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Saturday, 29 September 2012

''भगवान विष्णु का स्वप्न ''

भगवान विष्णु का स्वप्न
एक बार भगवान नारायण अपने वैकुंठलोक में सोये हुए थे. स्वप्न में वो क्या देखते है कि करोड़ो चन्द्रमाओ कि कन्तिवाले, त्रिशूल-डमरू-धारी, स्वर्णाभरण -भूषित, संजय-वन्दित , अणिमादि सिद्धिसेवित त्रिलोचन भगवान शिव प्रेम और आनंदातिरेक से उन्मत होकर उनके सामने नृत्य कर रहे है, उन्हें देखकर भगवान विष्णु हर्ष-गदगद से सहसा शैयापर उठकर बैठ गये और कुछ देर तक ध्यानस्थ बैठे रहे. उन्हें इस प्रकार बैठे देखर श्री लक्ष्मी जी उनसे पूछने लगी कि "भगवन! आपके इस प्रकार उठ बैठने का क्या कारण है?"
भगवान ने कुछ देर तक उनके इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और आनंद में निमग्न हुए चुपचाप बैठे रहे. अंत में कुछ स्वस्थ होने पर वे गदगद-कंठ से इस प्रकार बोले - "हे देवि! मैंने अभी स्वप्न में भगवान श्री महेश्वर का दर्शन किया है, उनकी छबी ऍसी अपूर्व आनंदमय एवं मनोहर थी कि देखते ही बनती थी. मालूम होता है, शंकर ने मुझे स्मरण किया है. अहोभाग्य! चलो, कैलाश में चलकर हमलोग महादेव के दर्शन करते है .

यह कहकर दोनों कैलाश की और चल दिए. मुश्किल से आधी दूर ही गये होंगे की देखते है भगवान शंकर स्वयं गिरिजा के साथ उनकी और आ रहे है, अब भगवान के आनंद का क्या ठिकाना? मानो घर बैठे निधि मिल गई. पास आते ही दोनों परस्पर बड़े प्रेम से मिले. मानो प्रेम और आनंद का समुन्द्र उमड़ पड़ा. एक दुसरे को देखकर दोनों के नेत्रों से आन्दाश्रू बहने लगे और शरीर पुलकायमान हो गया. दोनों ही एक दुसरे से लिपटे हुए कुछ देर मुक्वत खड़े रहे. प्रश्नोतर होनेपर मालूम हुए की शंकर जी ने भी रात्रि में इसी प्रकार का स्वप्न देखा मानो विष्णु भगवान को वे उसी रूप में देख रहे है, जिस रूप में वे अब उनके सामने खड़े थे. दोनों के स्वप्न का वृतांत अवगत होने पर दोनों ही लगे एक दुसरे से अपने यहाँ लिवा ले जाने का आग्रह करने.. नारायण कहते वैकुण्ठ चलो और शम्भू कहते कैलाश की और प्रस्थान कीजिये. दोनों के आग्रह में इतना अलौकिक प्रेम था कि यह निर्णय करना कठिन हो गया कि कहाँ चला जाये?

इतने में ही क्या देखते है वीणा बजाते, हरिगुण गाते नारद जी कही से आ निकले. बस, फिर क्या था? लगे दोनों ही उनसे निर्णय कराने कि कहाँ चला जाये?

बेचारे नारद जी स्वयं परेशान थे उस अलौकिक मिलन को देखकर , वे तो स्वयं अपनी सुध-बुध भूल गये और लगे मस्त होकर दोनों का गुणगान करने. अब निर्णय कौन करे? अंत में यह तय हुई कि भगवती उमा जो कह दे वही ठीक है.

