Sponcered Links

Friday, 31 August 2012

''शिवनाम''

हिन्दू धर्म में भगवान शिव को अनेक नामों से पुकारा जाता है
रूद्र - रूद्र से अभिप्राय जो दुखों का निर्माण व नाश करता है।
पशुपतिनाथ - भगवान शिव को पशुपति इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह पशु पक्षियों व जीवआत्माओं के स्वामी हैं

अर्धनारीश्वर - शिव और शक्ति के मिलन से अर्धनारीश्वर नाम प्रचलित हुआ।
महादेव - महादेव का अर्थ है महान ईश्वरीय शक्ति।
भोला - भोले का अर्थ है कोमल हृदय, दयालु व आसानी से माफ करने वाला। यह विश्वास किया जाता है कि भगवान शंकर आसानी से किसी पर भी प्रसन्न हो जाते हैं।
लिंगम - यह रोशनी की लौ व पूरे ब्रह्मांड का प्रतीक है।
नटराज - नटराज को नृत्य का देवता मानते है क्योंकि भगवान शिव तांडव नृत्य के प्रेमी हैं
''भोले नाथ से निराला कोई और नही  
गौरीनाथ से निराला कोई और नही ''                                                   
                                                                                                       राधिका गोस्वामी 

Thursday, 30 August 2012

'' सुख - दुःख ''


सुख - दुःख :-
तुम्हे भक्ति करनी हो तो भगवान से कहना कि मेरे जीवन में एकाध , दो तो दुःख मुझको देना. मुझको बहुत सुख मत देना, भागवत में कथा आती है कि कुंती जी ने परमात्मा से दुःख माँगा था. " हे नाथ! हमको पग-पग पर विपित्तिया आती रहे, ऐसा मे तुमसे मांगती हु. कारण कि विपिती में ही तुम्हारा स्मरण होता है. स्मरण से तुम्हारे दर्शन होते है और तुम्हारे दर्शन हो तो जन्म-मृत्यु के चक्कर में आना नहीं पड़ता "
यह जीव सब प्रकार से सुखी हो - यह ठीक नहीं. एकाध दुःख तो मनुष्य के जीवन में होना ही चाहिए जिससे दुःख में इसको विश्वास हो "भगवान के बिना मेरा कोई नहीं" सगे-सम्बन्धी का प्रेम कपट से भरा हुआ है, उसकी खबर दुःख में ही पड़ती है .
जीवन में दुःख होवे तो मनुष्य दीन बनता है. मनुष्य बहुत सुख पचा नहीं सकता. मनुष्य को बहुत सुख मिले तो ये प्रमादी होता है, बहुत सुख में यह भान भूल जाता है, सब प्रकार से सुखी हो तो वह भान जल्दी भूलता है, विलासी हो जाता है, अभिमानी हो जाता है, भगवान को भूल जाता है, अनेक प्रकार के दुर्गुण उसमे आ जाते है, अंत में उसका पतन हो

जाता है
भगवान किसी समय प्रेमभरी दृष्टि से जीव का आकर्षण करते है, तो किसी समय मनुष्य के जीवन में दुःख प्रसंग खड़े करके उसको स्वयं कि तरफ खींचते है, जीव के कल्याण के लिए भगवान दुःख खड़ा करते है. कितने ही लोग ऐसा समझते है -"मै वैष्णव हु, सेवा करता हु, गरीबो का सम्मान करता हु, इसलिए मुझे कभी बुखार नहीं आवेगा, मेरा शरीर नहीं बिगड़ेगा, मुझे कोई दुःख नहीं होगा. ऍसी समझ सत्य नहीं है.
अनेक बार ऐसा होता है कि अति दुःख में शान्ति से बैठकर परमात्मा का स्मरण करे, तब उसकी बुद्धि में वह ज्ञान स्फुरण होता है - जो अनेक ग्रंथो के पढने पर इसे नहीं मिल पाता. दुःख में चतुरता आती है, साधरण मनुष्य को बहुत सुख में चतुरता आती है नहीं.
जीव जगत में आता है तब पाप और पुण्य दोनों लेकर आता है, पुण्य का फल सुख है और पाप का फल दुःख है, ऐसा कोई जीव नहीं जो अकेले पुण्य लेकर ही आया हो. सब ही पाप और पुण्य - दोनों लेकर आये होते है. और इस प्रकार से सबको सुख और दुःख - दोनों प्राप्त होते है. सभी अनुकूलता मुझको मिलनी चाहिए ऐसे आशा रखी व्यर्थ है
                                                                                         
 
                  

Tuesday, 28 August 2012

'' संत नामदेव जी ''


संत  नामदेव जी   महाराष्ट्र के महान संत थे , परन्तु इनके मन में सूक्ष्म अभिमान घर कर गया था कि भगवान मेरे साथ बाते करते है, ये बिंठोबाजी के साथ बाते करते थे, एक बार ऐसा हुआ कि महाराष्ट्र में संतमण्डली एकत्रित हुए तब मुक्ताबाई ने गोरा कुम्हार से कहा - इन संतो कि परीक्षा करो, इनमे पक्का कौन है ? और कच्चा कौन है

गौर कुम्हार ने सभी के मस्तक पर ठीकरा मारकर परीक्षा करने का निश्च्च्य किया, किसी भक्त ने मुह नहीं बिगाड़ा. परन्तु नामदेव के माथे पर ठीकरा मारा गया तो नामदेव जी ने मुह बिगाड़ा. उनको अभिमान हुआ कि कुम्हार द्वारा घड़े कि परीक्षा किये जाने कि रीति से क्या मेरी परीक्षा होगी?

