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Friday, 4 January 2013

'' आखिर क्यों बांधते है मौली या कलावा ''

आखिर क्यों बांधते है मौली या कलावा ,
आपने हमेशा यह देखा होगा कि कैसी भी पूजा हो उसमें पंडित या पुरोहित लोगों को मौली या कलावा बांधते हैं क्या आप जानते हैं कि आखिर यह मौली या कलावा क्यों बांधा जाता है| तो आइये जाने आखिर क्यों बांधा जाता है मौली या कलावा- मौली का अर्थ है सबसे ऊपर जिसका, अर्थ सिर से भी लिया जाता है। त्रिनेत्रधारी भगवान शिव के मस्तक पर चन्द्रमा विराजमान है जिन्हें चन्द्र मौली भी कहा जाता है। शास्त्रों का मत है कि हाथ में मौली बांधने से त्रिदेवों और तीनों महादेवियों की कृपा प्राप्त होती है। '' ,महालक्ष्मी'' की कृपा से,  धन सम्पत्ति  '' महासरस्वती'' की कृपा से विद्या-बुद्धि और '' महाकाली '' की कृपा से शाक्ति प्राप्त होती है।इसके अलावा हिन्दू वैदिक संस्कृति में मौली को धार्मिक आस्था का प्रतीक माना जाता है। किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत करते समय या नई वस्तु खरीदने पर हम उसे मौली बांधते है ताकि वह हमारे जीवन में शुभता प्रदान करे। मौली कच्चे सूत के धागे से बनाई जाती है। यह लाल रंग, पीले रंग, या दो रंगों या पांच रंगों की होती है। इसे हाथ गले और कमर में बांधा जाता है।हम किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत मौली बांधकर ही करते है। शरीर की संरचना का प्रमुख नियंत्रण हाथ की कलाई में होता है, अतः यहां मौली बांधने से व्यक्ति स्वस्थ रहता है। ऐसी भी मान्यता है कि इसे बांधने से कोई भी बीमारी नहीं बढती है। पुराने वैद्य और घर परिवार के बुजुर्ग लोग हाथ, कमर, गले व पैर के अंगूठे में मौली का उपयोग करते थे, जो शरीर के लिये लाभकारी था।ब्लड प्रेशर, हार्ट एटेक, डायबीटिज और लकवा जैसे रोगों से बचाव के लिये मौली बांधना हितकर बताया गया है। मौली शत प्रतिशत कच्चे धागे (सूत) की ही होनी चाहिये। आपने कई लोगों को हाथ में स्टील के बेल्ट बांधे देखा होगा। कहते है रक्तचाप के मरीज को यह बैल्ट बांधने से लाभ होता है। स्टील बेल्ट से मौली अधिक लाभकारी है। मौली को पांच सात बार घुमा कर के हाथ में बांधना चाहिये।मौली को किसी भी दिन बांध सकते है, परन्तु हर मंगलवार और शनिवार को पुरानी मौली को उतारकर नई मौली बांधना उचित माना गया है। उतारी हुई पुरानी मौली को पीपलके पेड की जड में डालना चाहिये।



Tuesday, 1 January 2013

'' कन्याएँ साक्षात शक्ति स्वरूपा ''

 कन्याएँ साक्षात शक्ति स्वरूपा है ,  लेकिन अब समाज में कन्याओं को असुरक्षित पाया जा रहा है  । कुछ दरिन्दे उनको अपनी हवश का शिकार बना रहे है । आज समाज में यही आवाज उठ रही है .......
              कुडियां दी हिफाजत कौन करे , अम्मा डरदी  बापू डरदा ,
             धियाँ वाला हर कोई डरे  , कुडियां दी हिफाजत कौन करे ।
                     अज मैं पुछदा है लोकां तो  , कुडियां दी सुरक्षा कौन करे ,
                    चीलाँ गिधाँ दियां नजरां तो , चिड़ियाँ दी सुरक्षा कौन करे  ।
           धियाँ वाला हर कोई डरे  , कुडियां दी हिफाजत कौन करे  ।


