प्रतिवर्ष आश्विन मास
में प्रौष्ठपदी पूर्णिमा से ही श्राद्ध आरंभ हो जाते है। इन्हें 16/ सोलह
श्राद्ध भी कहते हैं। इस वर्ष पितृपक्ष के श्राद्ध 30 सितम्बर से 15
अक्टूबर के बीच रहेंगे ! आखिरी मातामह का श्राद्ध 16 अक्टूबर के पूर्वाह्न
में होगा और उसी दिन अपराह्न से नवरात्र आरभ हो जायेंगे । पितृपक्ष के
दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार ब्रह्म वैवर्त पुराण में यह निर्देश है कि इस
संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धा पूर्वक पितृपक्ष के
दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में
सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। वे उच्च शुद्ध कर्मों के कारण
अपनी आत्मा के भीतर एक तेज और प्रकाश से आलोकित होते है। मृत्यु के उपरांत
भी श्राद्ध करने वाले सदगृहस्थ को स्वर्गलोक, विष्णुलोक और ब्र्रह्मलोक की
प्राप्ति होती है।
भारतीय वैदिक वांगमय के अनुसार
प्रत्येक मनुष्य को इस धरती पर जीवन लेने के पश्चात तीन प्रकार के ऋण होते
हैं। पहला देव ऋण, दूसरा ऋषि ऋण और तीसरा पितृ ऋण। पितृ पक्ष के श्राद्ध
यानी 16 श्राद्ध साल के ऐसे सुनहरे दिन हैं, जिनमें हम उपरोक्त तीनों ऋणों
से मुक्त हो सकते हैं.. श्राद्ध प्रक्रिया में शामिल होकर । महाभारत के
प्रसंग के अनुसार, मृत्यु के उपरांत कर्ण को चित्रगुप्त ने मोक्ष देने से
इनकार कर दिया था। कर्ण ने कहा कि मैंने तो अपनी सारी सम्पदा सदैव
दान-पुण्य में ही समर्पित की है, फिर मेरे उपर यह कैसा ऋण बचा हुआ है?
चित्रगुप्त ने जवाब दिया कि राजन, आपने देव ऋण और ऋषि ऋण तो चुका दिया है,
लेकिन आपके उपर अभी पितृऋण बाकी है। जब तक आप इस ऋण से मुक्त नहीं होंगे,
तब तक आपको मोक्ष मिलना कठिन होगा। इसके उपरांत धर्मराज ने कर्ण को यह
व्यवस्था दी कि आप 16 दिन के लिए पुनः पृथ्वी मे जाइए और अपने ज्ञात और
अज्ञात पितरों का श्राद्धतर्पण तथा पिंडदान विधिवत करके आइए। तभी आपको
मोक्ष यानी स्वर्ग लोक की प्राप्ति होगी।
जो लोग दान श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं
करते, माता-पिता और बडे बुजुर्गो का आदर सत्कार नहीं करते, पितृ गण उनसे
हमेशा नाराज रहते हैं। इसके कारण वे या उनके परिवार के अन्य सदस्य रोगी,
दुखी और मानसिक और आर्थिक कष्ट से पीड़ित रहते है। वे निःसंतान भी हो सकते
हैं । अथवा पितृदोष के कारण उनको संन्तान का सुख भी दुर्लभ रहता है ।
भारत की पावन भूमि में ऐसे कई स्थान
हैं जहां ऐसे भूले भटके लोग पितृदोष की निवृत्ति के लिए अनुष्ठान कर सकते
हैं। जैसे कि बिहार में गया जी के घाट पर, गंगा सागर तथा महाराष्ट में
त्रयंबकेश्वर, हरियाणा में पिहोवा, यूपी में गडगंगा, उत्तराखंड में
हरिद्वार भी पितृ दोष के निवारण के लिए श्राद्ध कर्म को आरंभ करने उपयुक्त
स्थल हैं। इन स्थ लों में जाकर वे श्रद्धालु भी पितृ पक्ष के श्राद्ध आरंभ
कर सकते हैं जिन्होंने पहले कभी भी श्राद्ध न किया हो।
वैसे तो पितृ पक्ष के श्राद्ध की
महिमा अपार है, लेकिन जो भी श्रद्धालु अपने दिवंगत पिता माता दादा परदादा
नाना नानी आदि का इन 16 श्राद्धों में व्रत उपवास रखकर ब्राह्मण को भोजन
