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Friday, 6 December 2013

घट-घट वासी राम की व्यापकता को स्वीकारते हुए संत कवि तुलसीदास जी कहते है                                                           सियाराम मय सब जग जानी। करहुं प्रणाम जोर जुग पानी।।
तुलसीदास जी के लिए सगुण और निर्गुण के भेद व्यर्थ हैं। कहते हैं -
  जो गुन रहित सगुन सोइ कैसे। जलु हिम उपल विलग नहिं जैसे।।
 अर्थात् जिस प्रकार बर्फ और पानी एक ही है, उसी प्रकार सगुण और निर्गुण एक ही है। व्यक्ति चाहे सगुण राम का नाम ले चाहे निर्गुण राम का दोनों में ही त्याग, समर्पण, प्रेम, भक्ति आवश्यक है।  राम के प्रति उनका समर्पण देखिए-
          तुलसी जाके मुखन ते, धोखेहु निकसे राम।
            ताके पग की पानहीं, मेरे तन की चाम।।
संत कवि तुलसीदास ने राम के अनन्य भक्त श्री हनुमान जी महाराज एवं शिव कृपा से राम गुणगान करते हुए लोकहित के लिए अमर ग्रंथ रामचरितमानस की रचना की। वह जीवन भर प्रभु राम का गुणगान करते रहे और राम की कृपा से लगभग 126 वर्ष की उम्र में महाप्रयाण किया। लोकहित के लिए लोक भाषा में रामायण रचने का आदेश तुलसीदास जी को भगवान शिव ने ही तो दिया था।  वर्णन मिलता है कि महाप्रयाण के समय उन्होंने अपने भक्तों को यह संकेत दे दिया था कि अब वह इस देह को त्यागना चाहते हैं-
                राम नाम यश बरनि कैं, भयो चहत अब मौन। तुलसी के मुख डारिबो, अब ही तुलसी सौन।।
 अपने भक्तों के आग्रह पर उन्होंने अंतिम समय में सभी को राम नाम लेने की सलाह दी-
                     अलप तो अवधि जीव, तामें बहुसोच पोच। करिबे को बहुत है, काह काह कीजिए।।
                      पार न पुरानहू को, वेदहू को अंत नाहि। वानी तो अनेक, चित कहां-कहां दीजिये।।
                     काव्य की कला अनंत, छंद को प्रबंध बहु। राग तो रसीले, रस कहां-कहां पीजिए।।
                     लाखन में एक बात, तुलसी बताये जात। जनम जो सुधार चहौ, राम नाम लीजिये।।
जप, तप, पूजा, पाठ, दान, यज्ञ, ध्यान, साधना समाधि सभी को राम को अर्पित कर दीजिए, सफल होगा मानव जन्म। सभी धर्मों का अंतिम लक्ष्य उस परम प्रभु की कृपा पाना ही है। उस प्रभु  को हम अल्लाह, ईसा, रहीम, अकाल पुरुष किसी भी नाम से पुकारें वह तो सभी में रमने वाला राम है। हम सब का नियंता है। हम सब उसी के अंश हैं और अंत में उसी में मिल जाना चाहते हैं। हमें उसे कभी नहीं भूलना चाहिए। संसार में कर्म करते हुए उसी को ध्यान में रखना चाहिए। यदि हम भौतिक सुख संपदा चाहते हैं, तो वह भी वही दे सकता है । यदि शरीर को किसी तरह का कष्ट हो, तो उसी को याद करें,, उसी से क्षमा मांगें कहें- प्रभु ! हमसे कोई अपराध हुआ है। किंतु इतना कठोर दंड न दें। वह तो दीन बंधु है, आपकी पुकार अवश्य सुनेगा। बस संकल्प लें, उसे कभी नहीं भूलेंगे, वह करुणा निधान आपकी सहायता के लिए दौड़ा आएगा। कारण ‘राम’ शब्द तो एक मन्त्र है
                                 - मंत्र महामणि विषम ब्याल के। मैटत कठिन कुअंक भाल के।।
गोस्वामी जी हनुमान के सबसे बडे भक्त थे। हनुमान की विशेषताओं को देखकर वह पूरी तरह उनके हो गए। हनुमान के माध्यम से उन्होंने राम की भक्ति ही नहीं प्राप्त की, राम के दर्शन भी कर लिए। हनुमान ने गोस्वामी की निष्ठा से प्रसन्न होकर उन्हें वाराणसी में दर्शन दिए और वर मांगने को कहा। तुलसी को अपने राम के दर्शन के अतिरिक्त और क्या मांगना था? हनुमान ने वचन दे दिया। राम और हनुमान घोडे पर सवार, तुलसी के सामने से निकल गए। हनुमान ने देखा उनका यह प्रयास व्यर्थ गया। तुलसी उन्हें पहचान ही नहीं पाए। हनुमान ने दूसरा प्रयास किया। चित्रकूट के घाट पर वह चंदन घिस रहे थे कि राम ने एक सुंदर बालक के रूप में उनके पास पहुंच कर तिलक लगाने को कहा। तुलसीदास फिर न चूक जाएं अत:हनुमान को तोते का रूप धारण कर ये प्रसिद्ध पंक्तियां कहनी पडी-
चित्रकूट के घाट पर भई संतनकी भीर।तुलसीदास चन्दन घिसें तिलक देत रघुबीर॥
हनुमान ने मात्र तुलसी को ही राम के समीप नहीं पहुंचाया। जिस किसी को भी राम की भक्ति करनी है, उसे प्रथम हनुमान की भक्ति करनी होगी। राम हनुमान से इतने उपकृत हैं कि जो उनको प्रसन्न किए बिना ही राम को पाना चाहते हैं उन्हें राम कभी नहीं अपनाते। गोस्वामी जी ने ठीक ही लिखा-
राम दुआरेतुम रखवारे।होत न आज्ञा बिनुपैसारे॥
अत:हनुमान भक्ति के महाद्वारहैं। राम की ही नहीं कृष्ण की भी भक्ति करनी हो तो पहले हनुमान को अपनाना होगा। यह इसलिए कि भक्ति का मार्ग कठिन है। हनुमान इस कठिन मार्ग को आसान कर देते हैं, अत:सर्वप्रथम उनका शरणागत होना पडता है। भारत में कई ऐसे संत व साधक हुए हैं जिन्होंने हनुमान की कृपा से अमरत्व को प्राप्त कर लिया। रामायण में राम और सीता के पश्चात सर्वाधिक लोकप्रिय चरित्र हैं हनुमान जिनके मंदिर भारत ही नहीं भारत के बाहर भी अनगिनत संख्या में निर्मित हैं। धरती तो धरती तीनों लोकों में इनकी ख्याति है-
                    जय हनुमान ज्ञान गुण सागर।जय कपीसतिहूंलोक उजागर॥

Saturday, 5 October 2013

शरद नवरात्रों के शुभ अवसर पर

शरद नवरात्रों के शुभ अवसर पर '' जागरण एवं भागवत परिवार '' की तरफ से आप सभी को बहुत बहुत बधाई ,,
हमारी तरफ से आप सभी मित्रो को नवरात्री की हार्दिक शुभ कामनाये...........

Thursday, 5 September 2013

पिप्पलाद ऋषि



पिप्पलाद ऋषि वैदिक सनातन काल के परम तपस्वी एवं ज्ञानी ऋषि थे. पिप्पलाद का जन्म पीपल के वृक्ष के नीचे हुआ पीपल के पत्तों का सेवन भोजन रूप में किया और पीपल के नीचे ही कठोर तपस्या की जिस कारण इन्हें पिप्पलाद नाम प्राप्त हुआ. ऋषि पिप्पलाद जी को भगवान शिव का अवतार भी माना गया है जिस कारण इन्हें पूजनीय स्थान प्राप्त हुआ.
पिप्पलाद जन्म कथा |

पिप्पलाद जी के संबंध में कुछ कथाएं प्रचलित हैं जिसमें से एक के अनुसार जब एक समय त्रेतायुग में अकाल पड़ा तब कौशिक मुनि अपने परिवार समेत गृहस्थान को छोड़कर अन्यत्र परिवार का भरण-पोषण करने के लिए निकल पड़ते हैं परंतु लालन पालन में असमर्थ होने पर वह दुखी मन से अपने एक पुत्र को बीच राह में ही पीपल के वृक्ष के नीचे छोड़ कर चले जाते हैं.

वह बालक जब निंद्रा से जागा तो अपने माता पिता को वहां न पाकर रोने लगता है. थोडी़ देर में उसे भूख-प्यास सताने लगती है तब उसे अपने पास पडे़ पीपल के पत्ते दिखाई पड़ते हैं भूख से व्याकुल वह बालक उन पत्तों से अपनी भूख शांत करता और समीप ही स्थित एक जल कुण्ड का जल पीकर अपनी प्यास बुझाता है. वह बालक प्रतिदिन इसी तरह पत्ते और पानी पीकर भगवान की साधना में लगा रहता है.

एक बार वहां देवर्षि नारद जी उस बालक के पास पहुंचते हैं तथा विपरीत दशा में भी बालक के विनय भाव से प्रभावित हो उस बालक के सभी यथोचित संस्कार पूर्ण करते हैं और उन्हें वेद एवं पुराण का ज्ञान देते हैं. वह बालक को भगवान विष्णु की भक्ति करने को कहते हैं अत: वह बालक नियमित रूप से भगवान विष्णु की भक्ति किया करता और तप में लीन रहता उस बालक की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु उसके समक्ष प्रकट होते हैं तथा उस बालक को योग और ज्ञान की शिक्षा देते हैं जिससे वह बालक ज्ञानी महर्षि बनता है.
पिप्पलाद एवं शनिदेव

समय व्यतीत होने के उपरांत वह बालक जिज्ञासा विवश अपने इस कष्टों का करण पूछता है. वह नारद मुनि जी से प्रश्न करता है कि क्यों उसे इतनी कम उम्र में अनेक कष्टों एवं माता-पिता से अलगाव को सहना पडा़, क्यों मुझे इतनी पीड़ा भोगनी पड़ रही हैं. उस बालक के प्रश्न सुन नारद उनसे कहते हैं कि तुम्हारे कष्टों का कारण शनि देव हैं जिसके कारण तुम्हें अनेक कष्ट सहने पडे़ हैं, नारद मुनि के कथन को सुन कर पिप्पलाद क्रोधित हो जाते हैं और शनि देव को श्राप देतें हैं जिस कारण शनि ग्रह पिप्पलाद के तेजोबल से पृथ्वी पर एक पर्वत पर गिरते हैं जिससे उनका एक पांव चोटिल हो जाता है.

शनि की ऐसी दुर्दशा देखकर ब्रह्मदेव अन्य देवों समेत पिप्पलाद के पास आकर उसका क्रोध शांत करते हैं. वह उनसे कहते हैं कि इसमें शनि का कोई दोष नहीं हैं वह तो केवल व्यक्ति को उसके कर्म अनुसार ही फल प्रदान करते हैं अत: तुम धराशायी हुए शनि को उनके स्थान पर प्रतिष्ठित कर दो पिप्पलाद मुनि ब्रह्मदेव के आदेश का पालन करते हैं. इसलिए जो भी व्यक्ति शनिवार के दिन पिप्पलाद नाम का ध्यान करते हैं उन्हें शनि ग्रह के कष्टों से छुटकारा प्राप्त होता है शनि ग्रह की शांति के लिए शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष के साथ ही शनिदेव के पूजन की परंपरा का विधान है.
पिप्पलाद संबंधि अन्य कथा

पिप्पलाद मुनि के साथ एक अन्य कथा भी जुडी़ हुई है जिसमें पिप्पलाद को महर्षि दधीचि का पुत्र कहा गया है. महर्षि दधीचि ने वृत्रासुर आदि दैत्यों के वध के लिए अपनी हड्डियां देवताओं को दान कर दी थी और जब उनकी पत्नी सुवर्चा पति के साथ सती होने के लिए चिता की ओर जाने लगीं तभी आकाशवाणी होती है कि तुम्हारे गर्भ में महर्षि दधीचि का तेज है जो भगवान शिव का अवतार है.

आकाशवाणी को सुन सुवर्चा अपने मनोरथ को कुछ समय के लिए टाल देती है और पुत्र के जन्म पश्चात उसे पीपल के वृक्ष के नीचे छोड़ कर सती हो जाती हैं. वह बालक पीपल के वृक्ष के नीचे निवास करने लगा और पीपल के पत्तों का सेवन करता है जिस कारण उस बालक को पिप्पलाद नाम प्राप्त होता है. पिप्पलाद अपने पिता की मृत्यु के कारण अत्यंत क्षुब्ध थे अत: वह देवताओं से अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए भगवान शंकर की तपस्या करते हैं.

उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न हो भगवान शिव उनसे वरदान मांगने को कहते हैं इस पर पिप्पलाद पिता के हत्यारे देवताओं को भस्म करने की इच्छा व्यक्त करता है. शिवजी उसकी इच्छा पूर्ति हेतु अपने तीसरे नेत्र को खोल देते हैं इस भीषण अग्नि से संपूर्ण सृष्टि नष्ट होने लगती है और पिप्पलाद का शरीर भी आग से जलने लगता है.

इस संकट से मुक्ति के लिए पिप्पलाद भगवान शिव को पुकरते हैं भगवान शिव प्रकट हो कर उससे कहते हैं कि तुमने जैसा चाहा मैने तो वैसा ही किया है और तुम्हें इस लिए कष्ट मिल रहा है क्योंकि तुमने दूसरों का विनाश चाहा और इस कष्ट को तुम्हें भी भुगतना होगा. भगवान शिव के वचन सुनकर पिप्पलाद उनसे अपने कृत की क्षमा मांगते हैं और अपनी भूल का पश्चाताप करते हैं.


