Sponcered Links

Friday, 1 March 2013

'' लक्ष्मी की शिव - निष्ठा ''

लक्ष्मी की शिव - निष्ठा '' 
एक बार लीलामय भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी को भूलोक में अश्व्योनी में जन्म लेने का शाप दे दिया, भगवान कि प्रत्येक लीला में जो रहस्य होता है, उसको तो वे ही जानते है. श्री लक्ष्मी जी को इससे बहुत क्लेश हुआ, पर उनकी प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने कहा - 'देवि! यद्यपि मेरा वचन अन्यथा तो हो नहीं सकता, तथापि कुछ काल तक तुम अश्व्योनी में रहोगी, पश्चात् मेरे समान ही तुम्हारे एक पुत्र उत्पन्न होगा . उस समय उस शाप से तुम्हारी मुक्ति होगी और फिर तुम मेरे पास आ  जाओगी ।

भगवान के शाप से लक्ष्मी जी ने भूलोक में आकर अश्व्योनी में जन्म लिया  और वे काल्न्दी तथा तमसा के संगम पर भगवान शंकर की आराधना करने लगी, वे भगवान सदाशिव त्रिलोचन का अनन्य-मन से एक हजार वर्षो तक ध्यान करती रही  ....
उनकी तपस्या से महादेव जी बहुत प्रसन्न हुए और लक्ष्मी के सामने वृषभ पर आरूढ़ हो, पार्वती समेत दर्शन देकर कहने लगे - 'देवि   , आप तो जगत कि माता है और भगवान विष्णु कि परम प्रिय है. आप भक्ति-मुक्ति देनेवाले, सम्पूर्ण चराचर जगत के स्वामी विष्णु भगवान कि आराधना छोड़कर मेरे भजन क्यों कर रही है? वेदों का कथन है कि स्त्रियों को सर्वदा अपने पति कि उपासना करनी चाहिए. उनके लिए पति के अतिरिक्त और कोई देवता ही नहीं है, पति कैसा भी हो वह स्त्री का आराध्य देव होता है. भगवान नारायण तो मेरे पुर्शोतम है, ऐसे देवेश्वर पति कि उपासना छोड़कर आप मेरे उपासना क्यों करती है
लक्ष्मी जे ने कहा - हे आशुतोष! मेरे पतिदेव ने मुझे अश्व्योनी में जनम लेने का शाप दे दिया है, इस शाप का अंत पुत्र होने पर बताया है, वे वैकुण्ठ में निवास कर रहे है, हे महादेव! आपकी उपासना मैंने इसलिए की है की आपमें और श्री हरि में किंचिन्त मात्र भी भेद-भाव नहीं है. आप और वे एक ही है. केवल रूप भेद है, यह बात श्री हरि ने ही मुझे बताई थी .. आपका और उनका एकत्व जानकार ही मैंने आपकी आरधना की है. हे भगवान! यदि आप मुझपर प्रसन्न है तो मेरा यह दुःख दूर कीजिये  आशुतोष भगवान शिव ने लक्ष्मी के इन वचनों को सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और विष्णुदेव से इस विषये में प्रार्थना करने का वचन दिया और श्री हरि को प्राप्त करने तथा एक महान प्रकर्मशाली पुत्र प्राप्त करने का वर भी उन्हें प्रदान किया. भगवान शिव का सन्देश पाकर तथा देवि लक्ष्मी की स्तिथि जानकार भगवान विष्णु अश्व का रूप धारणकर लक्ष्मी जी के पास गये और कालान्तर में देवि लक्ष्मी को 'एकवीर' नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, उसी से "हैहय-वंश" की उत्पति हुई. अनन्तर लक्ष्मी के शाप की निव्रती हो गई और वे दिव्या शरीर धारणकर भगवान के साथ वैकुण्ठ पधार गई. उनकी शिव-साधना सफल हो गईअब बोलिए जय माँ महालक्ष्मी की           





Tuesday, 26 February 2013

''मन को वश में रखना बहुत कठिन ''

