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Sunday, 30 September 2012

'' पितृ पक्ष ''


  आश्विन मास का कृष्ण पक्ष पितरों को तृप्त करने का समय है इसलिए इसे पितृपक्ष कहते हैं। पंद्रह दिन के इस पक्ष में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें अपने परिजनों की मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं होती इस समस्या के समधान के लिए पितृपक्ष में कुछ विशेष तिथियां भी नियत की गई हैं जिस दिन श्राद्ध करने से हमारे समस्त पितृजनों की आत्मा को शांति मिलती है। यह प्रमुख तिथियां इस प्रकार हैं-

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा श्राद्ध- यह तिथि नाना-नानी के श्राद्ध के लिए उत्तम मानी गई है। यदि नाना-नानी के परिवार में कोई श्राद्ध करने वाला न हो और उनकी मृत्युतिथि भी ज्ञात न हो तो इस तिथि को श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है। इससे घर में सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।

पंचमी श्राद्ध - इस तिथि पर उन परिजनों काश्राद्ध करने का महत्व है जिनकी मृत्यु अविवाहित स्थिति में हुई हो। इसे कुंवारा पंचमी भी कहते हैं।

नवमी श्राद्ध- यह तिथि माता के श्राद्ध के लिए उत्तम मानी गई है। इसलिए इसे मातृनवमी कहते हैं। इस तिथि पर  कुल की सभी दिवंगत महिलाओं, जिनकी मृत्यु की तिथि ज्ञात न हो , का श्राद्ध किया जा सकता है ।

एकादशी व द्वादशी श्राद्ध - इस तिथि को परिवार के उन लोगों का श्राद्ध किए जाने का विधान है जिन्होंने संन्यास लिया हो।

चतुर्दशी श्राद्ध- यह तिथि उन परिजनों के श्राद्ध के लिए उपयुक्त है जिनकी अकाल मृत्यु हुई हो जैसे- दुर्घटना, हत्या, आत्महत्या, शस्त्र के द्वारा आदि।

सर्वपितृमोक्ष अमावस्या- किसी कारण से पितृपक्ष की सभी तिथियों पर पितरों का श्राद्ध चूक जाएं या पितरों की तिथि याद न हो तब इस तिथि पर सभी पितरों का श्राद्ध कर सकते हैं। इस दिन श्राद्ध करने से कुल के सभी पितरों का श्राद्ध हो जाता है

'' पितृपक्ष के श्राद्ध ''






