रोगों से मुक्त हो जाते हैं और धन वैभव सम्पन्न होते हैं। नवें दिन की दुर्गा सिद्धिदात्री हैं यह दिन माँ सिद्धिदात्री दुर्गा की पूजा के लिए विशेष महत्वपूर्ण है। माँ भगवती ने नवें दिन देवताओं और भक्तों के सभी वांछित मनोरथों को सिद्ध कर दिया, जिससे माँ सिद्धिदात्री के रूप में सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हुई। परम करूणामयी सिद्धिदात्री की अर्चना व पूजा से भक्तों के सभी कार्य सिद्ध होते हैं। बाधाएँ समाप्त होती हैं एवं सुख व मोक्ष की प्राप्ति होती है। 
इस प्रकार अष्टमी को विविध प्रकार से भगवती जगदम्बा का पूजन कर रात्रि को जागरण करते हुए भजन, कीर्तन, नृत्यादि उत्सव मनाना चाहिए तथा नवमी को विविध प्रकार से पूजा-हवन कर नौ कन्याओं को भोजन खिलाना चाहिए और हलुआ आदि प्रसाद वितरित करना चाहिए और पूजन हवन की पूर्णाहुति कर दशमी तिथि को व्रती को व्रत खोलना (पारण) चाहिए। यदि नवमी तिथि की वृद्धि हो तो एक नवमी को व्रत कर दूसरे नवमी में अर्थात्‌ दसवें दिन पारण करने का विधान शास्त्रों मे मिलता है। जो सभी प्रकार के अमंगल को दूर कर जीवन को सुखद व सुन्दर बना देता है।

'' महागौरी ''


महागौरी                                                                                                                                                                
माँ दुर्गा अष्टमी की आप सभी को बहुत बहुत बधाई ..

                     श्वेते वृषे समारूढा श्वेताम्बरधरा शुचिः |महागौरी शुभं दद्यान्त्र महादेव प्रमोददा || 

दुर्गा पूजा के अष्टमी तिथि को माता महागौरी की पूजा इस मंत्र से करना चाहिए l इस दिन साधक का मन 'सोम' चक्र में स्थित होता है । भक्तों के सारे पापों को जला देने वाली और आदिशक्ति मां दुर्गा की 9 शक्तियों की आठवीं स्वरूपा महागौरी की पूजा नवरात्र के अष्टमी तिथि को किया जाता है l पौराणिक कथानुसार मां महागौरी ने अपने पूर्व जन्म में भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी, जिसके कारण इनके शरीर का रंग एकदम काला पड़ गया था l तब मां की भक्ति से प्रसन्न होकर स्वयं शिवजी ने इनके शरीर को गंगाजी के पवित्र जल से धोया, जिससे इनका वर्ण विद्युत-प्रभा की तरह कान्तिमान और गौर वर्ण का हो गया और उसी कारणवश माता का नाम महागौरी पड़ा l माता महागौरी की आयु आठ वर्ष मानी गई है l इनकी चार भुजाएं हैं, जिनमें एक हाथ में त्रिशूल है, दूसरे हाथ से अभय मुद्रा में हैं, तीसरे हाथ में डमरू सुशोभित है और चौथा हाथ वर मुद्रा में है l इनका वाहन वृष है l नवरात्र की अष्टमी तिथि को मां महागौरी की पूजा का बड़ा महात्म्य है, मान्यता है कि भक्ति और श्रद्धा पूर्वक माता की पूजा करने से भक्त के घर में सुख-शांति बनी रहती है और उसके यहां माता अन्नपूर्णा स्वरुप होती है l इस दिन माता की पूजा में कन्या पूजन और उनके सम्मान का विधान है l महागौरी रूप में देवी करूणामयी, स्नेहमयी, शांत और मृदुल दिखती हैं l देवी के इस रूप की प्रार्थना करते हुए देव और ऋषिगण कहते हैं
                     “सर्वमंगल मंग्ल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके. शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते..”
महागौरी : माता का रंग पूर्णत: गौर अर्थात् गौरा है इसीलिए वे महागौरी कहलाती है। महागौरी आदी शक्ति हैं इनके तेज से संपूर्ण विश्व प्रकाश-मान होता है, इनकी शक्ति अमोघ फलदायिनी है l माँ महागौरी की अराधना से भक्तों को सभी कष्ट दूर हो जाते हैं तथा देवी का भक्त जीवन में पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी बनता है l दुर्गा सप्तशती में शुभ-निशुम्भ से पराजित होकर गंगा के तट पर जिस देवी की प्रार्थना देवतागण कर रहे थे वह महागौरी हैं l देवी गौरी के अंश से ही कौशिकी का जन्म हुआ, जिसने शुम्भ-निशुम्भ के प्रकोप से देवताओं को मुक्त कराया l यह देवी गौरी शिव की पत्नी हैं, यही शिवा और शाम्भवी के नाम से भी पूजित होती हैं l


