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Wednesday, 23 January 2013

'' जीवन की नाव ''

एक संत थे। उनके कई शिष्य उनके आश्रम में रहकर अध्ययन करते थे। एक दिन एक महिला उनके पास रोती हुए आई और बोली, 'बाबा, मैं लाख प्रयासों के बाद भी अपना मकान नहीं बना पा रही हूं। मेरे रहने का कोई निश्चित ठिकाना नहीं है। मैं बहुत अशांत और दु:खी हूं। कृपया मेरे मन को शांत करें।'उसकी बात पर संत बोले, 'हर किसी को पुश्तैनी जायदाद नहीं मिलती। अपना मकान बनाने के लिए आपको नेकी से धनोपार्जन करना होगा, तब आपका मकान बन जाएगा और आपको मानसिक शांति भी मिलेगी।' महिला वहां से चली गई। इसके बाद एक शिष्य संत से बोला, 'बाबा, सुख तो समझ में आता है लेकिन दु:ख क्यों है? यह समझ में नहीं आता।'उसकी बात सुनकर संत बोले, 'मुझे दूसरे किनारे पर जाना है। इस बात का जवाब मैं तुम्हें नाव में बैठकर दूंगा।' दोनों नाव में बैठ गए। संत ने एक चप्पू से नाव चलानी शुरू की। एक ही चप्पू से चलाने के कारण नाव गोल-गोल घूमने लगी तो शिष्य बोला, 'बाबा, अगर आप एक ही चप्पू से नाव चलाते रहे तो हम यहीं भटकते रहेंगे, कभी किनारे पर नहीं पहुंच पाएंगे।'
उसकी बात सुनकर संत बोले, 'अरे तुम तो बहुत समझदार हो। यही तुम्हारे पहले सवाल का जवाब भी है। अगर जीवन में सुख ही सुख होगा तो जीवन नैया यूं ही गोल-गोल घूमती रहेगी और कभी भी किनारे पर नहीं पहुंचेगी। जिस तरह नाव को साधने के लिए दो चप्पू चाहिए, ठीक से चलने के लिए दो पैर चाहिए, काम करने के लिए दो हाथ चाहिए, उसी तरह जीवन में सुख के साथ दुख भी होने चाहिए।
जब रात और दिन दोनों होंगे तभी तो दिन का महत्व पता चलेगा। जीवन और मृत्यु से ही जीवन के आनंद का सच्चा अनुभव होगा, वरना जीवन की नाव भंवर में फंस जाएगी।' संत की बात शिष्य की समझ में आ गई।



Saturday, 19 January 2013

संत नामदेव अपने शिष्यों के साथ रोज की तरह धर्म चर्चा में लीन थे। तभी एक जिज्ञासु उनसे प्रश्न कर बैठा-गुरुदेव, कहा जाता है कि ईश्वर हर जगह मौजूद है, तो उसे अनुभव कैसे किया जा सकता है? क्या आप उसकी प्राप्ति का कोई उपाय बता सकते हैं? नामदेव यह सुनकर मुस्कराए। फिर उन्होंने उसे एक लोटा पानी और थोड़ा सा नमक लाने को कहा। वहां उपस्थित शिष्यों की उत्सुकता बढ़ गई।

वे सोचने लगे, पता नहीं उनके गुरुदेव कौन सा प्रयोग करना चाहते हैं। नमक और पानी के आ जाने पर संत ने नमक को पानी में छोड़ देने को कहा। जब नमक पानी में घुल गया तो संत ने पूछा- बताओ, क्या तुम्हें इसमें नमक दिख रहा है? जिज्ञासु बोला- नहीं गुरुदेव, नमक तो इसमें पूरी तरह घुल-मिल गया है। संत ने उसे पानी चखने को कहा।

उसने चखकर कहा- जी, इसमें नमक उपस्थित है पर वह दिखाई नहीं दे रहा। अब संत ने उसे जल उबालने को कहा। पूरा जल जब भाप बन गया तो संत ने पूछा- क्या इसमें वह दिखता है? जिज्ञासु ने गौर से लोटे को देखा और कहा-हां, अब इसमें नमक दिख रहा है। तब संत ने समझाया-जिस तरह नमक पानी में होते हुए भी दिखता नहीं, उसी तरह ईश्वर भी हर जगह अनुभव किया जा सकता है मगर वह दिखता नहीं। और जिस तरह जल को गर्म करके तुमने नमक पा लिया उसी प्रकार तुम भी उचित तप और कर्म करके ईश्वर को प्राप्त कर सकते हो। वहां मौजूद लोग इस व्याख्या को सुनकर संत नामदेव के प्रति नतमस्तक हो गए।