भगवती उमा पहले तो कुछ देर चुप रही, अंत में दोनों को लक्ष्य करके बोली -"हे नाथ! हे नारायण! आपलोगों के निश्छल, अनन्य एवम अलौकिक प्रेम को देखकर तो यही समझ में आता है कि आपके निवास-स्थान अलग-अलग नहीं है, जो कैलास है वही वैकुण्ठ है और जो वैकुण्ठ है वही कैलाश है, केवल नाम में ही भेद है. यही नहीं , मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि आपकी आत्मा भी एक ही है, केवल शरीर देखने में दो है. और तो और, मुझे तो अब यह स्पष्ट दिखने लगा ही आपके भार्याये भी एक ही है, दो नहीं. जो मै हु वही श्रीलक्ष्मी है और जो श्रीलक्ष्मी है वही मै हु.. केवल इतना ही नहीं, मेरी तो अब यह दृढ धारणा हो गई है कि आपलोगों में से एक के प्रति जो द्वेष करता है, वह मानो दुसरे के प्रति ही करता है, एक की जो पूजा करता है, वह स्वाभाविक ही दुसरे कि भी करता है और जो एक को अपूज्य मानता है वह दुसरे कि भी पूजा नहीं करता... मै तो यह समझती हु कि आप दोनों में जो भेद मानता है, उसका चिरकालतक घोर पतन होता है, मै देखती हु कि आप मुझे इस प्रसंग में अपना मध्यस्थ बनाकर मानो मेरी प्र्वच्चना कर रहे है, मुझे चक्कर में डाल रहे है, मुझे भुला रहे है. अब मेरी यह प्रार्थना है कि आपलोग दोनों ही अपने-अपने लोक को पधारिये .. श्रीविष्णु यह समझे कि हम शिवरूप में से वैकुण्ठ जा रहे है और महेश्वर यह माने कि हम विष्णुरूप से कैलाश गमन कर रहे है ..

इस उत्तर को सुनकर दोनों परम प्रसन्न हुए और भगवती उमा कि प्रशंसा करते हुए दोनों अपने अपने लोक को चले गये.

लौटकर जब विष्णु वैकुण्ठ पहुंचे तो श्री लक्ष्मी जी उनसे पूछने लगी कि - 'प्रभु! सबसे अधिक प्रिय आपको कौन है? इस पर भगवान बोले - 'प्रिय! मेरे प्रियतम केवल श्री शंकर है, देहधारियो को अपने देह कि भांति वे मुझे अकारण ही प्रिय है, एक बार मै और शंकर दोनों ही पृथ्वी पर घुमने निकले, मै अपने प्रियतम की खोज में इस आशय से निकला कि मेरी ही तरह जो अपने प्रियतम की खोज में देश-देशांतर में भटक रहा होगा, वही मुझे अकारण प्रिय होगा. थोड़ी देर के बाद ही मेरी श्री शंकर जी से भेंट हो गई. ज्यो ही हमलोगों की चार आँखे हुई कि हमलोग पुर्वजन्मअर्जित विद्या कि भांति एक दुसरे कि प्रति आक्रष्ट हो गये "वास्तव में मै ही जनार्दन हु. और मै ही महादेव हु, अलग-अलग दो घडो में रखे हुए जल कि भांति मुझमे और उनमे कोई अंतर नहीं है, शंकरजी के अतिरिक्त शिवकी अर्चा करनेवाला शिवभक्त भी मुझे अत्यंत प्रिय है, इसके विपरीत जो शिव कि पूजा नहीं करतेवे मुझे कदापि प्रिय नहीं हो सकते...
शिव-द्रोही वैष्णवों को और विष्णु-द्वेषी शैवोको इस प्रसंग पर ध्यान देना चाहिए..
अब बोलो जय माता दी जी . फिर से बोले जय माता दी. हर हर महादेव. जय जय श्री कृष्णा जय श्री नारायणा 


'' आज "गणपति" की बिदाई ''

आज "गणपति" की बिदाई होगी....! गजानन से अनुरोध की अपने सभी भक्त जन को सुख समृद्धि का आशीर्वाद देते जाये और सारे दुख साथ ले जाये....! मंगलकामनाये..

Friday, 28 September 2012

'' मत्स्य अवतार की कथा ''