Tuesday, 3 September 2013

सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु ने एक बार सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के साथ निर्गुण, निराकार शिव से प्रार्थना की, प्रभु आप कैसे प्रसन्न होते हैं। भगवान शिव बोले मुझे प्रसन्न करने के लिए शिवलिंग का पूजन करो। जब किसी प्रकार का संकट या दु:ख हो तो शिवलिंग का पूजन करने से समस्त दु:खों का नाश हो जाता है।(शिवमहापुराण सृष्टिखंड )जब देवर्षि नारद ने भगवान श्री विष्णु को शाप दिया और बाद में पश्चाताप किया तब विष्णु ने नारदजी को पश्चाताप के लिए शिवलिंग का पूजन, शिवभक्तों का सत्कार, नित्य शिवशत नाम का जाप आदि उपाय सुझाये। (शिवमहापुराण सृष्टिखंड )एक बार सृष्टि रचयिता ब्रह्माजी सभी देवताओं को लेकर क्षीर सागर में श्री विष्णु के पास परम तत्व जानने के लिए पहोच गये। श्री विष्णु ने सभी को शिवलिंग की पूजा करने का सुझाव दिया और विश्वकर्मा को बुलाकर देवताओं के अनुसार अलग-अलग द्रव्य पदार्थ के शिवलिंग बनाकर देने का आदेश देकर सभी को विधिवत पूजा से अवगत करवाया। (शिवमहापुराण सृष्टिखंड )ब्रह्मा जी ने देवर्षि नारद को शिवलिंग की पूजा की महिमा का उपदेश देते हुवे कहा। इसी उपदेश से जो ग्रंथ कि रचना हुई वो शिव महापुराण हैं। माता पार्वती के अत्यन्त आग्रह से, जनकल्याण के लिए निर्गुण, निराकार शिव ने सौ करोड़ श्लोकों में शिवमहापुराण की रचना कि। जो चारों वेद और अन्य सभी पुराण शिवमहापुराण की तुलना में नहीं आ सकते। भगवान शिव की आज्ञा पाकर विष्णु के अवतार वेदव्यास जी ने शिवमहापुराण को २४६७२ श्लोकों में संक्षिप्त किया हैं।

Monday, 19 August 2013

''श्रावणी पूर्णिमा और रक्षा बंधन ''

राधे राधे....!
आप सभी प्यारे भाईयोँ तथा प्यारी बहनोँ को
रक्षाबंधन के पावन पर्व की बहुत बहुत शुभकामनाएँ...
 
 
श्रावण मास की पूर्णिमा को श्रावणी पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है. इस दिन रक्षा बंधन का पवित्र त्यौहार मनाया जाता है.
इस दिनयज्ञोपवीत के पूजन तथा उपनयन संस्कार का भी विधान है. ब्राह्मण वर्ग अपनी कर्म शुद्धि के लिए उपक्रम करते हैं. हिन्दू धर्म में सावन माह की पूर्णिमा बहुत ही पवित्र व शुभ दिन माना जाता है सावन पूर्णिमा की तिथि धार्मिक दृष्टि के साथ ही साथ व्यावहारिक रूप से भी बहुत ही महत्व रखती है सावन माह भगवान शिव की पूजा उपासना का महीना माना जाता है. सावन में हर दिन भगवान शिव की विशेष पूजा करने का विधान है.
श्रावण पूर्णिमा को दक्षिण भारत में नारियली पूर्णिमा और अवनी अवित्तम, मध्य भारत में कजरी पूर्णिमा , उत्तर भारत में रक्षा बंधन तथा गुजरात में पवित्रोपना के रूप में मनाया जाता है.
श्रावण पूर्णिमा महत्व |
श्रावण पूर्णिमा के दिन चंद्रमा अपनी पूर्ण कलाओं के साथ होता है अत: इस दिन पूजा उपासना करने से चंद्रदोष से मुक्ति मिलती है, श्रावणी पूर्णिमा का दिन दान, पुण्य के लिए महत्वपूर्ण होता है अत: इस दिन स्नान के बाद गाय आदि को चारा खिलाना, चींटियों , मछलियों आदि को दाना खिलाना चाहिए इस दिन गोदान का बहुत महत्व होता है.
श्रावणी पर्व के दिन जनेऊ पहनने वाला हर धर्मावलंबी मन, वचन और कर्म की पवित्रता का संकल्प लेकर जनेऊ बदलते हैं. इस दिन भगवान विष्णु और लक्ष्मी की पूजा का विधान होता है. विष्णु-लक्ष्मी के दर्शन से सुख, धन और समृद्धि की प्राप्ति होती है. इस पावन दिन पर भगवान शिव, विष्णु, महालक्ष्मी व हनुमान को रक्षासूत्र अर्पित करना चाहिए.

पुराणों के मुताबिक गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर श्री अमरनाथ की पवित्र छडी यात्रा का शुभारंभ होता है और यह यात्रा श्रावण पूर्णिमा को संपन्न होती है. कांवडियों द्वारा श्रावण पूर्णिमा के दिन ही शिवलिंग पर जल चढ़ाया जाता है और उनकी कांवड़ यात्रा संपन्न होती है. इस दिन शिव जी का पूजन होता है पवित्रोपना के तहत रूई की बत्तियाँ पंचग्वया में डुबाकर भगवान शिव को अर्पित की जाती हैं.
सावन कजरी पूर्णिमा |
कजरी पूर्णिमा का पर्व भी श्रावण पूर्णिमा के दिन ही पड़ता है यह पर्व विशेषत: मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश के कुछ जगहों में मनाया जाता है. श्रावण अमावस्या के नौंवे दिन से इस उत्सव की तैयारियां आरंभ हो जाती हैं. कजरी नवमी के दिन महिलाएँ पेड़ के पत्तों के पात्रों में मिट्टी भरकर लाती हैं जिसमें जौ बोया जाता है. कजरी पूर्णिमा के दिन महिलाएँ इन जौ पात्रों को सिर पर रखकर पास के किसी तालाब या नदी में विसर्जित करने के लिए ले जाती हैं .
रक्षाबंधन |

रक्षाबंधन का त्यौहार भी श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है इसे सावनी या सलूनो भी कहते हैं. रक्षाबंधन, राखी या रक्षासूत्र का रूप है राखी सामान्यतः बहनें भाई को बांधती हैं इस दिन बहनें अपने भाइयों की कलाई पर राखी बांधती हैं उनकी आरती उतारती हैं तथा इसके बदले में भाई अपनी बहन को रक्षा का वचन देता है और उपहार स्वरूप उन्हें भेंट भी देता है.

इसके अतिरिक्त ब्राहमणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा संबंधियों को जैसे पुत्री द्वारा पिता को भी रक्षासूत्र या राखी बांधी जाती है. इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है, उत्सर्जन, स्नान-विधि, ॠषि-तर्पणादि करक नवीनयज्ञोपवीत धारण किया जाता है. वृत्तिवान ब्राह्मण अपने यजमानों को यज्ञोपवीत तथा राखी देकर दक्षिणा लेते हैं.




Saturday, 17 August 2013

एक बार धर्मराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया तथा अपने चारों भाइयों को दिग्विजय करने की आज्ञा दी। चारों भाइयों ने चारों दिशा में जाकर समस्त नरपतियों पर विजय प्राप्त की किन्तु जरासंघ को न जीत सके। इस पर श्री कृष्ण, अर्जुन तथा भीमसेन ब्राह्मण का रूप धर कर मगध देश की राजधानी में जरासंघ के पास पहुँचे। जरासंघ ने इन ब्राह्मणों का यथोचित आदर सत्कार करके पूछा, “हे ब्राह्मणों! मैं आप लोगों की क्या सेवा कर सकता हूँ?”जरासंघ के इस प्रकार कहने पर श्री कृष्ण बोले, “हे मगजधराज! हम आपसे याचना करने आये हैं। हम यह भली भाँति जानते हैं कि आप याचकों को कभी विमुख नहीं होने देते हैं। राजा हरिश्चन्द्र ने विश्वामित्र जी की याचना करने पर उन्हें सर्वस्व दे डाला था। राजा बलि से याचना करने पर उन्होंने त्रिलोक का राज्य दे दिया था। फिर आपसे यह कभी आशा नहीं की जा सकती कि आप हमें निराश कर देंगे। हम आपसे गौ, धन, रत्नादि की याचना नहीं करते। हम केवल आपसे युद्ध की याचना करते हैं, आप हमे द्वन्द्व युद्ध की भिक्षा दीजिये।”
श्री कृष्ण के इस प्रकार याचना करने पर जरासंघ समझ गया कि छद्मवेष में ये कृष्ण, अर्जुन तथा भीमसेन हैं। उसने क्रोधित होकर कहा, “अरे मूर्खों! यदि तुम युद्ध ही चाहते हो तो मुझे तुम्हारी याचना स्वीकार है। किन्तु कृष्ण! तुम मुझसे पहले ही पराजित होकर रण छोड़ कर भाग चुके हो। नीति कहती है कि भगोड़े तथा पीठ दिखाने वाले के साथ युद्ध नहीं करना चाहिये। अतः मैं तुमसे युद्ध नहीं करूँगा। यह अर्जुन भी दुबला-पतला और कमजोर है तथा यह वृहन्नला के रूप में नपुंसक भी रह चुका है। इसलिये मैं इससे भी युद्ध नहीं करूँगा। हाँ यह भीम मुझ जैसा ही बलवान है, मैं इसके साथ अवश्य युद्ध करूँगा।”
इसके पश्चात् दोनों ही अपना-अपना गदा सँभाल कर युद्ध के मैदान में डट पड़े। दोनों ही महाबली तथा गदायुद्ध के विशेषज्ञ थे। पैंतरे बदल-बदल कर युद्ध करने लगे। कभी भीमसेन का प्रहार जरासंघ को व्याकुल कर देती तो कभी जरासंघ चोट कर जाता। सूर्योदय से सूर्यास्त तक दोनों युद्ध करते और सूर्यास्त के पश्चात् युद्ध विराम होने पर मित्रभाव हो जाते। इस प्रकार सत्ताइस दिन व्यतीत हो गये और दोनों में से कोई भी पराजित न हो सका। अट्ठाइसवें दिन प्रातः भीमसेन कृष्ण से बोले, “हे जनार्दन! यह जरासंघ तो पराजित ही नहीं हो रहा है। अब आप ही इसे पराजित करने का कोई उपाय बताइये।” भीम की बात सुनकर श्री कृष्ण ने कहा, “भीम! यह जरासंघ अपने जन्म के समय दो टुकड़ों में उत्पन्न हुआ था, तब जरा नाम की राक्षसी ने दोनों टुकड़ों को जोड़ दिया था। इसलिये युद्ध करते समय जब मै तुम्हें संकेत करूँगा तो तुम इसके शरीर को दो टुकड़ों में विभक्त कर देना। बिना इसके शरीर के दो टुकड़े हुये इसका वध नहीं हो सकता।”
जनार्दन की बातों को ध्यान में रख कर भीमसेन जरासंघ से युद्ध करने लगे। युद्ध करते-करते दोनों की गदाओं के टुकड़े-टुकड़े हो गये तब वे मल्ल युद्ध करने लगे। मल्ल युद्ध में ज्योंही भी ने जरासंघ को भूमि पर पटका, श्री कृष्ण ने एक वृक्ष की डाली को बीच से चीरकर भीमसेन को संकेत किया। उनका संकेत समझ कर भीम ने अपने एक पैर से जरासंघ के एक टांग को दबा दिया और उसकी दूसरी टांग को दोनों हाथों से पकड़ कर कंधे से ऊपर तक उठा दिया जिससे जरासंघ के दो टुकड़े हो गये। भीम ने उसके दोनों टुकड़ों को अपने दोनों हाथों में लेकर पूरी शक्ति के साथ विपरीत दिशाओं में फेंक दिया और इस प्रकार महाबली जरासंघ का वध हो गया।

Thursday, 8 August 2013

यहां है आधा शिव आधा पार्वती रूप शिवलिंग

 धार्मिक दृष्टि से पूरा संसार ही शिव का रुप है। इसलिए शिव के अलग-अलग अद्भुत स्वरुपों के मंदिर और देवालय हर जगह पाए जाते हैं। ऐसा ही एक मंदिर स्थित है - हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में स्थित काठगढ़ महादेव। इस मंदिर का शिवलिंग ऐसे स्वरुप के लिए प्रसिद्ध है, जो संभवत: किसी ओर शिव मंदिर में नहीं दिखाई देता। इसलिए काठगढ़ महादेव संसार में एकमात्र शिवलिंग माने जाते हैं, जो आधा शंकर और आधा पार्वती का रुप लिए हुए है। यानि एक शिवलिंग में दो भाग हैं। इसमें भगवान शंकर के अर्द्धनारीश्वर स्वरुप के साक्षात दर्शन होते हैं। शिव रुप का भाग लगभग ७ फुट और पार्वती रुप का शिवलिंग का हिस्सा थोड़ा छोटा होकर करीब ६ फुट का है। इस शिवलिंग की गोलाई लगभग ५ फिट है। शिव और शक्ति का दोनों के सामूहिक रुप के शिवलिंग दर्शन से जीवन से पारिवारिक और मानसिक दु:खों का अंत हो जाता है। शिवपुराण की कथा अनुसार जब ब्रह्मा और विष्णु के बीच बड़े और श्रेष्ठ होने की बात पर विवाद हुआ, तब बहुत तेज प्रकाश के साथ एक ज्योर्तिलिंग प्रगट हुआ। अचंभित विष्णु और ब्रह्मदेव उस ज्योर्तिलिंग का आरंभ और अंत नहीं खोज पाए। किंतु ब्रह्मदेव ने अहं के कारण यह झूठा दावा किया कि उनको अंत और आरंभ पता है। तब शिव ने प्रगट होकर ब्रह्म देव की निंदा की और दोनों देवों को समान बताया। माना जाता है कि वही ज्योर्तिमय शिवलिंग ही काठगढ़ का शिवलिंग है। चूंकि शिव का वह दिव्य लिंग शिवरात्रि को प्रगट हुआ था, इसलिए लोक मान्यता है कि काठगढ महादेव शिवलिंग के दो भाग भी चन्द्रमा की कलाओं के साथ करीब आते और दूर होते हैं। शिवरात्रि का दिन इनका मिलन माना जाता है। काठगढ़ में सावन माह और महाशिवरात्रि के दिन विशेष शिव पूजा और धार्मिक आयोजन होते हैं। इसलिए इस समय काठगढ़ की यात्रा सबसे अच्छा मानी जाती है। काठगढ़ शिवलिंग दर्शन के लिए पहुंचने का मुख्य मार्ग पंजाब का पठानकोट और हिमाचल प्रदेश के इंदौरा तहसील से है। जहां से काठगढ़ की दूरी लगभग ६ से ७ किलोमीटर है।