Wednesday, 16 January 2013

'' माँ की महिमा ''

स्वामी विवेकानंद जी से एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया," माँ की महिमा संसार में
किस कारण से गायी जाती है? स्वामी जी मुस्कराए, उस व्यक्ति से बोले, पांच सेर
वजन का एक पत्थर ले आओ | जब व्यक्ति पत्थर ले आया तो स्वामी जी ने उससे कहा, "अब इस पत्थर को किसी कपडे में लपेटकर अपने पेट पर बाँध लो और चौबीस घंटे बादमेरे पास आओ तो मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूंगा |"
स्वामी जी के आदेशानुसार उस व्यक्ति ने पत्थर को अपने पेट पर बाँध लिया और चलागया | पत्थर बंधे हुए दिनभर वो अपना कम करता रहा, किन्तु हर छण उसे परेशानी औरथकान महसूस हुई | शाम होते-होते पत्थर का बोझ संभाले हुए चलना फिरना उसके लिएअसह्य हो उठा | थका मांदा वह स्वामी जी के पास पंहुचा और बोला , " मै इस पत्थर
को अब और अधिक देर तक बांधे नहीं रख सकूँगा | एक प्रश्न का उत्तर पाने के  लिएमै इतनी कड़ी सजा नहीं भुगत सकता |"स्वामी जी मुस्कुराते हुए बोले, " पेट पर इस पत्थर का बोझ तुमसे कुछ घंटे भीनहीं उठाया गया और माँ अपने गर्भ में पलने वाले शिशु को पूरे नौ माह तक ढ़ोतीहै और ग्रहस्थी का सारा काम करती है | संसार में माँ के सिवा कोई इतनाधैर्यवान और सहनशील नहीं है इसलिए माँ से बढ़ कर इस संसार में कोई और नहीं |
किसी कवि ने सच ही कहा है : -
               जन्म दिया है सबको माँ ने पाल-पोष कर बड़ा किया |

               कितने कष्ट सहन कर उसने, सबको पग पर खड़ा किया ।
               माँ ही सबके मन मंदिर में, ममता सदा बहाती है |
              बच्चों को वह खिला-पिलाकर, खुद भूखी सो जाती है | 
              पलकों से ओझल होने पर, पल भर में घबराती है  ।
              जैसे गाय बिना बछड़े के, रह-रह कर रंभाती है |

              छोटी सी मुस्कान हमारी, उसकोजीवन देती है |
              अपने सारे सुख-दुःख हम पर न्योछावर कर देती है

Saturday, 12 January 2013

'' मकर संक्रांति ''

                                         '' मकर संक्रांति विभिन्नता में एकता का पर्व का महत्व ''
हमारे देश में मकर संक्रांति को सूर्य उपासना के विशेष पर्व के रूप में जाना जाता है। इसे पंजाब में लोहड़ी के रूप में मनाते हैं तो तमिलनाडु में इसे पोंगल के रूप में मनाया जाता है। इस बहु-समाजवादी देश में यह महापर्व एक ही मान्यता को अपने अंदर समेटे विभिन्न रीति-रिवाजों व परंपराओं के साथ मनाया जाता है।
दान का महत्व : ब्राह्मणों में इस दिन तिल, चावल और दाल को दान करने का विशेष महत्व है। ब्राह्मण समाज की महिलाएं पूजा करते वक्त सुहाग की निशानियों को चढ़ाती हैं और फिर इन्हें 13 सुहागनों को बांटते हैं।
         '' तुलसी की आराधना ''  :