मत्स्य अवतार की कथा :
कल्पांत के पूर्व एक पुण्यात्मा राजा तप कर रहा था। राजा का नाम सत्यव्रत था।सत्यव्रत पुण्यात्मा तो था ही, बड़े उदार ह्रदय का भी था। प्रभात का समय था।सूर्योदय हो चुका था। सत्यव्रत कृतमाला नदी में स्नान कर रहा था। उसने स्नानकरने के पश्चात जब तर्पण के लिए अंजलि में जल लिया, तो अंजलि में जल के साथ एकछोटी-सी मछली भी आ गई। सत्यव्रत ने मछली को नदी के जल में छोड़ दिया। मछलीबोली'राजन! जल के बड़े-बड़े जीव छोटे-छोटे जीवों को मारकर खा जाते हैं। अवश्य कोईबड़ा जीव मुझे भी मारकर खा जाएगा। कृपा करके मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए।'सत्यव्रत के ह्रदय में दया उत्पन्न हो उठी। उसने मछली को जल से भरे हुए अपने कमंडलु में डाल लिया। आश्चर्य! एक रात में मछली का शरीर इतना बढ़ गया कि कमंडलु उसके रहने के लिए छोटा पड़ने लगा। दूसरे दिन मछली सत्यव्रत से बोली।'राजन! मेरे रहने के लिए कोई दूसरा स्थान ढूंढ़िए, क्योंकि मेरा शरीर बढ़ गया है। मुझे घूमने-फिरने में बड़ा कष्ट होता है।' सत्यव्रत ने मछली को कमंडलु से निकालकर पानी से भरे हुए मटके में रख दिया। आश्चर्य! मछली का शरीर रात भर मेंही मटके में इतना बढ़ गया कि मटका भी उसके रहने कि लिए छोटा पड़ गया। दूसरेदिन मछली पुनः सत्यव्रत से बोली, 'राजन, मेरे रहने के लिए कहीं और प्रबंधकीजिए, क्योंकि मटका भी मेरे रहने के लिए छोटा पड़ रहा है।' तब सत्यव्रत नेमछली को निकालकर एक सरोवर में डालदिया , किंतु सरोवर भी मछली के लिए छोटा पड़गया। इसके बाद सत्यव्रत ने मछली को नदी में और फिर उसके बाद समुद्र में डालदिया। आश्चर्य! समुद्र में भी मछली का शरीर इतना अधिक बढ़ गया कि मछली के रहनेके लिए वह छोटा पड़ गया। अतः मछली पुनः सत्यव्रत से बोली, 'राजन! यह समुद्र भीमेरे रहने के लिए उपयुक्त नहीं है। मेरे रहने की व्यवस्था कहीं और कीजिए।'सत्यव्रत विस्मित हो उठा। उसने आज तक ऐसी मछली कभी नहीं देखी थी। वहविस्मय-भरे स्वर में बोला, 'मेरी बुद्धि को विस्मय के सागर में डुबो देने वालेआप कौन हैं? आप का शरीर जिस गति से प्रतिदिन बढ़ता है, उसे दृष्टि में रखतेहुए बिना किसी संदेह के कहा जा सकता है कि आप अवश्य परमात्मा हैं। यदि यह बातसत्य है, तो कृपा करके बताइए के आपने मत्स्य का रूप क्यों धारण किया है?'सचमुच, वह भगवान श्रीहरि ही थे। मत्स्य रूपधारी श्रीहरि ने उत्तर दिया, 'राजन!हयग्रीव नामक दैत्य ने वेदों को चुरा लिया है। जगत में चारों ओर अज्ञान औरअधर्म का अंधकार फैला हुआ है। मैंने हयग्रीव को मारने के लिए ही मत्स्य का रूपधारण किया है। आज से सातवें दिन पृथ्वी प्रलय के चक्र में फिर जाएगी। समुद्रउमड़ उठेगा। भयानक वृष्टि होगी। सारी पृथ्वी पानी में डूब जाएगी। जल केअतिरिक्त कहीं कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होगा। आपके पास एक नाव पहुंचेगी, आप सभीअनाजों और औषधियों के बीजों को लेकर सप्तॠषियों के साथ नाव पर बैठ जाइएगा। मैंउसी समय आपको पुनः दिखाई पड़ूंगा और आपको आत्मतत्व का ज्ञान प्रदान करूंगा।'सत्यव्रत उसी दिन से हरि का स्मरण करते हुए प्रलय की प्रतीक्षा करने लगे।सातवें दिन प्रलय का दृश्य उपस्थित हो उठा। उमड़कर अपनी सीमा से बाहर बहनेलगा। भयानक वृष्टि होने लगी। थोड़ी ही देर में जल ही जल हो गया। संपूर्णपृथ्वी जल में समा गई। उसी समय एक नाव दिखाई पड़ी। सत्यव्रत सप्तॠषियों के साथउस नाव पर बैठ गए, उन्होंने नाव के ऊपर संपूर्ण अनाजों और औषधियों के बीज भी भर लिए।नाव प्रलय के सागर में तैरने लगी। प्रलय के उस सागर में उस नाव के अतिरिक्तकहीं भी कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। सहसा मत्स्यरूपी भगवान प्रलय के सागरमें दिखाई पड़े। सत्यव्रत और सप्तर्षिगण मतस्य रूपी भगवान की प्रार्थना करनेलगे,'हे प्रभो! आप ही सृष्टि के आदि हैं, आप ही पालक है और आप ही रक्षक हीहैं। दया करके हमें अपनी शरण में लीजिए, हमारी रक्षा कीजिए।' सत्यव्रत औरसप्तॠषियों की प्रार्थना पर मत्स्यरूपी भगवान प्रसन्न हो उठे। उन्होंने अपनेवचन के अनुसार सत्यव्रत को आत्मज्ञान प्रदान किया, बताया,'सभी प्राणियों मेंमैं ही निवास करता हूं। न कोई ऊंच है, न नीच। सभी प्राणी एक समान हैं। जगतनश्वर है। नश्वर जगत में मेरे अतिरिक्त कहीं कुछ भी नहीं है। जो प्राणी मुझेसबमें देखता हुआ जीवन व्यतीत करता है, वह अंत में मुझमें ही मिल जाता है।'मत्स्य रूपी भगवान से आत्मज्ञान पाकर सत्यव्रत का जीवन धन्य हो उठा। वे जीतेजी ही जीवन मुक्त हो गए।
बोलिए मतस्य भगवान की .........जय ........। 