Sunday, 21 October 2012

'' कालरात्रि ''

                                                                     7  कालरात्रि

                          एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
                          लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥
                          वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।

                          वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी॥  
नवरात्र का सातवां दिन मां कालरात्रि का दिन होता है। मां के इस सातवें स्वरूप की आराधना व्यक्ति के भीतर की तामसी शक्तियों का नाश करती है। तामसी प्रवृत्तियों की समाप्ति के साथ ही व्यक्ति के भीतर कल्याणकारी गुणों का प्रादुर्भाव करता है।मां का यह रूप वर्ण रात्रि के गहन अंधकार की तरह काला है। उनके गले में बिजली की भांति चमकने वाली माला है जो ब्राह्मण्ड की तरह गोल है। इस माला में हर पल एक ज्योति जलती रहती है जो मानव जीवन का सही राह दिखाती है।मां कालरात्रि दुर्गा माता का सांतवा रूप है। मां शक्ति का यह रूप अपने भक्तों को बुरे कर्मो से दूर रहकर अच्छे व सदगुणों के निकट ले जाता है। कहा जाता है कि नवरात्र के सातवें दिन जो भी व्यक्ति सच्चे हृदय से मां की आराधना करता है उसके भीतर के सभी बुरी व तामसी शक्तियां नष्ट हो जाती हैं। मां अपने भक्तों को विपत्तियों व कठिनाइयों से जूझने की क्षमता प्रदान करती है तथा वास्तविक व ईश्वरीय सुख की अनुभूति कराती है।मां का यह रूप देखने में भयावह लगता है जो व्यक्ति के भीतर एक डर भी पैदा करता है लेकिन यह डर उसे अच्छे व सदकर्मों की ओर ले जाता है। यह रूप सदैव शुभ फल देताहै। मां के इस स्वरूप को शुभंकरी भी कहा जाता है। कालरात्रि दुष्टों व शत्रुओं का संहार करती है। काले रंग वाली केशों का फैला कर रखने वाली चार भुजाओं वाली दुर्गा का यह वर्ण और वेश में अद्र्धनारीश्वर शिव की तांडव मुद्रा में नजर आती है।मां की आखों से अग्नि की वर्षा होती है। एक हाथ में दुष्टों की गर्दन तथा दूसरे हाथ में खड्ग लिए मां कालरात्रि पापियों का नाश कर रही है। मां की सवारी गधर्व यानि गधा है जो समस्त जीव जन्तुओं में सबसे परिश्रमी है। मां का यह स्वरूप भक्तों का आर्शीवाद देता है कि व्यक्ति अपने योग्यता व क्षमता का सदुपयोग करता हुआ अपने आवश्यकताओं की पूर्ति करे और अपने परिजनों व अन्य सगे सम्बन्धियों का भला करता चले। 
        ध्याम मंत्र    .........
                          करालरूपा कालाब्जसमानाकृति विग्रहा।
                          कालरात्रि: शुभु दद्यात देवी चंडाट्टहासिनी॥

Saturday, 20 October 2012

'' कात्यायनी ''