नवरात्रि में कन्या पूजन का विशेष महत्व है । ऐसे श्रद्धालुओं की कमी नहीं है, जो पूरे नौ दिनों तक कन्या पूजन करते हैं । वहीं ज्यादातर लोग अष्टमी के दिन विधि-विधान से कन्या पूजन कर उन्हे भोजन कराते हैं । शक्ति साधना के पर्व में कुँवारी पूजन का महत्वपूर्ण स्थान है । स्नेह, सरलता और पवित्रता की दृष्टि से कुँवारी कन्याएँ साक्षात शक्ति स्वरूपा हैं । अन्य पूजन और अनुष्ठानों में ब्रम्हभोज की प्रधानता बताई गई है, लेकिन नवरात्रि में शक्ति की उपासना के दौरान अनुष्ठानों की पूर्णता के लिए कन्या पूजन की प्राथमिता बताई गई है ।  
शक्ति का प्रादुर्भाव कुँवारी रूप में हुआ है जिसे देवताओं ने अंशभूत शक्तियाँ प्रदान की है । वृहन्नली तंत्र के अनुसार पूजित कुँवारियाँ विघ्न, भय और उत्कृष्ठ शत्रु को नष्ट करने में सक्षम हैं । कुँवारि का पूजन में जाति भेद का विचार करना भी अनुचित है । दुर्गाष्टमी और महानवमीं के दिन जो साधक कुँवारी कन्याओं का पूजन कर कन्याओं को अन्न, वस्त्र और जल अर्पण करते हैं, उसका फल अन्न मेरू के समान और जल समुद्र के समान अक्षुण्य और अनंत होता है । नवरात्र अनुष्ठान में साधक को दो से दस वर्ष की दस कन्याओं के साथ भैरव पूजन करना चाहिए । दो वर्ष की कन्या कुमारी, तीन वर्ष की त्रिमुति, चार वर्ष की कन्या कल्याणी, पाँच वर्ष की रोहिणी, छः वर्ष की रोहिणी, सात वर्ष की चंद्रिका, आठ वर्ष की शांभवी, नौ वर्ष की दुर्गा और दस वर्ष की कन्या सुभद्रा मानी गई है । अत: दस वर्ष तक की कन्याओं को ही पूजन में शामिल किया जाना चाहिए । शास्त्र में 11 वर्ष से अधिक आयु वाली कन्याओं के पूजन को शास्त्र सम्मत नहीं माना गया है ।
                  इसलिए कृपया कन्याओं को समाज में सम्मान दीजिए  ।









Monday, 31 December 2012



 नये  साल के शुभ अवसर पर  , हमारी मंगलमयी शुभकामनाओं के साथ आपको एवं आपके परिवार को बहुत  बहुत बधाई ....भगवान आप सभी की मनोकामनाएँ  पूरी करे ,,आप सबको  नव वर्ष खुशियों से भरा रहे |                                                    महंत त्रिलोक राज गोस्वामी
                                            जागरण एवं भागवत परिवार
                                             जिला हमीरपुर  (हिo प्रo)

Wednesday, 26 December 2012

'' गणेश चतुर्थी मे क्यों करते हैं चन्द्र दर्शन ''