यह मन बहुत अशांत है, अतिशय चंचल है, सुख दुःख मन ही लाया करता है, मन विषयों में भटका करता है, यह स्थिर रह सकता नहीं, यह धन के पीछे दौड़ता है. और धन मिल जाये तो उससे इसे संतोष प्राप्त होता नहीं, और वहा अन्य किसी भोग - पदार्थ या विषय की तरफ दौड़ जाता है, मन कूदफांद करता ही रहता है, इस प्रकार चारो तरफ दौड़ा ही करता है, मन को तनिक भी शांति नहीं. मन अनेक तरंगे लीया करता है, मन मोह प्राप्त करता है, क्रोध करता है, लोभ करता है, कामना करता है, आसक्ति करता है, द्वेष करता है, अनेक प्रकार की चिंताए करता है, इस मन को वश में रखना बहुत कठिन है, असम्भव जैसा है. वह क्षण में सुख पाता है, क्षण में दुखी हो जाता है, इस की एक उदाहरन यह है
दो बचपन के दोस्त लम्बे समय बाद मिले, दोनों में वार्तालाप चलने लगा.
पहला मित्र : भाई! हम बहुत लम्बे समय बाद मिले है, इस बीच मेरी शादी हो चुकी है :)
दूसरा - यह तो बड़ी ख़ुशी की बात है, तुम चतुर्भुज बन गये :)
पहला - परन्तु जो स्त्री मिली है, वह बड़ी कर्कशा, कटुभाषिणी और क्ल्ह्कारिणी है :(
दूसरा - यह तो बहुत चिंता की बात है :(
पहला - पर वह बड़े धनी बाप की इकलोती बेटी है , बहुत माल साथ लाई है
दूसरा - तब तो तुम बहुत भाग्यशाली हो, अनायास मालामाल हो गये :)
पहला - मालामाल क्या ख़ाक हो गया, वह बड़ी कंजूस है, उसने सारी सम्पति अपने नियंत्रण में ले रखी है :(
दूसरा - तब तो सारा मामला ही गडबडा गया :(
पहला - हां , उसने एक सुंदर बिल्डिंग अवश्य बनवा ली :)
दूसरा - चलो , कोठी वाले तो तुम बन गये :)
पहला - हां, आफत भी साथ ही आ गई, उस कोठी में आग लग गई :(
दूसरा - तब तो बड़ा नुक्सान हुआ होगा :(
पहला - नहीं, हमने उसकी बीमा करवा रखी थी :)
                 सांसारि आदमी की प्रियता और अप्रियता की यह स्थिति है, उसके सुख और दुःख दोनों क्षणिक है

Friday, 22 February 2013

''नटराज शिव ''

भगवान शिव सदैव लोको का उपकार और हित करने वाले हैं। त्रिदेवों में इन्हें संहार का देवता भी माना गया है। अन्य देवताओं की पूजा-अर्चना की तुलना में शिव उपासना को अत्यन्त सरल माना गया है। अन्य देवताओं की भांति को सुगंधित पुष्पमालाओं और मीठे पकवानों की आवश्यकता नहीं पड़ती । शिव तो स्वच्छ जल, बिल्व पत्र, भाँग, कंटीले और न खाए जाने वाले पौधों के फल यथा-धूतरा आदि से ही प्रसन्न हो जाते हैं। शिव को मनोरम वेशभूषा और अलंकारों की आवश्यकता भी नहीं है। वे तो औघड़ बाबा हैं। जटाजूट धारी, गले में लिपटे नाग और रुद्राक्ष की मालाएं, शरीर पर बाघम्बर, चिता की भस्म लगाए एवं हाथ में त्रिशूल पकड़े हुए, वे सारे विश्व को अपनी पद्चाप तथा डमरू की कर्णभेदी ध्वनि से नचाते रहते हैं। इसीलिए उन्हें नटराज की संज्ञा भी दी गई है।



''भगवती सती का शिव - प्रेम ''