प्रतिवर्ष आश्विन मास में प्रौष्ठपदी पूर्णिमा से ही श्राद्ध आरंभ हो जाते है। इन्हें 16/ सोलह श्राद्ध भी कहते हैं। इस वर्ष पितृपक्ष के श्राद्ध 30 सितम्बर से 15 अक्टूबर के बीच रहेंगे ! आखिरी मातामह का श्राद्ध 16 अक्टूबर के पूर्वाह्न में होगा और उसी दिन अपराह्न से नवरात्र आरभ हो जायेंगे ।  पितृपक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार ब्रह्म वैवर्त पुराण में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धा पूर्वक पितृपक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। वे उच्च शुद्ध कर्मों के कारण अपनी आत्मा के भीतर एक तेज और प्रकाश से आलोकित होते है। मृत्यु के उपरांत भी श्राद्ध करने वाले सदगृहस्थ को स्वर्गलोक, विष्णुलोक और ब्र्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।
भारतीय वैदिक वांगमय के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को इस धरती पर जीवन लेने के पश्चात तीन प्रकार के ऋण होते हैं। पहला देव ऋण, दूसरा ऋषि ऋण और तीसरा पितृ ऋण। पितृ पक्ष के श्राद्ध यानी 16 श्राद्ध साल के ऐसे सुनहरे दिन हैं, जिनमें हम उपरोक्त तीनों ऋणों से मुक्त हो सकते हैं.. श्राद्ध प्रक्रिया में शामिल होकर । महाभारत के प्रसंग के अनुसार, मृत्यु के उपरांत कर्ण को चित्रगुप्त ने मोक्ष देने से इनकार कर दिया था। कर्ण ने कहा कि मैंने तो अपनी सारी सम्पदा सदैव दान-पुण्य में ही समर्पित की है, फिर मेरे उपर यह कैसा ऋण बचा हुआ है? चित्रगुप्त ने जवाब दिया कि राजन, आपने देव ऋण और ऋषि ऋण तो चुका दिया है, लेकिन आपके उपर अभी पितृऋण बाकी है। जब तक आप इस ऋण से मुक्त नहीं होंगे, तब तक आपको मोक्ष मिलना कठिन होगा। इसके उपरांत धर्मराज ने कर्ण को यह व्यवस्था दी कि आप 16 दिन के लिए पुनः पृथ्वी मे जाइए और अपने ज्ञात और अज्ञात पितरों का श्राद्धतर्पण तथा पिंडदान विधिवत करके आइए। तभी आपको मोक्ष यानी स्वर्ग लोक की प्राप्ति होगी। 
जो लोग दान श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं करते, माता-पिता और बडे बुजुर्गो का आदर सत्कार नहीं करते, पितृ गण उनसे हमेशा नाराज रहते हैं। इसके कारण वे या उनके परिवार के अन्य सदस्य रोगी, दुखी और मानसिक और आर्थिक कष्ट से पीड़ित रहते है। वे निःसंतान भी हो सकते हैं । अथवा पितृदोष के कारण उनको संन्तान का सुख भी दुर्लभ रहता है ।
भारत की पावन भूमि में ऐसे कई स्थान हैं जहां ऐसे भूले भटके लोग पितृदोष की निवृत्ति के लिए अनुष्ठान कर सकते हैं। जैसे कि बिहार में गया जी के घाट पर, गंगा सागर तथा महाराष्ट में त्रयंबकेश्वर, हरियाणा में पिहोवा, यूपी में गडगंगा, उत्तराखंड में हरिद्वार भी पितृ दोष के निवारण के लिए श्राद्ध कर्म को आरंभ करने उपयुक्त स्थल हैं। इन स्थ लों में जाकर वे श्रद्धालु भी पितृ पक्ष के श्राद्ध आरंभ कर सकते हैं जिन्होंने पहले कभी भी श्राद्ध  न किया हो।
वैसे तो पितृ पक्ष के श्राद्ध की महिमा अपार है, लेकिन जो भी श्रद्धालु अपने दिवंगत पिता माता दादा परदादा नाना नानी आदि का इन 16 श्राद्धों में व्रत उपवास रखकर ब्राह्मण को भोजन कराकर दक्षिणा आदि देते हैं उनके घर लक्ष्मी और विष्णु भगवान सदैव ही बने रहते हैं। अर्थात वे सदैव ही धन धान्य से परिपूर्ण रहते हैं।
श्राद्ध करने का सीधा संबंध पितरों यानी दिवंगत पारिवारिकजनों का श्रद्धापूर्वक किए जाने वाला स्मरण है जो उनकी मृत्यु की तिथि में किया जाता हैं। अर्थात पितर प्रतिपदा को स्वर्गवासी हुए हों, उनका श्राद्ध प्रतिपदा के दिन ही होगा।  इसी प्रकार अन्य दिनों का भी, लेकिन विशेष मान्यता यह भी है कि पिता का श्राद्ध अष्टमी के दिन और माता का नवमी के दिन किया जाए। परिवार में कुछ ऐसे भी पितर होते हैं जिनकी अकाल मृत्यु हो जाती है, यानी दुर्घटना, विस्फोट, हत्या या आत्महत्या अथवा विष से। ऐसे लोगों का श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है। साधु और सन्यासियों का श्राद्ध द्वाद्वशी के दिन और जिन पितरों के मरने की तिथि याद नहीं है, उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है। 
जीवन मे अगर कभी भूले-भटके माता पिता के प्रति कोई दुर्व्यवहार, निंदनीय कर्म या अशुद्ध कर्म हो जाए तो पितृपक्ष में पितरों का विधिपूर्वक ब्राह्मण को बुलाकर दूब, तिल, कुशा, तुलसीदल, फल, मेवा, दाल-भात, पूरी पकवान आदि सहित अपने दिवंगत माता-पिता, दादा ताऊ, चाचा, पड़दादा, नाना आदि पितरों का श्रद्धापूर्वक स्मरण करके श्राद्ध करने से सारे ही पाप कट जाते हैं। यह भी ध्यान रहे कि ये सभी श्राद्ध  पितरों की दिवंगत यानि मृत्यु की  तिथियों में ही किए जाएं। 
यह मान्यता है कि ब्राह्मण के रूप में पितृपक्ष में दिए हुए दान पुण्य का फल दिवंगत पितरों की आत्मा की तुष्टि हेतु जाता है। अर्थात् ब्राह्मण प्रसन्न तो पितृजन प्रसन्न रहते हैं। अपात्र ब्राह्मण को कभी भी श्राद्ध करने के लिए आमंत्रित नहीं करना चाहिए। मनुस्मृति में इसका खास प्रावधान है। 
30 सितम्बर को उन पितरो का श्राद्ध सम्पन्न होगा जिनकी मृत्य पूर्णिमा के दिन हुई हो । उसके बाद 1 अक्टूबर से 15 अक्टूबर तक नियमित तिथियों के श्राद्ध जारी रहेंगे । अमावस्या के दिन भूले विसरे या अनाम पितरों का श्राद्ध होगा ।  16  अक्टूबर की पूर्वाहन में नाना नानी का श्राद्ध होगा । 
श्राद्ध से पहले श्राद्धकर्ता को एक दिन पहले उपवास रखना होता है जिसे हबीक कहते ! अगले दिन निर्धारित मृत्यु तिथि को अपराह्न  में गजछाया के बाद श्राद्ध तर्पण तथा बाह्मण भोज कराया जाता है ! मान्यता है कि पितृपक्ष के दौरान पितर दोपहर बाद श्राद्धकर्ता के घर पक्षी/कौवे या चिडिया के रूप मे आते हैं ! अतः श्राद्धकर्म कभी भी सुबह या 1 बजे से पहले नहीं करना चाहिए क्योंकि तबतक दिवंगत पितर  अनुपस्थित रहते हैं ! कुछ लोग भोजन पकाकर बिना पिण्डदिये  मन्दिर में थाली दे आते हैं । इससे भी मृतआत्मा की शान्ति नहीं होती  और श्राद्धकर्ता को श्राद्ध का पुण्य नही मिलता है। 
क्या है श्राद्ध के मुख्य भोज्य पदार्थ 
श्राद्ध के दिन लहसुन प्याज रहित सात्विक भोजन घर की रसोई में बनना चाहिए जिसमें  उड़द की दाल, बडे, चावल, दूध घी बने पकवान, खीर, मौसमी सब्जी जो बेल पर लगती है .जैसे ... तोरई, लौकी, सीतफल, भिण्डी  कच्चे केले की सब्जी  ही भोजन मे मान्य है ।  आलू. मूली  वैगन  अरबी तथा जमीन के नीचे  पैदा होने वाली सब्जियां पितरो को नहीं चढ़ती है ।
श्राद्ध के लिए तैयार भोजन की तीन तीन आहुतियों और तीन तीन चावल के पिण्ड तैयार करने बाद प्रेत मंजरी के मंत्रोच्चार के बाद ज्ञात और अज्ञात पितरो को  नाम और राशि से सम्बोधित करके आमंत्रित किया जाता है । कुशा के आसन में बिठाकर गंगाजल से स्नान कराकर  तिल जौ और सफेद फूल और चन्दन आदि समर्पित करके चावल या जौ के आटे के पिण्ड आदि समर्पित किया जाता है । फिर उनके नाम का नैवेद्ध रखा जाता है
श्राद्ध का अधिकार महिलाओं को भी?
श्राद्ध करने के लिए मनुस्मृति और ब्रह्मवैवर्तपुराण  जैसे सभी प्रमुख शास्त्रों में यही बताया गया है कि दिवंगत पितरों के परिवार में या तो ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र और अगर पुत्र न हो तो धेवता (नाती), भतीजा, भांजा या शिष्य ही तिलांजलि और पिंडदान देने के पात्र होते हैं। कई ऐसे पितर भी होते है जिनके पुत्र संतान नहीं होती है या फिर जो संतान हीन होते हैं। ऐसे पितरों के प्रति आदर पूर्वक अगर उनके भाई, भतीजे, भांजे या अन्य चाचा ताउ के परिवार के पुरूष सदस्य पितृपक्ष में श्रद्धापूर्वक व्रत रखकर पिंडदान, अन्नदान और वस्त्रदान करके ब्राह्मणों से विधिपूर्वक श्राद्ध कराते है तो पीड़ित आत्मा को मोक्ष मिलता है। 
एक और अहम सवाल है कि आम तौर पर आजकल के विछिन्न पारिवारिक परिस्थितियों मे क्या महिलाएं  भी श्राद्ध कर सकती है या नहीं इस प्रश्न को भी उठाया जाता रहा है। परिवार के पुरुष सदस्य या पुत्र पौत्र नहीं होने पर कई बार कन्या या धर्मपत्नी को भी मृतक के अन्तिम संस्कार करते या मरने के बाद वर्षी श्राद्ध करते देखा गया है। परिस्थितियो के अनुसार यह एक अन्तिम विकल्प ही है, जो अब धीरे धीरे चलन में आने लगा है । इस मामले में धर्मसिन्धु सहित मनुस्मृति और गरुड पुराण भी आदि ग्रन्थ भी महिलाओं  को पिण्डदान आदि करने का अधिकार प्रदान करती है। आत के समय में शंकराचायों ने भी इस प्रकार की व्यवस्थाओं को तर्क संगत इस बताया है कि श्रा़द्ध करने की परंपरा जीवित रहे और लोग अपने पितरों को नहीं भूलें ! अन्तिम संस्कार में भी महिला अपने परिवार /पितर को मुखाग्नि दे सकती है ।
महाराष्ट्र सहित कई उत्तरी राज्यो में अब पुत्र/पौत्र नहीं होने पर पत्नी बेटी बहिन  या नातिन ने भी सभी मृतक संस्कार करने आरंभ कर दिये ।  काशी आदि के कुछ गुरुकुल आदि की संस्कृत वेद पाठशालाओ  में तो कन्याओं पांण्डित्य कर्म और वेद पठन की ट्रेनिंग भी दी जा रही है  जिसमें महिलाओको श्राद्ध करने कराने का प्रशिक्षण  भी शामिल है !
वैदिक परंपरा के अनुसार महिलाएं यज्ञ अनुष्ठान, संकल्प और व्रत आदि तो रख सकती है, लेकिन श्राद्ध की विधि को स्वयं नहीं कर सकती है। विधवा स्त्री अगर संतानहीन हो तो अपने पति के नाम श्राद्ध का संकल्प रखकर ब्राह्मण या पुरोहित परिवार के पुरूष सदस्य से ही पिंडदान आदि का विधान पूरा करवा सकती है। इसी प्रकार जिन पितरों के कन्याएं ही वंश परंपरा में हैं तो उन्हें पितरों के नाम व्रत रखकर उसके दामाद या धेवते, नाती आदि ब्राहमण को बुलाकर श्राद्धकर्म की निवृत्ति करा सकते है। साधु सन्तों के शिष्य गण या शिष्य विशेष  श्रादध कर सकते  है।
    