Wednesday, 26 September 2012



कल 28 सितम्बर को अनंत चतुर्दशी है |भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अनंत चतुर्दशी का व्रत किया जाता है। इस दिन अनंत के रूप में हरि की पूजा होती है। पुरुष दाएं तथा स्त्रियां बाएं हाथ में अनंत धारण करती हैं। अनंत राखी के समान रूई या रेशम के कुमकुम रंग में रंगे धागे होते हैं और उनमें चौदह गांठे होती हैं। इन्हीं धागों से अनंत का निर्माण होता है। यह व्यक्तिगत पूजा है, इसका कोई सामाजिक धार्मिक उत्सव नहीं होता।अग्नि पुराण में इसका विवरण है। व्रत करने वाले को धान के आटे से रोटियां या पूड़ी बनानी होती हैं, जिनकी आधी वह ब्राह्मण को दे देता है और शेष स्वयं प्रयोग में लाता है।इस दिन व्रती को चाहिए कि प्रात:काल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर कलश की स्थापना करें। कलश पर कुश से निर्मित अनंत की स्थापना की जाती है। इसके आगे कुंकूम, केसर या हल्दी से रंग कर बनाया हुआ कच्चे डोरे का चौदह गांठों वाला 'अनंत' भी रखा जाता हैयूं तो यह व्रत नदी-तट पर किया जाना चाहिए और हरि की लोककथाएं सुननी चाहिए। लेकिन संभव ना होने पर घर में ही स्थापित मंदिर के सामने हरि से इस प्रकार की प्रार्थना की जाती है- 'हे वासुदेव, इस अनंत संसार रूपी महासमुद्र में डूबे हुए लोगों की रक्षा करो तथा उन्हें अनंत के रूप का ध्यान करने में संलग्न करो, अनंत रूप वाले प्रभु तुम्हें नमस्कार है।'हरि की पूजा करके तथा अपने हाथ के ऊपरी भाग में या गले में धागा बांध कर या लटका कर (जिस पर मंत्र पढ़ा गया हो) व्रती अनंत व्रत को पूर्ण करता है। यदि हरि अनंत हैं तो 14 गांठें हरि द्वारा उत्पन्न 14 लोकों की प्रतीक हैं।अनंत चतुर्दशी पर कृष्ण द्वारा युधिष्ठिर से कही गई कौण्डिन्य एवं उसकी स्त्री सुशीला की क् था भी सुनाई जाती है।
 प्राचीन काल में सुमन्तु नाम के ब्राह्मण की परम सुन्दरी धर्म परायण तथा ज्योतिर्मयी सुशीला कन्या थी l ब्राह्मण ने उसका विवाह कौण्डिन्य ऋषी से कर दिया l कौण्डिन्य ऋषी सुशीला को लेकर अपने आश्रम की ओर चले तो रास्ते में ही रात हो गयी l वे एक नदी के तट पर रुक गए | सुबह उठाने पर उन्होंने देखा कि कुछ औरतें सुन्दर-सुन्दर वस्त्र धारण कर के किसी देवता की पूजा कर रही है l सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधि पूर्वक अनन्त व्रत की बात व महत्ता बता दी l सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान कर के चौदह गाँठो वाला डोरा हाथ मे बाँधा और अपने पति के पास आ गयी lकौण्डिन्य ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात स्पष्ट कर दी l कौण्डिन्य सुशीला की बातों से प्रसन्न नहीं हुए l उन्होंने डोरे को तोड़कर आग में जला दिया l यह अनन्त जी का अपमान था l परिणामत: कौण्डिन्य मुनि दुखी रहने लगे l उनकी सारी सम्पत्ती नष्ट हो गयी l इस दरिद्रता का कारण पूछने पर सुशीला ने डोरे जलाने की बात दोहराई l पश्चाताप करते हुए ऋषी अनन्त की प्राप्ति के लिए वन में निकल गये l जब वे भटकते -भटकते निराश होकर गिर पड़े तब अनन्त जी प्रकट होकर बोले -'हे कौण्डिन्य ! मेरे तिरस्कार के कारण ही तुम दुखी हुए l तुमने पश्चाताप किया है l मै प्रसन्न हूँ l घर जाकर विधि पूर्वक अनन्त व्रत करो l चौदह वर्ष पर्यान्त व्रत कर ने से तुम्हारा दुःख दूर हो जाएगा l तुम्हे अनन्त सम्पत्ती मिलेगी |कौण्डिन्य ने वैसा ही किया l उन्हें सारे क्लेशों से मुक्ति मिल गयी l श्री कृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठर ने भी अनन्त -भगवान् का व्रत किया जिसके प्रभाव से पाण्डव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए तथा चिर काल तक निष्कंठक राज्य करते रहे कृष्ण का कथन है कि 'अनंत' उनके रूपों का एक रूप है और वे काल हैं जिसे अनंत कहा जाता है। अनंत व्रत चंदन, धूप, पुष्प, नैवेद्य के उपचारों के साथ किया जाता है। इस व्रत के विषय में कहा जाता है कि यह व्रत 14 वर्षों तक किया जाए, तो व्रती विष्णु लोक की प्राप्ति कर सकता है।