Saturday, 18 May 2013

'' सदना कसाई ''

एक सदना नाम का कसाई था,मांस बेचता था, पर भगवत भजन में बड़ी निष्ठा थी, एक दिन एक नदी के किनारे से जा रहा था, रास्ते में एक पत्थर पड़ा मिल गया....उसे अच्छा लगा उसने सोचा बड़ा अच्छा पत्थर है क्यों ना मैँ इसे मांस तौलने के लिए उपयोग करू. उसे उठाकर ले आया....और मांस तौलने में प्रयोग करने लगा.
जब एक किलो तौलता तो भी सही तुल जाता, जब दो किलो तौलता तब भी सही तुल जाता, इस प्रकार चाहे जितना भी तौलता हर भार एक दम सही तुल जाता, अब तो एक ही पत्थर से सभी माप करता और अपने काम को करता जाता और भगवन नाम लेता जाता.
एक दिन की बात है उसी दुकान के सामने से एक ब्राह्मण निकले ब्राह्मण बड़े ज्ञानी विद्वान थे, उनकी नजर जब उस पत्थर पर पड़ी तो वे तुरंत उस सदना के पास आये और गुस्से में बोले ये तुम क्या कर रहे हो क्या तुम जानते नहीं जिसे पत्थर समझकर तुम तौलने में प्रयोग कर रहे हो वे शालिग्राम भगवान है, इसे मुझे दो जब सदना ने यह सुना तो उसे बड़ा दुःख हुआ और वह बोला हे ब्राह्मण देव मुझे पता नहीं था कि ये भगवान है मुझे क्षमा कर दीजिये.और शालिग्राम भगवान को उसने ब्राह्मण को दे दिया....
ब्राह्मण शालिग्राम शिला को लेकर अपने घर आ गए और गंगा जल से उन्हें नहलाकर, मखमलके बिस्तर पर, सिंहासन पर बैठा दिया, और धूप, दीप,चन्दन से पूजा की. जब रात हुई और वह ब्राह्मण सोया तो सपने में भगवान आये और बोले ब्राह्मण मुझे तुम जहाँ से लाए हो वहीँ छोड आओं मुझे यहाँ अच्छा नहीं लग रहा. इस पर ब्राह्मण बोला भगवान ! वो कसाई तो आपको तुला में रखता था जहाँ दूसरी ओर मास तौलता था उस अपवित्र जगह में आप थे.
भगवान बोले - ब्राहमण आप नहीं जानते जब सदना मुझे तराजू में तौलता था तो मानो हर पल मुझे अपने हाथो से झूला झूला रहा हो जब वह अपना काम करता था तो हर पल मेरे नाम का उच्चारण करता था.हर पल मेरा भजन करता था जो आनन्द मुझे वहाँ मिलता था वो आनंद यहाँ नहीं.इसलिए आप मुझे वही छोड आये.तब ब्राह्मण तुरंत उस सदना कसाई के पास गया ओर बोला मुझे माफ कर दीजिए.वास्तव में तो आप ही सच्ची भक्ति करते है.ये अपने भगवान को संभालिए......।

~जय श्री राधे कृष्ण.....।।।~

Monday, 29 April 2013

'' भारतीय संस्कृति में शंख को स्थान ''

भारतीय संस्कृति में शंख को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, शंख चंद्रमा और सूर्य के समान ही देवस्वरूप है। इसके मध्य में वरुण, पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्र भाग में गंगा और सरस्वती का निवास है। शंख से कृष्ण या लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर देवता प्रसन्न होते हैं। कल्याणकारी शंख दैनिक जीवन में दिनचर्या को कुछ समय के लिए विराम देकर मौन रूप से देव अर्चना के लिए प्रेरित करता है। यह भारतीय संस्कृति की धरोहर है। विज्ञान के अनुसार शंख समुद्र में पाए जाने वाले एक प्रकार के घोंघे का खोल है जिसे वह अपनी सुरक्षा के लिए बनाता है।हिन्दू धर्म में पूजा स्थल पर शंख रखने की परंपरा है क्योंकि शंख को सनातन धर्म का प्रतीक माना जाता है। शंख निधि का प्रतीक है। ऐसा माना जाता है कि इस मंगलचिह्न को घर के पूजास्थल में रखने से अरिष्टों एवं अनिष्टों का नाश होता है और सौभाग्य की वृद्धि होती है। स्वर्गलोक में अष्टसिद्धियों एवं नवनिधियों में शंख का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हिन्दू धर्म में शंख का महत्त्व अनादि काल से चला आ रहा है। शंख का हमारी पूजा से निकट का सम्बन्ध है। कहा जाता है कि शंख का स्पर्श पाकर जल गंगाजल के सदृश पवित्र हो जाता है। मन्दिर में शंख में जल भरकर भगवान की आरती की जाती है। आरती के बाद शंख का जल भक्तों पर छिड़का जाता है जिससे वे प्रसन्न होते हैं। जो भगवान कृष्ण को शंख में फूल, जल और अक्षत रखकर उन्हें अर्ध्य देता है, उसको अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है। शंख में जल भरकर ऊँ नमोनारायण का उच्चारण करते हुए भगवान को स्नान कराने से पापों का नाश होता है।
धार्मिक कृत्यों में शंख का उपयोग किया जाता है। पूजा-आराधना, अनुष्ठान-साधना, आरती, महायज्ञ एवं तांत्रिक क्रियाओं के साथ शंख का वैज्ञानिक एवं आयुर्वेदिक महत्त्व भी है। हिन्दू मान्यता के अनुसार कोई भी पूजा, हवन, यज्ञ आदि शंख के उपयोग के बिना पूर्ण नहीं माना जाता है। कुछ गुह्य साधनाओं में इसकी अनिवार्यता होती है। शंख साधक को उसकी इच्छित मनोकामना पूर्ण करने में सहायक होते हैं तथा जीवन को सुखमय बनाते हैं। शंख को विजय, समृद्धि, सुख, यश, कीर्ति तथा लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है। वैदिक अनुष्ठानों एवं तांत्रिक क्रियाओं में भी विभिन्न प्रकार के शंखों का प्रयोग किया जाता है।
साधारणत: मंदिर में रखे जाने वाले शंख उल्टे हाथ के तरफ खुलते हैं और बाज़ार में आसानी से ये कहीं भी मिल जाते हैं. लक्ष्मी के हाथ में जो शंख होता है वो दक्षिणावर्ती अर्थात सीधे हाथ की तरफ खुलने वाले होते हैं। वामावर्ती शंख को जहां विष्णु का स्वरुप माना जाता है और दक्षिणावर्ती शंख को लक्ष्मी का स्वरुप माना जाता है। दक्षिणावृत्त शंख घर में होने पर लक्ष्मी का घर में वास रहता है।

Sunday, 28 April 2013


आरोग्य देता है शिव-सूर्य पूजन 

श्रावण कृष्ण सप्तमी तिथि सूर्य को समर्पित है अत: सप्तमी को सूर्य के रूप में भगवान शंकर का पूजन विधि-विधान से करने पर तेज की प्राप्ति होती है। इस दिन प्रात:काल सूर्य को जल चढ़ाने से आरोग्य तो मिलता ही है साथ ही इसके निरंतर करने से आंखों एवं सिरदर्द का निदान भी होता है। इस दिन तांबे से निर्मित वस्तुओं का दान करने से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं। इस दिन शीतला सप्तमी का व्रत भी महिलाओं द्वारा किया जाता है। महिलाएं यह व्रत अखंड सौभाग्य की इच्छा से करती है। इस दिन शीतलामाता की पूजा शीतल सामग्री से की जाती है। इस दिन घरों में चुल्हा भी नहीं जलाया जाता।



Friday, 26 April 2013


कहां होता है शिवलिंग में शिव मुख ?

 शिवलिंग पूजा मन से कलह को मिटाकर जीवन में हर सुख और खुशियाँ देने वाली मानी गई है। हर देव पूजा के समान शिवलिंग पूजा में भी श्रद्धा और आस्था महत्व रखती है। किंतु इसके साथ शास्त्रोंक्त नियम-विधान अनुसार शिवलिंग पूजा शुभ फल देने वाली मानी गई है। इन नियमों में एक है शिवलिंग पूजा के समय भक्त का बैठने की दिशा। जानते हैं शिवलिंग पूजा के समय किस दिशा और स्थान पर बैठना कामनाओं को पूरा करने की दृष्टि से विशेष फलदायी है। - जहां शिवलिंग स्थापित हो, उससे पूर्व दिशा की ओर चेहरा करके नहीं बैठना चाहिये। क्योंकि यह दिशा भगवान शिव के आगे या सामने होती है और धार्मिक दृष्टि से देव मूर्ति या प्रतिमा का सामना या रोक ठीक नहीं होती। - शिवलिंग से उत्तर दिशा में भी न बैठे। क्योंकि इस दिशा में भगवान शंकर का बायां अंग माना जाता है, जो शक्तिरुपा देवी उमा का स्थान है। - पूजा के दौरान शिवलिंग से पश्चिम दिशा की ओर नहीं बैठना चाहिए। क्योंकि वह भगवान शंकर की पीठ मानी जाती है। इसलिए पीछे से देवपूजा करना शुभ फल नहीं देती। - इस प्रकार एक दिशा बचती है - वह है दक्षिण दिशा। इस दिशा में बैठकर पूजा फल और इच्छापूर्ति की दृष्टि से श्रेष्ठ मानी जाती है। सरल अर्थ में शिवलिंग के दक्षिण दिशा की ओर बैठकर यानि उत्तर दिशा की ओर मुंह कर पूजा और अभिषेक शीघ्र फल देने वाला माना गया है। इसलिए उज्जैन के दक्षिणामुखी महाकाल और अन्य दक्षिणमुखी शिवलिंग पूजा का बहुत धार्मिक महत्व है। शिवलिंग पूजा में सही दिशा में बैठक के साथ ही भक्त को भस्म का त्रिपुण्ड़् लगाना, रुद्राक्ष की माला पहनना और बिल्वपत्र अवश्य चढ़ाना चाहिए। अगर भस्म उपलब्ध न हो तो मिट्टी से भी मस्तक पर त्रिपुण्ड्र लगाने का विधान शास्त्रों में बताया गया है।



Wednesday, 24 April 2013

!!!यहाँ भी सुखी वहां भी सुखी!!!


एक बार एक राजा ने अपने मंत्री से कहा, 'मुझे इन चार प्रश्नों के जवाब दो। जो यहां हो वहां नहीं, दूसरा- वहां हो यहां नहीं, तीसरा- जो यहां भी नहीं हो और वहां भी न हो, चौथा- जो यहां भी हो और वहां भी।'मंत्री ने उत्तर देने के लिए दो दिन का समय मांगा। दो दिनों के बाद वह चार व्यक्तियों को लेकर राज दरबार में हाजिर हुआ और बोला, 'राजन! हमारे धर्मग्रंथों में अच्छे-बुरे कर्मों और उनके फलों के अनुसार स्वर्ग और नरक की अवधारणा प्रस्तुत की गई है। यह पहला व्यक्ति भ्रष्टाचारी है, यह गलत कार्य करके यद्यपि यहां तो सुखी और संपन्न दिखाई देता है, पर इसकी जगह वहां यानी स्वर्ग में नहीं होगी। दूसरा व्यक्ति सद्गृहस्थ है। यह यहां ईमानदारी से रहते हुए कष्ट जरूर भोग रहा है, पर इसकी जगह वहां जरूर होगी। तीसरा व्यक्ति भिखारी है, यह पराश्रित है। यह न तो यहां सुखी है और न वहां सुखी रहेगा। यह चौथा व्यक्ति एक दानवीर सेठ है, जो अपने धन का सदुपयोग करते हुए दूसरों की भलाई भी कर रहा है और सुखी संपन्न है। अपने उदार व्यवहार के कारण यह यहां भी सुखी है और अच्छे कर्म करन से इसका स्थान वहां भी सुरक्षित है।'



Tuesday, 23 April 2013


भगवान् मायापति है, इस हेतु भगवान् के नाम के साथ उनकी माया का भी नाम होना आवश्यक है। शक्ति शक्तिमान से भिन्न नहीं है और ना वह कभी शातिमान को छोड़कर रह ही सकती है। दोनों का नाम एक साथ मिलकर उच्चारण करने की प्रथा प्राय: सभी सम्प्रदायों में देखि जाती है। नारायण जी ने नारद जी से कहा है। कि प्रकृति जगत की माता है तथा पुरष जगत के पिता है। तीनो लोको की माता का दर्जा पिता से सौगुना अधिक है, इससे 'हे राधाकृष्ण , हे गौरीशंकर हे सीताराम' ऐसे प्रयोग वेदों में मिलते है। 'हे कृष्णराधे , हे ईश्गौरी , हे रामसीता ' यह कोई नहीं कहता है। जो पहले पुरष के नाम का उच्चारण करता है, वह मनुष्य वेदवाक्य का उल्लंघन करनेवाला पापी होता है। जो आदि में राधा का नाम लेकर पश्चात परात्पर कृष्ण का नाम लेता है, वही पंडित , योगी अनायास ही गोलोक को प्राप्त करता है .भगवान् का नाम चलते-फिरते, दिन-रात , उठते-बैठते, जैसे हो वैसे ही जपना चाहिए इसमें कोई बाधा नहीं है। नाप-जप में किसी नियम-संयम की आवश्यकता नहीं है, और देश-काल का भी विचार नहीं है। मनुष्य केवल राम -नाम के कीर्तन से मुक्त हो जाता है। यज्ञ में, दान में, स्नान में, तहत जप में भी काल का विचार है। किन्तु विष्णु के कीर्तन में काल का विधान बिलकुल नहीं है। घूमता हुआ, बैठा हुआ, सोता हुआ, पीता हुआ, खाता हुआ, और जपता हुआ कृष्ण नाम के संकीर्तन मात्र से मनुष्य पाप से मुक्त हो जाता है। बैठे हुए, सोते हुए, खाते हुए, खेलते हुए तथा चलते-फिरते सदा राम का ही चिंतन करते रहना चाहिए।

















Wednesday, 10 April 2013


चैत्र  नवरात्रों के शुभ अवसर पर  ' हमारी मंगलमयी शुभकामनाओं के साथ आपको एवं आपके परिवार को बहुत  बहुत बधाई   > माँ शेरावाली आप सभी की मनोकामनाए पूरी करे ,,आप सबका नव वर्ष खुशियों से भरा रहे |

Wednesday, 3 April 2013

क्यों पीया था शिव ने कालकूट विष?

