राधा श्री राधा रटूं, निसि-निसि आठों याम , जा उर श्री राधा बसै, सोइ हमारो धाम

जब-जब इस धराधाम पर प्रभु अवतरित हुए हैं उनके साथ साथ उनकी
आह्लादिनी शक्ति भी उनके साथ ही रही हैं। स्वयं श्री भगवान ने श्री राधा जी
से कहा है - "हे राधे! जिस प्रकार तुम ब्रज में श्री राधिका रूप से रहती
हो, उसी प्रकार क्षीरसागर में श्री महालक्ष्मी, ब्रह्मलोक में सरस्वती और
कैलाश पर्वत पर श्री पार्वती के रूप में विराजमान हो।" भगवान के दिव्य लीला
विग्रहों का प्राकट्य ही वास्तव में अपनी आराध्या श्री राधा जू के निमित्त
ही हुआ है। श्री राधा जू प्रेममयी हैं और भगवान श्री कृष्ण आनन्दमय हैं।
जहाँ आनन्द है वहीं प्रेम है और जहाँ प्रेम है वहीं आनन्द है। आनन्द-रस-सार
का धनीभूत विग्रह स्वयं श्री कृष्ण हैं और प्रेम-रस-सार की धनीभूत श्री
राधारानी हैं अत: श्री राधा रानी और श्री कृष्ण एक ही हैं। श्रीमद्भागवत्
में श्री राधा का नाम प्रकट रूप में नहीं आया है, यह सत्य है। किन्तु वह
उसमें उसी प्रकार विद्यमान है जैसे शरीर में आत्मा। प्रेम-रस-सार चिन्तामणि
श्री राधा जी का अस्तित्व आनन्द-रस-सार श्री कृष्ण की दिव्य प्रेम लीला को
प्रकट करता है। श्री राधा रानी महाभावरूपा हैं और वह नित्य निरंतर
आनन्द-रस-सार, रस-राज, अनन्त सौन्दर्य, अनन्त ऐश्वर्य, माधुर्य,
लावण्यनिधि, सच्चिदानन्द स्वरूप श्री कृष्ण को आनन्द प्रदान करती हैं। श्री
कृष्ण और श्री राधारानी सदा अभिन्न हैं। श्री कृष्ण कहते हैं - "जो तुम हो
वही मैं हूँ हम दोनों में किंचित भी भेद नहीं हैं। जैसे दूध में श्वेतता,
अग्नि में दाहशक्ति और पृथ्वी में गंध रहती हैं उसी प्रकार मैं सदा
तुम्हारे स्वरूप में विराजमान रहता हूँ।"
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