Tuesday, 5 February 2013
'' गंगावतरण की कथा ''
Sunday, 3 February 2013
॥ श्रीरुद्राष्टकम् ॥
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विंभुं ब्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरींह। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं।।
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।।
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं।।
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं।।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा।।
चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं।।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि।।
प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं।।
त्रयःशूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं।।
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनान्ददाता पुरारी।।
चिदानंदसंदोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी।।
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं। भजंतीह लोके परे वा नराणां।।
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं।।
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं।।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो।।
श्लोक-रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति।।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरींह। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं।।
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।।
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं।।
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं।।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा।।
चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं।।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि।।
प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं।।
त्रयःशूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं।।
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनान्ददाता पुरारी।।
चिदानंदसंदोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी।।
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं। भजंतीह लोके परे वा नराणां।।
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं।।
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं।।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो।।
श्लोक-रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति।।
Thursday, 31 January 2013
'' कार्तिकेय का सदा के लिए बालक रूप ''
एक बार भगवान शंकर ने माता पार्वती के साथ द्युत (जुआ) खेलने की
अभिलाषा प्रकट की। खेल में भगवान शंकर अपना सब कुछ हार गए। हारने के बाद
भोलेनाथ अपनी लीला को रचते हुए पत्तो के वस्त्र पहनकर गंगा के तट पर चले
गए। कार्तिकेय जी को जब सारी बात पता चली, तो वह माता पार्वती से समस्त
वस्तुएँ वापस लेने आए। इस बार खेल में पार्वती जी हार गईं तथा कार्तिकेय
शंकर जी का सारा सामान लेकर वापस चले गए। अब इधर पार्वती भी चिंतित हो गईं
कि सारा सामान भी गया तथा पति भी दूर हो गए। पार्वती जी ने अपनी व्यथा
अपने प्रिय पुत्र गणेश को बताई तो मातृ भक्त गणेश जी स्वयं खेल खेलने
शंकर भगवान के पास पहुंचे। गणेश जी जीत गए तथा लौटकर अपनी जीत का समाचार
माता को सुनाया। इस पर पार्वती बोलीं कि उन्हें अपने पिता को साथ लेकर आना
चाहिए था। गणेश जी फिर भोलेनाथ की खोज करने निकल पड़े। भोलेनाथ से उनकी
भेंट हरिद्वार में हुई। उस समय भोले नाथ भगवान विष्णु व कार्तिकेय के साथ
भ्रमण कर रहे थे। पार्वती से नाराज भोलेनाथ ने लौटने से मना कर दिया।
भोलेनाथ के भक्त रावण ने गणेश जी के वाहन मूषक को बिल्ली का रूप धारण करके
डरा दिया। मूषक गणेश जी को छोड़कर भाग गए। इधर भगवान विष्णु ने भोलेनाथ
