Sponcered Links

Friday, 6 December 2013

गोस्वामी जी हनुमान के सबसे बडे भक्त थे। हनुमान की विशेषताओं को देखकर वह पूरी तरह उनके हो गए। हनुमान के माध्यम से उन्होंने राम की भक्ति ही नहीं प्राप्त की, राम के दर्शन भी कर लिए। हनुमान ने गोस्वामी की निष्ठा से प्रसन्न होकर उन्हें वाराणसी में दर्शन दिए और वर मांगने को कहा। तुलसी को अपने राम के दर्शन के अतिरिक्त और क्या मांगना था? हनुमान ने वचन दे दिया। राम और हनुमान घोडे पर सवार, तुलसी के सामने से निकल गए। हनुमान ने देखा उनका यह प्रयास व्यर्थ गया। तुलसी उन्हें पहचान ही नहीं पाए। हनुमान ने दूसरा प्रयास किया। चित्रकूट के घाट पर वह चंदन घिस रहे थे कि राम ने एक सुंदर बालक के रूप में उनके पास पहुंच कर तिलक लगाने को कहा। तुलसीदास फिर न चूक जाएं अत:हनुमान को तोते का रूप धारण कर ये प्रसिद्ध पंक्तियां कहनी पडी-
चित्रकूट के घाट पर भई संतनकी भीर।तुलसीदास चन्दन घिसें तिलक देत रघुबीर॥
हनुमान ने मात्र तुलसी को ही राम के समीप नहीं पहुंचाया। जिस किसी को भी राम की भक्ति करनी है, उसे प्रथम हनुमान की भक्ति करनी होगी। राम हनुमान से इतने उपकृत हैं कि जो उनको प्रसन्न किए बिना ही राम को पाना चाहते हैं उन्हें राम कभी नहीं अपनाते। गोस्वामी जी ने ठीक ही लिखा-
राम दुआरेतुम रखवारे।होत न आज्ञा बिनुपैसारे॥
अत:हनुमान भक्ति के महाद्वारहैं। राम की ही नहीं कृष्ण की भी भक्ति करनी हो तो पहले हनुमान को अपनाना होगा। यह इसलिए कि भक्ति का मार्ग कठिन है। हनुमान इस कठिन मार्ग को आसान कर देते हैं, अत:सर्वप्रथम उनका शरणागत होना पडता है। भारत में कई ऐसे संत व साधक हुए हैं जिन्होंने हनुमान की कृपा से अमरत्व को प्राप्त कर लिया। रामायण में राम और सीता के पश्चात सर्वाधिक लोकप्रिय चरित्र हैं हनुमान जिनके मंदिर भारत ही नहीं भारत के बाहर भी अनगिनत संख्या में निर्मित हैं। धरती तो धरती तीनों लोकों में इनकी ख्याति है-
                    जय हनुमान ज्ञान गुण सागर।जय कपीसतिहूंलोक उजागर॥

Saturday, 5 October 2013

शरद नवरात्रों के शुभ अवसर पर

शरद नवरात्रों के शुभ अवसर पर '' जागरण एवं भागवत परिवार '' की तरफ से आप सभी को बहुत बहुत बधाई ,,
हमारी तरफ से आप सभी मित्रो को नवरात्री की हार्दिक शुभ कामनाये...........

Thursday, 5 September 2013

पिप्पलाद ऋषि



पिप्पलाद ऋषि वैदिक सनातन काल के परम तपस्वी एवं ज्ञानी ऋषि थे. पिप्पलाद का जन्म पीपल के वृक्ष के नीचे हुआ पीपल के पत्तों का सेवन भोजन रूप में किया और पीपल के नीचे ही कठोर तपस्या की जिस कारण इन्हें पिप्पलाद नाम प्राप्त हुआ. ऋषि पिप्पलाद जी को भगवान शिव का अवतार भी माना गया है जिस कारण इन्हें पूजनीय स्थान प्राप्त हुआ.
पिप्पलाद जन्म कथा |

पिप्पलाद जी के संबंध में कुछ कथाएं प्रचलित हैं जिसमें से एक के अनुसार जब एक समय त्रेतायुग में अकाल पड़ा तब कौशिक मुनि अपने परिवार समेत गृहस्थान को छोड़कर अन्यत्र परिवार का भरण-पोषण करने के लिए निकल पड़ते हैं परंतु लालन पालन में असमर्थ होने पर वह दुखी मन से अपने एक पुत्र को बीच राह में ही पीपल के वृक्ष के नीचे छोड़ कर चले जाते हैं.