कराकर दक्षिणा आदि देते हैं उनके घर लक्ष्मी और विष्णु भगवान सदैव ही बने
रहते हैं। अर्थात वे सदैव ही धन धान्य से परिपूर्ण रहते हैं।
श्राद्ध करने का सीधा संबंध पितरों
यानी दिवंगत पारिवारिकजनों का श्रद्धापूर्वक किए जाने वाला स्मरण है जो
उनकी मृत्यु की तिथि में किया जाता हैं। अर्थात पितर प्रतिपदा को
स्वर्गवासी हुए हों, उनका श्राद्ध प्रतिपदा के दिन ही होगा। इसी प्रकार
अन्य दिनों का भी, लेकिन विशेष मान्यता यह भी है कि पिता का श्राद्ध अष्टमी
के दिन और माता का नवमी के दिन किया जाए। परिवार में कुछ ऐसे भी पितर होते
हैं जिनकी अकाल मृत्यु हो जाती है, यानी दुर्घटना, विस्फोट, हत्या या
आत्महत्या अथवा विष से। ऐसे लोगों का श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता
है। साधु और सन्यासियों का श्राद्ध द्वाद्वशी के दिन और जिन पितरों के मरने
की तिथि याद नहीं है, उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है।
जीवन मे अगर कभी भूले-भटके माता पिता
के प्रति कोई दुर्व्यवहार, निंदनीय कर्म या अशुद्ध कर्म हो जाए तो पितृपक्ष
में पितरों का विधिपूर्वक ब्राह्मण को बुलाकर दूब, तिल, कुशा, तुलसीदल,
फल, मेवा, दाल-भात, पूरी पकवान आदि सहित अपने दिवंगत माता-पिता, दादा ताऊ,
चाचा, पड़दादा, नाना आदि पितरों का श्रद्धापूर्वक स्मरण करके श्राद्ध करने
से सारे ही पाप कट जाते हैं। यह भी ध्यान रहे कि ये सभी श्राद्ध पितरों की
दिवंगत यानि मृत्यु की तिथियों में ही किए जाएं।
यह मान्यता है कि ब्राह्मण के रूप में
पितृपक्ष में दिए हुए दान पुण्य का फल दिवंगत पितरों की आत्मा की तुष्टि
हेतु जाता है। अर्थात् ब्राह्मण प्रसन्न तो पितृजन प्रसन्न रहते हैं।
अपात्र ब्राह्मण को कभी भी श्राद्ध करने के लिए आमंत्रित नहीं करना चाहिए।
मनुस्मृति में इसका खास प्रावधान है।
30 सितम्बर को उन पितरो का श्राद्ध
सम्पन्न होगा जिनकी मृत्य पूर्णिमा के दिन हुई हो । उसके बाद 1 अक्टूबर से
15 अक्टूबर तक नियमित तिथियों के श्राद्ध जारी रहेंगे । अमावस्या के दिन
भूले विसरे या अनाम पितरों का श्राद्ध होगा । 16 अक्टूबर की पूर्वाहन में
नाना नानी का श्राद्ध होगा ।
श्राद्ध से पहले श्राद्धकर्ता को एक
दिन पहले उपवास रखना होता है जिसे हबीक कहते ! अगले दिन निर्धारित मृत्यु
तिथि को अपराह्न में गजछाया के बाद श्राद्ध तर्पण तथा बाह्मण भोज कराया
जाता है ! मान्यता है कि पितृपक्ष के दौरान पितर दोपहर बाद श्राद्धकर्ता के
घर पक्षी/कौवे या चिडिया के रूप मे आते हैं ! अतः श्राद्धकर्म कभी भी सुबह
या 1 बजे से पहले नहीं करना चाहिए क्योंकि तबतक दिवंगत पितर अनुपस्थित
रहते हैं ! कुछ लोग भोजन पकाकर बिना पिण्डदिये मन्दिर में थाली दे आते हैं
। इससे भी मृतआत्मा की शान्ति नहीं होती और श्राद्धकर्ता को श्राद्ध का
पुण्य नही मिलता है।
क्या है श्राद्ध के मुख्य भोज्य पदार्थ
श्राद्ध के दिन लहसुन प्याज रहित
सात्विक भोजन घर की रसोई में बनना चाहिए जिसमें उड़द की दाल, बडे, चावल,
दूध घी बने पकवान, खीर, मौसमी सब्जी जो बेल पर लगती है .जैसे ... तोरई,
लौकी, सीतफल, भिण्डी कच्चे केले की सब्जी ही भोजन मे मान्य है । आलू.