'' भगवान वामन की कथा ''





आज (26.09.2012) वामन द्वादशी है। इस दिन भगवान विष्णु के वामन स्वरूप की पूजा की जाती है और व्रत रखा जाता है। भगवान वामन की कथा इस प्रकार है -सत्ययुग में प्रह्लाद के पौत्र दैत्यराज बलि ने स्वर्गलोक पर अधिकार कर लिया। सभी देवता इस विपत्ति से बचने के लिए भगवान विष्णु के पास गए। तब भगवान विष्णु ने कहा कि मैं स्वयं देवमाता अदिति के गर्भ से उत्पन्न होकर तुम्हें स्वर्ग का राज्य दिलाऊँगा। कुछ समय पश्चात भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया। राजा बली बड़े पराक्रमी और दानी थे। भगवान के वे बड़े भक्त भी थे, लेकिन उन्हें बहुत ही घमंडी था। एक बार जब बलि महान यज्ञ कर रहा था, तब भगवान के मन में राजा बली की परीक्षा लेने की सूझी और वामन अवतार लेकर उसके यज्ञ में पहुँच गए l जैसे ही वे राजा बली के यज्ञ स्थल पर गए, वे उनसे बहुत प्रभावित हुए और भगवान के आकर्षक रूप को देखते हुए उन्हें उचितस्थान दिया। अंत में जब दान की बारी आई, तो राजा बली ने भगवान के वामन अवतार से दान माँगने के लिए कहा और तब वामन भवन ने राजा बलि से तीन पग धरती दान में मांगी। तब राजा बली मुस्कुराए और बोले तीन पग जमीन तो बहुत छोटा-सा दान है। महाराज और कोई बड़ा दान माँग लीजिए, पर भगवान के वामन अवतार ने उनसे तीन पग जमीन ही माँगी। राजा बलि के गुरु शुक्राचार्य भगवान की लीला समझ गए और उन्होंने बलि को दान देने से मना कर दिया लेकिन बलि ने फिर भी भगवान वामन को तीन पग धरती दान देने का संकल्प ले लिया। भगवान वामन ने विशाल रूप धारण कर एक पग में धरती और दूसरे पग में स्वर्ग लोक नाप लिया। तब भगवान ने बली से पूछा कि अपना तीसरा पग कहाँ रखूँ ?जब तीसरा पग रखने के लिए कोई स्थान नहीं बचा तो बलि ने महादानी होने का परिचय देते हुए भगवान वामन को अपने सिर पर पग रखने को कहा। बलि के सिर पर पग रखने से वह सुतललोक पहुंच गया। बलि की दानवीरता देखकर भगवान ने उसे सुतललोक का स्वामी भी बना दिया। इस तरह भगवान वामन ने देवताओं की सहायता कर उन्हें स्वर्ग पुन: लौटाया।
इस कथा के अनुसार हमें इस बात का ज्ञान रखना बहुत जरूरी है कि कभी-कभी लोगों का घमंड चूर करने के लिए भगवान को भी अवतार लेना पड़ता है। अत: हमें कभी भी धनवान होने का घमंड नहीं करना चाहिए।
पूजन मंत्र
देवेश्वराय देवश्य, देव संभूति कारिणे। प्रभावे सर्व देवानां वामनाय नमो नमः।।
अर्ध्य मंत्र
नमस्ते पदमनाभाय नमस्ते जलः शायिने तुभ्यमर्च्य प्रयच्छामि वाल यामन अप्रिणे।। नमः शांग धनुर्याण पाठ्ये वामनाय च। यज्ञभुव फलदा त्रेच वामनाय नमो नमः।।
व्रत विधि
वामन द्वादशी का व्रत करने वाले व्रती को चाहिए कि द्वादशी को दोपहर के समय स्वर्ण या यज्ञोपवित से बनाकर वामन भगवान की प्रतिमा स्थापित कर सुवर्ण पात्र अथवा मिट्टी के पात्र में षोडशोपचारपूर्वक पूजन करें तथा वामन भगवान की कथा सुनें, अर्ध्य दान करें, फल, फूल चढ़ावे तथा उपवास करें। तदुपरांत मिट्टी के पात्र में दही, चावल एवं शक्कर रखकर ब्राह्मण को माला, गउमुखी, कमण्डल, लाठी, आसन, गीता, फल, छाता, खडाऊ तथा दक्षिणा सहित सम्मान सहित विदा करे। इस दिन फलाहार कर दूसरे दिन त्रयोदशी को व्रत पारण करें। शास्त्रों के अनुसार इस तिथि को विधि-विधान पूर्वक व्रत करने से सुख, आनंद, मनोवांछित फल तथा स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