क्या कहते हैं प्राचीन शास्त्र, पुराण और स्मृतिग्रन्थ
किसी भी मृतक के अन्तिम संस्कार और श्राद्धकर्म की व्यवस्था के लिए पा्रचीन वैदिक ग्रन्थ गरुडपुराण में कौन कौन से सदस्य पुत्र के नहीं होने पर श्राद्ध कर सकते है उसका  उल्लेख अध्याय .11 के श्लोक सख्या .11, 12, 13  और 14 में विस्तार से किया गया है जैसेः..
    पुत्राभावे वधु कूर्यात ..भार्याभावे  च सोदनः !
     शिष्यो वा ब्राह्मणः सपिण्डो वा समाचरेत !!
     ज्येष्ठस्य वा कनिष्ठस्य भ्रातृःपुत्रश्चः पौत्रके!
     श्राध्यामात्रदिकम कार्य पु.त्रहीनेत खगः !!
 अर्थात  ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र के अभाव में बहू. पत्नी को श्राद्ध करने का अधिकार है ! इसमें ज्येष्ठ पुत्री या एकमात्र पुत्री भी शामिल है ।  अगर पत्नी भी जीवित न हो तो सगा भाई  अथवा भतीजा  भानजा नाती पोता आदि कोई भी यह कर सकता है! इन सबके अभाव में शिष्य,  मित्र, कोई भी रिश्तेदार अथवा कुलपुराहित मृतक का श्राद्ध कर सकता है । इस प्रकार परिवार के पुरुष सदस्य के अभाव में कोई भी महिला सदस्य व्रत लेकर पितरों का श्राद्धतर्पण  और तिलांजली देकर मोक्ष कामना कर सकती है ।
जब सीता ने किया पिण्डदान
वाल्मिकी रामायण में सीता द्वारा पिंडदान देकर दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है। वनवास के दौरान भगवान राम लक्ष्मण और सीता पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध करने के लिए गया धाम पहुंचे। वहां श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री जुटाने हेतु राम और लक्ष्मण नगर की ओर चल दिए। उधर दोपहर हो गई थी। पिंडदान का समय निकलता जा रहा था और सीता जी की व्यग्रता बढती जा रही थी। अपराहन में तभी दशरथ की आत्मा ने पिंडदान की मांग कर दी। गया जी के आगे फल्गू नदी पर अकेली सीता जी असमंजस में पड गई। उन्होंने फल्गू नदी के साथ वटवृक्ष केतकी के फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर स्वर्गीय राजा दशरथ के निमित्त पिंडदान दे दिया। थोडी देर में भगवान राम और लक्ष्मण लौटे तो उन्होंने कहा कि समय निकल जाने के कारण मैंने स्वयं पिंडदान कर दिया। बिना सामग्री के पिंडदान कैसे हो सकता है, इसके लिए राम ने सीता से प्रमाण मांगा। तब सीता जी ने कहा कि यह फल्गू नदी की रेत केतकी के फूल, गाय और वटवृक्ष मेरे द्वारा किए गए श्राद्धकर्म की गवाही दे सकते हैं। इतने में फल्गू नदी, गाय और केतकी के फूल तीनों इस बात से मुकर गए। सिर्फ वटवृक्ष ने सही बात कही। तब सीता जी ने दशरथ का ध्यान करके उनसे ही गवाही देने की प्रार्थना की। दशरथ जी ने सीता जी की प्रार्थना स्वीकार कर घोषणा की कि ऐन वक्त पर सीता ने ही मुझे पिंडदान दिया। इस पर राम आश्वस्त हुए लेकिन तीनों गवाहों द्वारा झूठ बोलने पर सीता जी ने उनको क्रोधित होकर श्राप दिया कि फल्गू नदी- जा तू सिर्फ नाम की नदी रहेगी, तुझमें पानी नहीं रहेगा। इस कारण फल्गू नदी आज भी गया में सूखी रहती है। गाय को श्राप दिया कि तू पूज्य होकर भी लोगों का जूठा खाएगी। और केतकी के फूल को श्राप दिया कि तुझे पूजा में कभी नहीं चढाया जाएगा। वटवृक्ष को सीता जी का आर्शीवाद मिला कि उसे लंबी आयु प्राप्त होगी और वह दूसरों को छाया प्रदान करेगा तथा पतिव्रता स्त्री तेरा स्मरण करके अपने पति की दीर्घायु की कामना करेगी। यही कारण है कि गाय को आज भी जूठा खाना पडता है, केतकी के फूल को पूजा पाठ में वर्जित रखा गया है और फल्गू नदी के तट पर सीताकुंड में पानी के अभाव में आज भी सिर्फ बालू या रेत से पिंडदान दिया जाता

Saturday, 29 September 2012

''भगवान विष्णु का स्वप्न ''

भगवान विष्णु का स्वप्न
एक बार भगवान नारायण अपने वैकुंठलोक में सोये हुए थे. स्वप्न में वो क्या देखते है कि करोड़ो चन्द्रमाओ कि कन्तिवाले, त्रिशूल-डमरू-धारी, स्वर्णाभरण -भूषित, संजय-वन्दित , अणिमादि सिद्धिसेवित त्रिलोचन भगवान शिव प्रेम और आनंदातिरेक से उन्मत होकर उनके सामने नृत्य कर रहे है, उन्हें देखकर भगवान विष्णु हर्ष-गदगद से सहसा शैयापर उठकर बैठ गये और कुछ देर तक ध्यानस्थ बैठे रहे. उन्हें इस प्रकार बैठे देखर श्री लक्ष्मी जी उनसे पूछने लगी कि "भगवन! आपके इस प्रकार उठ बैठने का क्या कारण है?"
भगवान ने कुछ देर तक उनके इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और आनंद में निमग्न हुए चुपचाप बैठे रहे. अंत में कुछ स्वस्थ होने पर वे गदगद-कंठ से इस प्रकार बोले - "हे देवि! मैंने अभी स्वप्न में भगवान श्री महेश्वर का दर्शन किया है, उनकी छबी ऍसी अपूर्व आनंदमय एवं मनोहर थी कि देखते ही बनती थी. मालूम होता है, शंकर ने मुझे स्मरण किया है. अहोभाग्य! चलो, कैलाश में चलकर हमलोग महादेव के दर्शन करते है .

यह कहकर दोनों कैलाश की और चल दिए. मुश्किल से आधी दूर ही गये होंगे की देखते है भगवान शंकर स्वयं गिरिजा के साथ उनकी और आ रहे है, अब भगवान के आनंद का क्या ठिकाना? मानो घर बैठे निधि मिल गई. पास आते ही दोनों परस्पर बड़े प्रेम से मिले. मानो प्रेम और आनंद का समुन्द्र उमड़ पड़ा. एक दुसरे को देखकर दोनों के नेत्रों से आन्दाश्रू बहने लगे और शरीर पुलकायमान हो गया. दोनों ही एक दुसरे से लिपटे हुए कुछ देर मुक्वत खड़े रहे. प्रश्नोतर होनेपर मालूम हुए की शंकर जी ने भी रात्रि में इसी प्रकार का स्वप्न देखा मानो विष्णु भगवान को वे उसी रूप में देख रहे है, जिस रूप में वे अब उनके सामने खड़े थे. दोनों के स्वप्न का वृतांत अवगत होने पर दोनों ही लगे एक दुसरे से अपने यहाँ लिवा ले जाने का आग्रह करने.. नारायण कहते वैकुण्ठ चलो और शम्भू कहते कैलाश की और प्रस्थान कीजिये. दोनों के आग्रह में इतना अलौकिक प्रेम था कि यह निर्णय करना कठिन हो गया कि कहाँ चला जाये?

इतने में ही क्या देखते है वीणा बजाते, हरिगुण गाते नारद जी कही से आ निकले. बस, फिर क्या था? लगे दोनों ही उनसे निर्णय कराने कि कहाँ चला जाये?

बेचारे नारद जी स्वयं परेशान थे उस अलौकिक मिलन को देखकर , वे तो स्वयं अपनी सुध-बुध भूल गये और लगे मस्त होकर दोनों का गुणगान करने. अब निर्णय कौन करे? अंत में यह तय हुई कि भगवती उमा जो कह दे वही ठीक है.

भगवती उमा पहले तो कुछ देर चुप रही, अंत में दोनों को लक्ष्य करके बोली -"हे नाथ! हे नारायण! आपलोगों के निश्छल, अनन्य एवम अलौकिक प्रेम को देखकर तो यही समझ में आता है कि आपके निवास-स्थान अलग-अलग नहीं है, जो कैलास है वही वैकुण्ठ है और जो वैकुण्ठ है वही कैलाश है, केवल नाम में ही भेद है. यही नहीं , मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि आपकी आत्मा भी एक ही है, केवल शरीर देखने में दो है. और तो और, मुझे तो अब यह स्पष्ट दिखने लगा ही आपके भार्याये भी एक ही है, दो नहीं. जो मै हु वही श्रीलक्ष्मी है और जो श्रीलक्ष्मी है वही मै हु.. केवल इतना ही नहीं, मेरी तो अब यह दृढ धारणा हो गई है कि आपलोगों में से एक के प्रति जो द्वेष करता है, वह मानो दुसरे के प्रति ही करता है, एक की जो पूजा करता है, वह स्वाभाविक ही दुसरे कि भी करता है और जो एक को अपूज्य मानता है वह दुसरे कि भी पूजा नहीं करता... मै तो यह समझती हु कि आप दोनों में जो भेद मानता है, उसका चिरकालतक घोर पतन होता है, मै देखती हु कि आप मुझे इस प्रसंग में अपना मध्यस्थ बनाकर मानो मेरी प्र्वच्चना कर रहे है, मुझे चक्कर में डाल रहे है, मुझे भुला रहे है. अब मेरी यह प्रार्थना है कि आपलोग दोनों ही अपने-अपने लोक को पधारिये .. श्रीविष्णु यह समझे कि हम शिवरूप में से वैकुण्ठ जा रहे है और महेश्वर यह माने कि हम विष्णुरूप से कैलाश गमन कर रहे है ..