धार्मिक मान्यतानुसार हिन्दू धर्म में गणेश जी सर्वोपरि स्थान रखते हैं। सभी देवताओं में इनकी पूजा-अर्चना सर्वप्रथम की जाती है। श्री गणेश जी विघ्न विनायक हैं। भगवान गणेश गजानन के नाम से भी जाने जाते हैं क्योंकि उनका मुख हाथी का है|
ब्रह्मांड पुराण में कहा गया है कि जिस समय माता पार्वती ने भगवान श्री गणेश को जन्म दिया उस समय इन्द्रदेव समेत कई देवी- देवता उनके दर्शनों के लिए उपस्थित हुए| जिस समय यह देवी देवता पधारे उसी समय न्यायाधीश कहे जाने वाले शनिदेव भी वहां आये| शनिदेव के बारे में कहा जाता है कि उनकी क्रूर दृष्टि जहां भी पड़ेगी, वहां हानि होगी। उनकी उपस्थिति से माता पार्वती रुष्ट हो गईं| फिर भी शनि देव की दृष्टि गणेशजी पर पड़ी और दृष्टिपात होते ही श्री गणेश का मस्तक अलग होकर चन्द्रमण्डल में चला गया।
इसी तरह दूसरे प्रसंग के मुताबिक, एक बार कीबात है माता पार्वती स्नान करने जा रही थीं। वह चाहती थी की स्नान करते समय उन्हें कोई परेशान न करें। तब उन्होंने स्नान से पहले अपने मैल से एक सुंदर बालक को उत्पन्न किया और उसे अपना द्वारपाल बनाकर दरवाजे पर पहरा देने का आदेश दिया। उसी समय वहाँ भगवान शिवजी आये और अन्दर प्रवेश करने लगे, तब बालक ने उन्हें बाहर रोक दिया। शिव जी ने उस बालक को कई बार समझाया लेकिन वह नहीं माना। इस पर शिवगणों ने भगवान शिवजी के कहने पर उस बालक को द्वार से हटाने के लिए उससे भयंकर युद्ध किया। लेकिन उसे कोई पराजित नहीं कर सका। बालक के पराक्रम और हठधर्मिता से क्रोधित होकर शिवजी ने उस बालक का सिर काट दिया। जो चंद्रलोक चला गया|जब माता पार्वती स्नान करके निकली तो अपने पुत्र का कटा हुआ सिर देखकर क्रोधित हो उठीं और शिवजी से उसे पुनः जीवित करने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि अगर उनके पुत्र को जीवित नहीं किया गया तो प्रलय आ जाएगी। यह सब देखकर सारे देवी-देवता भयभीत हो गये। तब देवर्षि नारद नेपार्वती जी को शांत किया और बालक को जिन्दा करने का अनुरोध  भगवान शिवजी से करने लगे। बड़ी समस्या यह थी कि कटा हुआ सिर वापस धड के साथ जुड नही सकता था। अतः यह तय हुआ कि अगर किसी दूसरे जीव का सिर मिल जाए तो यह बालक वापस  जिन्दा हो जाएगा।शिव जी के आदेशानुसार शिवगण जब दूसरा सिर खोजने निकले तो उन्हें एक जंगल में एक हाथी का बच्चा मिला। शिवगणउस हाथी के बच्चे का सिर काटकर ले आए। इसके पश्चात शिव जी ने उस गज के कटे हुए मस्तक को बालक के धड पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया और इस बालक का नाम गणेश पड़ा।
ऐसी मान्यता है कि श्री गणेश का असल मस्तक चन्द्रमण्डल में है, इसी आस्था से धर्म परंपराओं में गणेश चतुर्थी तिथि पर चन्द्रदर्शन व अर्घ्य देकर श्री गणेश की उपासना व भक्ति द्वारा संकटनाश व मंगल कामना की जाती है।


Tuesday, 25 December 2012

'' मां वैष्णो देवी ''

 मां वैष्णो देवी ने भारत के दक्षिण में रत्नाकर सागर के घर जन्म लिया. उनके लौकिक माता-पिता लंबे समय तक निःसंतान थे. दैवी बालिका के जन्म से एक रात पहले, रत्नाकर ने वचन लिया कि बालिका जो भी चाहे, वे उसकी इच्छा के रास्ते में कभी नहीं आएंगे. मां वैष्णो देवी को बचपन में त्रिकुटा नाम से बुलाया जाता था. बाद में भगवान विष्णु के अंश   से जन्म लेने के कारण वे वैष्णवी कहलाईं. जब त्रिकुटा 9 साल की थीं, तब उन्होंने अपने पिता से समुद्र के किनारे पर तपस्या करने की अनुमति चाही. त्रिकुटा ने राम के रूप में भगवान विष्णु से प्रार्थना की. सीता की खोज करते समय श्री राम अपनी सेना के साथ समुद्र के किनारे पहुंचे. उनकी दृष्टि गहरे ध्यान में लीन इस दिव्य बालिका पर पड़ी. त्रिकुटा ने श्री राम से कहा कि उसने उन्हें अपने पति के रूप में स्वीकार किया है. श्री राम ने उसे बताया कि उन्होंने इस अवतार में केवल सीता के प्रति निष्ठावान रहने का वचन लिया है. लेकिन भगवान ने उसे आश्वासन दिया कि कलियुग में वे कल्कि के रूप में प्रकट होंगे और उससे विवाह करेंगे.