गोरा काका ने नामदेव जी से कहा - सबका माथा पक्का है, एक तुम्हारा माथा कच्चा है. तुम्हारा माथा पक्का नहीं, तुमको गुरु कि आवश्यकता है. तुमने अभी तक व्यापक ब्रह्म का अनुभव नहीं किया
नामदेव जी ने बिंठोबाजी से फरियाद कि, बिंठोबाजी ने कहा कि गोराभक्त जो कहते है वह सच है, तुम्हारा मस्तक कच्चा है, मंगलबेडा में मेरा एक भक्त बिसोबा ख्नचर है, उसके पास तू जा , वह तुझे ज्ञान देंगे. नामदेव जी बिसोबा खेंचर के पास गये, उस समय बिसोबा शिवजी के मंदिर में थे. नामदेव महादेव जी के मंदिर में गये. वहा जाकर देखा कि बिसोबा खेंचर शिवलिंग के उपर पैर रखकर सों रहे थे. बिसोबा को मालूम हो गया था के नामदेव जी आ रहे है, इसलिए उनके ज्ञान-चक्षु खोलने के लिए उन्हों
ने ऐसा काम किया था.

नामदेव जी नाराज हुए, उन्हों ने बिसोबा को शिवलिंग के उपर अपना पैर हटाने को कहा, बिसोबा ने कहा - तू ही मेरा पैर शिवलिंग के उपर से उठाकर किसी ऐसे स्थान पर रख, जहा शिवजी ना हो. नामदेव जहा बिसोबा का पैर रखने लगे वही -वही शिवजी प्रगट होने लगे. समस्त मंदिर शिवलिंगों से भर गया.

नामदेव को आश्चर्य हुआ . तब बिसोबा जी ने कहा - गोराकाका ने कहा था कि तेरी हांडी कच्ची है वह ठीक है, तुम्हे हर जगह इश्वर दीखते नहीं, बिठोबा सर्वत्र विराजे हुए है, तू सबमे इश्वर को देख

भक्ति को ज्ञान के साथ भजो. नामदेव जी को सबमे विठोबाजी दिखने लगे. नामदेव जी वहा से वापिस आकर मार्ग में एक वृक्ष के नीचे खाने बैठे. वहा एक कुत्ता आया और रोटी उठाकर ले जाने लगा. अब तो नामदेव जी को कुत्ते में भी बिट्ठल दीखते, रोटी रुखी थी, नामदेव जी घी कि कटोरी लेकर कुत्ते के पीछे दौड़े , पुकारकर कहने लगे - बिट्ठल जी खड़े रहो, रोटी सुखी है, घी चुपड़ दू नामदेव जी को अब सच्चा ज्ञान प्राप्त हो चूका था. नामदेव जी जैसे संत को भी ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु बनाना पड़ा.

Sunday, 26 August 2012

'' रावन की सोने की लंका ''


एक बार माँ पार्वती और भोले नाथ जी बैठे हुए थे तो माँ पार्वती ने बाबा से कहा की भोले नाथ आप कैलाश पे और शमशानों में रहते हो जबकि आप देवो के देव महादेव हैं सब कुछ होते हुए भी आप इन वनों में रहते हो तो बाबा ने कहा की पार्वती हम बैरागी हैं हमें क्या लेना महलों में रहकर तो माँ पार्वती ने इस बात का हठ किया की नहीं मुझे भी एक ऐसा महल चहिये जो इन्
द्र के स्वर्ग से और तीनो लोको से सुन्दर हो तो बाबा ने उन्हें बहुत समझाया की पार्वती हम कैलाश में ही ठीक हैं हमें महलों से कोई मोंह नहीं है लेकिन माँ पार्वती नहीं मानी और इस बात का हठ करती रही की मुझे भी महलों में रहना है तो माँ पार्वती के इस हठ को देखकर बाबा ने कहा तो ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा फिर बाबा ने भगवान विशवकर्मा जी को बुलाया और उनसे कहा की हमारे लिए एक सोने का महल बनाओ जिसकी शोभा तीनो लोको में और कहीं न हो तब विशवकर्मा जी ने ख़ुशी ख़ुशी से एक सोने का महल बना दिया फिर बाबा ने माँ को कहा की पार्वती अब हम इसमें तब परवेश करेंगे जब इसकी ग्रेह परविष्टा हो जाए