की इच्छा से पासा का रूप धारण कर लिया था। गणेश जी ने माता के उदास होने
की बात भोलेनाथ को कह सुनाई। इस पर भोलेनाथ बोले कि हमने नया पासा बनवाया
है, अगर तुम्हारी माता पुन: खेल खेलने को सहमत हों, तो मैं वापस चल सकता
हूं।
गणेश जी के आश्वासन पर भोलेनाथ वापस पार्वती के पास पहुंचे तथा खेल
खेलने को कहा। इस पर पार्वती जी हंस पड़ी व बोलीं ‘अभी पास क्या चीज है,
जिससे खेल खेला जाए।’ यह सुनकर भोलेनाथ चुप हो गए। इस पर नारद जी ने अपनी
वीणा आदि सामग्री उन्हें दी। इस खेल में भोलेनाथ हर बार जीतने लगे। एक दो
पासे फैंकने के बाद गणेश जी समझ गए तथा उन्होंने भगवान विष्णु के पासा रूप
धारण करने का रहस्य माता पार्वती को बता दिया। सारी बात सुनकर पार्वती जी
को क्रोध आ गया। रावण ने माता को समझाने का प्रयास किया, पर उनका क्रोध
शांत नहीं हुआ तथा क्रोधवश उन्होंने भोलेनाथ को श्राप दे दिया कि गंगा की
धारा का बोझ उनके सिर पर रहेगा। नारद जी को कभी एक स्थान पर न टिकने का
अभिषाप मिला। भगवान विष्णु को श्राप दिया कि यही रावण तुम्हारा शत्रु होगा
तथा रावण को श्राप दिया कि विष्णु ही तुम्हारा विनाश करेंगे। कार्तिकेय
को भी माता पार्वती ने कभी जवान न होने का श्राप दे दिया।इस पर सर्वजन चिंतित हो उठे। तब नारद जी ने अपनी विनोदपूर्ण बातों से माता का क्रोध शांत किया, तो माता ने उन्हें वरदान मांगने को कहा। नारद जी बोले कि आप सभी को वरदान दें, तभी मैं वरदान लूंगा। पार्वती जी सहमत हो गईं। उस दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा थी ,तब शंकर जी ने कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन जुए में विजयी रहने वाले को वर्ष भर विजयी बनाने का वरदान मांगा। भगवान विष्णु ने अपने प्रत्येक छोटे- बड़े कार्य में सफलता का वर मांगा, परंतु कार्तिकेय जी ने सदा बालक रहने का ही वर मांगा तथा कहा, ‘मुझे विषय वासना का संसर्ग न हो तथा सदा भगवत स्मरण में लीन रहूं।’ अंत में नारद जी ने देवर्षि होने का वरदान मांगा। माता पार्वती ने रावण को समस्त वेदों की सुविस्तृत व्याख्या देते हुए सबके लिए तथास्तु कहा।
Wednesday, 30 January 2013
गंगा विशेष पवित्र नदी क्यों?
महाभारत में कहा गया है.. "जैसे अग्नि ईधन को जला देती है, उसी प्रकार सैंकड़ो निषिद्ध कर्म करके भी यदि गंगा स्नान किया जाये , तो उसका जल उन सब पापों को भस्म कर देता है, सत्ययुग में सभी तीर्थ पुण्यदायक होते थे.. त्रेता में पुष्कर और द्वापर में कुरुक्षेत्र तथा कलियुग में गंगा कि सबसे अधिक महिमा बताई गई है. नाम लेने मात्र से गंगा पापी को पवित्र कर देती है. देखने से सौभाग्य तथा स्नान या जल ग्रेहण करने से सात पीढियों तक कुल पवित्र हो जाता है (महाभारत/वनपर्व 85 /89 -90 -93 "
गंगाजल पर किये शोध कार्यो से स्पष्ट है कि यह वर्षो तक रखने पर भी खराब नहीं होता .. स्वास्थवर्धक तत्वों का बाहुल्य होने के कारण गंगा का जल अमृत के तुल्य, सर्व रोगनाशक, पाचक, मीठा, उत्तम, ह्रदय के लिए हितकर, पथ्य, आयु बढ़ाने वाला तथा त्रिदोष नाशक है,
इसका जल अधिक संतृप्त माना गया है, इसमें पर्याप्त लवण जैसे कैल्शियम, पोटेशियम, सोडियम आदि पाए जाते है और 45 प्रतिशत क्लोरिन होता है , जो जल में कीटाणुओं को पनपने से रोकता है. इसी कि उपस्थिति के कारण पानी सड़ता नहीं और ना ही इसमें कीटाणु पैदा होते है, इसकी अम्लीयता एवं क्षारीयता लगभग समान होती है, गंगाजल में अत्यधिक शक्तिशाली कीटाणु-निरोधक तत्व क्लोराइड पाया जाता है. डा. कोहिमान के मत में जब किसी व्याक्ति कि जीवनी शक्ति जवाब देने लगे , उस समय यदि उसे गंगाजल पिला दिया जाये, तो आश्चर्यजनक ढंग से उसकी जीवनी शक्ति बढती है और रोगी को ऐसा लगता है कि उसके भीतर किसी सात्विक आनंद का स्त्रोत फुट रहा है शास्त्रों के अनुसार इसी वजह से अंतिम समय में मृत्यु के निकट आये व्यक्ति के मुंह में गंगा जल डाला जाता है .गंगा स्नान से पुण्य प्राप्ति के लिए श्रद्धा आवश्यक है. इस सम्बन्ध में एक कथा है.