वह बालक जब निंद्रा से जागा तो अपने माता पिता को वहां न पाकर रोने लगता है. थोडी़ देर में उसे भूख-प्यास सताने लगती है तब उसे अपने पास पडे़ पीपल के पत्ते दिखाई पड़ते हैं भूख से व्याकुल वह बालक उन पत्तों से अपनी भूख शांत करता और समीप ही स्थित एक जल कुण्ड का जल पीकर अपनी प्यास बुझाता है. वह बालक प्रतिदिन इसी तरह पत्ते और पानी पीकर भगवान की साधना में लगा रहता है.

एक बार वहां देवर्षि नारद जी उस बालक के पास पहुंचते हैं तथा विपरीत दशा में भी बालक के विनय भाव से प्रभावित हो उस बालक के सभी यथोचित संस्कार पूर्ण करते हैं और उन्हें वेद एवं पुराण का ज्ञान देते हैं. वह बालक को भगवान विष्णु की भक्ति करने को कहते हैं अत: वह बालक नियमित रूप से भगवान विष्णु की भक्ति किया करता और तप में लीन रहता उस बालक की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु उसके समक्ष प्रकट होते हैं तथा उस बालक को योग और ज्ञान की शिक्षा देते हैं जिससे वह बालक ज्ञानी महर्षि बनता है.
पिप्पलाद एवं शनिदेव

समय व्यतीत होने के उपरांत वह बालक जिज्ञासा विवश अपने इस कष्टों का करण पूछता है. वह नारद मुनि जी से प्रश्न करता है कि क्यों उसे इतनी कम उम्र में अनेक कष्टों एवं माता-पिता से अलगाव को सहना पडा़, क्यों मुझे इतनी पीड़ा भोगनी पड़ रही हैं. उस बालक के प्रश्न सुन नारद उनसे कहते हैं कि तुम्हारे कष्टों का कारण शनि देव हैं जिसके कारण तुम्हें अनेक कष्ट सहने पडे़ हैं, नारद मुनि के कथन को सुन कर पिप्पलाद क्रोधित हो जाते हैं और शनि देव को श्राप देतें हैं जिस कारण शनि ग्रह पिप्पलाद के तेजोबल से पृथ्वी पर एक पर्वत पर गिरते हैं जिससे उनका एक पांव चोटिल हो जाता है.

शनि की ऐसी दुर्दशा देखकर ब्रह्मदेव अन्य देवों समेत पिप्पलाद के पास आकर उसका क्रोध शांत करते हैं. वह उनसे कहते हैं कि इसमें शनि का कोई दोष नहीं हैं वह तो केवल व्यक्ति को उसके कर्म अनुसार ही फल प्रदान करते हैं अत: तुम धराशायी हुए शनि को उनके स्थान पर प्रतिष्ठित कर दो पिप्पलाद मुनि ब्रह्मदेव के आदेश का पालन करते हैं. इसलिए जो भी व्यक्ति शनिवार के दिन पिप्पलाद नाम का ध्यान करते हैं उन्हें शनि ग्रह के कष्टों से छुटकारा प्राप्त होता है शनि ग्रह की शांति के लिए शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष के साथ ही शनिदेव के पूजन की परंपरा का विधान है.
पिप्पलाद संबंधि अन्य कथा

पिप्पलाद मुनि के साथ एक अन्य कथा भी जुडी़ हुई है जिसमें पिप्पलाद को महर्षि दधीचि का पुत्र कहा गया है. महर्षि दधीचि ने वृत्रासुर आदि दैत्यों के वध के लिए अपनी हड्डियां देवताओं को दान कर दी थी और जब उनकी पत्नी सुवर्चा पति के साथ सती होने के लिए चिता की ओर जाने लगीं तभी आकाशवाणी होती है कि तुम्हारे गर्भ में महर्षि दधीचि का तेज है जो भगवान शिव का अवतार है.