एक समय लीलाधारी परमेश्वर शिव एकांत में बैठे थे वही सती भी विराजमान थी. आपस में वार्तालाप हो रहा था. उसी वार्तालाप के प्रसंग में भगवान शिव के मुख से सती के श्यामवर्ण को देखकर 'काली' ऐसा शब्द निकल गया. 'काली' यह शब्द सुनकर सती को महान दुःख हुआ और वे शिव से बोली - 'महाराज! आपने मेरे कृष्ण वर्ण को देखर मार्मिक वचन कहा है. इसलिए मै वहां जाउंगी, जहा मेरा नाम गौरी पड़ी .. ऐसा कहकर परम ऐश्वर्यवती सती अपनी सखियों के साथ प्रभास-तीर्थ में तपस्या करने चली गई. वहां 'गौरिश्वर ' नामक लिंगको संस्थापित कर विधिवत पूजा और दिन-रात एक पैरपर खड़ी होकर कठिन तपस्या करने लगी. ज्यों-ज्यों तप बढ़ता जाता, त्यों-त्यों उनका वर्ण गौर होता जाता. इस प्रकार धीरे-धीरे उनके अंग पूर्णरूप से गौर हो गये.
तदनन्तर भगवान चंद्रमौली वहां प्रकट हुए और उन्हों ने सती को बड़े आदर से 'गौरी' इस नाम से सम्बोधित
करके कहा 'प्रिये! अब तुम उठो और अपने मंदिर को चलो. हे कल्याणी! अभीष्ट वर मांगो, तुम्हारे लिए कुछ भी अदेय नहीं है, तुम्हारी तपस्या से मै परम प्रसन्न हु..
तब सती ने हाथ जोड़कर कहा - हे महाराज! आपके चरणों की दया से मुझे किसी बात की कमी नहीं है. मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए. परन्तु यह प्रार्थना अवश्य करुँगी की जो नर या नारी इस गौरिश्वर शिव का दर्शन करे, वे सात जन्मतक सौभाग्य - समृद्धि से पूर्ण हो जाए और उनके वंश में किसी को भी दारिद्र्य तथा दौर्भाग्य का भोग ना करना पड़े. मेरे संथापित इस लिंगकी पूजा करने से परमपद की प्राप्ति हो. गौरी की इस प्रार्थना को श्री महादेव जी ने परम हर्ष के साथ स्वीकार कर लिए और उन्हें लेकर वे अपने कैलाश को पधारे
अब बोलिए  जय मेरे भोले बाबा की . जय मेरी माँ गौरजा की.

Saturday, 16 February 2013

हमारे भारत में अनेक पवित्र तीर्थ है पुष्कर प्रयाग, काशी, अयोध्या चित्रकूट, वृन्दावन आदि। क्षेत्र में और तीर्थ में थोडा भेद है। जल प्रधान तीर्थम-स्थल प्रधान क्षेत्रम - जहाँ ठाकुरजी का स्वरूप मुख्या है, उस स्थान को क्षेत्र कहते है, और जहाँ जल देवता का प्राधान्य होता है, उसे तीर्थ कहते है, पुष्करराज क्षेत्रराज है, साक्षात ब्रह्माजी महाराज वहां प्रकट-प्रत्यक्ष विराजमान है। तीर्थो का राजा प्रयाग है, जहा गंगाजी, यमुनाजी और सरस्वती का संगम है।

काशी ज्ञान-भूमि है, अयोध्या वैरग्य भूमि है, वृन्दावन प्रेमभुमि है, वृन्दावन के कण -कण में श्रीकृष्ण-प्रेम भरा है। काशी ज्ञान-भूमि है। काशी में रहकर गंगा-स्नान करने वाले, पवित्र जीवन व्यतीत करने वाले की बुद्धि में ज्ञान-स्फुरण होता है, भीतर से प्रकट होने वाला ज्ञान सदैव रहता है
अयोध्या, चित्रकूट वैरग्य भूमि है। विरक्त संतो के दर्शन अयोध्या में, चित्रकूट में होते है, आज अनेक भजनानंदी साधू अयोध्याजी में, चित्रकूट में रहते है, चित्रकूट के संतो का नियम है।प्राण जाने पर भी मानव से कुछ ना मांगना। फटी धोती पहनना, बहुत भूख लगने पर सत्तू खाना तथा सारा दिन सीताराम-सीताराम जप करना, वे आपके सामने नहीं देखंगे। हम किसी से मांगते नहीं है, ऐसी उनकी भावना रहती है, श्रीसीताजी हमारा पोषण कर रही है, वे हमें बहुत देती है। हम किसी से मांगने लगे तो माँ नाराज हो जाएगी। मेरा बेटा , होकर जगत से भीख मांगता है, इससे मानव से माँगना नहीं है। विरिक्त साधू अयोध्या, चित्रकूट में विराजते है, चित्रकूट वैराग्य भूमि है।
नर्मदा तट तपोभूमि है, तपस्वी महापुर्ष नर्मदा के तट पर भगवन शंकर की स्थापना करके तप करते है, व्रन्दावन प्रेम भूमि है। श्रीकृष्ण-प्रेम बढ़ाना है तो महीने दो महीने तक वृन्दावन में जाकर रहिये, प्रेमधाम वृन्दावन का वर्णन कौन कर सकता है?जहाँ श्री कृष्ण की नित्य लीला है, श्री बालकृष्णलाल का बाल रूप है, वृन्दावन में आज भी रास होता है। रासलीला नित्य है, वृन्दावन में श्रीकृष्ण का अखंड निवास है
कभी जाते है तो याद रखकर दर्शन करिए वृन्दावन में सेवाकुंज्ज है, और सेवाकुंज्ज में नित्य रास होते है। आप दिन में दर्शन करने जाते है, तब वहां बहुत से बंदर देखेंगे। अंधकार हो जाने पर वहां कोई नहीं रह सकता है और अगर कोई रह जाये तो वह पागल हो जाता है।