एक बार पार्वती जी ने शंकर भगवान से पूछा -"गंगा में स्नान करने वाले प्राणी पापो से छुट जाते है?" इस पर भगवान शंकर बोले -"जो भावनापूर्वक स्नान करता है, उसी को सदगति मिलती है, अधिकाँश लोग तो मेला देखने जाते है" पार्वती जी को इस जवाब से संतोष नहीं मिला. शंकर जी ने फिर कहा - "चलो तुम्हे इसका प्रत्यक्ष दर्शन कराते है" गंगा के निकट शंकर जी कोढ़ी का रूप धारण कर रस्ते में बैठ गये और साथ में पार्वती जी सुंदर स्त्री का रूप धारण कर बैठ गई. मेले के कारण भीड़ थी.. जो भी पुरष कोढ़ी के साथ सुंदर स्त्री को देखता , वह सुंदर स्त्री की और ही आकर्षित होता.. कुछ ने तो उस स्त्री को अपने साथ चलने का भी प्रस्ताव दिया. अंत में एक ऐसा व्यक्ति भी आया, जिसने स्त्री के पातिव्रत्य धर्म की सराहना की और कोढ़ी को गंगा स्नान कराने में मदद दी. शंकर भगवान प्रकट हुए और बोले. 'प्रिय! यही श्रद्धालु सदगति का सच्चा अधिकारी है...."
अब बोलिए जय गंगा मैया. हर हर महादेव.
Friday, 25 January 2013
कथा भगवान शिव के लिंग पूजन की >>| श्री शिव महापुराण>> त्रितये खंड-- अध्याय= पांचवां,,
ब्रह्मा जी ने कहा की हे नारद जिस दिन से माँ सती ने अपने शरीर को त्यागा था उसी दिन से भगवान शिव अपना अवधूत सवरूप धारण कर साधारण मनुष्यों के समान पत्नी वियोग से दुखी हो संसार में सब और भ्रमण करते रहे,वे परमहंस योगिनियों के समान नग्न शरीर,सर्वांग में भस्सम मले हुए मस्तक पर जटाजूट धारण किये,गले में मुण्डों की माला पहने हुए भ्रमण करते रहे,कुछ समय तक वो एक पर्वत पे जा बैठे और घोर तप करने लगे,एक दिन वे दिगम्बर वेश धरी शिवजी दारुक बन में जा पहुंचे,वहां उन्हें नग्न वस्था में देखकर मुनियों की इस्त्रियाँ उनके सुन्दर सवरूप पर मोहित हो काम के आवेग में उनसे लिपट गई,ये देखकर सब ऋषि मुनियों ने शिवजी को शाप दिया,उस शाप के कारन शिवजी का लिंग उनके शरीर से पृथक होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा उस समय तीनो लोकों में हाहाकार मच गया,नारद जी ने कहा की हे पिता आप मुझे ये कथा विस्तारपूर्वक वर्णन करें-
ब्रह्मा जी बोले की जिस समय शिवजी दिगम्बर रूप में वनों में भ्रमण कर रहे थे उस वक़्त ऋषि मुनि कहीं अन्यत्र गए थे,केवल उनकी इस्त्रियाँ ही घरों में थी,उस कठिन अवस्था में भी शिवजी का रूप इतना सुन्दर था की उसे देखते ही सभी ऋषियों की पत्नियाँ उनपर मोहित हो गई,और उनसे लिपट गईं,उस समय उनके पति वहां आ गए जब उन्होंने ये देखा तो क्रोध में भरकर शिवजी से कहने लगे,अरे मुर्ख नारकी,अधर्मी,पापी अनाचारी तू ये कैसा पाप कर रहा है,तुने वेदों के विरुद्ध अधर्म को स्वीकार किया है अस्तु हम तुम्हे ये शाप देते हैं की तेरा लिंग पृथ्वी पर गिर पड़े,