                                                               6. कात्यायनी
(ध्यान मंत्र)
                      चन्द्रहासोज्जवलकरा शार्दूलवरवाहना |
                     कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवदातिनी ||
अर्थात्- मां दुर्गा छठवें स्वरुप का नाम कात्यायनी है | इनका स्वरुप अत्यंत ही भव्य और दिव्य है | इनका वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला है | इनकी चार भुजाएं है | माताजी का दाहिनी तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में तथा नीचे वाला वर मुद्रा में है | बांई तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ में कमलपुष्प सुशोभित है | इनका वाहन सिंह है |
जप मंत्र
                      ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं कात्यायन्यै नमः
अर्थात्- कात्यायनी माता की उपासना से मनुष्य को बड़ी सरलता से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति होती है | रोग, शोक, भय, संताप और पाप नष्ट होते हैं |
श्री महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया था। इसलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं। नवरात्रि के षष्ठम दिन इनकी पूजा और आराधना होती है।इनकी आराधना से भक्त का हर काम सरल एवं सुगम होता है। चन्द्रहास नामक तलवार के प्रभाव से जिनका हाथ चमक रहा है, श्रेष्ठ सिंह जिसका वाहन है, ऐसी असुर संहारकारिणी देवी कात्यायनी कल्यान करें।महर्षि कात्यायन की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर उनकी इच्छानुसार उनके यहां पुत्री के रूप में पैदा हुई थीं. महर्षि कात्यायन ने इनका पालन-पोषण किया तथा महर्षि कात्यायन की पुत्री और उन्हीं के द्वारा सर्वप्रथम पूजे जाने के कारण देवी दुर्गा को कात्यायनी कहा गया. देवी कात्यायनी अमोद्य फलदायिनी हैं इनकी पूजा अर्चना द्वारा सभी संकटों का नाश होता है, माँ कात्यायनी दानवों तथा पापियों का नाश करने वाली हैं. देवी कात्यायनी जी के पूजन से भक्त के भीतर अद्भुत शक्ति का संचार होता है. इस दिन साधक का मन ‘आज्ञा चक्र’ में स्थित रहता है. योग साधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है. साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित होने पर उसे सहजभाव से मां कात्यायनी के दर्शन प्राप्त होते हैं. साधक इस लोक में रहते हुए अलौकिक तेज से युक्त रहता है. 
माँ कात्यायनी का स्वरूप अत्यन्त दिव्य और स्वर्ण के समान चमकीला है. यह अपनी प्रिय सवारी सिंह पर विराजमान रहती हैं. इनकी चार भुजायें भक्तों को वरदान देती हैं, इनका एक हाथ अभय मुद्रा में है, तो दूसरा हाथ वरदमुद्रा में है अन्य हाथों में तलवार तथा कमल का फूल है.


'' स्कन्दमाता ''


                                                                             5 स्कन्दमाता
(ध्यान मंत्र)
                            सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितंकरद्वया |
                           शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी ||

     जप मंत्र
                         ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं स्कन्दमातायै नमः
 स्कन्दमाता की उपासना भक्त सभी इच्छाएं पूर्ण होती है | उसे परम शांति और सुख का अनुभव होता है | इनका उपासक अलौकिक तेज एवं कांति से सम्पन्न हो जाता है | 
भगवती दुर्गा के पांचवें स्वरूप को स्कन्दमाताके रूप में जाना जाता है। स्कन्द कुमार अर्थात् काíतकेय की माता होने के कारण इन्हें स्कन्दमाताकहते हैं। इनका वाहन मयूर है। मंगलवार के दिन साधक का मन विशुद्ध चक्र में अवस्थितहोता है। इनके विग्रह में भगवान स्कन्दजीबाल रूप में इनकी गोद में बैठे होते हैं। स्कन्द मातुस्वरूपणीदेवी की चार भुजाएं हैं। ये दाहिनी तरफ की ऊपर वाली भुजा से भगवान स्कन्द्रको गोद में पकडे हुए हैं और दाहिने तरफ की नीचे वाली भुजा वरमुद्रामें तथा नीचे वाली भुजा जो ऊपर उठी हुई है, इसमें भी कमल पुष्प ली हुई हैं। इनका वर्ण पूर्णत:शुभ है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसी कारण से इन्हें पद्मासनादेवी कहा जाता है। सिंह भी इनका वाहन है