Monday, 24 September 2012

हनुमानजी को सिन्दूर चढाने कि परंपरा क्यों?







हनुमानजी को सिन्दूर चढाने कि परंपरा क्यों?
अदभुत रामायण में एक कथा का उल्लेख मिलता है, जिसमे मंगलवार कि सुबह जब हनुमानजी को भूख लगी, तो वे माता जानकी के पास कुछ कलेवा पाने की लिए पहुंचे . सीता माता की मांग में लगा सिन्दूर देखकर हनुमानजी ने उनसे आश्चर्यपूर्वक पूछा - "माता! मांग में आपने यह कौन सा लाल द्रव्य लगया है"?
इस पर सीता माता जी ने प्रस्न्न्तापूर्वक कहा - "पुत्र! यह सुहागिन स्त्रियों का प्रतीक, मंगल सूचक, सौभाग्यवर्द्धक सिन्दूर है. जो स्वामी के दीर्घायु के लिए जीवनपर्यत मांग में लगाया जाता है, इससे वे मुझ पर प्रसन्न रहते है"
हनुमानजी ने यह जानकार विचार किया कि जब अंगुली भर सिन्दूर लगाने से स्वामी कि आयु में वृद्धि होती है, तो फिर क्यों ना सारे शरीर पर इसे लगाकर अपने स्वामी भगवान श्रीराम को अजर-अमर कर दू. उन्होंने जैसा सोचा, वैसा ही कर दिखाया. अपने सारे शरीर पर सिन्दूर पोतकर भगवान

श्रीराम कि सभा में पहुंचे... उन्हें इस प्रकार सिन्दूरी रंग में रंगा देखकर सभा में उपस्थित सभी लोग हँसे, यहाँ तक कि भगवान राम भी उन्हें देखकर मुस्कराए और बहुत प्रसन्न हुए. उनके सरल भाव पर मुग्ध होकर उन्हों ने यह घोषणा की कि जो मंगलवार के दिन मेरे अनन्य प्रिय हनुमान को तेल और सिन्दूर चढ़ाएगा , उन्हें मेरी प्रसन्नता प्राप्त होगी और उनकी समस्त मनोकामनाए पूर्ण होगी . इस पर माता जानकी के वचनों में हनुमानजी को और भी अधिक दृढ विश्वास हो गया.
कहा जाता है कि उसी समय से भगवान श्रीराम के प्रति हनुमानजी कि अनुपम स्वामिभक्ति को याद करने के लिए उनके सारे शरीर पर चमेली के तेल में घोलकर सिन्दूर लगाया जाता है. इसे चोला चढ़ाना भी कहते है .