आकाशवाणी को सुन सुवर्चा अपने मनोरथ को कुछ समय के लिए टाल देती है और पुत्र के जन्म पश्चात उसे पीपल के वृक्ष के नीचे छोड़ कर सती हो जाती हैं. वह बालक पीपल के वृक्ष के नीचे निवास करने लगा और पीपल के पत्तों का सेवन करता है जिस कारण उस बालक को पिप्पलाद नाम प्राप्त होता है. पिप्पलाद अपने पिता की मृत्यु के कारण अत्यंत क्षुब्ध थे अत: वह देवताओं से अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए भगवान शंकर की तपस्या करते हैं.

उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न हो भगवान शिव उनसे वरदान मांगने को कहते हैं इस पर पिप्पलाद पिता के हत्यारे देवताओं को भस्म करने की इच्छा व्यक्त करता है. शिवजी उसकी इच्छा पूर्ति हेतु अपने तीसरे नेत्र को खोल देते हैं इस भीषण अग्नि से संपूर्ण सृष्टि नष्ट होने लगती है और पिप्पलाद का शरीर भी आग से जलने लगता है.

इस संकट से मुक्ति के लिए पिप्पलाद भगवान शिव को पुकरते हैं भगवान शिव प्रकट हो कर उससे कहते हैं कि तुमने जैसा चाहा मैने तो वैसा ही किया है और तुम्हें इस लिए कष्ट मिल रहा है क्योंकि तुमने दूसरों का विनाश चाहा और इस कष्ट को तुम्हें भी भुगतना होगा. भगवान शिव के वचन सुनकर पिप्पलाद उनसे अपने कृत की क्षमा मांगते हैं और अपनी भूल का पश्चाताप करते हैं.


Tuesday, 3 September 2013

सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु ने एक बार सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के साथ निर्गुण, निराकार शिव से प्रार्थना की, प्रभु आप कैसे प्रसन्न होते हैं। भगवान शिव बोले मुझे प्रसन्न करने के लिए शिवलिंग का पूजन करो। जब किसी प्रकार का संकट या दु:ख हो तो शिवलिंग का पूजन करने से समस्त दु:खों का नाश हो जाता है।(शिवमहापुराण सृष्टिखंड )जब देवर्षि नारद ने भगवान श्री विष्णु को शाप दिया और बाद में पश्चाताप किया तब विष्णु ने नारदजी को पश्चाताप के लिए शिवलिंग का पूजन, शिवभक्तों का सत्कार, नित्य शिवशत नाम का जाप आदि उपाय सुझाये। (शिवमहापुराण सृष्टिखंड )एक बार सृष्टि रचयिता ब्रह्माजी सभी देवताओं को लेकर क्षीर सागर में श्री विष्णु के पास परम तत्व जानने के लिए पहोच गये। श्री विष्णु ने सभी को शिवलिंग की पूजा करने का सुझाव दिया और विश्वकर्मा को बुलाकर देवताओं के अनुसार अलग-अलग द्रव्य पदार्थ के शिवलिंग बनाकर देने का आदेश देकर सभी को विधिवत पूजा से अवगत करवाया। (शिवमहापुराण सृष्टिखंड )ब्रह्मा जी ने देवर्षि नारद को शिवलिंग की पूजा की महिमा का उपदेश देते हुवे कहा। इसी उपदेश से जो ग्रंथ कि रचना हुई वो शिव महापुराण हैं। माता पार्वती के अत्यन्त आग्रह से, जनकल्याण के लिए निर्गुण, निराकार शिव ने सौ करोड़ श्लोकों में शिवमहापुराण की रचना कि। जो चारों वेद और अन्य सभी पुराण शिवमहापुराण की तुलना में नहीं आ सकते। भगवान शिव की आज्ञा पाकर विष्णु के अवतार वेदव्यास जी ने शिवमहापुराण को २४६७२ श्लोकों में संक्षिप्त किया हैं।

Monday, 19 August 2013

''श्रावणी पूर्णिमा और रक्षा बंधन ''

राधे राधे....!
आप सभी प्यारे भाईयोँ तथा प्यारी बहनोँ को
रक्षाबंधन के पावन पर्व की बहुत बहुत शुभकामनाएँ...
 