इस बीच, श्री राम ने त्रिकुटा से उत्तर भारत में स्थित माणिक पहाड़ियों की त्रिकुटा श्रृंखला में अवस्थित गुफ़ा में ध्यान में लीन रहने के लिए कहा.रावण के विरुद्ध श्री राम की विजय के लिए मां ने 'नवरात्र' मनाने का निर्णय लिया. इसलिए उक्त संदर्भ में लोग, नवरात्र के 9 दिनों की अवधि में रामायण का पाठ करते हैं. श्री राम ने वचन दिया था कि समस्त संसार द्वारा मां वैष्णो देवी की स्तुति गाई जाएगी. त्रिकुटा, वैष्णो देवी के रूप में प्रसिद्ध होंगी और सदा के लिए अमर हो जाएंगी.[2]

समय के साथ-साथ, देवी मां के बारे में कई कहानियां उभरीं. ऐसी ही एक कहानी है श्रीधर की.

श्रीधर मां वैष्णो देवी का प्रबल भक्त थे. वे वर्तमान कटरा कस्बे से 2 कि.मी. की दूरी पर स्थित हंसली गांव में रहता थे. एक बार मां ने एक मोहक युवा लड़की के रूप में उनको दर्शन दिए. युवा लड़की ने विनम्र पंडित से 'भंडारा' (भिक्षुकों और भक्तों के लिए एक प्रीतिभोज) आयोजित करने के लिए कहा. पंडित गांव और निकटस्थ जगहों से लोगों को आमंत्रित करने के लिए चल पड़े. उन्होंने एक स्वार्थी राक्षस 'भैरव नाथ' को भी आमंत्रित किया. भैरव नाथ ने श्रीधर से पूछा कि वे कैसे अपेक्षाओं को पूरा करने की योजना बना रहे हैं. उसने श्रीधर को विफलता की स्थिति में बुरे परिणामों का स्मरण कराया. चूंकि पंडित जी चिंता में डूब गए, दिव्य बालिका प्रकट हुईं और कहा कि वे निराश ना हों, सब व्यवस्था हो चुकी है.उन्होंने कहा कि 360 से अधिक श्रद्धालुओं को छोटी-सी कुटिया में बिठा सकते हो. उनके कहे अनुसार ही भंडारा में अतिरिक्त भोजन और बैठने की व्यवस्था के साथ निर्विघ्न आयोजन संपन्न हुआ. भैरव नाथ ने स्वीकार किया कि बालिका में अलौकिक शक्तियां थीं और आगे और परीक्षा लेने का निर्णय लिया. उसने त्रिकुटा पहाड़ियों तक उस दिव्य बालिका का पीछा किया. 9 महीनों तक भैरव नाथ उस रहस्यमय बालिका को ढूँढ़ता रहा, जिसे वह देवी मां का अवतार मानता था. भैरव से दूर भागते हुए देवी ने पृथ्वी पर एक बाण चलाया, जिससे पानी फूट कर बाहर निकला. यही नदी बाणगंगा के रूप में जानी जाती है. ऐसी मान्यता है कि बाणगंगा (बाण: तीर) में स्नान करने पर, देवी माता पर विश्वास करने वालों के सभी पाप धुल जाते हैं.नदी के किनारे, जिसे चरण पादुका कहा जाता है, देवी मां के पैरों के निशान हैं, जो आज तक उसी तरह विद्यमान हैं.इसके बाद वैष्णो देवी ने अधकावरी के पास गर्भ जून में शरण ली, जहां वे 9 महीनों तक ध्यान-मग्न रहीं और आध्यात्मिक ज्ञान और शक्तियां प्राप्त कीं. भैरव द्वारा उन्हें ढूंढ़ लेने पर उनकी साधना भंग हुई. जब भैरव ने उन्हें मारने की कोशिश की, तो विवश होकर वैष्णो देवी ने महा काली का रूप लिया. दरबार में पवित्र गुफ़ा के द्वार पर देवी मां प्रकट हुईं. देवी ने ऐसी शक्ति के साथ भैरव का सिर धड़ से अलग किया कि उसकी खोपड़ी पवित्र गुफ़ा से 2.5 कि.मी. की दूरी पर भैरव घाटी नामक स्थान पर जा गिरी.