सर्वप्रथम गणेश का ही पूजन क्यों?




                       सर्वप्रथम गणेश का ही पूजन क्यों?
हिन्दू धर्म में किसी भी शुभ कार्य का आरम्भ करने के पूर्व गणेश जी कि पूजा करना आवश्यक माना गया है. क्यों कि उन्हें विघ्नहर्ता व् रिद्धि - सिद्धि का स्वामी कहा जाता है. इनके स्मरण, ध्यान, जप, आराधना से कामनाओं कि पूर्ति होती है व् विघ्नों का विनाश होता है. वे शीघ्र प्रसन होने वाले बुद्धि के अधिष्ठाता और साक्षात प्रणव रूप है, प्रत्येक शुभ कार्य के पूर्व "श्री गणेशाय नम:" का उच्चारण कर उनकी स्तुति में यह मन्त्र बोला जाता है.

वक्र्तुण्ड् महाकाय कोटि सूर्य समप्रभ्:।
निर्विघ्न कुरु मे देव सर्व कायेर्षु सर्वदा ।।


पद्मपुराण के अनुसार :- सृष्टि के आरम्भ में जब यह प्रशन उठा कि प्रथम पूज्य किसे माना जाये, तो समस्त देवतागण ब्रह्माजी के पास पहुंचे . ब्रह्माजी ने कहा जो कोई सम्पूर्ण पृथ्वी कि परिक्रमा सबसे पहले कर लेगा, उसे ही प्रथम पूजा जायेगा. इस पर सभी देवतागण अपने - अपने वाहनों पर सवार होकर परिक्रमा हेतु चल पड़े. चुकी गणेशजी का वाहन चूहा है और उनका शरीर स्थूल, तो ऐसे में वे परिक्रमा कैसे कर पाते? इस समस्या को सुलझाया देवरिषि नारद जी ने , उनके अनुसार गणेश जी ने भूमि पर "राम" नाम लिखकर उनकी सात परिक्रमा कि और ब्रह्माजी के पास सबसे पहले पहुँच गये. तब ब्रह्माजी ने उन्हें प्रथम पुज्य बताया.. क्युकि "राम" नाम साक्षात श्रीराम का स्वरूप है और श्रीराम में ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड निहित है. हालाकि किसी किसी पुराण में उन्हों ने अपने माता -पिता की परिक्रमा की यह बतया है. राम-शिव दोनों ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड है ... ब्रह्माजी ने कहा माता -पिता की परिक्रमा "राम" नाम की परिक्रमा से तीनो लोको की परिक्रमा का पुण्य तुम्हे मिल गया, जो पृथ्वी की परिक्रमा से भी बड़ा है. इसलिए जो मनुष्य किसी कार्य के शुभारंभ से पहले तुम्हारा पूजन करेगा, उसे कोई बाधा नहीं आएगी. बस, तभी से गणेश जी अग्रपूज्य हो गए...एक बार देवताओं ने गोमती के तट पर यज्ञ प्रारंभ किया तो उसमे अनेक विघन पड़ने लगे. यज्ञ सम्पन्न नहीं हो सका. उदास होकर देवताओ ने ब्रह्मा और विष्णु से इसका कारण पूछा, दयामय चतुरानन ने पता लगाकर बतया की इस यज्ञ में श्री गणेशजी विघन उपस्थित कर रहे है, यदि आप लोग विनायक को प्रसन्न कर ले , तब यज्ञ पूर्ण हो जायेगा. विधाता की सलाह से देवताओं ने स्नान कर श्रद्धा , भक्ति पूर्वक गणेशजी का पूजन किया. विघनराज गणेशजी की कृपा से यज्ञ निर्विघन सम्पन्न हुआ.. उल्लेखनीय है की महादेव जी ने भी त्रिपुर वध के समय पहले गणेशजी का पूजन किया था..
अब बोलिए जय गणेश काटो कलेश. जय माता दी जी