इस उत्तर को सुनकर दोनों परम प्रसन्न हुए और भगवती उमा कि प्रशंसा करते हुए दोनों अपने अपने लोक को चले गये.

लौटकर जब विष्णु वैकुण्ठ पहुंचे तो श्री लक्ष्मी जी उनसे पूछने लगी कि - 'प्रभु! सबसे अधिक प्रिय आपको कौन है? इस पर भगवान बोले - 'प्रिय! मेरे प्रियतम केवल श्री शंकर है, देहधारियो को अपने देह कि भांति वे मुझे अकारण ही प्रिय है, एक बार मै और शंकर दोनों ही पृथ्वी पर घुमने निकले, मै अपने प्रियतम की खोज में इस आशय से निकला कि मेरी ही तरह जो अपने प्रियतम की खोज में देश-देशांतर में भटक रहा होगा, वही मुझे अकारण प्रिय होगा. थोड़ी देर के बाद ही मेरी श्री शंकर जी से भेंट हो गई. ज्यो ही हमलोगों की चार आँखे हुई कि हमलोग पुर्वजन्मअर्जित विद्या कि भांति एक दुसरे कि प्रति आक्रष्ट हो गये "वास्तव में मै ही जनार्दन हु. और मै ही महादेव हु, अलग-अलग दो घडो में रखे हुए जल कि भांति मुझमे और उनमे कोई अंतर नहीं है, शंकरजी के अतिरिक्त शिवकी अर्चा करनेवाला शिवभक्त भी मुझे अत्यंत प्रिय है, इसके विपरीत जो शिव कि पूजा नहीं करतेवे मुझे कदापि प्रिय नहीं हो सकते...
शिव-द्रोही वैष्णवों को और विष्णु-द्वेषी शैवोको इस प्रसंग पर ध्यान देना चाहिए..
अब बोलो जय माता दी जी . फिर से बोले जय माता दी. हर हर महादेव. जय जय श्री कृष्णा जय श्री नारायणा 


'' आज "गणपति" की बिदाई ''

आज "गणपति" की बिदाई होगी....! गजानन से अनुरोध की अपने सभी भक्त जन को सुख समृद्धि का आशीर्वाद देते जाये और सारे दुख साथ ले जाये....! मंगलकामनाये..

Friday, 28 September 2012

'' मत्स्य अवतार की कथा ''



मत्स्य अवतार की कथा :
कल्पांत के पूर्व एक पुण्यात्मा राजा तप कर रहा था। राजा का नाम सत्यव्रत था।सत्यव्रत पुण्यात्मा तो था ही, बड़े उदार ह्रदय का भी था। प्रभात का समय था।सूर्योदय हो चुका था। सत्यव्रत कृतमाला नदी में स्नान कर रहा था। उसने स्नानकरने के पश्चात जब तर्पण के लिए अंजलि में जल लिया, तो अंजलि में जल के साथ एकछोटी-सी मछली भी आ गई। सत्यव्रत ने मछली को नदी के जल में छोड़ दिया। मछलीबोली'राजन! जल के बड़े-बड़े जीव छोटे-छोटे जीवों को मारकर खा जाते हैं। अवश्य कोईबड़ा जीव मुझे भी मारकर खा जाएगा। कृपा करके मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए।'सत्यव्रत के ह्रदय में दया उत्पन्न हो उठी। उसने मछली को जल से भरे हुए अपने कमंडलु में डाल लिया। आश्चर्य! एक रात में मछली का शरीर इतना बढ़ गया कि कमंडलु उसके रहने के लिए छोटा पड़ने लगा। दूसरे दिन मछली सत्यव्रत से बोली।'राजन! मेरे रहने के लिए कोई दूसरा स्थान ढूंढ़िए, क्योंकि मेरा शरीर बढ़ गया है। मुझे घूमने-फिरने में बड़ा कष्ट होता है।' सत्यव्रत ने मछली को कमंडलु से निकालकर पानी से भरे हुए मटके में रख दिया। आश्चर्य! मछली का शरीर रात भर मेंही मटके में इतना बढ़ गया कि मटका भी उसके रहने कि लिए छोटा पड़ गया। दूसरेदिन मछली पुनः सत्यव्रत से बोली, 'राजन, मेरे रहने के लिए कहीं और प्रबंधकीजिए, क्योंकि मटका भी मेरे रहने के लिए छोटा पड़ रहा है।' तब सत्यव्रत नेमछली को निकालकर एक सरोवर में डालदिया , किंतु सरोवर भी मछली के लिए छोटा पड़गया। इसके बाद सत्यव्रत ने मछली को नदी में और फिर उसके बाद समुद्र में डालदिया। आश्चर्य! समुद्र में भी मछली का शरीर इतना अधिक बढ़ गया कि मछली के रहनेके लिए वह छोटा पड़ गया। अतः मछली पुनः सत्यव्रत से बोली, 'राजन! यह समुद्र भीमेरे रहने के लिए उपयुक्त नहीं है। मेरे रहने की व्यवस्था कहीं और कीजिए।'सत्यव्रत विस्मित हो उठा। उसने आज तक ऐसी मछली कभी नहीं देखी थी। वहविस्मय-भरे स्वर में बोला, 'मेरी बुद्धि को विस्मय के सागर में डुबो देने वालेआप कौन हैं? आप का शरीर जिस गति से प्रतिदिन बढ़ता है, उसे दृष्टि में रखतेहुए बिना किसी संदेह के कहा जा सकता है कि आप अवश्य परमात्मा हैं। यदि यह बातसत्य है, तो कृपा करके बताइए के आपने मत्स्य का रूप क्यों धारण किया है?'सचमुच, वह भगवान श्रीहरि ही थे। मत्स्य रूपधारी श्रीहरि ने उत्तर दिया, 'राजन!हयग्रीव नामक दैत्य ने वेदों को चुरा लिया है। जगत में चारों ओर अज्ञान औरअधर्म का अंधकार फैला हुआ है। मैंने हयग्रीव को मारने के लिए ही मत्स्य का रूपधारण किया है। आज से सातवें दिन पृथ्वी प्रलय के चक्र में फिर जाएगी। समुद्रउमड़ उठेगा। भयानक वृष्टि होगी। सारी पृथ्वी पानी में डूब जाएगी। जल केअतिरिक्त कहीं कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होगा। आपके पास एक नाव पहुंचेगी, आप सभीअनाजों और औषधियों के बीजों को लेकर सप्तॠषियों के साथ नाव पर बैठ जाइएगा। मैंउसी समय आपको पुनः दिखाई पड़ूंगा और आपको आत्मतत्व का ज्ञान प्रदान करूंगा।'सत्यव्रत उसी दिन से हरि का स्मरण करते हुए प्रलय की प्रतीक्षा करने लगे।सातवें दिन प्रलय का दृश्य उपस्थित हो उठा। उमड़कर अपनी सीमा से बाहर बहनेलगा। भयानक वृष्टि होने लगी। थोड़ी ही देर में जल ही जल हो गया। संपूर्णपृथ्वी जल में समा गई। उसी समय एक नाव दिखाई पड़ी। सत्यव्रत सप्तॠषियों के साथउस नाव पर बैठ गए, उन्होंने नाव के ऊपर संपूर्ण अनाजों और औषधियों के बीज भी भर लिए।नाव प्रलय के सागर में तैरने लगी। प्रलय के उस सागर में उस नाव के अतिरिक्तकहीं भी कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। सहसा मत्स्यरूपी भगवान प्रलय के सागरमें दिखाई पड़े। सत्यव्रत और सप्तर्षिगण मतस्य रूपी भगवान की प्रार्थना करनेलगे,'हे प्रभो! आप ही सृष्टि के आदि हैं, आप ही पालक है और आप ही रक्षक हीहैं। दया करके हमें अपनी शरण में लीजिए, हमारी रक्षा कीजिए।' सत्यव्रत औरसप्तॠषियों की प्रार्थना पर मत्स्यरूपी भगवान प्रसन्न हो उठे। उन्होंने अपनेवचन के अनुसार सत्यव्रत को आत्मज्ञान प्रदान किया, बताया,'सभी प्राणियों मेंमैं ही निवास करता हूं। न कोई ऊंच है, न नीच। सभी प्राणी एक समान हैं। जगतनश्वर है। नश्वर जगत में मेरे अतिरिक्त कहीं कुछ भी नहीं है। जो प्राणी मुझेसबमें देखता हुआ जीवन व्यतीत करता है, वह अंत में मुझमें ही मिल जाता है।'मत्स्य रूपी भगवान से आत्मज्ञान पाकर सत्यव्रत का जीवन धन्य हो उठा। वे जीतेजी ही जीवन मुक्त हो गए।
बोलिए मतस्य भगवान की .........जय ........। 