भैरव ने मरते समय क्षमा याचना की. देवी जानती थीं कि उन पर हमला करने के पीछे भैरव की प्रमुख मंशा मोक्ष प्राप्त करने की थी.उन्होंने न केवल भैरव को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति प्रदान की, बल्कि उसे वरदान भी दिया कि भक्त द्वारा यह सुनिश्चित करने के लिए कि तीर्थ-यात्रा संपन्न हो चुकी है, यह आवश्यक होगा कि वह देवी मां के दर्शन के बाद, पवित्र गुफ़ा के पास भैरव नाथ के मंदिर के भी दर्शन करें.इस बीच वैष्णो देवी ने तीन पिंड (सिर) सहित एक चट्टान का आकार ग्रहण किया और सदा के लिए ध्यानमग्न हो गईं.

इस बीच पंडित श्रीधर अधीर हो गए. वे त्रिकुटा पर्वत की ओर उसी रास्ते आगे बढ़े, जो उन्होंने सपने में देखा था.अंततः वे गुफ़ा के द्वार पर पहुंचे. उन्होंने कई विधियों से 'पिंडों' की पूजा को अपनी दिनचर्या बना ली. देवी उनकी पूजा से प्रसन्न हुईं. वे उनके सामने प्रकट हुईं और उन्हें आशीर्वाद दिया. तब से, श्रीधर और उनके वंशज देवी मां वैष्णो देवी की पूजा करते आ रहे हैं

Saturday, 22 December 2012

'' माँ ज्वाला जी की कथा .''

हिमाचल के काँगड़ा स्थित माँ ज्वाला जी माँ का मंदिर अपनी आप मे अनूठा है।यहाँ की मुख्य विशेषता यह है की यहाँ माँ के दरबार मे किसी मूर्ति या पिंडी के दर्शन नहीं होते। माँ ज्वाला जी के दरबार मे माँ की 9 दिव्य ज्योतिया बिना किसी घी ,तेल या रुई के , पहाड़ो मे से ऐसे ही जल रही है। माँ की एक ज्योति नहर के बहते हुए पानी मे भी जल रही है।जो नहर बादशाह अकबर ने माँ की ज्योति को बुझाने के लिए मंदिर में  बनवाई थी।माँ के मंदिर का इत्तिहास बहुत पुराना है।यह मंदिर गुरु गोरख नाथ  जी की तपस्या स्थली है। गुरु गोरखनाथ जी यहाँ से माँ के दर्शन पा कर गोरखपुर गए थे जहा उन्होंने समाधी ली।ऐसा कहा जाता है की दक्ष की कन्या सती जो माँ जगदम्बा का रूप थी उनका  शव जब शिव जी आकाश मार्ग से ले जा रहे थे।तब विष्णु जी के सुदर्शन चक्कर से उस शव का खंण्ड करने पर माँ सती की जीभ यहाँ ज्वाला जी मे गिरी थी।तब से यह स्थान शक्तिपीठ कहलाया।
माँ ज्वाला जी ने अपना पहला दर्शन तमिलनाडु राज्य के एक ब्राह्मण देविदास को स्वप्न मे दिया। माँ ने उन ब्राह्मण से कहा की वह हिमालय पर विराजमान है।ब्राह्मण माँ का आदेश पा कर ज्वालामुखी आ गए। तब देखा की माँ की 9 दिव्या ज्योतिय जमीन मे से निकल रही है। ब्राह्मण वह माँ की सेवा पूजा करने लग गए।माँ के दरबार मे आज भी उन ब्राह्मण के वंशज जो ''भोजक'' जाती के है ,वही सेवा करते है। कुछ समय बाद एक दिन पास के ही एक गाव में  एक ग्वाला था। उसकी गाये रोज दूध नहीं देती थी। ऐसा  लगता था की उसका दूध कोई निकाल लेता है।एक दिन उस ग्वाले ने निश्चय किया की आज वो उस दूध निकालने वाले को पकड़ के ही रहेगा । ग्वाले ने गाय का पीछा किया तो देखा की ......एक ज्योति आकाश मार्ग से आती है और गाये के नीचे कन्या बन के बैठ जाती है और सारा  दूध पी जाती है।ग्वाले ने चुपके से उस दिव्या ज्योति का पीछा किया और ज्वाला जी मे आ पंहुचा।वह माँ की 9 दिव्या ज्योति देख कर हैरान रह गया। उन दिनों हिमाचल जालंधर राज्य में  आता था।ग्वाले ने जालंधर के राजा  महाराज रणजीत सिंह को यह बात बताई।उस रात ही  ,  महाराज रणजीत सिंह को स्वप्न मे काली माँ ने दर्शन दिए। और कहा की ....''वह स्थान मेरा सिद्ध शक्तिपीठ है।वहाँ तुम मेरा मंदिर बनवाओ।माँ की आज्ञा मान के राजा  रणजीत सिंह ने माँ ज्वाला जी का भव्य मंदिर बनवाया। जिस पर समय समय पर अनेक राजाओ ने काम करवाया।  ऐसा  कहा जाता है की जब माँ ने अकबर का घम्मंड दूर कर दिया था और अकबर भी माँ का सेवक बन गया था,तब अकबर ने भी माँ के भगतो के लिए सराय बनवाए।
अकबर के बाद जहाँगीर काँगड़ा जैसे पहाड़ी राज्य को अपनी राजधानी बनवाना चाहता था।जहाँगीर ने काँगड़ा के किले पर कब्ज़ा भी कर लिया था, काँगड़ा के राजा भी माँ के भक्त थे। वो अपना राज्य जहाँगीर को नहीं देना चाहते थे। जहाँगीर काँगड़ा के किले पर दीवार बनवा रहा था। लेकिन  वह दीवार अपने  आप ही  गिर जाती थी। जहाँगीर ने बहुत कोशिश करी लेकिन  दीवार नहीं बन पाई।जहाँगीर के दरबार मे मोजूद हिन्दू दरबारियो को दीवार का यह  बार बार आश्चर्यजनक तरीके  से बार बार गिरजाना  सही नहीं लगा।तब उन्होंने  माँ के दरबार से इसकी आज्ञा मांगने को कहा। माँ के दरबार से जहाँगीर को आदेश आया की काँगड़ा उसके लिए सुरक्षित नहीं है।वो यहाँ अपनी राजधानी नहीं बनाये।तब जहाँगीर माँ की आगया मान कर वापस आगरा चला गया।और काँगड़ा का राज्य फिर से काँगड़ा के राजा  को लौटा  दिया।