देवताओं और दानवों द्वारा किए गए समुद्र मंथन से निकला विष भगवान शंकर ने अपने कण्ठ में धारण किया
था। विष के प्रभाव से उनका कण्ठ नीला पड़ गया और वे नीलकण्ठ के नाम से प्रसिद्ध हुए।
विद्वानों का मत है कि समुद्र मंथन एक प्रतीकात्मक घटना है। समुद्र मंथन का अर्थ है अपने मन को मथना, विचारों का मंथन करना। मन में असंख्य विचार और भावनाएं होती हैं उन्हें मथकर निकालना और अच्छे विचारों को अपनाना। हम जब अपने मन से विचारों को निकालेंगे तो सबसे पहले बुरे विचार निकलेंगे।
यही विष हैं, विष बुराइयों का प्रतीक है। शिव ने उसे अपने कण्ठ में धारण किया। उसे अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। शिव का विष पान हमें यह संदेश देता है कि हमें बुराइयों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए। हमें बुराइयों का हर कदम पर सामना करना चाहिए।
शिव द्वारा  विष पान हमें यह सीख भी देता है कि यदि कोइ बुराई पैदा हो रही हो तो उसे दूसरों तक नहीं पहुंचने देना चाहिए।

Tuesday, 26 March 2013

                 
              ..........'' आप सभी को हमारी मंगल कामनाओं के साथ .होली की बहुत बहुत बधाई ''..............

                                 "लाल" आपके गालों के लिए...."काला" आपके बालों के लिए...
                                 "नीला" आपके आँखों के लिए..."पीला" आपके हाथों के लिए...
                                 "गुलाबी" आपके सपनों के लिए...."सफेद" आपके मन के लिए....
                                                       "हरा" आपके जीवन के लिए....
                                      "होली" के इन सात रंगों के साथ"जिंदगी" रंगीन हो ...

                                       सभी  को सपरिवार होली की हार्दिक शुभकामनाएँ....

Monday, 25 March 2013

         
आप सभी को हमारी मंगल कामनाओं के साथ .
होली की बहुत बहुत बधाई ..............

Saturday, 23 March 2013

एक बार एक स्वामी जी भिक्षा माँगते हुए एक घर के सामने खड़े हुए और उन्होंने आवाज लगायी, भीक्षा दे दे माते!!   घर से महिला बाहर आयी। उसने उनकी झोली मे भिक्षा डाली और कहा, “महात्माजी, कोई उपदेश दीजिए!”  स्वामीजी बोले, “आज नहीं, कल दूँगा।” दूसरे दिन स्वामीजी ने पुन: उस घर के सामने आवाज दी – भीक्षा दे दे माते!!  उस घर की स्त्री ने उस दिन खीर बनायीं थी, जिसमे बादाम- पिस्ते भी डाले थे, वह खीर का कटोरा लेकर बाहर आयी। स्वामी जी ने अपना कमंडल आगे कर दिया। वह स्त्री जब खीर डालने लगी, तो उसने देखा कि कमंडल में गोबर और कूड़ा भरा पड़ा है। उसके हाथ ठिठक गए। वह बोली, “महाराज ! यह कमंडल तो गन्दा है।”स्वामीजी बोले, “हाँ,गन्दा तो है, किन्तु खीर इसमें डाल दो।” स्त्री बोली, “नहीं महाराज, तब तो खीर ख़राब हो जायेगी। दीजिये यह कमंडल, में इसे शुद्ध कर लाती हूँ।”स्वामीजी बोले, मतलब जब यह कमंडल साफ़ हो जायेगा, तभी खीर डालोगी न?” स्त्री ने कहा : “जी महाराज !” स्वामीजी बोले,“मेरा भी यही उपदेश है। मन में जब तक चिन्ताओ का कूड़ा-कचरा और बुरे संस्करो का गोबर भरा है, तब तक उपदेशामृत का कोई लाभ न होगा।यदि उपदेशामृत पान करना है, तो प्रथम अपने मन को शुद्ध करना चाहिए,कुसंस्कारो का त्याग करना चाहिए, तभी सच्चे सुख और आनन्द की प्राप्ति होगी।

Friday, 22 March 2013

नंदी की स्थापना गर्भ-गृह के बाहर क्यों?


यह बात देखने में अटपटी लग सकती है कि शिव परिवार का महत्वपूर्ण और अभिन्न हिस्सा होने के बावजूद असीम शक्तियों के स्वामी नंदी शिव परिवार के साथ न होकर गर्भ-गृह के बाहर क्यों स्थापित होते हैं। इसके पीछे भी रहस्य है। नंदी गर्भ-गृह के बाहर खुली आंखों की अवस्था में समाधि की स्थिति में होते हैं, लेकिन उनकी दृष्टि शिव की ओर ही रहती है।महाभारत के रचयिता के अनुसार खुली आंखों से ही आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है और इस आत्मज्ञान के सहारे जीवन मुक्ति पाना सरल हो जाता है। शिव दर्शन से पहले नंदी के दर्शन करना शास्त्रसम्मत है, ताकि व्यक्ति अपने अहंकार सहित समस्त बुराइयों से मुक्त हो जाए। मद, मोह, छल, कपट और ईर्ष्या जैसे अपने विकारों को नंदीश्वर के चरणों में त्याग कर वह शिव के पास जाए और उनकी कृपा प्राप्त करे। नंदी का अर्थ है— प्रसन्नता यानी जिनके दर्शन मात्र से ही समस्त दुख दूर हो जाते हों। नंदी जीवन में प्रसन्नता और सफलता के प्रतीक हैं। ऋषि शिलाद के अयोनिज पुत्र नंदी शिव के ही अंश हैं, इसलिए अजर-अमर हैं। नंदी के सींग विवेक और वैराग्य के प्रतीक हैं। दाहिने हाथ के अंगूठे और तजर्नी से नंदी के सींगों को स्पर्श करते हुए शिव के दर्शन किए जाते हैं। नंदी की कृपा के बिना शिव कृपा संभव नहीं। आपने मंदिरों में अक्सर देखा होगा कि कुछ लोग नंदी के कान के पास जाकर कुछ बुदबुदाते हैं। यह बुदबुदाना और कुछ नहीं, एक तरह से सिफारिश की गुहार लगाना ही है। इससे भक्त नंदी के जरिये अपनी मनोकामना महादेव तक पहुंचाते हैं। भोले बाबा अपने नंदी की बात को कभी नहीं टालते। दरअसल नंदी, शिव और भक्तों के बीच उस सेतु का कार्य करते हैं, जिसके सहारे व्यक्ति शिव की शरण में पहुंच कर उनकी कृपा का पात्र हो जाता है।

Thursday, 21 March 2013

संजय सोनी
एक राजा की सवारी निकल रही थी। आगे आगे सेना की एक टुकड़ी मार्ग में आनेवाले लोगों को रोककर मार्ग खाली करने के काम पर लगी थी। एक महात्मा बीच रास्ते में बैठे थे। अपनी ही मस्ती में थे। एक सैनिक उनके पास जाकर चिल्लाया, ‘‘उठो! रास्ता खाली करो !! राजा की सवारी आ रही है।’’ महात्मा हटे नहीं और उस सैनिक से पूछा, ‘‘तूम कौन हो?’’ सिपाही अपनी अकड़ में बोला, ‘‘मूझे नहीं जानते? मै राजा की विशेष रक्षा वाहिनी का सिपाही हूँ। हटो! नहीं तो. . .’’ महात्मा ने मुस्कुराकर कहा, ‘‘तभी’’। सिपाही कुछ समझा नहीं, अपने सुबेदार को ले आया। सुबेदार अकड़कर बोला, ‘‘ना जाने कहाँ कहाँ से आ जाते है, भीखमंगे ? अरे इतनी सी बात नहीं समझते, राजा की सवारी आ रही है। फूटों यहाँ से ! दिखना मत कही आसपास भी।’’ महात्मा ने फिर पुछा, ‘‘तुम कौन?’’ सुबेदारी का परिचय पाकर फिर वही टिप्पणी की, ‘‘तभी!’’ जब महात्मा फिर ध्यानमग्न हो गये और राह से ड़िगे नहीं तो सेनापति आया। ठसन तो थी पर भाषा सभ्य थी, ‘‘महात्माजी हमारी विवशता को समझें, आप नहीं हटेंगे तो राजा की सवारी में विघ्न आयेगा। कृपया राह दें।’’ महात्मा ने फिर परिचय मांगा और परिचय पाने पर फिर वही, ‘‘तभी!’’ अब मंत्री की बारी थी। मन्त्री ने प्रणाम कर बड़ी विनम्रता से राह छोड़ने की प्रार्थना की। राजा के गन्तव्य का महत्व भी बताया और राष्ट्रीय आवश्यकता की भी दूहाई दी। महात्मा ने मुस्कुराकर परिचय पूछा। पता चलने पर फिर, ‘‘तभी!’’
अब बात राजा तक पहुँची। महात्मा है कि हटता नहीं और केवल ‘तभी’ ‘तभी’ कहता है। राजा ने रथ से उतरकर साष्टांग दण्डवत किया और महात्मा का आशिर्वाद मांगा। कहा, ‘‘मै राह बदलकर चला जाउंगा पर जिस कार्य पर जा रहा हूँ उसकी सफलता का आशिष दें।’’ महात्मा केवल मुस्कुराये और परिचय पुछा। राजा ने उत्तर दिया, ‘‘महाराज प्रजा का सेवक हूँ। धर्म के अनुसार राज्यपालन का दायित्व है।’’ महात्मा मुस्कुराये और आशिर्वाद का हाथ उठाकर बोले, ‘‘तभी!’’
राजा मार्ग बदलकर आगे बढ़ा। रथ में साथ विराजमान राजगुरु से बोला, ‘‘इस ‘तभी’ का क्या रहस्य है?’’ राजगुरु ने समझाया, ‘‘अपने आप में तो ‘तभी’ कुछ नहीं कहता पर उसके पूर्व के विधान के साथ जोड़कर देखें तो पता चलेगा। सिपाही हो ‘तभी’। सुबेदार हो ‘तभी’। सबके स्तर के अनुसार उनके व्यवहार पर यह टिप्पणी थी। राजन् , महात्मा ने अपने ‘तभी’ से सदाचार पर भाष्य किया है। व्यक्ति का शील ही उसका वास्तविक परिचय है। यह शील उसके व्यवहार में झलकता है। आप राजन् है, विनम्रता और सेवाभाव आपका शील है। ‘तभी’ ! इसको उलटा देखने से भी बड़ी शिक्षा मिलती है। उद्दण्ड व्यवहार है तभी केवल सिपाही हो। ठसन है तभी सुबेदार हो। विनम्रता है पर पूर्ण अधिकार नहीं तभी मंत्री हो।’’ राजा मन ही मन गुनगुनाता रहा ‘तभी’।

इस कथा से एक बात और पता चलती है। वो ये कि आम तौर पर मनुष्य जितने छोटे पद पर है, उतन ही अकडू और दम्भी है और जैसे 2 वह ऊँचे पद पर पहुँचता है, उतना ही विनम्र होता जाता है।


Wednesday, 20 March 2013

माखन - मिश्री


श्री राम बहुत शर्मीले है, कौशल्या माँ माखन - मिश्री देना भूल जाए तो रामजी मांगते नहीं. बहुत मर्यादा में रहते है. अनेक बार एसा हुआ की कौशल्या जी लक्ष्मीनारायण की सेवा में इसी तन्मय हो जाती है की रामजी कौशल्या माँ का वन्दन करने आवे, पास बैठ जाए परन्तु माँ रामजी को माखन - मिश्री देना भूल जाती है परन्तु रामजी कभी भी मांगते नहीं ..