Wednesday, 26 September 2012



कल 28 सितम्बर को अनंत चतुर्दशी है |भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अनंत चतुर्दशी का व्रत किया जाता है। इस दिन अनंत के रूप में हरि की पूजा होती है। पुरुष दाएं तथा स्त्रियां बाएं हाथ में अनंत धारण करती हैं। अनंत राखी के समान रूई या रेशम के कुमकुम रंग में रंगे धागे होते हैं और उनमें चौदह गांठे होती हैं। इन्हीं धागों से अनंत का निर्माण होता है। यह व्यक्तिगत पूजा है, इसका कोई सामाजिक धार्मिक उत्सव नहीं होता।अग्नि पुराण में इसका विवरण है। व्रत करने वाले को धान के आटे से रोटियां या पूड़ी बनानी होती हैं, जिनकी आधी वह ब्राह्मण को दे देता है और शेष स्वयं प्रयोग में लाता है।इस दिन व्रती को चाहिए कि प्रात:काल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर कलश की स्थापना करें। कलश पर कुश से निर्मित अनंत की स्थापना की जाती है। इसके आगे कुंकूम, केसर या हल्दी से रंग कर बनाया हुआ कच्चे डोरे का चौदह गांठों वाला 'अनंत' भी रखा जाता हैयूं तो यह व्रत नदी-तट पर किया जाना चाहिए और हरि की लोककथाएं सुननी चाहिए। लेकिन संभव ना होने पर घर में ही स्थापित मंदिर के सामने हरि से इस प्रकार की प्रार्थना की जाती है- 'हे वासुदेव, इस अनंत संसार रूपी महासमुद्र में डूबे हुए लोगों की रक्षा करो तथा उन्हें अनंत के रूप का ध्यान करने में संलग्न करो, अनंत रूप वाले प्रभु तुम्हें नमस्कार है।'हरि की पूजा करके तथा अपने हाथ के ऊपरी भाग में या गले में धागा बांध कर या लटका कर (जिस पर मंत्र पढ़ा गया हो) व्रती अनंत व्रत को पूर्ण करता है। यदि हरि अनंत हैं तो 14 गांठें हरि द्वारा उत्पन्न 14 लोकों की प्रतीक हैं।अनंत चतुर्दशी पर कृष्ण द्वारा युधिष्ठिर से कही गई कौण्डिन्य एवं उसकी स्त्री सुशीला की क् था भी सुनाई जाती है।
 प्राचीन काल में सुमन्तु नाम के ब्राह्मण की परम सुन्दरी धर्म परायण तथा ज्योतिर्मयी सुशीला कन्या थी l ब्राह्मण ने उसका विवाह कौण्डिन्य ऋषी से कर दिया l कौण्डिन्य ऋषी सुशीला को लेकर अपने आश्रम की ओर चले तो रास्ते में ही रात हो गयी l वे एक नदी के तट पर रुक गए | सुबह उठाने पर उन्होंने देखा कि कुछ औरतें सुन्दर-सुन्दर वस्त्र धारण कर के किसी देवता की पूजा कर रही है l सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधि पूर्वक अनन्त व्रत की बात व महत्ता बता दी l सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान कर के चौदह गाँठो वाला डोरा हाथ मे बाँधा और अपने पति के पास आ गयी lकौण्डिन्य ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात स्पष्ट कर दी l कौण्डिन्य सुशीला की बातों से प्रसन्न नहीं हुए l उन्होंने डोरे को तोड़कर आग में जला दिया l यह अनन्त जी का अपमान था l परिणामत: कौण्डिन्य मुनि दुखी रहने लगे l उनकी सारी सम्पत्ती नष्ट हो गयी l इस दरिद्रता का कारण पूछने पर सुशीला ने डोरे जलाने की बात दोहराई l पश्चाताप करते हुए ऋषी अनन्त की प्राप्ति के लिए वन में निकल गये l जब वे भटकते -भटकते निराश होकर गिर पड़े तब अनन्त जी प्रकट होकर बोले -'हे कौण्डिन्य ! मेरे तिरस्कार के कारण ही तुम दुखी हुए l तुमने पश्चाताप किया है l मै प्रसन्न हूँ l घर जाकर विधि पूर्वक अनन्त व्रत करो l चौदह वर्ष पर्यान्त व्रत कर ने से तुम्हारा दुःख दूर हो जाएगा l तुम्हे अनन्त सम्पत्ती मिलेगी |कौण्डिन्य ने वैसा ही किया l उन्हें सारे क्लेशों से मुक्ति मिल गयी l श्री कृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठर ने भी अनन्त -भगवान् का व्रत किया जिसके प्रभाव से पाण्डव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए तथा चिर काल तक निष्कंठक राज्य करते रहे कृष्ण का कथन है कि 'अनंत' उनके रूपों का एक रूप है और वे काल हैं जिसे अनंत कहा जाता है। अनंत व्रत चंदन, धूप, पुष्प, नैवेद्य के उपचारों के साथ किया जाता है। इस व्रत के विषय में कहा जाता है कि यह व्रत 14 वर्षों तक किया जाए, तो व्रती विष्णु लोक की प्राप्ति कर सकता है।

'' भगवान वामन की कथा ''





आज (26.09.2012) वामन द्वादशी है। इस दिन भगवान विष्णु के वामन स्वरूप की पूजा की जाती है और व्रत रखा जाता है। भगवान वामन की कथा इस प्रकार है -सत्ययुग में प्रह्लाद के पौत्र दैत्यराज बलि ने स्वर्गलोक पर अधिकार कर लिया। सभी देवता इस विपत्ति से बचने के लिए भगवान विष्णु के पास गए। तब भगवान विष्णु ने कहा कि मैं स्वयं देवमाता अदिति के गर्भ से उत्पन्न होकर तुम्हें स्वर्ग का राज्य दिलाऊँगा। कुछ समय पश्चात भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया। राजा बली बड़े पराक्रमी और दानी थे। भगवान के वे बड़े भक्त भी थे, लेकिन उन्हें बहुत ही घमंडी था। एक बार जब बलि महान यज्ञ कर रहा था, तब भगवान के मन में राजा बली की परीक्षा लेने की सूझी और वामन अवतार लेकर उसके यज्ञ में पहुँच गए l जैसे ही वे राजा बली के यज्ञ स्थल पर गए, वे उनसे बहुत प्रभावित हुए और भगवान के आकर्षक रूप को देखते हुए उन्हें उचितस्थान दिया। अंत में जब दान की बारी आई, तो राजा बली ने भगवान के वामन अवतार से दान माँगने के लिए कहा और तब वामन भवन ने राजा बलि से तीन पग धरती दान में मांगी। तब राजा बली मुस्कुराए और बोले तीन पग जमीन तो बहुत छोटा-सा दान है। महाराज और कोई बड़ा दान माँग लीजिए, पर भगवान के वामन अवतार ने उनसे तीन पग जमीन ही माँगी। राजा बलि के गुरु शुक्राचार्य भगवान की लीला समझ गए और उन्होंने बलि को दान देने से मना कर दिया लेकिन बलि ने फिर भी भगवान वामन को तीन पग धरती दान देने का संकल्प ले लिया। भगवान वामन ने विशाल रूप धारण कर एक पग में धरती और दूसरे पग में स्वर्ग लोक नाप लिया। तब भगवान ने बली से पूछा कि अपना तीसरा पग कहाँ रखूँ ?जब तीसरा पग रखने के लिए कोई स्थान नहीं बचा तो बलि ने महादानी होने का परिचय देते हुए भगवान वामन को अपने सिर पर पग रखने को कहा। बलि के सिर पर पग रखने से वह सुतललोक पहुंच गया। बलि की दानवीरता देखकर भगवान ने उसे सुतललोक का स्वामी भी बना दिया। इस तरह भगवान वामन ने देवताओं की सहायता कर उन्हें स्वर्ग पुन: लौटाया।
इस कथा के अनुसार हमें इस बात का ज्ञान रखना बहुत जरूरी है कि कभी-कभी लोगों का घमंड चूर करने के लिए भगवान को भी अवतार लेना पड़ता है। अत: हमें कभी भी धनवान होने का घमंड नहीं करना चाहिए।
पूजन मंत्र
देवेश्वराय देवश्य, देव संभूति कारिणे। प्रभावे सर्व देवानां वामनाय नमो नमः।।
अर्ध्य मंत्र
नमस्ते पदमनाभाय नमस्ते जलः शायिने तुभ्यमर्च्य प्रयच्छामि वाल यामन अप्रिणे।। नमः शांग धनुर्याण पाठ्ये वामनाय च। यज्ञभुव फलदा त्रेच वामनाय नमो नमः।।
व्रत विधि
वामन द्वादशी का व्रत करने वाले व्रती को चाहिए कि द्वादशी को दोपहर के समय स्वर्ण या यज्ञोपवित से बनाकर वामन भगवान की प्रतिमा स्थापित कर सुवर्ण पात्र अथवा मिट्टी के पात्र में षोडशोपचारपूर्वक पूजन करें तथा वामन भगवान की कथा सुनें, अर्ध्य दान करें, फल, फूल चढ़ावे तथा उपवास करें। तदुपरांत मिट्टी के पात्र में दही, चावल एवं शक्कर रखकर ब्राह्मण को माला, गउमुखी, कमण्डल, लाठी, आसन, गीता, फल, छाता, खडाऊ तथा दक्षिणा सहित सम्मान सहित विदा करे। इस दिन फलाहार कर दूसरे दिन त्रयोदशी को व्रत पारण करें। शास्त्रों के अनुसार इस तिथि को विधि-विधान पूर्वक व्रत करने से सुख, आनंद, मनोवांछित फल तथा स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