Tuesday, 18 December 2012

'' सुलोचना की कथा ''



श्री राम -रावण का भयंकर युद्ध चल रहा है. इंदरजीत ने रावण से कहा कि मै शत्रुओ का संहार करूँगा. रावण को हिम्मत बंधाकर इंदरजीत युद्ध करने गया. इंदरजीत और लक्ष्मण भयंकर युद्ध हुआ. युद्ध में लक्ष्मण जी ने इंदरजीत कि भुजा का छेदन किया. वह भुजा इंदरजीत के आँगन में जा पड़ी. इंदरजीत का छिन्न मस्तक उठाकर वानर श्री राम जी के पास ले गए. इंदरजीत कि पत्नी सुलोचना महान पतिव्रता स्त्री थी . आँगन में आये पतिदेव के कटे हुए हाथ को देखकर रोने लगे "ये युद्ध करने रणभूमि गए हुए है. मैंने यदि पतिव्रत धर्म बराबर पालन किया है तो यह हाथ लिखकर मुझको बतावे कि क्या हुआ है" तब हाथ ने लिखा "लक्ष्मण जी के साथ युद्ध करते हुए मेरा मरण हुआ है. मै तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हू" सोलोचना ने सतीधर्म के अनुसार अग्नि में प्रवेश करने का निश्चय किया

सुलोचना रावण का वन्दन करने गई और कहा कि मुझे अग्नि में प्रवेश करना है , आप आज्ञा दे

उस समय रावण पुत्र - वियोग में रो रहा था. इंदरजीत जैसे अप्रितम वीर युवा पुत्र कि मृत्यु हो चुकी है और अभी पुत्रवधू अग्नि में प्रवेश करने कि आज्ञा मांगती है . रावण का हृदय अतिशय भर आया. उसने सुलोचना से कहा "पुत्रि! मै तुमसे और कोई बात तो कहता नहीं, अग्नि में प्रवेश करने से तुम्हारा मरण मंगलमय होगा परन्तु तुम एक बार रामजी के दर्शन करो, रामजी का वंदन करो. तुम्हारा जीवन और मरण दोनों सुधरेंगे

सुलोचना अत्यंत सुंदर थी. अत्यंत सुंदर पुत्रवधू को कट्टर शत्रु के पास जाने के लिए रावण ने कहा. उससे सुलोचना को बहुत आश्चर्य हुआ. उसने रावण से कहा. "आप मुझे शत्रु के घर भेजते है? वहा मेरे साथ अन्याय हुआ तो ?"