उन ऋषियों के ऐसा कहते ही शिवजी का लिंग पृथ्वी पर गिर पड़ा और पृथ्वी का सीना चीरते हुए पाताल के भीतर जा पहुंचा ऐसा होने के पश्चात ही भगवान शिवजी ने अपना सवरूप प्रलय कालीन रूप की भांति महाभयानक बना लिया,किन्तु ये भेद किसी पर प्रकट न हुआ की शिवजी ने ऐसा चरित्र क्योँ रचा है शिवजी का लिंग जब गिर पड़ा उसके पश्चात तीनो लोकों में अनेक प्रकार के उपद्रव उठने लगे,जिस कारण सब लोग अत्यंत भेयभीत दुखी तथा चिंतित हो गए पर्वतों से अग्नि की लपटें उठने लगीं,दिन में आकाश से तारे टूट-टूट कर गिरने लगे,चारों और हाहाकार शब्द भर गया,ऋषि मुनियों के आश्रम में ये उत्पाद सबसे अधिक हुए,परन्तु इस भेद को कोई नहीं जान पाया की ऐसा क्योँ हो रहा है,
\ तब सभी ऋषि मुनि परेशान होकर देव लोक में जा पहुंचे,तब सभी देवता मेरे पास आये,मैं भी तब ये भेद नहीं जान पाया फिर हम सभी विष्णु लोक में भगवान विष्णु जी की शरण में गए तब हमने उन्हें प्रणाम किया और इस उपद्रव का कारण पुछा,तब भगवान विष्णु जी ने अपनी दिव्यदृष्टि से ये जाना की ये जो कुछ हो रहा है ये इन ऋषि मुनियों की मुर्खता का परिणाम है इन्होने बिना सोचे समझे अपने ब्रह्मतेज का प्रदर्शन किया,तभी ये उपद्रव हो रहे हैं,अब हम सबको उचित है की हम सब भगवान महादेव की शरण में चलें और उनसे क्षमा प्राथना करें,जब तक वो अपने लिंगको पुन्ह धारण नहीं कर लेते तब तक किसी को चैन नहीं मिलेगा,
इतना कहकर हम सभी भगवान शिव के पास पहुँच गए,उनकी अनेक प्रकार से स्तुति की और कहा की हे प्रभु आप हमारे ऊपर कृपा करें और अपने लिंगको पुन्ह धारण कर लें,इसपर शिवजी बोले की हे विष्णु इस में इन ऋषि मुनियों का और देवताओं का कोई दोष नहीं है,ये चरित्र तो हमने अपनी इच्छा से किया है जब हम बिना स्त्री के हैं तो ये हमारा लिंग किस काम का ,तब सब देवताओं ने कहा की हे प्रभु माँ सती ने हिमालय के घर में गिरिजा के रूप में जन्म ले लिया है और आपको पाने के हेतु वो "गंगावतरण पर्वत"पे कठिन तप्प कर रहीं हैं, तब शिवजी ने ये सुनकर उन सभी देवताओं से कहा की अगर तुम सभी हमारे लिंग की पूजा करना स्वीकार करलो तब हम इसे पुन्ह धारण कर लेंगे,तब सभी देवताओं ने उनके लिंग का पूजन करना स्वीकार कर लिया,और प्रभु ने अपना लिंग पुन्ह धारण कर लिया,हे नारद मैंने और श्री हरी विष्णु जी ने एक उतम हीरे को लेकर शिवलिंग के समान एक मूर्ति का निर्माण किया,और उस मूर्ति को उसी स्थान पे स्थापित कर दिया,तदपुरांत मैंने सब लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा की इस "हीरकेश" शिवलिंग का जो भी व्यक्ति पूजन करेगा उसे लोक तथा परलोक में आनंद प्राप्त होगा,उस शिव लिंग के अतिरिक्त हमने वहां पर और भी शिवलिंगों की स्थापना की,तब सभी प्रभु शिव का ध्यान करके अपने अपने लोकों को चले गए,हे नारद शिव लिंग पूजन की इस कथा को जो प्राणी मन लगाकर पढता है, सुनता है,दूसरों को सुनाता है वह सदैव प्रसन रहता है जो लोग शिवलिंग का पूजन करते हैं वे अपने कुल सहित मुक्ति को प्राप्त करते हैं
बोलिए शंकर भगवान जी की जय .......