कन्हैया तो यशोदा माँ के पीछे पड़ जाते थे कि 'माँ! माखन-मिश्री मुझे दे. लाला कि सभी लीला विचित्र है, ये तो प्रेम - मूर्ति है. श्रीराम  मर्यादा पुर्शोतम है , माता कि भी मर्यादा रखते है श्रीराम और श्री कृष्ण दोनों को माखन-मिश्री बहुत भाती है . दोनों माखन-मिश्री आरोगते है. श्रीबालकृष्णलाल तो माखन - मिश्री हाथ में ही रखते है. कन्हैया जगत को ज्ञान देते है कि 'तुम मिश्री जैसे मधुर बनो तो मै तुमको हाथ मै रखु. जीवन में मिठास सयम से आती है, सबका मान रखने से आती है. सबको मान देने से और सब इन्द्रियों का सयम करने से जीवन मिश्री जैसा मधुर बनता है. जिसके जीवन में कड़वाहट है, उसकी भक्ति भगवान् को प्रिय लगती नहीं. जिसका जीवन मिश्री जैसा मधुर है, जिसका ह्रदय माखन जैसा कोमल है, वही परमात्मा को प्यारा है, कन्हैया माखन-चोर अर्थात म्रदुल मनका चोर है. म्रदुल मन, कोमल ह्रदय भगवान श्री राम , भगवान श्री कृष्ण दोनों को प्रिय लगता है .

जय श्री राम
जय श्री कृष्ण

Wednesday, 13 March 2013

'किसी समय स्वर्ग के राजा इंद्र ने अपने गुरु के प्रति कोई अपराध किया तो गुरु ने उन्हें सुअर योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया। जब इंद्र सुअर बनकर पृथ्वी लोक पर चले आए तो स्वर्ग का सिंहासन खाली हो गया। यह स्थिति देखकर ब्रह्मा पृथ्वी पर आए और उन्होंने सुअर रूपी इंद्र से कहा, भद्र! तुम पृथ्वी पर सुअर बनकर आए हो। अब मैं तुम्हारा उद्धार करने आया हूं। तुम तुरंत मेरे साथ चलो। लेकिन सुअर रूपी इंद्र हाथ जोड़ कर खड़े हो गए, मैं आपके साथ नहीं जा सकता। मुझ पर अनेक उत्तरदायित्व हैं। मेरे बच्चे हैं, पत्नी है और यह अपना सुंदर शूकर समाज है।
इसी प्रकार श्रीकृष्ण आते हैं और हमसे कहते हैं, तुम दुखों से भरे इस भौतिक संसार में क्या कर रहे हो? तुम मेरे पास चले आओ तो मैं तुम्हारी हर प्रकार से रक्षा करूंगा। किंतु हम कृष्ण के उपदशों पर ध्यान नहीं देते और सोचते हैं, हमें यहां कई दूसरे कहीं ज्यादा जरूरी कार्य करने हैं। यही विस्मृति है।विस्मृति का कारण है बार-बार मृत्यु का ग्रास बनना। यह वास्तविकता है कि पिछले जीवन में हमें अन्य परिवारों, माताओं, पिताओं अथवा देशों में अन्य शरीर मिले थे, किंतु हमें कुछ याद नहीं है। हो सकता है कि हम कुत्ते या बिल्ली, मनुष्य या देवता रहे हों, किंतु अब हमें कुछ भी याद नहीं है। विस्मृति के चलते हम भूल जाते हैं कि पिछले जन्म अथवा जन्मों में हम इसी प्रकार झूठी आशा अर्थात मृगतृष्णा के पीछे भागते रहे कि अमुक कार्य करने से हम सुखी होंगे, अमुक कार्य करने से नित्य आनंद की प्राप्ति होगी। किंतु इसी विस्मृति के कारण हम अपने वर्तमान का अमूल्य मानव जीवन भी व्यर्थ के कार्यों में गवां रहे हैं और कष्ट पा रहे हैं। तो क्यों न भगवद् भजन कर हम विस्मृति को सदा के लिए अलविदा कह दें।


Friday, 1 March 2013

'' लक्ष्मी की शिव - निष्ठा ''

लक्ष्मी की शिव - निष्ठा '' 
एक बार लीलामय भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी को भूलोक में अश्व्योनी में जन्म लेने का शाप दे दिया, भगवान कि प्रत्येक लीला में जो रहस्य होता है, उसको तो वे ही जानते है. श्री लक्ष्मी जी को इससे बहुत क्लेश हुआ, पर उनकी प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने कहा - 'देवि! यद्यपि मेरा वचन अन्यथा तो हो नहीं सकता, तथापि कुछ काल तक तुम अश्व्योनी में रहोगी, पश्चात् मेरे समान ही तुम्हारे एक पुत्र उत्पन्न होगा . उस समय उस शाप से तुम्हारी मुक्ति होगी और फिर तुम मेरे पास आ  जाओगी ।

भगवान के शाप से लक्ष्मी जी ने भूलोक में आकर अश्व्योनी में जन्म लिया  और वे काल्न्दी तथा तमसा के संगम पर भगवान शंकर की आराधना करने लगी, वे भगवान सदाशिव त्रिलोचन का अनन्य-मन से एक हजार वर्षो तक ध्यान करती रही  ....
उनकी तपस्या से महादेव जी बहुत प्रसन्न हुए और लक्ष्मी के सामने वृषभ पर आरूढ़ हो, पार्वती समेत दर्शन देकर कहने लगे - 'देवि   , आप तो जगत कि माता है और भगवान विष्णु कि परम प्रिय है. आप भक्ति-मुक्ति देनेवाले, सम्पूर्ण चराचर जगत के स्वामी विष्णु भगवान कि आराधना छोड़कर मेरे भजन क्यों कर रही है? वेदों का कथन है कि स्त्रियों को सर्वदा अपने पति कि उपासना करनी चाहिए. उनके लिए पति के अतिरिक्त और कोई देवता ही नहीं है, पति कैसा भी हो वह स्त्री का आराध्य देव होता है. भगवान नारायण तो मेरे पुर्शोतम है, ऐसे देवेश्वर पति कि उपासना छोड़कर आप मेरे उपासना क्यों करती है
लक्ष्मी जे ने कहा - हे आशुतोष! मेरे पतिदेव ने मुझे अश्व्योनी में जनम लेने का शाप दे दिया है, इस शाप का अंत पुत्र होने पर बताया है, वे वैकुण्ठ में निवास कर रहे है, हे महादेव! आपकी उपासना मैंने इसलिए की है की आपमें और श्री हरि में किंचिन्त मात्र भी भेद-भाव नहीं है. आप और वे एक ही है. केवल रूप भेद है, यह बात श्री हरि ने ही मुझे बताई थी .. आपका और उनका एकत्व जानकार ही मैंने आपकी आरधना की है. हे भगवान! यदि आप मुझपर प्रसन्न है तो मेरा यह दुःख दूर कीजिये  आशुतोष भगवान शिव ने लक्ष्मी के इन वचनों को सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और विष्णुदेव से इस विषये में प्रार्थना करने का वचन दिया और श्री हरि को प्राप्त करने तथा एक महान प्रकर्मशाली पुत्र प्राप्त करने का वर भी उन्हें प्रदान किया. भगवान शिव का सन्देश पाकर तथा देवि लक्ष्मी की स्तिथि जानकार भगवान विष्णु अश्व का रूप धारणकर लक्ष्मी जी के पास गये और कालान्तर में देवि लक्ष्मी को 'एकवीर' नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, उसी से "हैहय-वंश" की उत्पति हुई. अनन्तर लक्ष्मी के शाप की निव्रती हो गई और वे दिव्या शरीर धारणकर भगवान के साथ वैकुण्ठ पधार गई. उनकी शिव-साधना सफल हो गईअब बोलिए जय माँ महालक्ष्मी की           





Tuesday, 26 February 2013

''मन को वश में रखना बहुत कठिन ''

यह मन बहुत अशांत है, अतिशय चंचल है, सुख दुःख मन ही लाया करता है, मन विषयों में भटका करता है, यह स्थिर रह सकता नहीं, यह धन के पीछे दौड़ता है. और धन मिल जाये तो उससे इसे संतोष प्राप्त होता नहीं, और वहा अन्य किसी भोग - पदार्थ या विषय की तरफ दौड़ जाता है, मन कूदफांद करता ही रहता है, इस प्रकार चारो तरफ दौड़ा ही करता है, मन को तनिक भी शांति नहीं. मन अनेक तरंगे लीया करता है, मन मोह प्राप्त करता है, क्रोध करता है, लोभ करता है, कामना करता है, आसक्ति करता है, द्वेष करता है, अनेक प्रकार की चिंताए करता है, इस मन को वश में रखना बहुत कठिन है, असम्भव जैसा है. वह क्षण में सुख पाता है, क्षण में दुखी हो जाता है, इस की एक उदाहरन यह है
दो बचपन के दोस्त लम्बे समय बाद मिले, दोनों में वार्तालाप चलने लगा.
पहला मित्र : भाई! हम बहुत लम्बे समय बाद मिले है, इस बीच मेरी शादी हो चुकी है :)
दूसरा - यह तो बड़ी ख़ुशी की बात है, तुम चतुर्भुज बन गये :)
पहला - परन्तु जो स्त्री मिली है, वह बड़ी कर्कशा, कटुभाषिणी और क्ल्ह्कारिणी है :(
दूसरा - यह तो बहुत चिंता की बात है :(
पहला - पर वह बड़े धनी बाप की इकलोती बेटी है , बहुत माल साथ लाई है
दूसरा - तब तो तुम बहुत भाग्यशाली हो, अनायास मालामाल हो गये :)
पहला - मालामाल क्या ख़ाक हो गया, वह बड़ी कंजूस है, उसने सारी सम्पति अपने नियंत्रण में ले रखी है :(
दूसरा - तब तो सारा मामला ही गडबडा गया :(
पहला - हां , उसने एक सुंदर बिल्डिंग अवश्य बनवा ली :)
दूसरा - चलो , कोठी वाले तो तुम बन गये :)
पहला - हां, आफत भी साथ ही आ गई, उस कोठी में आग लग गई :(
दूसरा - तब तो बड़ा नुक्सान हुआ होगा :(
पहला - नहीं, हमने उसकी बीमा करवा रखी थी :)
                 सांसारि आदमी की प्रियता और अप्रियता की यह स्थिति है, उसके सुख और दुःख दोनों क्षणिक है

Friday, 22 February 2013

''नटराज शिव ''

भगवान शिव सदैव लोको का उपकार और हित करने वाले हैं। त्रिदेवों में इन्हें संहार का देवता भी माना गया है। अन्य देवताओं की पूजा-अर्चना की तुलना में शिव उपासना को अत्यन्त सरल माना गया है। अन्य देवताओं की भांति को सुगंधित पुष्पमालाओं और मीठे पकवानों की आवश्यकता नहीं पड़ती । शिव तो स्वच्छ जल, बिल्व पत्र, भाँग, कंटीले और न खाए जाने वाले पौधों के फल यथा-धूतरा आदि से ही प्रसन्न हो जाते हैं। शिव को मनोरम वेशभूषा और अलंकारों की आवश्यकता भी नहीं है। वे तो औघड़ बाबा हैं। जटाजूट धारी, गले में लिपटे नाग और रुद्राक्ष की मालाएं, शरीर पर बाघम्बर, चिता की भस्म लगाए एवं हाथ में त्रिशूल पकड़े हुए, वे सारे विश्व को अपनी पद्चाप तथा डमरू की कर्णभेदी ध्वनि से नचाते रहते हैं। इसीलिए उन्हें नटराज की संज्ञा भी दी गई है।



''भगवती सती का शिव - प्रेम ''

एक समय लीलाधारी परमेश्वर शिव एकांत में बैठे थे वही सती भी विराजमान थी. आपस में वार्तालाप हो रहा था. उसी वार्तालाप के प्रसंग में भगवान शिव के मुख से सती के श्यामवर्ण को देखकर 'काली' ऐसा शब्द निकल गया. 'काली' यह शब्द सुनकर सती को महान दुःख हुआ और वे शिव से बोली - 'महाराज! आपने मेरे कृष्ण वर्ण को देखर मार्मिक वचन कहा है. इसलिए मै वहां जाउंगी, जहा मेरा नाम गौरी पड़ी .. ऐसा कहकर परम ऐश्वर्यवती सती अपनी सखियों के साथ प्रभास-तीर्थ में तपस्या करने चली गई. वहां 'गौरिश्वर ' नामक लिंगको संस्थापित कर विधिवत पूजा और दिन-रात एक पैरपर खड़ी होकर कठिन तपस्या करने लगी. ज्यों-ज्यों तप बढ़ता जाता, त्यों-त्यों उनका वर्ण गौर होता जाता. इस प्रकार धीरे-धीरे उनके अंग पूर्णरूप से गौर हो गये.
तदनन्तर भगवान चंद्रमौली वहां प्रकट हुए और उन्हों ने सती को बड़े आदर से 'गौरी' इस नाम से सम्बोधित
करके कहा 'प्रिये! अब तुम उठो और अपने मंदिर को चलो. हे कल्याणी! अभीष्ट वर मांगो, तुम्हारे लिए कुछ भी अदेय नहीं है, तुम्हारी तपस्या से मै परम प्रसन्न हु..
तब सती ने हाथ जोड़कर कहा - हे महाराज! आपके चरणों की दया से मुझे किसी बात की कमी नहीं है. मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए. परन्तु यह प्रार्थना अवश्य करुँगी की जो नर या नारी इस गौरिश्वर शिव का दर्शन करे, वे सात जन्मतक सौभाग्य - समृद्धि से पूर्ण हो जाए और उनके वंश में किसी को भी दारिद्र्य तथा दौर्भाग्य का भोग ना करना पड़े. मेरे संथापित इस लिंगकी पूजा करने से परमपद की प्राप्ति हो. गौरी की इस प्रार्थना को श्री महादेव जी ने परम हर्ष के साथ स्वीकार कर लिए और उन्हें लेकर वे अपने कैलाश को पधारे
अब बोलिए  जय मेरे भोले बाबा की . जय मेरी माँ गौरजा की.

