रामजी
ने तो एक अहल्या का उद्धार किया, परन्तु आज हजारों वर्ष हो गये रामनाम से
अनेक जीवो का उद्धार हुआ है. रामजी विराजते थे तब तो बहुत थोड़े जीवो का
प्रभु ने कल्याण किया है, जब कि आज प्रत्यक्ष श्रीराम नहीं है, परन्तु
राम-नाम का आश्रय ग्रहण करने से तो घने जीवो का जीवन सुधर रहा है एक
बार राजमहल में एक नौकर काम करता था. उसकी नजर राजकन्या के ऊपर पड़ गई,
राजकन्या बहुत सुंदर थी . एक बार ही राज-कन्या को देखने के बाद वह नौकर
अपनी मन कि शांति रख नहीं सका. उसका मन चंचल हो गया. पुरे दिन वह राजकन्या
का ही चिंतन करने लगा. उसको खाना ही अच्छा नहीं लगने लगा. रात को नींद नहीं
आती थी, उसकी पत्नी रानी कि दासी थी. वह रानी कि ख़ास सेवा करती थी, रानी
का उसके उपर स्नेह भी था..दासी पतिव्रता थी. वह पतिदेव को दुखी
देखकर बारम्बार पूछती कि तुम मुझे इस समय उदास क्यों लग रहे हो? पति ने कहा
-- मेरा दुःख दूर कर सके ऐसा कोई नहीं.. पत्नी ने पूछा --- ऐसा तुमको कौन
सा दुःख है ..पति ने कहा -राजकन्या को मैंने जब से देखा है, तभी
से मेरा मन मेरे हाथ मे नहीं रहा. किसी भी प्रकार से राजकन्या मुझे मिले तो
ही मे सुखी हो सकूँगा. परन्तु यह सम्भव नहीं. पत्नी को दया आई. उसने कहा -
मै युक्ति करती हु.दासी ने रानी की भारी सेवा करनी आरम्भ कर दी.
सेवा में वशीकरण होता है. एक दिन रानी ने दासी से पूछा - आज तू क्यों
उदास लग रही है दासी ने कहा - मै क्या कहू? पति का सुख यही मेरा सुख है. पति का दुःख ही मेरा दुःख है.. मेरे पतिदेव दुखी है रानी ने पूछा - दुःख का कारण क्या है? दासी ने कहा - महारानी जी! कारण
कहने में मुझे बहुत दुःख होता है, संकोच होता है... राजकन्या को जब से देखा
है तब से उनका मन चंचल हो गया है. उनकी ऍसी इच्छा है की राजकन्या उनको मिल
जाये । रानी ने सत्संग किया हुआ था. उसने विचार करके कहा - तेरे
पति को मै अपनी कन्या देने को तैयार हु.. परन्तु तू उससे एक काम करने को
कहना .. गाव के बाहर बगीचे में बैठकर वह नकली साधू का वेष धारण करे. साधू
बनकर वहां. श्री राम - श्री राम का जप करे. . आँख अघाड़े नहीं. आँख बंद
करके ही जप करे. मै राजमहल में से जो कुछ भेजू उसी को खाना है, दूसरा कुछ
नहीं... बोलना भी नहीं, किसी पर दृष्टि डालनी नहीं.. छह महिना तक इस प्रकार
अनुष्ठान करे. तो मै अपनी कन्या उसको देने को तैयार हु...द्रष्टान्त को अधिक लम्बाने की आवश्यकता नहीं हुआ करती . वह नकली साधू बना.
गाव के बाहर बगीचे मै बैठकर रामनाम का जप करने लगा. रानी ने इस प्रकार
व्यवस्था की जिससे राजमहल से उसे बहुत सादा भोजन दिया जाने लगा. भक्ति में
अन्न्दोश विघ्नकारक होता है, राजसी तामसी अन्न खानेवाला बराबर भक्ति नहीं
कर सकता. और कदाचित वह करे भी तो उसे भक्ति में आनंद आता नहीं. जिसका भोजन
अत्यंत सादा है, सात्विक है, वही भक्ति कर सकता है, रानी ने विचार किया हुआ
था की छह महीने तक सादा , सात्विक, पवित्र अन्न खाए और रामनाम का जप करे
तो आज जो इसकी बुद्धि बिगड़ी हुई है, वह छह महीने में सुधर जाएगी नकली साधू होकर, आँख बंद रखकर , राजकन्या के लिए वह रामनाम का जप करता था,
रामनाम का निरंतर जप करने से इसको परमात्मा का थोडा प्रकाश दिखने लगा था.
दो महिना व्यतीत हुए, चार महिना व्यतीत हुए... धीरे धीरे उसका मन शुद्ध
होने लगा. पीछे तो मन इतना अधिक शुद्ध हो गया की राज्य-कन्याके बारे में
इसको जो मोह हुआ था वह अब छुट गया...अन्नं से मन बनता है, अन्नमय
सौम्य मन:! पेट में जो अन्न जाता है, उसके तीन भाग होते है.. अन्न का
स्थूल भाग मलरूप से बाहर आता है, अन्न के मध्य भाग से रुधिर और मांस
उत्पन्न होता है.. अन्न के सूक्षम भाग से मन बुद्धि का संस्कार बनता है,
जिसको चरित्र पर तुमको पूर्ण विश्वास नहीं उसे अपनी रसोई में मत आने दो.
कदाचित रसोईघर में आ भी जावे तो उसको अन्न-जल को छूने ना दो..पूर्व
साधू ने छह महीने तक नियम से सादा भोजन किया.. आँख बंद रख कर नकली साधू
होकर रामनाम का जप किया, छह महीने के उपरान्त वह सच्चा साधू बन गया. उसके
हृदय और स्वभाव का परिवर्तन हो गया. रानी राजकन्या को लेकर वहां आई. उसने
कहा की महाराज... अब आँख खोलिए.. मै अपनी कन्या आपको देने आई हु.. वह
व्याक्ति ने कहा... अब मुझको देखने की इच्छा होती नहीं... अब तो मुझे हरेक
मे राम श्री राम ही नजर आते है ... किसी सुंदर राजकुमार के साथ इसका विवाह
कर दो. मै इसको प्रणाम करता हु. मुझसे भूल हुई थी...
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