 
श्रावण मास की पूर्णिमा को श्रावणी पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है. इस दिन रक्षा बंधन का पवित्र त्यौहार मनाया जाता है.
इस दिनयज्ञोपवीत के पूजन तथा उपनयन संस्कार का भी विधान है. ब्राह्मण वर्ग अपनी कर्म शुद्धि के लिए उपक्रम करते हैं. हिन्दू धर्म में सावन माह की पूर्णिमा बहुत ही पवित्र व शुभ दिन माना जाता है सावन पूर्णिमा की तिथि धार्मिक दृष्टि के साथ ही साथ व्यावहारिक रूप से भी बहुत ही महत्व रखती है सावन माह भगवान शिव की पूजा उपासना का महीना माना जाता है. सावन में हर दिन भगवान शिव की विशेष पूजा करने का विधान है.
श्रावण पूर्णिमा को दक्षिण भारत में नारियली पूर्णिमा और अवनी अवित्तम, मध्य भारत में कजरी पूर्णिमा , उत्तर भारत में रक्षा बंधन तथा गुजरात में पवित्रोपना के रूप में मनाया जाता है.
श्रावण पूर्णिमा महत्व |
श्रावण पूर्णिमा के दिन चंद्रमा अपनी पूर्ण कलाओं के साथ होता है अत: इस दिन पूजा उपासना करने से चंद्रदोष से मुक्ति मिलती है, श्रावणी पूर्णिमा का दिन दान, पुण्य के लिए महत्वपूर्ण होता है अत: इस दिन स्नान के बाद गाय आदि को चारा खिलाना, चींटियों , मछलियों आदि को दाना खिलाना चाहिए इस दिन गोदान का बहुत महत्व होता है.
श्रावणी पर्व के दिन जनेऊ पहनने वाला हर धर्मावलंबी मन, वचन और कर्म की पवित्रता का संकल्प लेकर जनेऊ बदलते हैं. इस दिन भगवान विष्णु और लक्ष्मी की पूजा का विधान होता है. विष्णु-लक्ष्मी के दर्शन से सुख, धन और समृद्धि की प्राप्ति होती है. इस पावन दिन पर भगवान शिव, विष्णु, महालक्ष्मी व हनुमान को रक्षासूत्र अर्पित करना चाहिए.

पुराणों के मुताबिक गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर श्री अमरनाथ की पवित्र छडी यात्रा का शुभारंभ होता है और यह यात्रा श्रावण पूर्णिमा को संपन्न होती है. कांवडियों द्वारा श्रावण पूर्णिमा के दिन ही शिवलिंग पर जल चढ़ाया जाता है और उनकी कांवड़ यात्रा संपन्न होती है. इस दिन शिव जी का पूजन होता है पवित्रोपना के तहत रूई की बत्तियाँ पंचग्वया में डुबाकर भगवान शिव को अर्पित की जाती हैं.
सावन कजरी पूर्णिमा |
कजरी पूर्णिमा का पर्व भी श्रावण पूर्णिमा के दिन ही पड़ता है यह पर्व विशेषत: मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश के कुछ जगहों में मनाया जाता है. श्रावण अमावस्या के नौंवे दिन से इस उत्सव की तैयारियां आरंभ हो जाती हैं. कजरी नवमी के दिन महिलाएँ पेड़ के पत्तों के पात्रों में मिट्टी भरकर लाती हैं जिसमें जौ बोया जाता है. कजरी पूर्णिमा के दिन महिलाएँ इन जौ पात्रों को सिर पर रखकर पास के किसी तालाब या नदी में विसर्जित करने के लिए ले जाती हैं .
रक्षाबंधन |

रक्षाबंधन का त्यौहार भी श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है इसे सावनी या सलूनो भी कहते हैं. रक्षाबंधन, राखी या रक्षासूत्र का रूप है राखी सामान्यतः बहनें भाई को बांधती हैं इस दिन बहनें अपने भाइयों की कलाई पर राखी बांधती हैं उनकी आरती उतारती हैं तथा इसके बदले में भाई अपनी बहन को रक्षा का वचन देता है और उपहार स्वरूप उन्हें भेंट भी देता है.