Saturday, 16 February 2013

हमारे भारत में अनेक पवित्र तीर्थ है पुष्कर प्रयाग, काशी, अयोध्या चित्रकूट, वृन्दावन आदि। क्षेत्र में और तीर्थ में थोडा भेद है। जल प्रधान तीर्थम-स्थल प्रधान क्षेत्रम - जहाँ ठाकुरजी का स्वरूप मुख्या है, उस स्थान को क्षेत्र कहते है, और जहाँ जल देवता का प्राधान्य होता है, उसे तीर्थ कहते है, पुष्करराज क्षेत्रराज है, साक्षात ब्रह्माजी महाराज वहां प्रकट-प्रत्यक्ष विराजमान है। तीर्थो का राजा प्रयाग है, जहा गंगाजी, यमुनाजी और सरस्वती का संगम है।

काशी ज्ञान-भूमि है, अयोध्या वैरग्य भूमि है, वृन्दावन प्रेमभुमि है, वृन्दावन के कण -कण में श्रीकृष्ण-प्रेम भरा है। काशी ज्ञान-भूमि है। काशी में रहकर गंगा-स्नान करने वाले, पवित्र जीवन व्यतीत करने वाले की बुद्धि में ज्ञान-स्फुरण होता है, भीतर से प्रकट होने वाला ज्ञान सदैव रहता है
अयोध्या, चित्रकूट वैरग्य भूमि है। विरक्त संतो के दर्शन अयोध्या में, चित्रकूट में होते है, आज अनेक भजनानंदी साधू अयोध्याजी में, चित्रकूट में रहते है, चित्रकूट के संतो का नियम है।प्राण जाने पर भी मानव से कुछ ना मांगना। फटी धोती पहनना, बहुत भूख लगने पर सत्तू खाना तथा सारा दिन सीताराम-सीताराम जप करना, वे आपके सामने नहीं देखंगे। हम किसी से मांगते नहीं है, ऐसी उनकी भावना रहती है, श्रीसीताजी हमारा पोषण कर रही है, वे हमें बहुत देती है। हम किसी से मांगने लगे तो माँ नाराज हो जाएगी। मेरा बेटा , होकर जगत से भीख मांगता है, इससे मानव से माँगना नहीं है। विरिक्त साधू अयोध्या, चित्रकूट में विराजते है, चित्रकूट वैराग्य भूमि है।
नर्मदा तट तपोभूमि है, तपस्वी महापुर्ष नर्मदा के तट पर भगवन शंकर की स्थापना करके तप करते है, व्रन्दावन प्रेम भूमि है। श्रीकृष्ण-प्रेम बढ़ाना है तो महीने दो महीने तक वृन्दावन में जाकर रहिये, प्रेमधाम वृन्दावन का वर्णन कौन कर सकता है?जहाँ श्री कृष्ण की नित्य लीला है, श्री बालकृष्णलाल का बाल रूप है, वृन्दावन में आज भी रास होता है। रासलीला नित्य है, वृन्दावन में श्रीकृष्ण का अखंड निवास है
कभी जाते है तो याद रखकर दर्शन करिए वृन्दावन में सेवाकुंज्ज है, और सेवाकुंज्ज में नित्य रास होते है। आप दिन में दर्शन करने जाते है, तब वहां बहुत से बंदर देखेंगे। अंधकार हो जाने पर वहां कोई नहीं रह सकता है और अगर कोई रह जाये तो वह पागल हो जाता है।

Tuesday, 12 February 2013

'' रामनाम से अनेक जीवो का उद्धार हुआ है ''

रामजी ने तो एक अहल्या का उद्धार किया, परन्तु आज हजारों वर्ष हो गये रामनाम से अनेक जीवो का उद्धार हुआ है. रामजी विराजते थे तब तो बहुत थोड़े जीवो का प्रभु ने कल्याण किया है, जब कि आज प्रत्यक्ष श्रीराम नहीं है, परन्तु राम-नाम का आश्रय ग्रहण करने से तो घने जीवो का जीवन सुधर रहा है एक बार राजमहल में एक नौकर काम करता था. उसकी नजर राजकन्या के ऊपर पड़ गई, राजकन्या बहुत सुंदर थी . एक बार ही राज-कन्या को देखने के बाद वह नौकर अपनी मन कि शांति रख नहीं सका. उसका मन चंचल हो गया. पुरे दिन वह राजकन्या का ही चिंतन करने लगा. उसको खाना ही अच्छा नहीं लगने लगा. रात को नींद नहीं आती थी, उसकी पत्नी रानी कि दासी थी. वह रानी कि ख़ास सेवा करती थी, रानी का उसके उपर स्नेह भी था..दासी पतिव्रता थी. वह पतिदेव को दुखी देखकर  बारम्बार पूछती कि तुम मुझे इस समय उदास क्यों लग रहे हो? पति ने कहा -- मेरा दुःख दूर कर सके ऐसा कोई नहीं.. पत्नी ने पूछा --- ऐसा तुमको कौन सा दुःख है ..पति ने कहा -राजकन्या को मैंने जब से देखा है, तभी  से मेरा  मन मेरे हाथ मे नहीं रहा. किसी भी प्रकार से राजकन्या मुझे मिले तो ही मे सुखी हो सकूँगा. परन्तु यह सम्भव नहीं. पत्नी को दया आई. उसने कहा - मै युक्ति करती हु.दासी ने रानी की भारी सेवा करनी आरम्भ कर दी. सेवा में वशीकरण होता है. एक दिन रानी ने दासी से पूछा - आज तू क्यों उदास लग रही है दासी ने कहा - मै क्या कहू? पति का सुख यही मेरा सुख है. पति का दुःख ही मेरा दुःख है.. मेरे पतिदेव दुखी है रानी ने पूछा - दुःख का कारण क्या है? दासी ने कहा - महारानी जी! कारण कहने में मुझे बहुत दुःख होता है, संकोच होता है... राजकन्या को जब से देखा है तब से उनका मन चंचल हो गया है. उनकी ऍसी इच्छा है की राजकन्या उनको मिल जाये ।   रानी ने सत्संग किया हुआ था. उसने विचार करके कहा - तेरे पति को मै अपनी कन्या देने को तैयार हु.. परन्तु तू उससे एक काम करने को कहना .. गाव के बाहर बगीचे में बैठकर वह नकली साधू का वेष धारण करे. साधू बनकर वहां. श्री राम - श्री राम का जप करे. . आँख अघाड़े नहीं. आँख बंद करके ही जप करे. मै राजमहल में से जो कुछ भेजू उसी को खाना है, दूसरा कुछ नहीं... बोलना भी नहीं, किसी पर दृष्टि डालनी नहीं.. छह महिना तक इस प्रकार अनुष्ठान करे. तो मै अपनी कन्या उसको देने को तैयार हु...द्रष्टान्त को अधिक लम्बाने की आवश्यकता नहीं हुआ करती . वह नकली साधू बना. गाव के बाहर बगीचे मै बैठकर रामनाम का जप करने लगा. रानी ने इस प्रकार व्यवस्था की जिससे राजमहल से उसे बहुत सादा भोजन दिया जाने लगा. भक्ति में अन्न्दोश विघ्नकारक होता है, राजसी तामसी अन्न खानेवाला बराबर भक्ति नहीं कर सकता. और कदाचित वह करे भी तो उसे भक्ति में आनंद आता नहीं. जिसका भोजन अत्यंत सादा है, सात्विक है, वही भक्ति कर सकता है, रानी ने विचार किया हुआ था की छह महीने तक सादा , सात्विक, पवित्र अन्न खाए और रामनाम का जप करे तो आज जो इसकी बुद्धि बिगड़ी हुई है, वह छह महीने में सुधर जाएगी नकली साधू होकर, आँख बंद रखकर , राजकन्या के लिए वह रामनाम का जप करता था, रामनाम का निरंतर जप करने से इसको परमात्मा का थोडा प्रकाश दिखने लगा था. दो महिना व्यतीत हुए, चार महिना व्यतीत हुए... धीरे धीरे उसका मन शुद्ध होने लगा. पीछे तो मन इतना अधिक शुद्ध हो गया की राज्य-कन्याके बारे में इसको जो मोह हुआ था वह अब छुट गया...अन्नं से मन बनता है, अन्नमय सौम्य मन:! पेट में जो अन्न जाता है, उसके तीन भाग होते है.. अन्न का स्थूल भाग मलरूप से बाहर आता है, अन्न के मध्य भाग से रुधिर और मांस उत्पन्न होता है.. अन्न के सूक्षम भाग से मन बुद्धि का संस्कार बनता है, जिसको चरित्र पर तुमको पूर्ण विश्वास नहीं उसे अपनी रसोई में मत आने दो. कदाचित रसोईघर में आ भी जावे तो उसको अन्न-जल को छूने ना दो..पूर्व साधू ने छह महीने तक नियम से सादा भोजन किया.. आँख बंद रख कर नकली साधू होकर रामनाम का जप किया, छह महीने के उपरान्त वह सच्चा साधू बन गया. उसके हृदय और स्वभाव का परिवर्तन हो गया. रानी राजकन्या को लेकर वहां आई. उसने कहा की महाराज... अब आँख खोलिए.. मै अपनी कन्या आपको देने आई हु.. वह व्याक्ति ने कहा... अब मुझको देखने की इच्छा होती नहीं... अब तो मुझे हरेक मे राम श्री राम ही नजर आते है ... किसी सुंदर राजकुमार के साथ इसका विवाह कर दो. मै इसको प्रणाम करता हु. मुझसे भूल हुई थी... 
अब बोलिए जय श्री राम

Friday, 8 February 2013

'' पितृस्त्रोत ''

अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम्।
नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्।।
इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा।
सप्तर्षीणां तथान्येषां तान् नमस्यामि कामदान्।।
मन्वादीनां च नेतार: सूर्याचन्दमसोस्तथा।
तान् नमस्यामहं सर्वान् पितृनप्युदधावपि।।
नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा।
द्यावापृथिवोव्योश्च तथा नमस्यामि कृताञ्जलि:।।
देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान्।
अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येहं कृताञ्जलि:।।
प्रजापते: कश्पाय सोमाय वरुणाय च।
योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृताञ्जलि:।।
नमो गणेभ्य: सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु।
स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे।।
सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा।
नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम्।।
अग्रिरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम्।
अग्रीषोममयं विश्वं यत एतदशेषत:।।
ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्रिमूर्तय:।
जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिण:।।
तेभ्योखिलेभ्यो योगिभ्य: पितृभ्यो यतामनस:।
नमो नमो नमस्तेस्तु प्रसीदन्तु स्वधाभुज।।


Tuesday, 5 February 2013

'' गंगावतरण की कथा ''

भागीरथ गंगावतरण के लिये गोकर्ण नामक तीर्थ पर जाकर कठोर तपस्या करने लगे। उनकी अभूतपूर्व तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें वर माँगने के लिये कहा। भगीरथ ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दीजिये कि सगर के पुत्रों को मेरे प्रयत्नों से गंगा का जल प्राप्त हो जिससे कि उनका उद्धार हो सके। इसके अतिरिक्त मुझे सन्तान प्राप्ति का भी वर दीजिये ताकि इक्ष्वाकु वंश नष्ट न हो। ब्रह्मा जी ने कहा कि सन्तान का तेरा मनोरथ शीघ्र ही पूर्ण होगा, किन्तु तुम्हारे माँगे गये प्रथम वरदान को देने में कठिनाई यह है कि जब गंगा जी वेग के साथ पृथ्वी पर अवतरित होंगीं तो उनके वेग को पृथ्वी संभाल नहीं सकेगी। गंगा जी के वेग को संभालने की क्षमता महादेव जी के अतिरिक्त किसी में भी नहीं है। इसके लिये तुम्हें महादेव जी को प्रसन्न करना होगा। इतना कह कर ब्रह्मा जी अपने लोक को चले गये।“भगीरथ ने साहस नहीं छोड़ा। वे एक वर्ष तक पैर के अँगूठे के सहारे खड़े होकर महादेव जी की तपस्या करते रहे। केवल वायु के अतिरिक्त उन्होंने किसी अन्य वस्तु का भक्षण नहीं किया। अन्त में इस महान भक्ति से प्रसन्न होकर महादेव जी ने भगीरथ को दर्शन देकर कहा कि हे भक्तश्रेष्ठ! हम तेरी मनोकामना पूरी करने के लिये गंगा जी को अपने मस्तक पर धारण करेंगे। इसकी सूचना पाकर विवश होकर गंगा जी को सुरलोक का परित्याग करना पड़ा। उस समय वे सुरलोक से कहीं जाना नहीं चाहती थीं, इसलिये वे यह विचार करके कि मैं अपने प्रचण्ड वेग से शिव जी को बहा कर पाताल लोक ले जाऊँगी वे भयानक वेग से शिव जी के सिर पर अवतरित हुईं। गंगा का यह अहंकार महादेव जी से छुपा न रहा। महादेव जी ने गंगा की वेगवती धाराओं को अपने जटाजूट में उलझा लिया। गंगा जी अपने समस्त प्रयत्नों के बाद भी महादेव जी के जटाओं से बाहर न निकल सकीं। गंगा जी को इस प्रकार शिव जी की जटाओं में विलीन होते देख भगीरथ ने फिर शंकर जी की तपस्या की। भगीरथ के इस तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने गंगा जी को हिमालय पर्वत पर स्थित बिन्दुसर में छोड़ा। छूटते ही गंगा जी सात धाराओं में बँट गईं। गंगा जी की तीन धाराएँ ह्लादिनी, पावनी और नलिनी पूर्व की ओर प्रवाहित हुईं। सुचक्षु, सीता और सिन्धु नाम की तीन धाराएँ पश्चिम की ओर बहीं और सातवीं धारा महाराज भगीरथ के पीछे पीछे चली। जिधर जिधर भगीरथ जाते थे, उधर उधर ही गंगा जी जाती थीं। स्थान स्थान पर देव, यक्ष, किन्नर, ऋषि-मुनि आदि उनके स्वागत के लिये एकत्रित हो रहे थे। जो भी उस जल का स्पर्श करता था, भव-बाधाओं से मुक्त हो जाता था। चलते चलते गंगा जी उस स्थान पर पहुँचीं जहाँ ऋषि जह्नु यज्ञ कर रहे थे। गंगा जी अपने वेग से उनके यज्ञशाला को सम्पूर्ण सामग्री के साथ बहाकर ले जाने लगीं। इससे ऋषि को बहुत क्रोध आया और उन्होंने क्रुद्ध होकर गंगा का सारा जल पी लिया। यह देख कर समस्त ऋषि मुनियों को बड़ा विस्मय हुआ और वे गंगा जी को मुक्त करने के लिये उनकी स्तुति करने लगे। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर जह्नु ऋषि ने गंगा जी को अपने कानों से निकाल दिया और उन्हें अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार कर लिया। तब से गंगा जाह्नवी कहलाने लगीँ। इसके पश्चात् वे भगीरथ के पीछे चलते चलते समुद्र तक पहुँच गईं और वहाँ से सगर के पुत्रों का उद्धार करने के लिये रसातल में चली गईं। उनके जल के स्पर्श से भस्मीभूत हुये सगर के पुत्र निष्पाप होकर स्वर्ग गये। उस दिन से गंगा के तीन नाम हुये, त्रिपथगा, जाह्नवी और भागीरथी।
              बोलिए गंगा मैया की .......जय     ।   