गी तब बाबा ने उस महल की ग्रेह परविष्टा करवाई बड़ी धूम धाम से उस महल की ग्रेह परविष्टा की गई सभी देवी देवता वहां पे आये हुए थे और उस महल की सुन्दरता को देख कर खुश हो रहे थे लेकिन जिस ऋषि ने उस महल की ग्रेह परविष्टा की थी जब बाबा ने उनसे ये पुछा की मांगो आपको क्या चाहिए दान में तो उन्होंने दान में बाबा से वो सोने का महल ही मांग लिया और बाबा ने खुश होकर उन्हें तथाअस्तु बोल दिया ये देखकर माँ पार्वती बहुत क्रोधित हुई और उन्होंने उस ऋषि को ये शाप दिया की तुमने भोलेनाथ के भोले पन का फाएदा उठाया है और हमसे ये महल मांगकर हमें घर से बेघर किया है और मैं तुम्हे ये शाप देती हूँ की जिस महल को तुमने हमसे माँगा है तेरे इसी महल को शिव के 11 वें अवतार के हाथो जलना होगा अर्थात की शिव का 11 वां अवतार तेरे इस महल को जलाकर भस्सम कर देगा और फिर जब शिव के 11 अवतार हनुमान जी का जनम हुआ तब उस ऋषि के पुत्र रावन ने हनुमान जी की पूँछ में आग लगाईं थी और हनुमान जी ने रावन की सोने की लंका को जलाकर भस्सम कर दिया था,रावन ये अच्छी तरह से जानता था की उसका विनाश श्री राम के हाथों से ही होना है लेकिन वो भी श्री राम जी के हाथों से मुक्ति प्राप्त करना चाहता था इसलिए सब कुछ जान कर भी उसने श्री राम जी से बैर किया और उनके हाथों से रावण का विनाश हुआ और जब रावन का विनाश हुआ था तो उस वक़्त रावन के मूंह से सिर्फ येही शब्द निकला था की श्री राम श्री राम ==

                                                                                                             राधिका गोस्वामी

'' श्रीकृष्ण और सुदामाजी ''


भगवान श्रीकृष्ण जब अवन्ती में महर्षि सान्दीपनि के यहाँ शिक्षा प्राप्त करने के लिये गये, तब सुदामा जी भी वहीं पढ़ते थे। वहाँ भगवान श्रीकृष्ण से सुदामा जी की गहरी मित्रता हो गयी। भगवान श्रीकृष्ण तो बहुत थोड़े दिनों में अपनी शिक्षा पूर्ण करके चले गये। सुदामा जी की जब शिक्षा पूर्ण हुई, तब गुरुदेव की आज्ञा लेकर वे भी अपनी जन्मभूमि को लौट गये और विवाह करके गृहस्थाश्रम में रहने लगे। दरिद्रता तो जैसे सुदामा जी की चिरसंगिनी ही थी। एक टूटी झोपड़ी, दो-चार पात्र और लज्जा ढकने के लिये कुछ मैले और चिथड़े वस्त्र- सुदामाजी की कुल इतनी ही गृहस्थी थी। जन्म से संतोषी सुदामा जी किसी से कुछ माँगते नहीं थे। जो कुछ बिना माँगे मिल जाय, उसी को भगवान को अर्पण करके उसी पर अपना तथा पत्नी का जीवन निर्वाह करते थे। प्राय: पति-पत्नी को उपवास ही करना पड़ता था।सुदामाजी प्राय: नित्य ही भगवान श्रीकृष्ण की उदारता और उनसे अपनी मित्रता की पत्नी से चर्चा किया करते थे। एक दिन डरते-डरते सुदामा की पत्नी ने उनसे कहा- 'स्वामी! ब्राह्मणों के परम भक्त साक्षात लक्ष्मीपति श्रीकृष्णचन्द्र आपके मित्र हैं। आप एक बार उनके पास जायँ। आप दरिद्रता के कारण अपार कष्ट पा रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण आपको अवश्य ही प्रचुर धन देंगे।'ब्राह्मणी के आग्रह को स्वीकार कर श्रीकृष्ण दर्शन की लालसा मन में सँजोये हुए सुदामा जी कई दिनों की यात्रा करके द्वारका पहुँचे। चिथड़े लपेटे कंगाल ब्राह्मण को देखकर द्वारपाल को आश्चर्य हुआ। ब्राह्मण जानकर उसने सुदामा को प्रणाम किया। जब सुदामा ने अपने-आपको भगवान का मित्र बतलाया तब वह आश्चर्यचकित रह गया। नियमानुसार सुदामा को द्वार पर ठहराकर द्वारपाल भीतर आदेश लेने गया। द्वारपाल श्रद्धापूर्वक प्रभु को साष्टांग प्रणाम करके बोला— 'प्रभो! चिथड़े लपेटे द्वार पर एक अत्यन्त दीन और दुर्बल ब्राह्मण खड़ा है। वह अपने को प्रभु का मित्र कहता है और अपना नाम सुदामा बतलाता है।''सुदामा' शब्द सुनते ही भगवान श्रीकृष्ण ने जैसे अपनी सुध-बुध खो दी और नंगे पाँव दौड़ पड़े द्वार की ओर। दोनों बाहें फैलाकर उन्होंने सुदामा को हृदय से लगा लिया। भगवान की दीनवत्सलता देखकर सुदामा की आँखें बरस पड़ी। तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण सुदामा को अपने महल में ले गये। उन्होंने बचपन के प्रिय सखा को अपने पलंग पर बैठाकर उनका चरण धोना प्रारम्भ किया। सुदामा की दीन-दशा को देखकर चरण धोने के लिये रखे गये जल को स्पर्श करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। करुणा सागर के नेत्रों की वर्षा से ही मित्र के पैर धुल गये। *भोजनोपरान्त भगवान श्रीकृष्ण ने हँसते हुए सुदामा जी से पूछा- 'भाई! आप मेरे लिये क्या भेंट लाये हैं? अतुल ऐश्वर्य के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण को पत्नी के द्वारा प्रदत्त शुष्क चिउरे देने में सुदामा संकोच कर रहे थे। भगवान ने कहा- 'मित्र! आप मुझसे ज़रूर कुछ छिपा रहे हो' ऐसा कहते हुए उन्होंने सुदामा की पोटली खींच ली और एक मुठी चिउरे मुख में डालते हुए भगवान ने उससे सम्पूर्ण विश्व को तृप्त कर दिया। अब सुदामा जी साधारण ग़रीब ब्राह्मण नहीं रहे। उनके अनजान में ही भगवान ने उन्हें अतुल ऐश्वर्य का स्वामी बना दिया। घर वापस लौटने पर देव दुर्लभ सम्पत्ति सुदामा की प्रतीक्षा में तैयार मिली, किंतु सुदामा जी ऐश्वर्य पाकर भी अनासक्त मन से भगवान के भजन में लगे रहे। करुणा सिन्धु के दीनसखा सुदामा ब्रह्मत्व को प्राप्त हुए।