मूली वैगन अरबी तथा जमीन के नीचे पैदा होने वाली सब्जियां पितरो को नहीं
चढ़ती है ।
श्राद्ध के लिए तैयार भोजन की तीन तीन
आहुतियों और तीन तीन चावल के पिण्ड तैयार करने बाद प्रेत मंजरी के
मंत्रोच्चार के बाद ज्ञात और अज्ञात पितरो को नाम और राशि से सम्बोधित
करके आमंत्रित किया जाता है । कुशा के आसन में बिठाकर गंगाजल से स्नान
कराकर तिल जौ और सफेद फूल और चन्दन आदि समर्पित करके चावल या जौ के आटे के
पिण्ड आदि समर्पित किया जाता है । फिर उनके नाम का नैवेद्ध रखा जाता है
श्राद्ध का अधिकार महिलाओं को भी?
श्राद्ध करने के लिए मनुस्मृति और
ब्रह्मवैवर्तपुराण जैसे सभी प्रमुख शास्त्रों में यही बताया गया है कि
दिवंगत पितरों के परिवार में या तो ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र और अगर
पुत्र न हो तो धेवता (नाती), भतीजा, भांजा या शिष्य ही तिलांजलि और पिंडदान
देने के पात्र होते हैं। कई ऐसे पितर भी होते है जिनके पुत्र संतान नहीं
होती है या फिर जो संतान हीन होते हैं। ऐसे पितरों के प्रति आदर पूर्वक अगर
उनके भाई, भतीजे, भांजे या अन्य चाचा ताउ के परिवार के पुरूष सदस्य
पितृपक्ष में श्रद्धापूर्वक व्रत रखकर पिंडदान, अन्नदान और वस्त्रदान करके
ब्राह्मणों से विधिपूर्वक श्राद्ध कराते है तो पीड़ित आत्मा को मोक्ष मिलता
है।
एक और अहम सवाल है कि आम तौर पर आजकल
के विछिन्न पारिवारिक परिस्थितियों मे क्या महिलाएं भी श्राद्ध कर सकती है
या नहीं इस प्रश्न को भी उठाया जाता रहा है। परिवार के पुरुष सदस्य या
पुत्र पौत्र नहीं होने पर कई बार कन्या या धर्मपत्नी को भी मृतक के अन्तिम
संस्कार करते या मरने के बाद वर्षी श्राद्ध करते देखा गया है। परिस्थितियो
के अनुसार यह एक अन्तिम विकल्प ही है, जो अब धीरे धीरे चलन में आने लगा है ।
इस मामले में धर्मसिन्धु सहित मनुस्मृति और गरुड पुराण भी आदि ग्रन्थ भी
महिलाओं को पिण्डदान आदि करने का अधिकार प्रदान करती है। आत के समय में
शंकराचायों ने भी इस प्रकार की व्यवस्थाओं को तर्क संगत इस बताया है कि
श्रा़द्ध करने की परंपरा जीवित रहे और लोग अपने पितरों को नहीं भूलें !
अन्तिम संस्कार में भी महिला अपने परिवार /पितर को मुखाग्नि दे सकती है ।
महाराष्ट्र सहित कई उत्तरी राज्यो में
अब पुत्र/पौत्र नहीं होने पर पत्नी बेटी बहिन या नातिन ने भी सभी मृतक
संस्कार करने आरंभ कर दिये । काशी आदि के कुछ गुरुकुल आदि की संस्कृत वेद
पाठशालाओ में तो कन्याओं पांण्डित्य कर्म और वेद पठन की ट्रेनिंग भी दी जा
रही है जिसमें महिलाओको श्राद्ध करने कराने का प्रशिक्षण भी शामिल है !
वैदिक परंपरा के अनुसार महिलाएं यज्ञ
अनुष्ठान, संकल्प और व्रत आदि तो रख सकती है, लेकिन श्राद्ध की विधि को
स्वयं नहीं कर सकती है। विधवा स्त्री अगर संतानहीन हो तो अपने पति के नाम
श्राद्ध का संकल्प रखकर ब्राह्मण या पुरोहित परिवार के पुरूष सदस्य से ही
पिंडदान आदि का विधान पूरा करवा सकती है। इसी प्रकार जिन पितरों के कन्याएं
ही वंश परंपरा में हैं तो उन्हें पितरों के नाम व्रत रखकर उसके दामाद या
धेवते, नाती आदि ब्राहमण को बुलाकर श्राद्धकर्म की निवृत्ति करा सकते है।
साधु सन्तों के शिष्य गण या शिष्य विशेष श्रादध कर सकते है।
क्या कहते हैं प्राचीन शास्त्र, पुराण और स्मृतिग्रन्थ
किसी भी मृतक के अन्तिम संस्कार और
श्राद्धकर्म की व्यवस्था के लिए पा्रचीन वैदिक ग्रन्थ गरुडपुराण में कौन
कौन से सदस्य पुत्र के नहीं होने पर श्राद्ध कर सकते है उसका उल्लेख
अध्याय .11 के श्लोक सख्या .11, 12, 13 और 14 में विस्तार से किया गया है
जैसेः..