ब्रह्मा जी ने कहा की हे नारद जिस दिन से माँ सती ने अपने शरीर को त्यागा था उसी दिन से भगवान शिव अपना अवधूत सवरूप धारण कर साधारण मनुष्यों के समान पत्नी वियोग से दुखी हो संसार में सब और भ्रमण करते रहे,वे परमहंस योगिनियों के समान नग्न शरीर,सर्वांग में भस्सम मले हुए मस्तक पर जटाजूट धारण किये,गले में मुण्डों की माला पहने हुए भ्रमण करते रहे,कुछ समय तक वो एक पर्वत पे जा बैठे और घोर तप करने लगे,एक दिन वे दिगम्बर वेश धरी शिवजी दारुक बन में जा पहुंचे,वहां उन्हें नग्न वस्था में देखकर मुनियों की इस्त्रियाँ उनके सुन्दर सवरूप पर मोहित हो काम के आवेग में उनसे लिपट गई,ये देखकर सब ऋषि मुनियों ने शिवजी को शाप दिया,उस शाप के कारन शिवजी का लिंग उनके शरीर से पृथक होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा उस समय तीनो लोकों में हाहाकार मच गया,नारद जी ने कहा की हे पिता आप मुझे ये कथा विस्तारपूर्वक वर्णन करें-
ब्रह्मा जी बोले की जिस समय शिवजी दिगम्बर रूप में वनों में भ्रमण कर रहे थे उस वक़्त ऋषि मुनि कहीं अन्यत्र गए थे,केवल उनकी इस्त्रियाँ ही घरों में थी,उस कठिन अवस्था में भी शिवजी का रूप इतना सुन्दर था की उसे देखते ही सभी ऋषियों की पत्नियाँ उनपर मोहित हो गई,और उनसे लिपट गईं,उस समय उनके पति वहां आ गए जब उन्होंने ये देखा तो क्रोध में भरकर शिवजी से कहने लगे,अरे मुर्ख नारकी,अधर्मी,पापी अनाचारी तू ये कैसा पाप कर रहा है,तुने वेदों के विरुद्ध अधर्म को स्वीकार किया है अस्तु हम तुम्हे ये शाप देते हैं की तेरा लिंग पृथ्वी पर गिर पड़े,
उन ऋषियों के ऐसा कहते ही शिवजी का लिंग पृथ्वी पर गिर पड़ा और पृथ्वी का सीना चीरते हुए पाताल के भीतर जा पहुंचा ऐसा होने के पश्चात ही भगवान शिवजी ने अपना सवरूप प्रलय कालीन रूप की भांति महाभयानक बना लिया,किन्तु ये भेद किसी पर प्रकट न हुआ की शिवजी ने ऐसा चरित्र क्योँ रचा है शिवजी का लिंग जब गिर पड़ा उसके पश्चात तीनो लोकों में अनेक प्रकार के उपद्रव उठने लगे,जिस कारण सब लोग अत्यंत भेयभीत दुखी तथा चिंतित हो गए पर्वतों से अग्नि की लपटें उठने लगीं,दिन में आकाश से तारे टूट-टूट कर गिरने लगे,चारों और हाहाकार शब्द भर गया,ऋषि मुनियों के आश्रम में ये उत्पाद सबसे अधिक हुए,परन्तु इस भेद को कोई नहीं जान पाया की ऐसा क्योँ हो रहा है,