इसके अतिरिक्त ब्राहमणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा संबंधियों को जैसे पुत्री द्वारा पिता को भी रक्षासूत्र या राखी बांधी जाती है. इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है, उत्सर्जन, स्नान-विधि, ॠषि-तर्पणादि करक नवीनयज्ञोपवीत धारण किया जाता है. वृत्तिवान ब्राह्मण अपने यजमानों को यज्ञोपवीत तथा राखी देकर दक्षिणा लेते हैं.




Saturday, 17 August 2013

एक बार धर्मराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया तथा अपने चारों भाइयों को दिग्विजय करने की आज्ञा दी। चारों भाइयों ने चारों दिशा में जाकर समस्त नरपतियों पर विजय प्राप्त की किन्तु जरासंघ को न जीत सके। इस पर श्री कृष्ण, अर्जुन तथा भीमसेन ब्राह्मण का रूप धर कर मगध देश की राजधानी में जरासंघ के पास पहुँचे। जरासंघ ने इन ब्राह्मणों का यथोचित आदर सत्कार करके पूछा, “हे ब्राह्मणों! मैं आप लोगों की क्या सेवा कर सकता हूँ?”जरासंघ के इस प्रकार कहने पर श्री कृष्ण बोले, “हे मगजधराज! हम आपसे याचना करने आये हैं। हम यह भली भाँति जानते हैं कि आप याचकों को कभी विमुख नहीं होने देते हैं। राजा हरिश्चन्द्र ने विश्वामित्र जी की याचना करने पर उन्हें सर्वस्व दे डाला था। राजा बलि से याचना करने पर उन्होंने त्रिलोक का राज्य दे दिया था। फिर आपसे यह कभी आशा नहीं की जा सकती कि आप हमें निराश कर देंगे। हम आपसे गौ, धन, रत्नादि की याचना नहीं करते। हम केवल आपसे युद्ध की याचना करते हैं, आप हमे द्वन्द्व युद्ध की भिक्षा दीजिये।”
श्री कृष्ण के इस प्रकार याचना करने पर जरासंघ समझ गया कि छद्मवेष में ये कृष्ण, अर्जुन तथा भीमसेन हैं। उसने क्रोधित होकर कहा, “अरे मूर्खों! यदि तुम युद्ध ही चाहते हो तो मुझे तुम्हारी याचना स्वीकार है। किन्तु कृष्ण! तुम मुझसे पहले ही पराजित होकर रण छोड़ कर भाग चुके हो। नीति कहती है कि भगोड़े तथा पीठ दिखाने वाले के साथ युद्ध नहीं करना चाहिये। अतः मैं तुमसे युद्ध नहीं करूँगा। यह अर्जुन भी दुबला-पतला और कमजोर है तथा यह वृहन्नला के रूप में नपुंसक भी रह चुका है। इसलिये मैं इससे भी युद्ध नहीं करूँगा। हाँ यह भीम मुझ जैसा ही बलवान है, मैं इसके साथ अवश्य युद्ध करूँगा।”
इसके पश्चात् दोनों ही अपना-अपना गदा सँभाल कर युद्ध के मैदान में डट पड़े। दोनों ही महाबली तथा गदायुद्ध के विशेषज्ञ थे। पैंतरे बदल-बदल कर युद्ध करने लगे। कभी भीमसेन का प्रहार जरासंघ को व्याकुल कर देती तो कभी जरासंघ चोट कर जाता। सूर्योदय से सूर्यास्त तक दोनों युद्ध करते और सूर्यास्त के पश्चात् युद्ध विराम होने पर मित्रभाव हो जाते। इस प्रकार सत्ताइस दिन व्यतीत हो गये और दोनों में से कोई भी पराजित न हो सका। अट्ठाइसवें दिन प्रातः भीमसेन कृष्ण से बोले, “हे जनार्दन! यह जरासंघ तो पराजित ही नहीं हो रहा है। अब आप ही इसे पराजित करने का कोई उपाय बताइये।” भीम की बात सुनकर श्री कृष्ण ने कहा, “भीम! यह जरासंघ अपने जन्म के समय दो टुकड़ों में उत्पन्न हुआ था, तब जरा नाम की राक्षसी ने दोनों टुकड़ों को जोड़ दिया था। इसलिये युद्ध करते समय जब मै तुम्हें संकेत करूँगा तो तुम इसके शरीर को दो टुकड़ों में विभक्त कर देना। बिना इसके शरीर के दो टुकड़े हुये इसका वध नहीं हो सकता।”
जनार्दन की बातों को ध्यान में रख कर भीमसेन जरासंघ से युद्ध करने लगे। युद्ध करते-करते दोनों की गदाओं के टुकड़े-टुकड़े हो गये तब वे मल्ल युद्ध करने लगे। मल्ल युद्ध में ज्योंही भी ने जरासंघ को भूमि पर पटका, श्री कृष्ण ने एक वृक्ष की डाली को बीच से चीरकर भीमसेन को संकेत किया। उनका संकेत समझ कर भीम ने अपने एक पैर से जरासंघ के एक टांग को दबा दिया और उसकी दूसरी टांग को दोनों हाथों से पकड़ कर कंधे से ऊपर तक उठा दिया जिससे जरासंघ के दो टुकड़े हो गये। भीम ने उसके दोनों टुकड़ों को अपने दोनों हाथों में लेकर पूरी शक्ति के साथ विपरीत दिशाओं में फेंक दिया और इस प्रकार महाबली जरासंघ का वध हो गया।