रावण ने कहा "मैंने रामजी के साथ वैर किया है, परन्तु रामजी मुझे शत्रु नहीं मानते. " रावण का रामजी के प्रति कितना विश्वास है? जवान योद्दा वीर पुत्र युद्ध में मृतक हुआ है. और उस समय रावण रामजी के प्रशंसा कर रहा है. पुत्र-वियोग मे रामजी कि आहुति कर रहा है. उसने कहा "मुझे विश्वास है कि राम जी के दरबार मे अन्याय होता नहीं. रामजी तुझे माता समान मानकर तुझको सम्मान देंगे. तुम्हारी प्रशंसा करेंगे. जहा एक्पत्नीव्रतधारी रामजी है, जहाँ जितेन्द्रिय लक्ष्मण जी है, जहाँ बाल ब्रह्मचारी हनुमान जी विराजमान है, उस राम दरबार मे अन्याय नहीं. मेरा एसा विश्वास है कि रामजी के दर्शन से ही जीवन सफल होता है. अग्नि में प्रवेश करने के पहले रामजी के दर्शन कर लो

अतिसुंदर पुत्रवधू को श्री राम के पास जाने कि आज्ञा रावण देता है. सुलोचना रामचंदर जी के पास जाती है. प्रभु ने सुलोचना कि प्रशंसा कि है और कहा है कि यह दो वीर योदाओ के बीच का युद्ध नहीं था. ये दो पतिव्रता स्त्रियों के बीच का युद्ध था. लक्ष्मण कि धर्म पत्नी उर्मिला महान पतिव्रता है और यह सुलोचना भी महान पतिव्रता है. यह लक्ष्मण और इंदरजीत के मध्य का युद्ध नहीं था. उर्मिला और सुलोचना के मध्य का युद्ध था. दो पतिव्रताओ का युद्ध था.

सुग्रीव ने पूछा कि महाराज! सुलोचना महान पतिव्रता है, ऐसा आप जोर देकर वर्णन कर रहे है तो फिर उसके पति का मरण क्यों हुआ?

रामजी ने कहा - 'सुलोचना के पति को कोई मार नहीं सकता था. परन्तु उर्मिला कि जीत हुई. उसका एक ही कारण है कि सुलोचना के पति ने परस्त्री में कुभाव रखनेवाले रावण कि मदद कि और उर्मिला के पति परस्त्री में माँ का भाव रखनेवाले के पक्ष में थे. इससे उर्मिला का जोर अधिक था. नहीं तो सुलोचना के पति को कोई मार नहीं सकता था.

सुलोचना को रामदर्शन करने में आनंद हुआ. प्रभु ने उसके पति का मस्तक उसको दिया. पति देव के मस्तक को देखकर सुलोचना रोने लगी. रामजी को दया आयी, रामजी ने कहा "बेटी! रोओ नहीं, तू हमारी पुत्रि है. तेरी इच्छा हो तो तेरे पति को जीवित कर दू. एक हजार वर्ष कि आयु दे दू. तुम लंका में आनद से राज्य करो. मै यही से वापिस लौट जाऊ, तू रोती है वह मुझे तनिक भी सहन नहीं .

सुलोचना को आश्चर्य हुआ. लोग रामजी के विषय में जो वर्णन करते है वह बहुत ही सामान्य करते है. राक्षसों को भी रामजी भले लगते है. रामजी का बखान करते है, तब फिर देवता और ऋषि रामजी

 का बखान करे, इसमें कोई आश्चर्य नहीं, मै कैसे उन का बखान कर सकता हु. रामजी अतिशय सरल है.......
                                                                                                                                 जयश्री राम जी    |