\ तब सभी ऋषि मुनि परेशान होकर देव लोक में जा पहुंचे,तब सभी देवता मेरे पास आये,मैं भी तब ये भेद नहीं जान पाया फिर हम सभी विष्णु लोक में भगवान विष्णु जी की शरण में गए तब हमने उन्हें प्रणाम किया और इस उपद्रव का कारण पुछा,तब भगवान विष्णु जी ने अपनी दिव्यदृष्टि से ये जाना की ये जो कुछ हो रहा है ये इन ऋषि मुनियों की मुर्खता का परिणाम है इन्होने बिना सोचे समझे अपने ब्रह्मतेज का प्रदर्शन किया,तभी ये उपद्रव हो रहे हैं,अब हम सबको उचित है की हम सब भगवान महादेव की शरण में चलें और उनसे क्षमा प्राथना करें,जब तक वो अपने लिंगको पुन्ह धारण नहीं कर लेते तब तक किसी को चैन नहीं मिलेगा,
इतना कहकर हम सभी भगवान शिव के पास पहुँच गए,उनकी अनेक प्रकार से स्तुति की और कहा की हे प्रभु आप हमारे ऊपर कृपा करें और अपने लिंगको पुन्ह धारण कर लें,इसपर शिवजी बोले की हे विष्णु इस में इन ऋषि मुनियों का और देवताओं का कोई दोष नहीं है,ये चरित्र तो हमने अपनी इच्छा से किया है जब हम बिना स्त्री के हैं तो ये हमारा लिंग किस काम का ,तब सब देवताओं ने कहा की हे प्रभु माँ सती ने हिमालय के घर में गिरिजा के रूप में जन्म ले लिया है और आपको पाने के हेतु वो "गंगावतरण पर्वत"पे कठिन तप्प कर रहीं हैं, तब शिवजी ने ये सुनकर उन सभी देवताओं से कहा की अगर तुम सभी हमारे लिंग की पूजा करना स्वीकार करलो तब हम इसे पुन्ह धारण कर लेंगे,तब सभी देवताओं ने उनके लिंग का पूजन करना स्वीकार कर लिया,और प्रभु ने अपना लिंग पुन्ह धारण कर लिया,हे नारद मैंने और श्री हरी विष्णु जी ने एक उतम हीरे को लेकर शिवलिंग के समान एक मूर्ति का निर्माण किया,और उस मूर्ति को उसी स्थान पे स्थापित कर दिया,तदपुरांत मैंने सब लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा की इस "हीरकेश" शिवलिंग का जो भी व्यक्ति पूजन करेगा उसे लोक तथा परलोक में आनंद प्राप्त होगा,उस शिव लिंग के अतिरिक्त हमने वहां पर और भी शिवलिंगों की स्थापना की,तब सभी प्रभु शिव का ध्यान करके अपने अपने लोकों को चले गए,हे नारद शिव लिंग पूजन की इस कथा को जो प्राणी मन लगाकर पढता है, सुनता है,दूसरों को सुनाता है वह सदैव प्रसन रहता है जो लोग शिवलिंग का पूजन करते हैं वे अपने कुल सहित मुक्ति को प्राप्त करते हैं
बोलिए शंकर भगवान जी की जय .......