Friday, 24 August 2012

'' राजा परीक्षित की कथा ''


राजा परीक्षित अर्जुन के पोते तथा अभिमन्यु के पुत्र थे , संसार सागर से पार करने वाली नौका स्वरूप भागवत का प्रचार इन्ही के द्वारा हुआ. पांड्वो ने संसार त्याग करते समय इनका राज्याभिषेक किया . इन्हों ने निति के अनुसार पुत्र के समान प्रजा का पालन किया, एक समय यह दिग्विजिय करने को निकले इन्हों ने देखा एक आदमी बैल को मार रहा है, वह आदमी जो की वास्तव में कलियुग था. उसको इन्होने तलवार खींचकर आज्ञा दी की यदि तुझे अपना जीवन प्यारा है तो मेरे राज्य से बाहर हो जा. तब कलियुग ने डरकर हाथ जोड़कर पूछा कि महाराज समस्त संसार में आपका ही राज्य है फिर मै कहा जाकर रहू. राजा ने कहा जहाँ. मदिरा, जुआ, जीवहिंसा, वैश्या और सुवर्ण इन पांचो स्थानों पर जाकर रह.

एक बार राजा सुवर्ण का मुकुट पहनकर आखेट खेलने के लिए गये, वहां प्यास लगने पर घूमते घूमते शमीक ऋषि के आश्रम पर पहुंचकर जल माँगा. उस समय ऋषि समाधि लगाये हुए बैठे थे, इस कारण कुछ भी उत्तर नहीं दिया, राजा के सुवर्ण मुकुट में कलियुग का वास था. उससे इनको क्यों सूझी की ऋषि घमंड के मारे मुझसे नहीं बोलता है. इन्होने एक मरा हुआ सांप ऋषि के गले में डाल दिया, घर आकर अब जब मुकुट सिर से उतारा तो इनको ज्ञान पैदा हुआ. इधर जब
शमीक ऋषि के पुत्र श्रृंगी ने यह समाचार सूना तो वह अत्यंत क्रोधित हुआ उसने तुरंत ही यह श्राप दिया की आज के सातवे दिन यही तक्षक सांप राजा को डसेगा. ऋषि ने समाधि छूटने पर जब श्राप का सब हाल सूना तो बड़ा पछतावा किया, किन्तु अब क्या हो सकता था, आखिर राजा के पास श्राप का सब हाल कहला भेजा. राजा ने जब यह हाल सूना तो संसार से विरक्तत होकर अपने बड़े पुत्र जन्मेजय को राजगद्दी सोंप दी, और गंगा जी के किनारे पर आकर डेरा डाल दिया, वहां अनेक ऋषि मुनियों को इकट्ठा किया. संयोग से शुकदेव जी भी वहां आ गये और राजा को श्री मदभागवत की कथा सुनाई, सात दिन तक बराबर कथा सुनते रहे और भगवान में ऐसा मन लगाया की किसी बात की सुधि ना रही और सातवे दिन तक्षक सर्प ने आकर डस लीया और राजा परमधाम को प्राप्त हुए, सत्य है भगवान का चरित्र भक्तिपूर्वक सुनने से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारो पदार्थ अनायास ही मिल जाते है

Friday, 17 August 2012

'' भगवान माखन क्यों चुराते है ? ''

भगवान माखन क्यों चुराते है ?