 महाराष्ट्रीयन परिवारों में सुहागन महिलाएं पुण्यकाल में स्नान कर तुलसी की आराधना और पूजा करती हैं। इस दिन मिट्टी से बना छोटा घड़ा, जिसे सुहाणा चा वाण कहते हैं। इसमें तिल के लड्डू, सुपारी, अनाज, खिचड़ी और दक्षिणा रखकर महिलाएं दान का संकल्प लेती हैं।
संक्रांति मौज-मस्ती से भरपूर : गुजराती रीति-रिवाज में संक्रांति मौज-मस्ती से भरपूर होती है। इस दिन पूरा परिवार घर की छत पर सामूहिक रूप से भोजन करता है। इस रिवाज के साथ ही पुरुष-महिलाएं पतंगें उड़ाते हैं। तिल-गुड के लड्डुओं के अंदर सिक्के रखकर दान करने का भी रिवाज है।
        '' बेटियों का है खास त्योहार '' :

 सिंधी समाज में मकर संक्रांति को बेटियों का खास त्योहार कहा जाता है। संक्रांति पर सबसे अधिक कन्याओं एवं पंडितों को दान दिया जाता है। इस दिन पूर्वजों के नाम पर बेटियों को आटे के लड्डू, तिल के लड्डू, चिक्की और मेवा (स्यारो) दान स्वरूप दी जाती है।
           ''तिल स्नान का महत्व '' :

 कायस्थ समाज की महिलाएं संक्रांति की सुबह पानी में तिल डालकर स्नान करते हैं। साथ ही स्नान के बाद आग में तेल डालकर हाथ सेंकते हैं। संक्रांति के दिन सबेरे 5 बजे जागकर सभी स्नान करते हैं और गाय को चारा डालते हैं। खाने में दाल-बाटी बनाई जाती है। मिठाई में जलेबी एवं तिल के लड्डू आदि बनाए जाते हैं। सबसे पहले ये व्यंजन भानजे को खिलाए जाते हैं।
          ''पंजाबी समाज '' : 

इस दिन बहन-बेटियों की दुआएं ली जाती हैं और उन्हें कुछ न कुछ उपहार लाकर दिया जाता है। त्योहार की धूम मचना एक दिन पहले लोहड़ी पर्व से ही शुरू हो जाती है। होलिका दहन की तरह कंडे डालकर आग लगाई जाती है और उसमें तिल डाले जाते हैं। अग्नि की परिक्रमा की जाती है, बाद में महिलाओं का समूह घर-घर जाकर मूंगफली, तिल आदि वितरित करता है।
बंगाली समाज में भी विशेष रूप से संक्रांति का महापर्व मनाया जाता है। जिसमें तिल के व्यंजनों के अलावा खास चावल से बने व्यंजन पीठा और पाटी सपता को विशेष तौर पर बनाया जाता है।

आप सभी को  मकर सक्रान्ति की बहुत बहुत बधाई ........





  
सभी आत्म बन्धुओं को हमारी ''जय श्री राधे '' जै माता दी ''
हमारी मंगलमयी शुभकामनाओं के साथ आपको एवं आपके परिवार को '' लोहड़ीके पावन त्योहार क़ी '' बहुत बहुत बधाई ... मातारानी आपके जीवन में खुशियाँ और आनन्द सदा बनाये रखे , प्रेम और सदभावना की ज्योति सदा जगाये रखे ।

महंत त्रिलोक राज गोस्वामी
जागरण एवं भागवत परिवार जिलाहमीरपुर (हिo प्रo )

Wednesday, 9 January 2013

'' तिलक ''


जब हम किसी को तिलक लगाते हैं तो उसका भी एक अपना महत्व है। हमारी पांचों अंगुलियां पंचभूतों का प्रतीक हैं। अंगूठा अग्नि का, तर्जनी अंगुली वायु का, मध्यमा अंगुली गगन का, अनामिका पृथ्वी का तथा कनिष्ठिका जल का प्रतीक होती हैं। हम तिलक लगाने में अधिकतर अनामिका अंगुली का प्रयोग करते हैं इसका अर्थ है, कि जिसको तिलक लगा रहे हैं वह भूमि तत्व से जुड़ा रहे। प्राचीन समय में योद्धा जब युद्ध पर जाते थे, तो उन्हें अंगूठे से त्रिकोण के रूप में तिलक लगाया जाता था, अग्नि वाली अंगुली से अग्नि के प्रतीक के रूप में तिलक लगाने से उनके आग्नेय चक्र में अग्नि रूप शक्ति समाहित हो जाती थी, जिससे वह बड़ी वीरता के साथ युद्ध स्थल में युद्ध करते थे। तिलक हमेशा गोलाकार या त्रिकोण (पिरामिड आकार) के रूप में ही लगाया जाता है। पहले समय में तिलक को लगाने के लिए कुमकुम, सिंदूर और केसर को मिलाकर प्रयोग किया जाता था, जिससे बैंगनी रंग की ऊर्जा निकलती थी जो हमारी आग्नेय चक्र की आध्यात्मिक शक्ति को बढ़ाती थी।...........