Thursday, 24 January 2013
पुराने
जमाने की बात है। एक व्यक्ति अध्ययन करने काशी गया। विभिन्न शास्त्रों की
जानकारी प्राप्त करने में उसे बारह वर्ष लग गए। जब वह लौटा तो घर के लोग
काफी प्रसन्न हुए। पत्नी ने उसके स्नान के लिए गर्म पानी तैयार किया। वह उस
बर्तन को लेकर स्नान गृह गई। उसने देखा कि वहां हजारों चींटियां हैं। उसने
सोचा कि कहीं वे बेचारी बेमौत न मर जाएं, इसलिए उसने गर्म पानी के बर्तन
को दूसरे स्थान पर रख दिया। पति आया और बर्तन को उठाकर फिर पहले वाले स्थान
पर ले गया और वहीं स्नान करने लगा।
पत्नी ने देखा तो वह परेशान हो गई। उसने कहा, ‘मैंने गर्म पानी का यह बर्तन वहां रखा था, यहां कैसे आ गया?’ पति ने कहा, ‘तुम भी अजीब बात करती हो। स्नान का स्थान यही है। मैं यहीं नहाऊंगा न। मैं ही उस बर्तन को यहां उठा लाया।’ इस पर पत्नी बोली, ‘मैं भी पहले यहीं रखना चाह रही थी, लेकिन यहां चींटियां बहुत हैं।आपके स्नान के पानी से वे सब मर जाएंगी। इसलिए मैंने इसे दूसरे स्थान पर रखा था।’ पति बोला, ‘यह तो अजीब मूर्खतापूर्ण बात है। क्या मैं चींटियों को जिलाने के लिए ही जनमा हूं? अगर मैं इसी तरह हर किसी की चिंता करता रहा तो जीना मुश्किल हो जाएगा।’ इस बात से पत्नी दुखी हो गई। उसने कहा, ‘बारह वर्ष तक आपने विद्याध्ययन किया। काशी में रहे। लेकिन समझ में नहीं आता कि आपने क्या हासिल किया। ऐसे किताबी ज्ञान से क्या लाभ, जो आपके भीतर संवेदना न पैदा कर सके। क्या आप इतना भी नहीं समझ सके कि किसी प्राणी को अकारण पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए। ज्ञान का सार तो संवेदनशीलता है। यदि हमारे मन में दूसरों के प्रति सहानुभूति नहीं जागी तो बहुत बड़ा बौद्धिक ज्ञान भी उपयोगी नहीं है।’ यह सुनकर पति लज्जित हो गया और वहां से निकलकर दूसरी जगह नहाने लगा।,,,,,,,,,,,,,,,,, जय भोले नाथ
पत्नी ने देखा तो वह परेशान हो गई। उसने कहा, ‘मैंने गर्म पानी का यह बर्तन वहां रखा था, यहां कैसे आ गया?’ पति ने कहा, ‘तुम भी अजीब बात करती हो। स्नान का स्थान यही है। मैं यहीं नहाऊंगा न। मैं ही उस बर्तन को यहां उठा लाया।’ इस पर पत्नी बोली, ‘मैं भी पहले यहीं रखना चाह रही थी, लेकिन यहां चींटियां बहुत हैं।आपके स्नान के पानी से वे सब मर जाएंगी। इसलिए मैंने इसे दूसरे स्थान पर रखा था।’ पति बोला, ‘यह तो अजीब मूर्खतापूर्ण बात है। क्या मैं चींटियों को जिलाने के लिए ही जनमा हूं? अगर मैं इसी तरह हर किसी की चिंता करता रहा तो जीना मुश्किल हो जाएगा।’ इस बात से पत्नी दुखी हो गई। उसने कहा, ‘बारह वर्ष तक आपने विद्याध्ययन किया। काशी में रहे। लेकिन समझ में नहीं आता कि आपने क्या हासिल किया। ऐसे किताबी ज्ञान से क्या लाभ, जो आपके भीतर संवेदना न पैदा कर सके। क्या आप इतना भी नहीं समझ सके कि किसी प्राणी को अकारण पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए। ज्ञान का सार तो संवेदनशीलता है। यदि हमारे मन में दूसरों के प्रति सहानुभूति नहीं जागी तो बहुत बड़ा बौद्धिक ज्ञान भी उपयोगी नहीं है।’ यह सुनकर पति लज्जित हो गया और वहां से निकलकर दूसरी जगह नहाने लगा।,,,,,,,,,,,,,,,,, जय भोले नाथ