Friday, 19 October 2012

'' कूष्माण्डा ''

                                                              4. कूष्माण्डा
(ध्यान मंत्र)
                 सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च |
                 दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुबदास्तु मे ||
अर्थात्- मां दुर्गा के चौथे स्वरुप का नाम कूष्माण्डा है | अपनी मंद, हल्की हंसी द्वारा ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से अभिहित किया गया है | इनकी आठ भुजाएं है | अतः ये अष्टभुजा देवी के नाम से विख्यात है | इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डलु, धनुष, बाण, कमलपुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा | इनका वाहन सिंह है |
जप मंत्र,,,,,,
                                  ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं कूष्माण्डायै नमः
अर्थात्- मां कूष्माण्डा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक मिट जाते हैं | इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है | यदि सच्चे मन से इनकी आराधना की जाए, तो साधक को सुगमता से परम पद की प्राप्ति होती है |
अपनी मंद, हल्की हंसी के द्वारा ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इस देवी को कुष्मांडा नाम से अभिहित किया गया है।इस देवी की आठ भुजाएं हैं, इसलिए अष्टभुजा कहलाईं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जप माला है। इस देवी का वाहन सिंह है और इन्हें कुम्हड़े की बलि प्रिय है। संस्कृति में कुम्हड़े को कुष्मांड कहते हैं इसलिए इस देवी को कुष्मांडा। जब सृष्टि नहीं थी, चारों तरफ अंधकार ही अंधकार था, तब इसी देवी ने अपने ईषत्‌ हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी। इसीलिए इसे सृष्टि की आदिस्वरूपा या आदिशक्ति कहा गया है।इस देवी का वास सूर्यमंडल के भीतर लोक में है। सूर्यलोक में रहने की शक्ति क्षमता केवल इन्हीं में है। इसीलिए इनके शरीर की कांति और प्रभा सूर्य की भांति ही दैदीप्यमान है। इनके ही तेज से दसों दिशाएं आलोकित हैं। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में इन्हीं का तेज व्याप्त है।ये देवी अत्यल्प सेवा और भक्ति से ही प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती हैं। सच्चे मन से पूजा करने वाले को सुगमता से परम पद प्राप्त होता है।विधि-विधान से पूजा करने पर भक्त को कम समय में ही कृपा का सूक्ष्म भाव अनुभव होने लगता है। ये देवी आधियों-व्याधियों से मुक्त करती हैं और उसे सुख समृद्धि और उन्नाति प्रदान करती हैं। अंततः इस देवी की उपासना में भक्तों को सदैव तत्पर रहना चाहिए।
अचंचल और पवित्र मन से नवरात्रि के चौथे दिन इस देवी की पूजा-आराधना करना चाहिए। इससे भक्तों के रोगों और शोकों का नाश होता है तथा उसे आयु, यश, बल और आरोग्य प्राप्त होता है।



Wednesday, 17 October 2012

'' चन्द्रघंटा ''

                                                                         3. चन्द्रघंटा
(ध्यान मंत्र)                                                                     
                          पिण्डजप्रवरारुढ़ा चण्डकोपास्त्रकैर्युता | 
                          प्रसादं तुनते मह्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता ||
 