पुत्राभावे वधु कूर्यात ..भार्याभावे च सोदनः !
शिष्यो वा ब्राह्मणः सपिण्डो वा समाचरेत !!
ज्येष्ठस्य वा कनिष्ठस्य भ्रातृःपुत्रश्चः पौत्रके!
श्राध्यामात्रदिकम कार्य पु.त्रहीनेत खगः !!
अर्थात ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ
पुत्र के अभाव में बहू. पत्नी को श्राद्ध करने का अधिकार है ! इसमें
ज्येष्ठ पुत्री या एकमात्र पुत्री भी शामिल है । अगर पत्नी भी जीवित न हो
तो सगा भाई अथवा भतीजा भानजा नाती पोता आदि कोई भी यह कर सकता है! इन
सबके अभाव में शिष्य, मित्र, कोई भी रिश्तेदार अथवा कुलपुराहित मृतक का
श्राद्ध कर सकता है । इस प्रकार परिवार के पुरुष सदस्य के अभाव में कोई भी
महिला सदस्य व्रत लेकर पितरों का श्राद्धतर्पण और तिलांजली देकर मोक्ष
कामना कर सकती है ।
जब सीता ने किया पिण्डदान
वाल्मिकी रामायण में सीता द्वारा
पिंडदान देकर दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है। वनवास के
दौरान भगवान राम लक्ष्मण और सीता पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध करने के लिए
गया धाम पहुंचे। वहां श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री जुटाने हेतु राम
और लक्ष्मण नगर की ओर चल दिए। उधर दोपहर हो गई थी। पिंडदान का समय निकलता
जा रहा था और सीता जी की व्यग्रता बढती जा रही थी। अपराहन में तभी दशरथ की
आत्मा ने पिंडदान की मांग कर दी। गया जी के आगे फल्गू नदी पर अकेली सीता जी
असमंजस में पड गई। उन्होंने फल्गू नदी के साथ वटवृक्ष केतकी के फूल और गाय
को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर स्वर्गीय राजा दशरथ के निमित्त
पिंडदान दे दिया। थोडी देर में भगवान राम और लक्ष्मण लौटे तो उन्होंने कहा
कि समय निकल जाने के कारण मैंने स्वयं पिंडदान कर दिया। बिना सामग्री के
पिंडदान कैसे हो सकता है, इसके लिए राम ने सीता से प्रमाण मांगा। तब सीता
जी ने कहा कि यह फल्गू नदी की रेत केतकी के फूल, गाय और वटवृक्ष मेरे
द्वारा किए गए श्राद्धकर्म की गवाही दे सकते हैं। इतने में फल्गू नदी, गाय
और केतकी के फूल तीनों इस बात से मुकर गए। सिर्फ वटवृक्ष ने सही बात कही।
तब सीता जी ने दशरथ का ध्यान करके उनसे ही गवाही देने की प्रार्थना की।
दशरथ जी ने सीता जी की प्रार्थना स्वीकार कर घोषणा की कि ऐन वक्त पर सीता
ने ही मुझे पिंडदान दिया। इस पर राम आश्वस्त हुए लेकिन तीनों गवाहों द्वारा
झूठ बोलने पर सीता जी ने उनको क्रोधित होकर श्राप दिया कि फल्गू नदी- जा
तू सिर्फ नाम की नदी रहेगी, तुझमें पानी नहीं रहेगा। इस कारण फल्गू नदी आज
भी गया में सूखी रहती है। गाय को श्राप दिया कि तू पूज्य होकर भी लोगों का
जूठा खाएगी। और केतकी के फूल को श्राप दिया कि तुझे पूजा में कभी नहीं
चढाया जाएगा। वटवृक्ष को सीता जी का आर्शीवाद मिला कि उसे लंबी आयु प्राप्त
होगी और वह दूसरों को छाया प्रदान करेगा तथा पतिव्रता स्त्री तेरा स्मरण
करके अपने पति की दीर्घायु की कामना करेगी। यही कारण है कि गाय को आज भी
जूठा खाना पडता है, केतकी के फूल को पूजा पाठ में वर्जित रखा गया है और
फल्गू नदी के तट पर सीताकुंड में पानी के अभाव में आज भी सिर्फ बालू या रेत
से पिंडदान दिया जाता