Saturday, 5 January 2013

श्री माधव गोस्वामी महाराज जी किसी घर की छत पर टहल रहे थे। उन्होंने सड़क पर बच्चों का शोरगुल सुना। झांक कर देखा तो पाया कि कुछ स्कूली बच्चे नाली में गिरे एक व्यक्ति को खींच कर बाहर निकालने की कोशिश कर रहे हैं। वह शराब पीकर नाली में गिरा हुआ था। लेकिन बच्चे उसे जितना बाहर खींचते, वह उतना ही नाली में घुस जाता और कहता, मैं ठीक हूं, मुझे तंग मत करो।
कोई भी सत्य व्यक्ति उसकी स्थिति से हमदर्दी जताएगा। लेकिन  आध्यात्मिक दृष्टि से हम में से ज्यादातर लोगों की स्थिति उस गंदी नाली में गिरे हुए व्यक्ति से कुछ ज्यादा अलग नहीं है। माया के अधीन रह कर हम सोचते हैं कि हम सुंदर जीवन व्यतीत कर रहे हैं, किंतु वास्तव में हम उससे कोसों दूर हैं। 'किसी समय स्वर्ग के राजा इंद्र ने अपने गुरु के प्रति कोई अपराध किया तो गुरु ने उन्हें सुअर योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया। जब इंद्र सुअर बनकर पृथ्वी लोक पर चले आए तो स्वर्ग का सिंहासन खाली हो गया। यह स्थिति देखकर ब्रह्मा पृथ्वी पर आए और उन्होंने सुअर रूपी इंद्र से कहा, भद्र! तुम पृथ्वी पर सुअर बनकर आए हो। अब मैं तुम्हारा उद्धार करने आया हूं। तुम तुरंत मेरे साथ चलो। लेकिन सुअर रूपी इंद्र हाथ जोड़ कर खड़े हो गए, मैं आपके साथ नहीं जा सकता। मुझ पर अनेक उत्तरदायित्व हैं। मेरे बच्चे हैं, पत्नी है और यह अपना सुंदर शूकर समाज है।
इसी प्रकार श्रीकृष्ण आते हैं और हमसे कहते हैं, तुम दुखों से भरे इस भौतिक संसार में क्या कर रहे हो? तुम मेरे पास चले आओ तो मैं तुम्हारी हर प्रकार से रक्षा करूंगा। किंतु हम कृष्ण के उपदशों पर ध्यान नहीं देते और सोचते हैं, हमें यहां कई दूसरे कहीं ज्यादा जरूरी कार्य करने हैं। यही विस्मृति है।विस्मृति का कारण है बार-बार मृत्यु का ग्रास बनना। यह वास्तविकता है कि पिछले जीवन में हमें अन्य परिवारों, माताओं, पिताओं अथवा देशों में अन्य शरीर मिले थे, किंतु हमें कुछ याद नहीं है। हो सकता है कि हम कुत्ते या बिल्ली, मनुष्य या देवता रहे हों, किंतु अब हमें कुछ भी याद नहीं है।
भगवान कृष्ण गीता में बताते हैं, हे अर्जुन! मैं और तुम अनेक बार यहां आ चुके हैं। मुझे सब याद है, किंतु तुम्हें नहीं। विस्मृति के चलते हम भूल जाते हैं कि पिछले जन्म अथवा जन्मों में हम इसी प्रकार झूठी आशा अर्थात मृगतृष्णा के पीछे भागते रहे कि अमुक कार्य करने से हम सुखी होंगे, अमुक कार्य करने से नित्य आनंद की प्राप्ति होगी। किंतु इसी विस्मृति के कारण हम अपने वर्तमान का अमूल्य मानव जीवन भी व्यर्थ के कार्यों में गवां रहे हैं और कष्ट पा रहे हैं। तो क्यों न भगवद् भजन कर हम विस्मृति को सदा के लिए अलविदा कह दें।