अर्थात्- मां दुर्गा की तीसरी शक्ति का नाम चन्द्रघण्टा है | इनके मस्तक में घंटे के आकार का अर्धचन्द्र है | इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है | इनके दस हाथ है | इनके दस हाथों में शस्त्र तथा बाण आदि शस्त्र विभूषित है | इनका वाहन सिंह है | इनकी मुद्रा ; युद्ध के लिए अद्यत रहने की होती है | इनके घंटे की सी भयानक चण्डध्वनि से अत्याचारी दानव-दैत्य-राक्षस सदैव डरते रहते है |
जप मंत्र
                                ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चन्द्रघण्टायै नमः
महत्व्- इनकी आराधना से साधक में वीरता, निर्भरता के साथ सौम्यता व विनम्रता का विकास भी होता है | उसके मुख, नेत्र व सम्पूर्ण काया में कांति गुण की वृद्धि होती है | स्वर में माधुर्य का समावेश होता है | 
मार्कंडेय पुराण के अनुसार तृतीय नवरात्र की देवी का नाम चंद्रघंटा देवी है, निगम ग्रंथों में निहित कथा के अनुसार जब भगवान् शिव ने देवी को समस्त विद्ययों का ज्ञान प्रदान करना शुरू किया तो देवी उस ज्ञान का तप के लिए प्रयोग करने लगी, लगातार आगम निगमों का ज्ञान प्राप्त कर देवी महातेजस्विनी हो गयी व सभी कलाओं सहित तेज पुंज बन योगमाया के रूप में स्थित हो गयी, तब प्रसन्न हो कर शिव ने देवी को अपने साथ एकाकार कर अर्धनारीश्वर रूप धरा, उस समय देवी पार्वती जी को अपने वास्तविक स्वरुप का बोद्ध हुआ, तब शिव से अलग हो आकाश में देवी ने सिंह पर स्वर हो दस भुजाओं वाला एक अद्भुत रूप धारण किया, हाथों में कमल पुष्प धनुष त्रिशूल,गदा, तलवार सहित वर अभी मुद्रा धारण की, क्योंकि देवी तपस्विनी रूप में थी तो एक हाथ में माला और एक हाथ में उनहोंने कमंडल धारण कर लिया, सभी ऋषि मुनि देवता देवी के तेज को सः नहीं पा रहे थे तो भगवान शिव ने चन्द्रमा को देवी के शीर्षस्थान पर बिराजने को कहा, जिससे उनका तेजस्वी स्वरूप अब और भी सुन्दर तथा शीतल हो गया, तब सभी देवताओं नें देवी की जय जयकार की तथा उनको चंद्रघंटा देवी के नाम से पुकारा,जो भी भक्त देवी के ऐसे दिव्य रूप की पूजा करता है, वो एक साथ संसार में भी तथा मुक्ति के मार्ग पर भी एक ही समय चल सकता है, भौतिक संसार में तो आगे बढ़ता ही है साथ अध्यात्म में भी शिखर पर रहता है, सभी विद्यार्थियों, साधको, भक्तों को ऐसी देवी के दर्शनों से महासिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, ऐसे व्यक्ति को अहंकार रहित ज्ञान प्राप्त होता है, देवी को पूजने वाले को सवयम देवता भी पूजते हैंआकाश मंडल में चन्द्रमा को अपने शीश पर धारण करने के कारण देवी का नाम पड़ा चंद्रघंटा, महाशक्ति चंद्रघंटा माँ पार्वती जी का तेजोमय स्वरुप हैं जो सर्व कलाओं को धारण करने से उत्पन्न हुआअपनी सभी कलाओं को अध्यात्म धर्म सहित धारण करने के कारण ही देवी को चंद्रघंटा कहा जाता है, देवी के उपासक एक साथ ही संसार में जीते हुये परम मुक्ति के मार्ग पर भी चल सकते है, जिस कारण देवी की बड़ी महिमा गई जाती है, देवी कृपा से ही भक्त को संसार के सभी सुख तथा मुक्ति प्राप्त होती है, देवी को प्रसन्न करने के लिए तीसरे नवरात्र के दिन दुर्गा सप्तशती के चौथे अध्याय का पाठ करना चाहिए, पाठ करने से पहले कुंजिका स्तोत्र का पाठ करें, फिर क्रमश: कवच का, अर्गला स्तोत्र का, फिर कीलक स्तोत्र का पाठ करें, मनोकामना की पूर्ती के लिए दुर्गा सप्तशती का पाठ कर रहे हैं तो कीलक स्तोत्र के बाद रात्रिसूक्त का पाठ करना अनिवार्य होता हैयदि आप ब्रत कर रहे हैं तो लगातार देवी के नवारण महामंत्र का जाप करते रहें ।
                     जय माता की . .