भगवान की इस दिव्य लीला माखन चोरी का रहस्य न जानने के कारण ही कुछ लोग इसे आदर्श के विपरीत बतलाते है.उन्हे पहले समझना`चाहिये चोरी क्या वस्तु है,वह किसकी होती है,और कौन करता है.चोरी उसे कहते है जब किसी दूसरे की कोई चीज, उसकी इच्छा के बिना, उसके अनजाने में ओर आगे भी वह जान ना पाए - ऐसी इच्छा रखकर ले ली जाती है. भगवान श्रीकृष्ण गोपियों के घर माखन लेते थे उनकी इच्छा से,गोपियों के अनजाने में नहीं -उनकी जान में,उनके देखते-देखते और आगे जनाने की तो बात ही नहीं -उनके सामने ही दौडते हुए निकल जाते थे.


दूसरी बात महत्त्व की ये है कि संसार में या संसार के बाहर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो श्रीभगवान की नहीं है और वे उसकी चोरी करते है. गोपियों का तो सर्वस्व श्रीभगवान् का था ही, सारा जगत् ही उनका है. वे भला, किसकी चोरी कर सकते है ? हाँ चोर तो वास्तव में वे लोग है,जो भगवान की वस्तु को अपनी मानकर ममता-आसक्ति में फँसे रहते है और दंड के पात्र बनते है


'श्रीकृष्णगतप्राणा', 'श्रीकृष्ण रसभावितमति' गोपियों के मन की क्या स्थिति थी. गोपियों का तन-मन- धन - सभी कुछ प्राणप्रियतम श्रीकृष्ण का था.वे संसार में जीती थी श्रीकृष्ण के लिये,घर में रहती थी श्रीकृष्ण के लिये और घर के सारे काम करती थी श्रीकृष्ण के लिये उनकी निर्मल और योगिन्द्रदुर्लभ पवित्र बुद्धि में श्रीकृष्ण के सिवा अपना कुछ था ही नहीं.श्रीकृष्ण के लिये ही ,श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिये ही श्रीकृष्ण की निज सामग्री से ही श्रीकृष्ण को पूजकर -श्रीकृष्ण को सुखी देखकर वे सुखी होती थी.प्रात:काल निंद्रा टूटने से लेकर रात को सोने तक वे जो कुछ करती थी,सब श्रीकृष्ण की प्रीति के लिये ही करती थी यहाँ तक कि उनकी निंद्रा भी श्रीकृष्ण में ही होती थी स्वप्न और सुषुप्ति दोनो में ही वे श्रीकृष्ण की मधुर और शांत लीला देखती और अनुभव करती थी.ये गोपियाँ पूर्व जन्म में ऋषि थे जो भगवान की लीलाओ का रसास्वादन करने के लिए ही वृंदावन में गोपी बनकर आये थे.


भक्तो का ह्रदय ही माखन है, जिसे भगवान चुराते है और फिर मटकी फोड देते है क्योकि जब ये मन भगवान का हो गया तो फिर इस देह रूपी मटकी का क्या काम इसलिए इसे भगवान फोड देते है "संत ह्रदय नवनीत सामना"


रात में दही ज़माते समय श्यामसुन्दर की माधुरी छबि का ध्यान करती हुई प्रेममयी प्रत्येक गोपी ये अभिलाषा करते थी कि मेरा दही सुन्दर जमे,उसे विलोकर मै बढि़या-सा और बहुत-सा माखन निकालूँ और उसे उतने ही ऊँचे छीके पर रखूँ,जितने पर श्रीकृष्ण के हाथ आसानी से पहुँच सके.फिर मेरे प्राणधन अपने सखाओं के साथ लेकर हँसते हुए घर में आयेगे,आनन्द में मत्त होकर मेरे आगन में नाचे और मैं किसी कोने में छिपकर इस लीला को अपनी आँखो से देखकर जीवन सफल करुँ और फिर अचानक ही पकड़कर हृदय से लगा लूँ .सभी दृष्टियों से यही सिद्ध होता है कि माखनचोरी, चोरी न थी,भगवान की दिव्य लीला थी असल में गोपियों ने प्रेम की अधिकता से ही भगवान का प्रेम का नाम चोर रख दिया क्योकि वे उनके चित्तचोर तो थे ही.

गोपी किसी का नाम नहीं है गोपी तो एक भाव है जिस तक कोई विरला ही पहुँच सकता है.

  जय जय श्री राधे ...............