Sunday, 3 February 2013

॥ श्रीरुद्राष्टकम् ॥

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विंभुं ब्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरींह। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं।।
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।।
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं।।

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं।।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा।।
चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं।।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि।।

प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं।।
त्रयःशूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं।।
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनान्ददाता पुरारी।।
चिदानंदसंदोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी।।

न यावद् उमानाथ पादारविन्दं। भजंतीह लोके परे वा नराणां।।
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं।।
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं।।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो।।

श्लोक-रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति।।

Thursday, 31 January 2013

'' कार्तिकेय का सदा के लिए बालक रूप ''

एक बार भगवान शंकर ने माता पार्वती के साथ द्युत (जुआ) खेलने की अभिलाषा प्रकट की। खेल में भगवान शंकर अपना सब कुछ हार गए। हारने के बाद भोलेनाथ अपनी लीला को रचते हुए पत्तो के वस्त्र पहनकर गंगा के तट पर चले गए। कार्तिकेय जी को जब सारी बात पता चली, तो वह माता पार्वती से समस्त वस्तुएँ वापस लेने आए। इस बार खेल में पार्वती जी हार गईं तथा कार्तिकेय शंकर जी का सारा सामान लेकर वापस चले गए। अब इधर पार्वती भी चिंतित हो गईं कि सारा सामान भी गया तथा पति भी दूर हो गए। पार्वती जी ने अपनी व्यथा अपने प्रिय पुत्र गणेश को बताई तो मातृ भक्त गणेश  जी स्वयं खेल खेलने शंकर भगवान के पास पहुंचे। गणेश जी जीत गए तथा लौटकर अपनी जीत का समाचार माता को सुनाया। इस पर पार्वती बोलीं कि उन्हें अपने पिता को साथ लेकर आना चाहिए था। गणेश जी फिर भोलेनाथ की खोज करने निकल पड़े। भोलेनाथ से उनकी भेंट हरिद्वार में हुई। उस समय भोले नाथ भगवान विष्णु व कार्तिकेय के साथ भ्रमण कर रहे थे। पार्वती से नाराज भोलेनाथ ने लौटने से मना कर दिया। भोलेनाथ के भक्त रावण ने गणेश जी के वाहन मूषक को बिल्ली का रूप धारण करके डरा दिया। मूषक गणेश जी को छोड़कर भाग गए। इधर भगवान विष्णु ने भोलेनाथ की इच्छा से पासा का रूप धारण कर लिया था। गणेश जी ने माता के उदास होने की बात भोलेनाथ को कह सुनाई। इस पर भोलेनाथ बोले कि हमने नया पासा बनवाया है, अगर तुम्हारी माता पुन: खेल खेलने को सहमत हों, तो मैं वापस चल सकता हूं।
गणेश जी के आश्वासन पर भोलेनाथ वापस पार्वती के पास पहुंचे तथा खेल खेलने को कहा। इस पर पार्वती जी हंस पड़ी व बोलीं ‘अभी पास क्या चीज है, जिससे खेल खेला जाए।’ यह सुनकर भोलेनाथ चुप हो गए। इस पर नारद जी ने अपनी वीणा आदि सामग्री उन्हें दी। इस खेल में भोलेनाथ हर बार जीतने लगे। एक दो पासे फैंकने के बाद गणेश जी समझ गए तथा उन्होंने भगवान विष्णु के पासा रूप धारण करने का रहस्य माता पार्वती को बता दिया। सारी बात सुनकर पार्वती जी को क्रोध आ गया। रावण ने माता को समझाने का प्रयास किया, पर उनका क्रोध शांत नहीं हुआ तथा क्रोधवश उन्होंने भोलेनाथ को श्राप दे दिया कि गंगा की धारा का बोझ उनके सिर पर रहेगा। नारद जी को कभी एक स्थान पर न टिकने का अभिषाप मिला। भगवान विष्णु को श्राप दिया कि यही रावण तुम्हारा शत्रु होगा तथा रावण को श्राप दिया कि विष्णु ही तुम्हारा विनाश करेंगे। कार्तिकेय को भी माता पार्वती ने कभी जवान न होने का श्राप दे दिया।
इस पर सर्वजन चिंतित हो उठे। तब नारद जी ने अपनी विनोदपूर्ण बातों से माता का क्रोध शांत किया, तो माता ने उन्हें वरदान मांगने को कहा। नारद जी बोले कि आप सभी को वरदान दें, तभी मैं वरदान लूंगा। पार्वती जी सहमत हो गईं। उस दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा थी ,तब शंकर जी ने कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा   के दिन जुए में विजयी रहने वाले को वर्ष भर विजयी बनाने का वरदान मांगा। भगवान विष्णु ने अपने प्रत्येक छोटे- बड़े कार्य में सफलता का वर मांगा, परंतु कार्तिकेय जी ने सदा बालक रहने का ही वर मांगा तथा कहा, ‘मुझे विषय वासना का संसर्ग न हो तथा सदा भगवत स्मरण में लीन रहूं।’ अंत में नारद जी ने देवर्षि होने का वरदान मांगा। माता पार्वती ने रावण को समस्त वेदों की सुविस्तृत व्याख्या देते हुए सबके लिए तथास्तु कहा।

Wednesday, 30 January 2013

गंगा विशेष पवित्र नदी क्यों?

गंगा प्राचीन काल से ही भारतीय जनमानस में अत्यंत पूज्य रही है, इसका धार्मिक महत्त्व जितना है, विश्व में शयद ही किसी नदी का होगा.. यह विश्व कि एकमात्र नदी है, जिसे श्रद्धा से माता कहकर पुकारा जाता है
महाभारत में कहा गया है.. "जैसे अग्नि ईधन को जला देती है, उसी प्रकार सैंकड़ो निषिद्ध कर्म करके भी यदि गंगा स्नान किया जाये , तो उसका जल उन सब पापों को भस्म कर देता है, सत्ययुग में सभी तीर्थ पुण्यदायक होते थे.. त्रेता में पुष्कर और द्वापर में कुरुक्षेत्र तथा कलियुग में गंगा कि सबसे अधिक महिमा बताई गई है. नाम लेने मात्र से गंगा पापी को पवित्र कर देती है. देखने से सौभाग्य तथा स्नान या जल ग्रेहण करने से सात पीढियों तक कुल पवित्र हो जाता है (महाभारत/वनपर्व 85 /89 -90 -93 "

गंगाजल पर किये शोध कार्यो से स्पष्ट है कि यह वर्षो तक रखने पर भी खराब नहीं होता .. स्वास्थवर्धक तत्वों का बाहुल्य होने के कारण गंगा का जल अमृत के तुल्य, सर्व रोगनाशक, पाचक, मीठा, उत्तम, ह्रदय के लिए हितकर, पथ्य, आयु बढ़ाने वाला तथा त्रिदोष नाशक है,

 इसका जल अधिक संतृप्त माना गया है, इसमें पर्याप्त लवण जैसे कैल्शियम, पोटेशियम, सोडियम आदि पाए जाते है और 45 प्रतिशत क्लोरिन होता है , जो जल में कीटाणुओं को पनपने से रोकता है. इसी कि उपस्थिति के कारण पानी सड़ता नहीं और ना ही इसमें कीटाणु पैदा होते है, इसकी अम्लीयता एवं क्षारीयता लगभग समान होती है, गंगाजल में अत्यधिक शक्तिशाली कीटाणु-निरोधक तत्व क्लोराइड पाया जाता है. डा. कोहिमान के मत में जब किसी व्याक्ति कि जीवनी शक्ति जवाब देने लगे , उस समय यदि उसे गंगाजल पिला दिया जाये, तो आश्चर्यजनक ढंग से उसकी जीवनी शक्ति बढती है और रोगी को ऐसा लगता है कि उसके भीतर किसी सात्विक आनंद का स्त्रोत फुट रहा है शास्त्रों के अनुसार इसी वजह से अंतिम समय में मृत्यु के निकट आये व्यक्ति के मुंह में गंगा जल डाला जाता है .गंगा स्नान से पुण्य प्राप्ति के लिए श्रद्धा आवश्यक है. इस सम्बन्ध में एक कथा है.
 एक बार पार्वती जी ने शंकर भगवान से पूछा -"गंगा में स्नान करने वाले प्राणी पापो से छुट जाते है?" इस पर भगवान शंकर बोले -"जो भावनापूर्वक स्नान करता है, उसी को सदगति मिलती है, अधिकाँश लोग तो मेला देखने जाते है" पार्वती जी को इस जवाब से संतोष नहीं मिला. शंकर जी ने फिर कहा - "चलो तुम्हे इसका प्रत्यक्ष दर्शन कराते है" गंगा के निकट शंकर जी कोढ़ी का रूप धारण कर रस्ते में बैठ गये और साथ में पार्वती जी सुंदर स्त्री का रूप धारण कर बैठ गई. मेले के कारण भीड़ थी.. जो भी पुरष कोढ़ी के साथ सुंदर स्त्री को देखता , वह सुंदर स्त्री की और ही आकर्षित होता.. कुछ ने तो उस स्त्री को अपने साथ चलने का भी प्रस्ताव दिया. अंत में एक ऐसा व्यक्ति भी आया, जिसने स्त्री के पातिव्रत्य धर्म की सराहना की और कोढ़ी को गंगा स्नान कराने में मदद दी. शंकर भगवान प्रकट हुए और बोले. 'प्रिय! यही श्रद्धालु सदगति का सच्चा अधिकारी है...."


अब बोलिए जय गंगा मैया. हर हर महादेव.




Friday, 25 January 2013

    कथा भगवान शिव के लिंग पूजन की >>| श्री शिव महापुराण>> त्रितये खंड--    अध्याय= पांचवां,,

ब्रह्मा जी ने कहा की हे नारद जिस दिन से माँ सती ने अपने शरीर को त्यागा था उसी दिन से भगवान शिव अपना अवधूत सवरूप धारण कर साधारण मनुष्यों के समान पत्नी वियोग से दुखी हो संसार में सब और भ्रमण करते रहे,वे परमहंस योगिनियों के समान नग्न शरीर,सर्वांग में भस्सम मले हुए मस्तक पर जटाजूट धारण किये,गले में मुण्डों की माला पहने हुए भ्रमण करते रहे,कुछ समय तक वो एक पर्वत पे जा बैठे और घोर तप करने लगे,एक दिन वे दिगम्बर वेश धरी शिवजी दारुक बन में जा पहुंचे,वहां उन्हें नग्न वस्था में देखकर मुनियों की इस्त्रियाँ उनके सुन्दर सवरूप पर मोहित हो काम के आवेग में उनसे लिपट गई,ये देखकर सब ऋषि मुनियों ने शिवजी को शाप दिया,उस शाप के कारन शिवजी का लिंग उनके शरीर से पृथक होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा उस समय तीनो लोकों में हाहाकार मच गया,नारद जी ने कहा की हे पिता आप मुझे ये कथा विस्तारपूर्वक वर्णन करें-