Wednesday, 23 January 2013
'' जीवन की नाव ''
एक संत थे। उनके कई शिष्य उनके आश्रम में रहकर अध्ययन करते थे। एक दिन एक
महिला उनके पास रोती हुए आई और बोली, 'बाबा, मैं लाख प्रयासों के बाद भी
अपना मकान नहीं बना पा रही हूं। मेरे रहने का कोई निश्चित ठिकाना नहीं है।
मैं बहुत अशांत और दु:खी हूं। कृपया मेरे मन को शांत करें।'उसकी
बात पर संत बोले, 'हर किसी को पुश्तैनी जायदाद नहीं मिलती। अपना मकान बनाने
के लिए आपको नेकी से धनोपार्जन करना होगा, तब आपका मकान बन जाएगा और आपको
मानसिक शांति भी मिलेगी।' महिला वहां से चली गई। इसके बाद एक शिष्य संत से
बोला, 'बाबा, सुख तो समझ में आता है लेकिन दु:ख क्यों है? यह समझ में नहीं
आता।'उसकी बात सुनकर संत बोले,
'मुझे दूसरे किनारे पर जाना है। इस बात का जवाब मैं तुम्हें नाव में बैठकर
दूंगा।' दोनों नाव में बैठ गए। संत ने एक चप्पू से नाव चलानी शुरू की। एक
ही चप्पू से चलाने के कारण नाव गोल-गोल घूमने लगी तो शिष्य बोला, 'बाबा,
अगर आप एक ही चप्पू से नाव चलाते रहे तो हम यहीं भटकते रहेंगे, कभी किनारे
पर नहीं पहुंच पाएंगे।'
उसकी बात सुनकर संत बोले, 'अरे तुम तो बहुत समझदार हो। यही तुम्हारे पहले सवाल का जवाब भी है। अगर जीवन में सुख ही सुख होगा तो जीवन नैया यूं ही गोल-गोल घूमती रहेगी और कभी भी किनारे पर नहीं पहुंचेगी। जिस तरह नाव को साधने के लिए दो चप्पू चाहिए, ठीक से चलने के लिए दो पैर चाहिए, काम करने के लिए दो हाथ चाहिए, उसी तरह जीवन में सुख के साथ दुख भी होने चाहिए।
जब रात और दिन दोनों होंगे तभी तो दिन का महत्व पता चलेगा। जीवन और मृत्यु से ही जीवन के आनंद का सच्चा अनुभव होगा, वरना जीवन की नाव भंवर में फंस जाएगी।' संत की बात शिष्य की समझ में आ गई।
उसकी बात सुनकर संत बोले, 'अरे तुम तो बहुत समझदार हो। यही तुम्हारे पहले सवाल का जवाब भी है। अगर जीवन में सुख ही सुख होगा तो जीवन नैया यूं ही गोल-गोल घूमती रहेगी और कभी भी किनारे पर नहीं पहुंचेगी। जिस तरह नाव को साधने के लिए दो चप्पू चाहिए, ठीक से चलने के लिए दो पैर चाहिए, काम करने के लिए दो हाथ चाहिए, उसी तरह जीवन में सुख के साथ दुख भी होने चाहिए।
जब रात और दिन दोनों होंगे तभी तो दिन का महत्व पता चलेगा। जीवन और मृत्यु से ही जीवन के आनंद का सच्चा अनुभव होगा, वरना जीवन की नाव भंवर में फंस जाएगी।' संत की बात शिष्य की समझ में आ गई।
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