Monday, 13 August 2012

राधा श्री राधा रटूं, निसि-निसि आठों याम , जा उर श्री राधा बसै, सोइ हमारो धाम


जब-जब इस धराधाम पर प्रभु अवतरित हुए हैं उनके साथ साथ उनकी आह्लादिनी शक्ति भी उनके साथ ही रही हैं। स्वयं श्री भगवान ने श्री राधा जी से कहा है - "हे राधे! जिस प्रकार तुम ब्रज में श्री राधिका रूप से रहती हो, उसी प्रकार क्षीरसागर में श्री महालक्ष्मी, ब्रह्मलोक में सरस्वती और कैलाश पर्वत पर श्री पार्वती के रूप में विराजमान हो।" भगवान के दिव्य लीला विग्रहों का प्राकट्य ही वास्तव में अपनी आराध्या श्री राधा जू के निमित्त ही हुआ है। श्री राधा जू प्रेममयी हैं और भगवान श्री कृष्ण आनन्दमय हैं। जहाँ आनन्द है वहीं प्रेम है और जहाँ प्रेम है वहीं आनन्द है। आनन्द-रस-सार का धनीभूत विग्रह स्वयं श्री कृष्ण हैं और प्रेम-रस-सार की धनीभूत श्री राधारानी हैं अत: श्री राधा रानी और श्री कृष्ण एक ही हैं। श्रीमद्भागवत् में श्री राधा का नाम प्रकट रूप में नहीं आया है, यह सत्य है। किन्तु वह उसमें उसी प्रकार विद्यमान है जैसे शरीर में आत्मा। प्रेम-रस-सार चिन्तामणि श्री राधा जी का अस्तित्व आनन्द-रस-सार श्री कृष्ण की दिव्य प्रेम लीला को प्रकट करता है। श्री राधा रानी महाभावरूपा हैं और वह नित्य निरंतर आनन्द-रस-सार, रस-राज, अनन्त सौन्दर्य, अनन्त ऐश्‍वर्य, माधुर्य, लावण्यनिधि, सच्चिदानन्द स्वरूप श्री कृष्ण को आनन्द प्रदान करती हैं। श्री कृष्ण और श्री राधारानी सदा अभिन्न हैं। श्री कृष्ण कहते हैं - "जो तुम हो वही मैं हूँ हम दोनों में किंचित भी भेद नहीं हैं। जैसे दूध में श्‍वेतता, अग्नि में दाहशक्ति और पृथ्वी में गंध रहती हैं उसी प्रकार मैं सदा तुम्हारे स्वरूप में विराजमान रहता हूँ।"

Wednesday, 8 August 2012

''श्रीकृष्ण जन्माष्टमी ''

इस वर्ष जन्माष्टमी का त्यौहार 09 अगस्त 2012 को स्मार्तों का व्रत है और 10 अगस्त 2012 को वैष्णव संप्रदाय के लोगों द्वारा मनाया जाएगा.श्री कृष्णजन्माष्टमी भगवान श्री कृष्ण का जनमोत्स्व है। योगेश्वर कृष्ण के भगवद गीता के उपदेश अनादि काल से जनमानस के लिए जीवन दर्शन प्रस्तुत करते रहे हैं। जन्माष्टमी भारत में हीं नहीं बल्कि विदेशों में बसे भारतीय भी इसे पूरी आस्था व उल्लास से मनाते हैं। श्रीकृष्ण ने अपना अवतार भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में लिया। चूंकि भगवान स्वयं इस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे अत: इस दिन को कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं। इसीलिए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर मथुरा नगरी भक्ति के रंगों से सराबोर हो उठती है।श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के पावन मौके पर भगवान कान्हा की मोहक छवि देखने के लिए दूर दूर से श्रद्धालु आज के दिन मथुरापहुंचते हैं। श्रीकृष्ण जन्मोत्सव पर मथुरा कृष्णमय हो जाता है। मंदिरों को खास तौर पर सजाया जाता है। ज्न्माष्टमी में स्त्री-पुरुष बारह बजे तक व्रत रखते हैं। इस दिन मंदिरों में झांकियां सजाई जाती है और भगवान कृष्ण को झूला झुलाया जाता है। और रासलीला का आयोजन होता है।