Monday, 24 September 2012

हनुमानजी को सिन्दूर चढाने कि परंपरा क्यों?







हनुमानजी को सिन्दूर चढाने कि परंपरा क्यों?
अदभुत रामायण में एक कथा का उल्लेख मिलता है, जिसमे मंगलवार कि सुबह जब हनुमानजी को भूख लगी, तो वे माता जानकी के पास कुछ कलेवा पाने की लिए पहुंचे . सीता माता की मांग में लगा सिन्दूर देखकर हनुमानजी ने उनसे आश्चर्यपूर्वक पूछा - "माता! मांग में आपने यह कौन सा लाल द्रव्य लगया है"?
इस पर सीता माता जी ने प्रस्न्न्तापूर्वक कहा - "पुत्र! यह सुहागिन स्त्रियों का प्रतीक, मंगल सूचक, सौभाग्यवर्द्धक सिन्दूर है. जो स्वामी के दीर्घायु के लिए जीवनपर्यत मांग में लगाया जाता है, इससे वे मुझ पर प्रसन्न रहते है"
हनुमानजी ने यह जानकार विचार किया कि जब अंगुली भर सिन्दूर लगाने से स्वामी कि आयु में वृद्धि होती है, तो फिर क्यों ना सारे शरीर पर इसे लगाकर अपने स्वामी भगवान श्रीराम को अजर-अमर कर दू. उन्होंने जैसा सोचा, वैसा ही कर दिखाया. अपने सारे शरीर पर सिन्दूर पोतकर भगवान

श्रीराम कि सभा में पहुंचे... उन्हें इस प्रकार सिन्दूरी रंग में रंगा देखकर सभा में उपस्थित सभी लोग हँसे, यहाँ तक कि भगवान राम भी उन्हें देखकर मुस्कराए और बहुत प्रसन्न हुए. उनके सरल भाव पर मुग्ध होकर उन्हों ने यह घोषणा की कि जो मंगलवार के दिन मेरे अनन्य प्रिय हनुमान को तेल और सिन्दूर चढ़ाएगा , उन्हें मेरी प्रसन्नता प्राप्त होगी और उनकी समस्त मनोकामनाए पूर्ण होगी . इस पर माता जानकी के वचनों में हनुमानजी को और भी अधिक दृढ विश्वास हो गया.
कहा जाता है कि उसी समय से भगवान श्रीराम के प्रति हनुमानजी कि अनुपम स्वामिभक्ति को याद करने के लिए उनके सारे शरीर पर चमेली के तेल में घोलकर सिन्दूर लगाया जाता है. इसे चोला चढ़ाना भी कहते है .

सर्वप्रथम गणेश का ही पूजन क्यों?




                       सर्वप्रथम गणेश का ही पूजन क्यों?
हिन्दू धर्म में किसी भी शुभ कार्य का आरम्भ करने के पूर्व गणेश जी कि पूजा करना आवश्यक माना गया है. क्यों कि उन्हें विघ्नहर्ता व् रिद्धि - सिद्धि का स्वामी कहा जाता है. इनके स्मरण, ध्यान, जप, आराधना से कामनाओं कि पूर्ति होती है व् विघ्नों का विनाश होता है. वे शीघ्र प्रसन होने वाले बुद्धि के अधिष्ठाता और साक्षात प्रणव रूप है, प्रत्येक शुभ कार्य के पूर्व "श्री गणेशाय नम:" का उच्चारण कर उनकी स्तुति में यह मन्त्र बोला जाता है.

वक्र्तुण्ड् महाकाय कोटि सूर्य समप्रभ्:।
निर्विघ्न कुरु मे देव सर्व कायेर्षु सर्वदा ।।


पद्मपुराण के अनुसार :- सृष्टि के आरम्भ में जब यह प्रशन उठा कि प्रथम पूज्य किसे माना जाये, तो समस्त देवतागण ब्रह्माजी के पास पहुंचे . ब्रह्माजी ने कहा जो कोई सम्पूर्ण पृथ्वी कि परिक्रमा सबसे पहले कर लेगा, उसे ही प्रथम पूजा जायेगा. इस पर सभी देवतागण अपने - अपने वाहनों पर सवार होकर परिक्रमा हेतु चल पड़े. चुकी गणेशजी का वाहन चूहा है और उनका शरीर स्थूल, तो ऐसे में वे परिक्रमा कैसे कर पाते? इस समस्या को सुलझाया देवरिषि नारद जी ने , उनके अनुसार गणेश जी ने भूमि पर "राम" नाम लिखकर उनकी सात परिक्रमा कि और ब्रह्माजी के पास सबसे पहले पहुँच गये. तब ब्रह्माजी ने उन्हें प्रथम पुज्य बताया.. क्युकि "राम" नाम साक्षात श्रीराम का स्वरूप है और श्रीराम में ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड निहित है. हालाकि किसी किसी पुराण में उन्हों ने अपने माता -पिता की परिक्रमा की यह बतया है. राम-शिव दोनों ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड है ... ब्रह्माजी ने कहा माता -पिता की परिक्रमा "राम" नाम की परिक्रमा से तीनो लोको की परिक्रमा का पुण्य तुम्हे मिल गया, जो पृथ्वी की परिक्रमा से भी बड़ा है. इसलिए जो मनुष्य किसी कार्य के शुभारंभ से पहले तुम्हारा पूजन करेगा, उसे कोई बाधा नहीं आएगी. बस, तभी से गणेश जी अग्रपूज्य हो गए...एक बार देवताओं ने गोमती के तट पर यज्ञ प्रारंभ किया तो उसमे अनेक विघन पड़ने लगे. यज्ञ सम्पन्न नहीं हो सका. उदास होकर देवताओ ने ब्रह्मा और विष्णु से इसका कारण पूछा, दयामय चतुरानन ने पता लगाकर बतया की इस यज्ञ में श्री गणेशजी विघन उपस्थित कर रहे है, यदि आप लोग विनायक को प्रसन्न कर ले , तब यज्ञ पूर्ण हो जायेगा. विधाता की सलाह से देवताओं ने स्नान कर श्रद्धा , भक्ति पूर्वक गणेशजी का पूजन किया. विघनराज गणेशजी की कृपा से यज्ञ निर्विघन सम्पन्न हुआ.. उल्लेखनीय है की महादेव जी ने भी त्रिपुर वध के समय पहले गणेशजी का पूजन किया था..
अब बोलिए जय गणेश काटो कलेश. जय माता दी जी

Saturday, 22 September 2012

'' राधा अष्टमी ''


सभी प्रभु प्रेमियों को , राधा अष्टमी के अवसर पर '' जागरण एवं भागवत परिवार '' की ओर से बहुत बहुत बधाई हो ...........