ब्रह्मा जी बोले की जिस समय शिवजी दिगम्बर रूप में वनों में भ्रमण कर रहे थे उस वक़्त ऋषि मुनि कहीं अन्यत्र गए थे,केवल उनकी इस्त्रियाँ ही घरों में थी,उस कठिन अवस्था में भी शिवजी का रूप इतना सुन्दर था की उसे देखते ही सभी ऋषियों की पत्नियाँ उनपर मोहित हो गई,और उनसे लिपट गईं,उस समय उनके पति वहां आ गए जब उन्होंने ये देखा तो क्रोध में भरकर शिवजी से कहने लगे,अरे मुर्ख नारकी,अधर्मी,पापी अनाचारी तू ये कैसा पाप कर रहा है,तुने वेदों के विरुद्ध अधर्म को स्वीकार किया है अस्तु हम तुम्हे ये शाप देते हैं की तेरा लिंग पृथ्वी पर गिर पड़े,
उन ऋषियों के ऐसा कहते ही शिवजी का लिंग पृथ्वी पर गिर पड़ा और पृथ्वी का सीना चीरते हुए पाताल के भीतर जा पहुंचा ऐसा होने के पश्चात ही भगवान शिवजी ने अपना सवरूप प्रलय कालीन रूप की भांति महाभयानक बना लिया,किन्तु ये भेद किसी पर प्रकट न हुआ की शिवजी ने ऐसा चरित्र क्योँ रचा है शिवजी का लिंग जब गिर पड़ा उसके पश्चात तीनो लोकों में अनेक प्रकार के उपद्रव उठने लगे,जिस कारण सब लोग अत्यंत भेयभीत दुखी तथा चिंतित हो गए पर्वतों से अग्नि की लपटें उठने लगीं,दिन में आकाश से तारे टूट-टूट कर गिरने लगे,चारों और हाहाकार शब्द भर गया,ऋषि मुनियों के आश्रम में ये उत्पाद सबसे अधिक हुए,परन्तु इस भेद को कोई नहीं जान पाया की ऐसा क्योँ हो रहा है,
\ तब सभी ऋषि मुनि परेशान होकर देव लोक में जा पहुंचे,तब सभी देवता मेरे पास आये,मैं भी तब ये भेद नहीं जान पाया फिर हम सभी विष्णु लोक में भगवान विष्णु जी की शरण में गए तब हमने उन्हें प्रणाम किया और इस उपद्रव का कारण पुछा,तब भगवान विष्णु जी ने अपनी दिव्यदृष्टि से ये जाना की ये जो कुछ हो रहा है ये इन ऋषि मुनियों की मुर्खता का परिणाम है इन्होने बिना सोचे समझे अपने ब्रह्मतेज का प्रदर्शन  किया,तभी ये उपद्रव हो रहे हैं,अब हम सबको उचित है की हम सब भगवान महादेव की शरण में चलें और उनसे क्षमा  प्राथना करें,जब तक वो अपने लिंगको पुन्ह धारण नहीं कर लेते तब तक किसी को चैन नहीं मिलेगा,
इतना कहकर हम सभी भगवान शिव के पास पहुँच गए,उनकी अनेक प्रकार से स्तुति की और कहा की हे प्रभु आप हमारे ऊपर कृपा करें और अपने लिंगको पुन्ह धारण कर लें,इसपर शिवजी बोले की हे विष्णु इस में इन ऋषि मुनियों का और देवताओं का कोई दोष नहीं है,ये चरित्र तो हमने अपनी इच्छा से किया है जब हम बिना स्त्री के हैं तो ये हमारा लिंग किस काम का ,तब सब देवताओं ने कहा की हे प्रभु माँ सती ने हिमालय के घर में गिरिजा के रूप में जन्म ले लिया है और आपको पाने के हेतु वो "गंगावतरण पर्वत"पे कठिन तप्प कर रहीं हैं, तब शिवजी ने ये सुनकर उन सभी देवताओं से कहा की अगर तुम सभी हमारे लिंग की पूजा करना स्वीकार करलो तब हम इसे पुन्ह धारण कर लेंगे,तब सभी देवताओं ने उनके लिंग का पूजन करना स्वीकार कर लिया,और प्रभु ने अपना लिंग पुन्ह धारण कर लिया,हे नारद मैंने और श्री हरी विष्णु जी ने एक उतम हीरे को लेकर शिवलिंग के समान एक मूर्ति का निर्माण किया,और उस मूर्ति को उसी स्थान पे स्थापित कर दिया,तदपुरांत मैंने सब लोगों को सम्बोधित  करते हुए कहा की इस "हीरकेश" शिवलिंग का जो भी व्यक्ति पूजन करेगा उसे लोक तथा परलोक में आनंद प्राप्त होगा,उस शिव लिंग के अतिरिक्त हमने वहां पर और भी शिवलिंगों की स्थापना की,तब सभी प्रभु शिव का ध्यान करके अपने अपने लोकों को चले गए,हे नारद शिव लिंग पूजन की इस कथा को जो प्राणी मन लगाकर पढता है, सुनता है,दूसरों को सुनाता है वह सदैव प्रसन रहता है जो लोग शिवलिंग का पूजन करते हैं वे अपने कुल सहित मुक्ति को प्राप्त करते हैं
बोलिए  शंकर भगवान  जी की जय .......


Thursday, 24 January 2013

पुराने जमाने की बात है। एक व्यक्ति अध्ययन करने काशी गया। विभिन्न शास्त्रों की जानकारी प्राप्त करने में उसे बारह वर्ष लग गए। जब वह लौटा तो घर के लोग काफी प्रसन्न हुए। पत्नी ने उसके स्नान के लिए गर्म पानी तैयार किया। वह उस बर्तन को लेकर स्नान गृह गई। उसने देखा कि वहां हजारों चींटियां हैं। उसने सोचा कि कहीं वे बेचारी बेमौत न मर जाएं, इसलिए उसने गर्म पानी के बर्तन को दूसरे स्थान पर रख दिया। पति आया और बर्तन को उठाकर फिर पहले वाले स्थान पर ले गया और वहीं स्नान करने लगा।
पत्नी ने देखा तो वह परेशान हो गई। उसने कहा, ‘मैंने गर्म पानी का यह बर्तन वहां रखा था, यहां कैसे आ गया?’ पति ने कहा, ‘तुम भी अजीब बात करती हो। स्नान का स्थान यही है। मैं यहीं नहाऊंगा न। मैं ही उस बर्तन को यहां उठा लाया।’ इस पर पत्नी बोली, ‘मैं भी पहले यहीं रखना चाह रही थी, लेकिन यहां चींटियां बहुत हैं।आपके स्नान के पानी से वे सब मर जाएंगी। इसलिए मैंने इसे दूसरे स्थान पर रखा था।’ पति बोला, ‘यह तो अजीब मूर्खतापूर्ण बात है। क्या मैं चींटियों को जिलाने के लिए ही जनमा हूं? अगर मैं इसी तरह हर किसी की चिंता करता रहा तो जीना मुश्किल हो जाएगा।’ इस बात से पत्नी दुखी हो गई। उसने कहा, ‘बारह वर्ष तक आपने विद्याध्ययन किया। काशी में रहे। लेकिन समझ में नहीं आता कि आपने क्या हासिल किया। ऐसे किताबी ज्ञान से क्या लाभ, जो आपके भीतर संवेदना न पैदा कर सके। क्या आप इतना भी नहीं समझ सके कि किसी प्राणी को अकारण पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए। ज्ञान का सार तो संवेदनशीलता है। यदि हमारे मन में दूसरों के प्रति सहानुभूति नहीं जागी तो बहुत बड़ा बौद्धिक ज्ञान भी उपयोगी नहीं है।’ यह सुनकर पति लज्जित हो गया और वहां से निकलकर दूसरी जगह नहाने लगा।,,,,,,,,,,,,,,,,, जय भोले नाथ




Wednesday, 23 January 2013

'' जीवन की नाव ''

एक संत थे। उनके कई शिष्य उनके आश्रम में रहकर अध्ययन करते थे। एक दिन एक महिला उनके पास रोती हुए आई और बोली, 'बाबा, मैं लाख प्रयासों के बाद भी अपना मकान नहीं बना पा रही हूं। मेरे रहने का कोई निश्चित ठिकाना नहीं है। मैं बहुत अशांत और दु:खी हूं। कृपया मेरे मन को शांत करें।'उसकी बात पर संत बोले, 'हर किसी को पुश्तैनी जायदाद नहीं मिलती। अपना मकान बनाने के लिए आपको नेकी से धनोपार्जन करना होगा, तब आपका मकान बन जाएगा और आपको मानसिक शांति भी मिलेगी।' महिला वहां से चली गई। इसके बाद एक शिष्य संत से बोला, 'बाबा, सुख तो समझ में आता है लेकिन दु:ख क्यों है? यह समझ में नहीं आता।'उसकी बात सुनकर संत बोले, 'मुझे दूसरे किनारे पर जाना है। इस बात का जवाब मैं तुम्हें नाव में बैठकर दूंगा।' दोनों नाव में बैठ गए। संत ने एक चप्पू से नाव चलानी शुरू की। एक ही चप्पू से चलाने के कारण नाव गोल-गोल घूमने लगी तो शिष्य बोला, 'बाबा, अगर आप एक ही चप्पू से नाव चलाते रहे तो हम यहीं भटकते रहेंगे, कभी किनारे पर नहीं पहुंच पाएंगे।'
उसकी बात सुनकर संत बोले, 'अरे तुम तो बहुत समझदार हो। यही तुम्हारे पहले सवाल का जवाब भी है। अगर जीवन में सुख ही सुख होगा तो जीवन नैया यूं ही गोल-गोल घूमती रहेगी और कभी भी किनारे पर नहीं पहुंचेगी। जिस तरह नाव को साधने के लिए दो चप्पू चाहिए, ठीक से चलने के लिए दो पैर चाहिए, काम करने के लिए दो हाथ चाहिए, उसी तरह जीवन में सुख के साथ दुख भी होने चाहिए।
जब रात और दिन दोनों होंगे तभी तो दिन का महत्व पता चलेगा। जीवन और मृत्यु से ही जीवन के आनंद का सच्चा अनुभव होगा, वरना जीवन की नाव भंवर में फंस जाएगी।' संत की बात शिष्य की समझ में आ गई।



Saturday, 19 January 2013

संत नामदेव अपने शिष्यों के साथ रोज की तरह धर्म चर्चा में लीन थे। तभी एक जिज्ञासु उनसे प्रश्न कर बैठा-गुरुदेव, कहा जाता है कि ईश्वर हर जगह मौजूद है, तो उसे अनुभव कैसे किया जा सकता है? क्या आप उसकी प्राप्ति का कोई उपाय बता सकते हैं? नामदेव यह सुनकर मुस्कराए। फिर उन्होंने उसे एक लोटा पानी और थोड़ा सा नमक लाने को कहा। वहां उपस्थित शिष्यों की उत्सुकता बढ़ गई।

वे सोचने लगे, पता नहीं उनके गुरुदेव कौन सा प्रयोग करना चाहते हैं। नमक और पानी के आ जाने पर संत ने नमक को पानी में छोड़ देने को कहा। जब नमक पानी में घुल गया तो संत ने पूछा- बताओ, क्या तुम्हें इसमें नमक दिख रहा है? जिज्ञासु बोला- नहीं गुरुदेव, नमक तो इसमें पूरी तरह घुल-मिल गया है। संत ने उसे पानी चखने को कहा।

उसने चखकर कहा- जी, इसमें नमक उपस्थित है पर वह दिखाई नहीं दे रहा। अब संत ने उसे जल उबालने को कहा। पूरा जल जब भाप बन गया तो संत ने पूछा- क्या इसमें वह दिखता है? जिज्ञासु ने गौर से लोटे को देखा और कहा-हां, अब इसमें नमक दिख रहा है। तब संत ने समझाया-जिस तरह नमक पानी में होते हुए भी दिखता नहीं, उसी तरह ईश्वर भी हर जगह अनुभव किया जा सकता है मगर वह दिखता नहीं। और जिस तरह जल को गर्म करके तुमने नमक पा लिया उसी प्रकार तुम भी उचित तप और कर्म करके ईश्वर को प्राप्त कर सकते हो। वहां मौजूद लोग इस व्याख्या को सुनकर संत नामदेव के प्रति नतमस्तक हो गए।

Wednesday, 16 January 2013

'' माँ की महिमा ''

स्वामी विवेकानंद जी से एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया," माँ की महिमा संसार में
किस कारण से गायी जाती है? स्वामी जी मुस्कराए, उस व्यक्ति से बोले, पांच सेर
वजन का एक पत्थर ले आओ | जब व्यक्ति पत्थर ले आया तो स्वामी जी ने उससे कहा, "अब इस पत्थर को किसी कपडे में लपेटकर अपने पेट पर बाँध लो और चौबीस घंटे बादमेरे पास आओ तो मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूंगा |"
स्वामी जी के आदेशानुसार उस व्यक्ति ने पत्थर को अपने पेट पर बाँध लिया और चलागया | पत्थर बंधे हुए दिनभर वो अपना कम करता रहा, किन्तु हर छण उसे परेशानी औरथकान महसूस हुई | शाम होते-होते पत्थर का बोझ संभाले हुए चलना फिरना उसके लिएअसह्य हो उठा | थका मांदा वह स्वामी जी के पास पंहुचा और बोला , " मै इस पत्थर
को अब और अधिक देर तक बांधे नहीं रख सकूँगा | एक प्रश्न का उत्तर पाने के  लिएमै इतनी कड़ी सजा नहीं भुगत सकता |"स्वामी जी मुस्कुराते हुए बोले, " पेट पर इस पत्थर का बोझ तुमसे कुछ घंटे भीनहीं उठाया गया और माँ अपने गर्भ में पलने वाले शिशु को पूरे नौ माह तक ढ़ोतीहै और ग्रहस्थी का सारा काम करती है | संसार में माँ के सिवा कोई इतनाधैर्यवान और सहनशील नहीं है इसलिए माँ से बढ़ कर इस संसार में कोई और नहीं |
किसी कवि ने सच ही कहा है : -
               जन्म दिया है सबको माँ ने पाल-पोष कर बड़ा किया |

               कितने कष्ट सहन कर उसने, सबको पग पर खड़ा किया ।
               माँ ही सबके मन मंदिर में, ममता सदा बहाती है |
              बच्चों को वह खिला-पिलाकर, खुद भूखी सो जाती है | 
              पलकों से ओझल होने पर, पल भर में घबराती है  ।
              जैसे गाय बिना बछड़े के, रह-रह कर रंभाती है |

              छोटी सी मुस्कान हमारी, उसकोजीवन देती है |
              अपने सारे सुख-दुःख हम पर न्योछावर कर देती है