Tuesday, 7 August 2012

बुधवार का व्रत


एक समय किसी नगर में एक बहुत ही धनवान साहुकार रहता था. साहुकार का विवाह नगर की सुन्दर और गुणवंती लड़की से हुआ था. एक बार वो अपनी पत्नी को लेने बुधवार के दिन ससुराल गया और पत्नी के माता-पिता से विदा कराने के लिए कहा. माता-पिता बोले- बेटा आज बुधवार है. बुधवार को किसी भी शुभ कार्य के लिए यात्रा नहीं करते. लेकिन वह नहीं माना और उसने वहम की बातों को न मानने की बात कही.
दोनों ने बैलगाड़ी से यात्रा प्रारंभ की. दो कोस की यात्रा के बाद उसकी गाड़ी का एक पहिया टूट गया. वहां से दोनों ने पैदल ही यात्रा शुरू की. रास्ते में पत्नी को प्यास लगी तो साहुकार उसे एक पेड़ के नीचे बैठाकर जल लेने के लिए चला गया. थोड़ी देर बाद जब वो कहीं से जल लेकर वापस आया तो वह बुरी तरह हैरान हो उठा, क्योंकि उसकी पत्नी के पास उसकी ही शक्ल-सूरत का एक दूसरा व्यक्ति बैठा था. पत्नी भी साहुकार को देखकर हैरान रह गई. वह दोनों में कोई अंतर नहीं कर पाई. साहुकार ने उस व्यक्ति से पूछा- तुम कौन हो और मेरी पत्नी के पास क्यों बैठे हो. साहुकार की बात सुनकर उस व्यक्ति ने कहा- अरे भाई, यह मेरी पत्नी है.
मैं अपनी पत्नी को ससुराल से विदा करा कर लाया हूं, लेकिन तुम कौन हो जो मुझसे ऐसा प्रश्न कर रहे हो?
साहुकार ने लगभग चीखते हुए कहा- तुम जरुर कोई चोर या ठग हो. यह मेरी पत्नी है. मैं इसे पेड़ के नीचे बैठाकर जल लेने गया था. इस पर उस व्यक्ति ने कहा- अरे भाई, झूठ तो तुम बोल रहे हो. पत्नी को प्यास लगने पर जल लेने तो मैं गया था. मैं तो जल लाकर अपनी पत्नी को पिला भी दिया है. अब तुम चुपचाप यहां से चलते बनो नहीं तो किसी सिपाही को बुलाकर तुम्हें पकड़वा दूंगा.
दोनों एक-दूसरे से लड़ने लगे. उन्हें लड़ते देख बहुत से लोग वहां एकत्र हो गए. नगर के कुछ सिपाही भी वहां आ गए. सिपाही उन दोनों को पकड़कर राजा के पास ले गए. सारी कहानी सुनकर राजा भी कोई निर्णय नहीं कर पाया. पत्नी भी उन दोनों में से अपने वास्तविक पति को नहीं पहचान पा रही थी. राजा ने उन दोनों को कारागार में डाल देने को कहा. राजा के फैसले को सुनकर असली साहुकार भयभीत हो उठा. तभी आकाशवाणी हुई- साहुकार तूने माता-पिता की बात नहीं मानी और बुधवार के दिन अपनी ससुराल से प्रस्थान किया. यह सब भगवान बुधदेव के प्रकोप से हो रहा है.
साहुकार ने भगवान बुधदेव से प्रार्थना की कि हे भगवान बुधदेव मुझे क्षमा कर दीजिए. मुझसे बहुत बड़ी गलती हुई. भविष्य में अब कभी बुधवार के दिन यात्रा नहीं करूंगा और सदैव बुधवार को आपका व्रत किया करूंगा. साहुकार की प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान बुधदेव ने उसे क्षमा कर दिया. तभी दूसरा व्यक्ति राजा के सामने से गायब हो गया. राजा और दूसरे लोग इस चमत्कार को देखकर हैरान हो गए. भगवान बुधदेव् की अनुकम्पा से राजा ने साहुकार और उसकी पत्नी को सम्मानपूर्वक विदा किया.
कुछ दूर चलने पर रास्ते में उन्हें बैलगाड़ी मिल गई. बैलगाड़ी का टूटा हुआ पहिया भी जुड़ा हुआ था. दोनों उसमें बैठकर नगर की ओर चल दिए. साहुकार और उसकी पत्नी दोनों बुधवार का व्रत करते हुए आनंदपूर्वक जीवन-यापन करने लगे. भगवान बुधदेव की अनुकम्पा से उनके घर में धन-संपत्ति की वर्षा होने लगी. जल्द ही उनके जीवन में खुशियां ही खुशियां भर गई. बुधवार का व्रत करने से स्त्री-पुरुष के जीवन में सभी मंगलकामनाएं पूरी होती है...


Sunday, 5 August 2012

श्री कृष्ण

 भगवान श्री कृष्ण वास्तव में पूर्ण ब्रह्म ही हैं। उनमें
सारे भूत, भविष्य, वर्तमान के अवतारों का समावेश है। भगवान श्री कृष्ण
अनन्त ऐश्वर्य, अनन्त बल, अनन्त यश, अनन्त श्री, अनन्त ज्ञान और अनन्त
वैराग्य की जीवन्त मूर्ति हैं। वे कभी विष्णु रूप से लीला करते हैं, कभी
नर-नारायण रूप से तो कभी पूर्ण ब्रह्म सनातन रूप से। सारांश ये है कि वे सब
कुछ हैं, उनसे अलग कुछ भी नहीं। अपने भक्तों के दुखों का संहार करने के
लिये वे समय-समय पर अवतार लेते हैं और अपनी लीलाओं से भक्तों के दुखों को
हर लेते हैं। उनका मनोहारी रूप सभी की बाधाओं को दूर कर देता है।

Saturday, 4 August 2012

भगवान ने मिट्टी क्यों खायी


भगवान श्री कृष्ण कि दो पत्नियाँ बताई गई है - एक तो श्री देवी अर्थात लक्ष्मी जी और दूसरी भू देवी. जब भगवान लीला करने के लिए वृंदावन में अवतरित हुए, तो जब भगवान पहली बार भूमि पर पैर रखा क्योकि अब तक बाल कृष्ण चलना नहीं सीखे थे, तो पृथ्वी भगवान से बोली प्रभु ! आज आपने मुझ पर अपने चरण कमल रखकर मुझे पवित्र कर दिया. जब भगवान अपनी पत्नी भू देवी जी से बात करते, तो कोई ना कोई आ जाता, तो भगवान ने झट मिटटी का छोटा-सा टुकड़ा उठाया और मुख में रख लिया और बोले कि पृथ्वी अब तुम मुझसे, मेरे मुख में ही बात कर सकती हो,पृथ्वी का मान बढाने के लिए भगवान ने उनका भक्षण किया.