Tuesday, 12 February 2013

'' रामनाम से अनेक जीवो का उद्धार हुआ है ''

रामजी ने तो एक अहल्या का उद्धार किया, परन्तु आज हजारों वर्ष हो गये रामनाम से अनेक जीवो का उद्धार हुआ है. रामजी विराजते थे तब तो बहुत थोड़े जीवो का प्रभु ने कल्याण किया है, जब कि आज प्रत्यक्ष श्रीराम नहीं है, परन्तु राम-नाम का आश्रय ग्रहण करने से तो घने जीवो का जीवन सुधर रहा है एक बार राजमहल में एक नौकर काम करता था. उसकी नजर राजकन्या के ऊपर पड़ गई, राजकन्या बहुत सुंदर थी . एक बार ही राज-कन्या को देखने के बाद वह नौकर अपनी मन कि शांति रख नहीं सका. उसका मन चंचल हो गया. पुरे दिन वह राजकन्या का ही चिंतन करने लगा. उसको खाना ही अच्छा नहीं लगने लगा. रात को नींद नहीं आती थी, उसकी पत्नी रानी कि दासी थी. वह रानी कि ख़ास सेवा करती थी, रानी का उसके उपर स्नेह भी था..दासी पतिव्रता थी. वह पतिदेव को दुखी देखकर  बारम्बार पूछती कि तुम मुझे इस समय उदास क्यों लग रहे हो? पति ने कहा -- मेरा दुःख दूर कर सके ऐसा कोई नहीं.. पत्नी ने पूछा --- ऐसा तुमको कौन सा दुःख है ..पति ने कहा -राजकन्या को मैंने जब से देखा है, तभी  से मेरा  मन मेरे हाथ मे नहीं रहा. किसी भी प्रकार से राजकन्या मुझे मिले तो ही मे सुखी हो सकूँगा. परन्तु यह सम्भव नहीं. पत्नी को दया आई. उसने कहा - मै युक्ति करती हु.दासी ने रानी की भारी सेवा करनी आरम्भ कर दी. सेवा में वशीकरण होता है. एक दिन रानी ने दासी से पूछा - आज तू क्यों उदास लग रही है दासी ने कहा - मै क्या कहू? पति का सुख यही मेरा सुख है. पति का दुःख ही मेरा दुःख है.. मेरे पतिदेव दुखी है रानी ने पूछा - दुःख का कारण क्या है? दासी ने कहा - महारानी जी! कारण कहने में मुझे बहुत दुःख होता है, संकोच होता है... राजकन्या को जब से देखा है तब से उनका मन चंचल हो गया है. उनकी ऍसी इच्छा है की राजकन्या उनको मिल जाये ।   रानी ने सत्संग किया हुआ था. उसने विचार करके कहा - तेरे पति को मै अपनी कन्या देने को तैयार हु.. परन्तु तू उससे एक काम करने को कहना .. गाव के बाहर बगीचे में बैठकर वह नकली साधू का वेष धारण करे. साधू बनकर वहां. श्री राम - श्री राम का जप करे. . आँख अघाड़े नहीं. आँख बंद करके ही जप करे. मै राजमहल में से जो कुछ भेजू उसी को खाना है, दूसरा कुछ नहीं... बोलना भी नहीं, किसी पर दृष्टि डालनी नहीं.. छह महिना तक इस प्रकार अनुष्ठान करे. तो मै अपनी कन्या उसको देने को तैयार हु...द्रष्टान्त को अधिक लम्बाने की आवश्यकता नहीं हुआ करती . वह नकली साधू बना. गाव के बाहर बगीचे मै बैठकर रामनाम का जप करने लगा. रानी ने इस प्रकार व्यवस्था की जिससे राजमहल से उसे बहुत सादा भोजन दिया जाने लगा. भक्ति में अन्न्दोश विघ्नकारक होता है, राजसी तामसी अन्न खानेवाला बराबर भक्ति नहीं कर सकता. और कदाचित वह करे भी तो उसे भक्ति में आनंद आता नहीं. जिसका भोजन अत्यंत सादा है, सात्विक है, वही भक्ति कर सकता है, रानी ने विचार किया हुआ था की छह महीने तक सादा , सात्विक, पवित्र अन्न खाए और रामनाम का जप करे तो आज जो इसकी बुद्धि बिगड़ी हुई है, वह छह महीने में सुधर जाएगी नकली साधू होकर, आँख बंद रखकर , राजकन्या के लिए वह रामनाम का जप करता था, रामनाम का निरंतर जप करने से इसको परमात्मा का थोडा प्रकाश दिखने लगा था. दो महिना व्यतीत हुए, चार महिना व्यतीत हुए... धीरे धीरे उसका मन शुद्ध होने लगा. पीछे तो मन इतना अधिक शुद्ध हो गया की राज्य-कन्याके बारे में इसको जो मोह हुआ था वह अब छुट गया...अन्नं से मन बनता है, अन्नमय सौम्य मन:! पेट में जो अन्न जाता है, उसके तीन भाग होते है.. अन्न का स्थूल भाग मलरूप से बाहर आता है, अन्न के मध्य भाग से रुधिर और मांस उत्पन्न होता है.. अन्न के सूक्षम भाग से मन बुद्धि का संस्कार बनता है, जिसको चरित्र पर तुमको पूर्ण विश्वास नहीं उसे अपनी रसोई में मत आने दो. कदाचित रसोईघर में आ भी जावे तो उसको अन्न-जल को छूने ना दो..पूर्व साधू ने छह महीने तक नियम से सादा भोजन किया.. आँख बंद रख कर नकली साधू होकर रामनाम का जप किया, छह महीने के उपरान्त वह सच्चा साधू बन गया. उसके हृदय और स्वभाव का परिवर्तन हो गया. रानी राजकन्या को लेकर वहां आई. उसने कहा की महाराज... अब आँख खोलिए.. मै अपनी कन्या आपको देने आई हु.. वह व्याक्ति ने कहा... अब मुझको देखने की इच्छा होती नहीं... अब तो मुझे हरेक मे राम श्री राम ही नजर आते है ... किसी सुंदर राजकुमार के साथ इसका विवाह कर दो. मै इसको प्रणाम करता हु. मुझसे भूल हुई थी... 
अब बोलिए जय श्री राम

Friday, 8 February 2013

'' पितृस्त्रोत ''

अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम्।
नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्।।
इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा।
सप्तर्षीणां तथान्येषां तान् नमस्यामि कामदान्।।
मन्वादीनां च नेतार: सूर्याचन्दमसोस्तथा।
तान् नमस्यामहं सर्वान् पितृनप्युदधावपि।।
नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा।
द्यावापृथिवोव्योश्च तथा नमस्यामि कृताञ्जलि:।।
देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान्।
अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येहं कृताञ्जलि:।।
प्रजापते: कश्पाय सोमाय वरुणाय च।
योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृताञ्जलि:।।
नमो गणेभ्य: सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु।
स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे।।
सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा।
नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम्।।
अग्रिरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम्।
अग्रीषोममयं विश्वं यत एतदशेषत:।।
ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्रिमूर्तय:।
जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिण:।।
तेभ्योखिलेभ्यो योगिभ्य: पितृभ्यो यतामनस:।
नमो नमो नमस्तेस्तु प्रसीदन्तु स्वधाभुज।।