Thursday, 8 August 2013

यहां है आधा शिव आधा पार्वती रूप शिवलिंग

 धार्मिक दृष्टि से पूरा संसार ही शिव का रुप है। इसलिए शिव के अलग-अलग अद्भुत स्वरुपों के मंदिर और देवालय हर जगह पाए जाते हैं। ऐसा ही एक मंदिर स्थित है - हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में स्थित काठगढ़ महादेव। इस मंदिर का शिवलिंग ऐसे स्वरुप के लिए प्रसिद्ध है, जो संभवत: किसी ओर शिव मंदिर में नहीं दिखाई देता। इसलिए काठगढ़ महादेव संसार में एकमात्र शिवलिंग माने जाते हैं, जो आधा शंकर और आधा पार्वती का रुप लिए हुए है। यानि एक शिवलिंग में दो भाग हैं। इसमें भगवान शंकर के अर्द्धनारीश्वर स्वरुप के साक्षात दर्शन होते हैं। शिव रुप का भाग लगभग ७ फुट और पार्वती रुप का शिवलिंग का हिस्सा थोड़ा छोटा होकर करीब ६ फुट का है। इस शिवलिंग की गोलाई लगभग ५ फिट है। शिव और शक्ति का दोनों के सामूहिक रुप के शिवलिंग दर्शन से जीवन से पारिवारिक और मानसिक दु:खों का अंत हो जाता है। शिवपुराण की कथा अनुसार जब ब्रह्मा और विष्णु के बीच बड़े और श्रेष्ठ होने की बात पर विवाद हुआ, तब बहुत तेज प्रकाश के साथ एक ज्योर्तिलिंग प्रगट हुआ। अचंभित विष्णु और ब्रह्मदेव उस ज्योर्तिलिंग का आरंभ और अंत नहीं खोज पाए। किंतु ब्रह्मदेव ने अहं के कारण यह झूठा दावा किया कि उनको अंत और आरंभ पता है। तब शिव ने प्रगट होकर ब्रह्म देव की निंदा की और दोनों देवों को समान बताया। माना जाता है कि वही ज्योर्तिमय शिवलिंग ही काठगढ़ का शिवलिंग है। चूंकि शिव का वह दिव्य लिंग शिवरात्रि को प्रगट हुआ था, इसलिए लोक मान्यता है कि काठगढ महादेव शिवलिंग के दो भाग भी चन्द्रमा की कलाओं के साथ करीब आते और दूर होते हैं। शिवरात्रि का दिन इनका मिलन माना जाता है। काठगढ़ में सावन माह और महाशिवरात्रि के दिन विशेष शिव पूजा और धार्मिक आयोजन होते हैं। इसलिए इस समय काठगढ़ की यात्रा सबसे अच्छा मानी जाती है। काठगढ़ शिवलिंग दर्शन के लिए पहुंचने का मुख्य मार्ग पंजाब का पठानकोट और हिमाचल प्रदेश के इंदौरा तहसील से है। जहां से काठगढ़ की दूरी लगभग ६ से ७ किलोमीटर है।