दूसरा कारण यह था कि श्रीकृष्ण के उदर में रहने वाले कोटि-कोटि ब्रह्माण्डो के जीव ब्रज-रज, गोपियों के चरणों की रज-प्राप्त करने के लिए व्याकुल हो रहे थे. उनकी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए भगवान ने मिटटी खायी.

भगवान स्वयं ही अपने भक्तो की चरण-रज मुख के द्वारा अपने हृदय में धारण करते है.क्योकि भगवानने तो स्वयं ही कहा है कि मै तो अपने भक्तो का दास हूँ जहाँ से मेरे भक्त निकलते है तो मै उनके पीछे पीछे चलता हूँ और उनकी पद रज अपने ऊपर चढ़ाता हूँ क्योकि उन संतो गोपियों कि चरण रज से मै स्वयं को पवित्र करता रहता हूँ                                                                                            

                                                              ( sanzay mehta )

भगवान कृष्ण नील वर्ण के क्यों हैं

भगवान कृष्ण नील वर्ण के क्यों हैं
जब भी हम भगवान कृष्ण या राम चन्द्र जी के दर्शन करते है तो अक्सर मन में ये बात आती है कि भगवन कृष्ण नील वर्ण के क्यों हैं ?'भगवान ने गीता में स्वयं ही कहा है हे अर्जुन एक मेरा शरणागत हो जा में हर पाप से मुक्ति दूँगा शोक न कर मेरी भक्ति में खो जा'' संत कहते है कि जब कोई भक्त भगवान के पास जाता है और अपने आप को उन्हें समर्पित कर देता है तो भगवान उसके समस्त पापों को ले लेते है.और पाप का स्वरुप काला है. जब कोई भक्त भगवान को अपने पाप देता है तो पाप का अस्तित्व रखने के लिए भगवान कुछ काले हो गए.जैसे भगवान शिव जी ने जब समुद्र मंथन से निकले विष को पिया और उसे गले में धारण कर लिया तो विष के अस्तित्व रखने के लिए उसकी मर्यादा के लिए उनका कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ हो गए उनका एक नाम नीलकंठेश्वर हो गया.कही कही ऐसा भी कहते है कि जल समुह अथाह अनंत गहराइयों और विस्तार को

लिए हुए होता है तब उसमे नीलिमा झलकती है. ऐसे ही निर्मल प्रेम के सागर श्री कृष्ण, आदि -अनंत विस्तार लिए हुए हैं. यही कारण है कि श्री कृष्ण नील वर्ण हैं.''राम के नीले वर्ण और कृष्ण के काले रंग के पीछे एक दार्शनिक रहस्य है। भगवानों का यह रंग उनके व्यक्तित्व को दर्शाते हैं। दरअसल इसके पीछे भाव है कि भगवान का व्यक्तित्व अनंत है। उसकी कोई सीमा नहीं है, वे अनंत है। ये अनंतता का भाव हमें आकाश से मिलता है। आकाश की कोई सीमा नहीं है। वह अंतहीन है। राम और कृष्ण के रंग इसी आकाश की अनंतता के प्रतीक हैं.
भक्तजन कहते है कि जब भगवान ने कालिया का दमन किया तो उसके विष का मान रखने के लिए वे कुछ संवारे हो गए. यशोदा जी से जब बाल कृष्ण पूछते मैया! तु गोरी है,नंद बाबा भी गोरे है, दाऊ भी गोरे है,फिर मै क्यों काला हूँ ? तो यशोदा जी कहती लाला ! कि काली अन्धयारी रात में तेरा जन्म हुआ, रात काली है. इसलिए तु काला है तूने काली पद्मगंधा गाय का दूध पिया है. इसलिए काला है. भगवान का एक नाम है श्याम सुन्दर कितना प्यारा नाम है ,जो काले रंग को भी सुन्दर बना दे,श्याम अर्थात काला और सुन्दर.जो गोरा होता है उसे तो सभी सुन्दर कहते है,पर हमारे श्याम सुन्दर तो ऐसे है जो काले होने पर भी सुन्दर है.
अब बोलिए जय श्री राधे. जय माता दी जी . जय माँ राज रानी. जय माँ दुर्गे

Wednesday, 1 August 2012

" रक्षा बंधन "

रक्षाबंधन के पर्व पर सभी को  बहुत बहुत बधाइयाँ ।प्रेम और आस्था का यह पवित्र त्योहार " रक्षा बंधन " आपके जीवन मेँ ढ़ेरो खुशीयाँ व महक बरसाये । हमारी और से भी सभी भाई-बहिनों को " रक्षा बंधन " की हार्दिक शुभ कामनाये.......