Sunday, 16 September 2012

''रामेश्वर''

रामेश्वर का अर्थ :-श्रीरामचन्द्र जी नित्य नियम से भगवान शंकर कि पूजा करते थे.. समुन्द्र किनारे कि दिव्या भूमि देखकर श्रीरामचन्द्र जी को आनंद हुआ और उन्हों ने सकल्प किया कि इस स्थान पर मै शिवजी कि स्थापना करूँगा.. परन्तु वहां कोई शिवलिंग मिला नहीं. हनुमानजी को शिवलिंग लाने कि लिए काशी भेजा.. हनुमान जी को लौटने में विलम्ब हो गया.. तब तक रघुनाथ जी ने रेती का शिवलिंग बनाकर वहां रामेश्वर कि स्थापना कर दी.. अनेक ऋषि वहां आये थे. श्रीराम शिवजी की पूजा करने लगे. भगवान शंकर को आनंद हुआ.. लिंग में से शिव पार्वती जी प्रकट हुए ऋषियो ने रामजी से पूछा -- महाराज! रामेश्वर का अर्थ समझाइये ।।श्री रघुनाथ जी ने कहा-- रामस्य इश्वर: य:, स: रामेश्वर:।। (जो राम के इश्वर है, उन्हें रामेश्वर कहते है, मै शिवजी का सेवक हु. शिवजी मेरे स्वामी है तब शिवजी ने कहा - रामेश्वर का अर्थ ऐसा नहीं.. मै राम का इश्वर नहीं. मै तो राम का सेवक हु. रामेश्वर का अर्थ तो यह है राम: इश्वरो यस्य स: रामेश्वर:।राम जिसके स्वामी है, उनको रामेश्वर कहते है, मै रामदास हु, मै सब दिन राम-नाम जा जप किया करता हु. रामजी का ही ध्यान धर्ता हु. शिवजी कहते है - राम जिसके स्वामी है, उनको रामेश्वर कहते है और रामजी कहते है - रामके जो स्वामी है, उन्हें रामेश्वर कहते है, दोनों में मूल रूप झगड़ा खड़ा हो गया. भगवान शंकर कहते है कि तुम मेरे स्वामी हो, मै तुम्हारा सेवक हु. रामजी कहते है कि नहीं. नहीं ऐसा नहीं... तुम मेरे स्वामी हो, मै तुम्हारा सेवक हु..ऋषियो ने पीछे निर्णय किया कि तुम दोनों एक ही हो इसलिए ऐसा कहते है .. शिव और राम दोनों एक ही है, हरि - हर में भेद रखने वाले का कल्याण नहीं होता, रामायण का यह दिव्या सिद्धांत है.भागवत में भी अनेक बार इस सिद्धांत का वर्णन किया गया है. कितने ही वैष्णवों को शिवजी की पूजा करने में संकोच होता है, अरे वैष्णवों के गुरु तो शिवजी है.शिवजी कि पूजा से श्रीकृष्ण-श्रीराम क्या नाराज हो जायेगे... उन्हों ने तो कहा है शिव और हममे जो भेद रखता है वह नरकगामी बनता है .
शंकर प्रिय मम द्रोही, शिव द्रोही मम दास
 ते नर करिहहि कल्प भरि, घोर नरक महु वास  ।

Saturday, 15 September 2012

'' राजा प्रसून के जीवन की घटना ''


प्रसिद्ध राजा प्रसून के जीवन की घटना है। अपने गुरु के विचारों से प्रभावित होकर राजा ने राज्य का त्याग कर दिया, साधु-संन्यासियों के जैसे गेरुए कपड़े पहनकर हाथ में कमंडलु और भिक्षा पात्र लेकर निकल पड़े। शाम होने पर नियत से भजन-कीर्तन, जप-तप और पूजा-पाठ करते। यही सब कुछ करते हुए एक लंबा समय गुजर गया, लेकिन राजा प्रसून के मन को वह शांति नहीं मिली जिसके लिये उसने अपना राज-पाट छोड़ा था। राजा दुखी होकर एक दिन अपने गुरु के पास पहुंचा और अपनी मन की तकलीफ सुनाने लगा। राजा की सारी बात सुनने के बाद गुरु हंसे और बोले – ”जब तुम राजा थे और अपने उद्यान का निरीक्षण करते थे, तब अपने माली से पौधे के किस हिस्से का विशेष ध्यान रखने को कहते थे?” अपने गुरु की बात ध्यान से सुनकर राजा प्रसून बोला – ”गुरुदेव! वैसे तो पौधे का हर हिस्सा महत्वपूर्ण होता है, लेकिन फिर भी यदि जड़ों का ठीक से ध्यान न रखा जाए तो पूरा पौधा ही सूख जाएगा।”राजा का जवाब सुनकर गुरु प्रसन्न हुए और बोले – ”वत्स! पूजा-पाठ, जप-तप, कर्मकांड और यह साधु-सन्यासियों का पहनावा भी सिर्फ फूल-पत्तियां ही हैं, असली जड़ तो आत्मा है। यदि इस आत्मा का ही शुद्धिकरण नहीं हुआ तो बाहर की सारी क्रियाएं सिर्फ आडम्बर बन कर ही रह जाते हैं। आत्मा की पवित्रता का ध्यान न रखने के कारण ही बाहरी कर्मकांड बेकार चला जाता है।”इस सच्ची व बेहद कीमती सुन्दर कथा का सार यही है कि यदि मनुष्य का प्रयास अपनी आत्मा के निखार और जागरण में लगे तो ही उसके जीवन में सच्चा सुख-शांति और स्थाई समृद्धि आ सकती है। अन्यथा बाहरी पूजा-पाठ यानी कर्मकांड सिर्फ मनोरंजन का साधन मात्र ही बन जाते हैं।

Tuesday, 11 September 2012

''नारद जी का भगवान को शाप ''


श्री रामचरितमानस में यह कथा आयी है कि देवर्षि नारदजी को कामपर विजय करने से गर्व हो गया था. और वे शंकर जी को इसलिए हेय समझने लगे कि उन्होंने कामदेव को क्रोध से जला दिया, इसलिए वे क्रोधी तो ही ही, किन्तु मै काम और क्रोध दोनों से उपर उठा हुआ हु. पर मूल बात यह थी कि जहाँ नारदजी ने तपस्या की थी, शंकर जी ने उस तप:स्थली को कामप्रभाव से शुन्य होने का वर दे दिया था और नारदजी ने जब शंकर जी से यह बात कह डाली, तब भगवान शंकर ने उन्हें इस बात को विष्णु भगवान को कहने से रोका. इस पर नारदजी ने सोचा के ये मेरे महत्त्व को नष्ट करना चाहते है. अत: यह बात उन्हों ने भगवान विष्णु से कह डाली. भगवान विष्णु ने उनके कल्याण के लिए अपनी माया से श्रीमतिपुरी नाम कि एक नगरी खड़ी कर दी, जहाँ विश्वमोहिनी के आकर्षण में नारदजी भी स्वयंवर में पधारे, पर साक्षात भगवान विष्णु ने वहां जाकर विश्वमोहिनी स
े विवाह कर लीया, यह सब देखकर नारदजी को बड़ा क्रोध आया. काम के वश में तो वे पहले ही हो चके थे. अब क्रोध में आकर उन्होंने भगवान विष्णु को अनेक अपशब्द कहे और स्त्री-वियोग में विक्षिप्त सा होने का भी शाप दे दिया, तब भगवान ने अपनी माया दूर कर दी और विश्वमोहिनी के साथ लक्ष्मी भी लुप्त हो गई. तब नारदजी की बुद्धि भी शुद्ध और शांत हो गयी. उन्हें सारी बीती बाते ध्यान में आ गई. वे अत्यंत सभीत होकर भगवान विष्णु के चरणों में गिर पड़े और प्रार्थना करने लगे कि भगवान मेरा शाप मिथ्या हो जाये और मेरे पापो कि सीमा नहीं रही. क्योकि मैंने आपको अनेक दुर्वचन कहे
इस पर भगवान विष्णु ने कहा कि शिवजी मेरे सर्वाधिक प्रिय है, वे जिस पर कृपा नहीं करते है उसे मेरी भक्ति प्राप्त नहीं होती. अत: आप शिवशतनाम का जप कीजिये , इससे आपके सब दोष-पाप मिट जायेंगे और पूर्ण ज्ञान -वैराग्य तथा भक्ति की राशी सदा के लिए आपके हृदय में स्थित हो जाएगी
तब भगवान विष्णु ने अपने भगत नारद जी के श्राप को पूरा करने के लिए धरती पर श्री राम जी का अवतार लिए और माँ सीता के वियोग में श्राप को पूरा किया.

Friday, 7 September 2012

'' हनुमान जी की आयु:सीमा ''

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हनुमान जी की आयु:सीमा
हनुमान जी की आयु के रहस्य का विवेचन करना एक समस्या है, ऐसे तो ये अश्व्थामा , बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, क्रिपाचार्य, परशुराम और मार्कंडेय -- इन आठ चिरजिवियो में एकतम है. पर हनुमान जी को केवल चिरजीवी कहना पर्याप्त नहीं है - इन्हें नित्याजिवी अथवा अजर-अमर कहना भी असंगत नहीं, क्यों की लंका - विजय के पश्चात् हनुमान जी ने एकमात्र श्रीराम में सदा के लिए अपनी निश्छल भक्ति की याचना की थी और श्रीराम ने इन्हें ह्रदय से लगाकर कहा था - कपिश्रेष्ठ ऐसा ही होगा. संसार में मेरी कथा जबतक प्रचलित रहेगी, तब तक तुम्हारी कीर्ति भी अमित रहेगी और तुम्हारे शरीर में प्राण भी रहेंगे. तुमने मुझपर जो उपकार किये है, उनका बदला मै नहीं चूका सकता. इस प्रकार जब श्रीराम ने चिरकालतक संसार में प्रसन्नचित्त होकर जीवित रहने का इन्हें आशीर्वाद दिया, तब इन्होने भगवान से कहा - जबतक संसार में आपकी पावन कथा का प्रचार होता रहेगा, तबतक मै आपकी आज्ञा का पालन करता हुआ पृथ्वी पर रहूँगा. इंद्र से भी हनुमान जी को वरदान मिला था की इनकी मृत्यु तबतक नहीं होगी. जब तक स्वयं इन्हें मृत्यु की इच्छा नहीं होगी.भगवान श्री राम ने इनकी नैष्ठिक की भगति के कारण अत्यंत प्रसन्न होकर कहा - 'हनुमान! मै तुमसे अत्यंत प्रसन्न हु, तुम जो वर चाहो मांग लों, जो वर त्रिलोकी में देवताओं को भी मिलना दुर्लभ है, वह भी मै तुम्हे अवश्य दूंगा. तब हनुमान जी ने अत्यंत हर्षित होकर भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणिपात करके कहा - 'प्रभो! आपका नामस्मरण करते हुए मेरा मन तृप्त नहीं होता. अत: मै निरंतर आपके नाम का स्मरण करता हुआ पृथ्वी पर सथित रहूँगा. राजेन्द्र! मेरा मनोवांछित वर यही है की जब तक संसार मे आपका नाम सिथत रहे, तब तक मेरा शरीर भी विद्यमान रहे. इस पर भगवान श्रीराम ने कहा - ऐसा ही होगा, तुम जीवन्मुक्त होकर संसार में सुखपूर्वक रहो. कल्प का अंत होने पर तुम्हे मेरे सायुज्य की प्राप्ति होगी. इसमें संदेह नहीं.श्री राम जी के समान ही भगवती जानकी जी ने भी अपने सच्चे भक्त हनुमान जी को आशीर्वाद देते हुए कहा - मारुते! तुम जहाँ कही भी रहोगे, वही मेरी आज्ञा से सम्पूर्ण भोग तुम्हारे पास उपस्थित हो जायेंगे.इन प्रमाणों से ज्ञात होता है की हनुमान जी ना केवल चिरजीवी ही है , अपितु नित्याजिवी, इच्छा-मृत्यु तथा अजर-अमर भी है, भगवान श्रीराम उन्हें कल्प के अंत में सायुज्य मुक्ति का वरदान प्राप्त है, अत: उनकी अजरता-अमरता में कोई संशेय नहीं ... जनश्रुतियो से ज्ञात होता है आज भी वे अपने नैष्ठिक भक्त-उपासको को यदा-कदा जिस किसी रूप में दर्शन देते है

अब बोलिए श्री राम जी की

Monday, 3 September 2012

  एक बार नारद जी बैकुण्ठ गए| द्वार के बाहर उन्होंने एक रजिस्टर देखा. उसमें भक्तों की लिस्ट थी तो उसे खोल कर देखा तो उन्होंने देखा कि उनका नाम सबसे पहले था, तो वो बहुत खुश हुए. जब वापस जाने लगे तो रास्ते में हनुमान जी मिले. नारदजी ने कहा कि मै भगवान के पास से आ रहा हॅ. वहाँ भगवान के भक्तों की लिस्ट मे मेरा नाम सबसे उपर था और आपका नाम तो था ही नही.हनुमान जी कहते है- कि मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि मेरा नाम लिस्ट में ऊपर है कि नीचे है,या है भी कि नहीं. मै तो परमात्मा को याद कर रहा हूँ और उनकी कृपा मुझ पर बरस रही है । मेरे लिए यहीं काफी है .कुछ समय बाद नारद जी पुन: बैकुण्ठ गए, तो अंदर एक रजिस्टर और रखा था.नारदजी ने उसे खोला तो उसमें उनका नाम ही नही था. उसमें हनुमान जी का नाम सबसे उपर था , उन्होंने भगवान जी से पूछा कि ये क्या है । बाहर मेरा नाम सबसे ऊपर था अन्दर वाले में हनुमान जी का नाम सबसे पर है.भगवान जी ने कहा- कि नारद, जो बाहर वाला रजिस्टर है वो उन भक्तों का है जो मुझे याद करते है । और अंदर वाला रजिस्टर उन भक्तों का है जिन्हें मै याद करता हूँ ।कहने का तात्पर्य है कि हम तो भगवान को याद करते है पर हमे उस स्तर का बनना है कि उसकी दया हमें पर विशेष रूप से बरसे, और भगवान जी हमें याद करे. वो ही सच्चा भक्त है ।

Saturday, 1 September 2012

'' जो जाए बद्री, उसकी काया सुधरी ''

जो जाए बद्री, उसकी काय सुधरी
बद्रिकाश्रम अति दिव्या भूमि है, तपोभूमि है. जिसको लोग बद्रिकाश्रम कहते है, उसका मूल नाम विशाल क्षेत्र है, विशाल राजा ने वहां तपश्चर्या की थी. इसलिए उसे विशालाक्षेत्र कहते है, विशाल राजा को वहां प्रभु ने जब उनसे वरदान मांगने को कहा तब राजा ने कहा - नाथ! मै तुम्हारा सतत दर्शन करता रहू, यह वरदान दीजिये. प्रभु प्रसन्न हुए और अन्य अधिक कुछ मांगने को कहा - राजा ने कहा - हजारो वर्षो तक मैंने तपश्चर्या की तब आपके दर्शन हुए है, परन्तु प्रभु! ऍसी परीक्षा सबकी मात करना. इस क्षेत्र में मैंने तप किया है, यहाँ जो कोई तप करे उसे तुरंत आपके दर्शन हो जाया करे. प्रभु ने कहा - तथास्तु -- बद्रिकाश्रम की ऍसी महिमा है
भारत के प्रधान देव नारायण. सब अवतारों की समाप्ति होती है, इन नारायण की समाप्ति नहीं होती है होनी ही नहीं है, भारत की प्रजा का कल्याण करने के लिए नारायण आज भी तपश्चर्या करते है, बद्रीनारायण तप ध्यान का आदर्श जगत को बतलाते है, वे बतलाते है की मै इश्वर हु, फिर भी ध्यान तप करता हु, तपश्चर्या बिना शान्ति नहीं मिलती


पीछे फिर शंकराचार्य महाराज ने बद्रिकाश्रम में बद्रीनारायण भगवान की स्थापना की है. शंकराचार्य जी ने नर-नारायण के दर्शन किये, शंकराचार्य तो महान योगी थे. उन्हों ने भगवान से कहा - मैंने तो आपके दर्शन किये परन्तु कलियुग के भोगी मनुष्य भी आपके दर्शन कर सके ऍसी कृप्या करो
भगवान ने तब शंकराचार्य को आदेश दिया की बद्रीनारायण में नारायण -कुंड है, उसमे स्नान करो, वहां से तुमको मेरी जो मूर्ति मिले उसकी स्थापना करो, मेरी मूर्ति का जो दर्शन करेगा उनको मेरे प्रत्यक्ष दर्शन करने जितना फल मिलेगा. उसी के अनुसार श्री शंकराचार्य जी ने बद्रीनारायण भगवान की स्थापना की . जो जाए बद्री, उसकी काया  सुधरी
 
संजय मेहता