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Saturday, 22 September 2012

'' राधा अष्टमी ''


सभी प्रभु प्रेमियों को , राधा अष्टमी के अवसर पर '' जागरण एवं भागवत परिवार '' की ओर से बहुत बहुत बधाई हो ...........

Sunday, 16 September 2012

''रामेश्वर''

रामेश्वर का अर्थ :-श्रीरामचन्द्र जी नित्य नियम से भगवान शंकर कि पूजा करते थे.. समुन्द्र किनारे कि दिव्या भूमि देखकर श्रीरामचन्द्र जी को आनंद हुआ और उन्हों ने सकल्प किया कि इस स्थान पर मै शिवजी कि स्थापना करूँगा.. परन्तु वहां कोई शिवलिंग मिला नहीं. हनुमानजी को शिवलिंग लाने कि लिए काशी भेजा.. हनुमान जी को लौटने में विलम्ब हो गया.. तब तक रघुनाथ जी ने रेती का शिवलिंग बनाकर वहां रामेश्वर कि स्थापना कर दी.. अनेक ऋषि वहां आये थे. श्रीराम शिवजी की पूजा करने लगे. भगवान शंकर को आनंद हुआ.. लिंग में से शिव पार्वती जी प्रकट हुए ऋषियो ने रामजी से पूछा -- महाराज! रामेश्वर का अर्थ समझाइये ।।श्री रघुनाथ जी ने कहा-- रामस्य इश्वर: य:, स: रामेश्वर:।। (जो राम के इश्वर है, उन्हें रामेश्वर कहते है, मै शिवजी का सेवक हु. शिवजी मेरे स्वामी है तब शिवजी ने कहा - रामेश्वर का अर्थ ऐसा नहीं.. मै राम का इश्वर नहीं. मै तो राम का सेवक हु. रामेश्वर का अर्थ तो यह है राम: इश्वरो यस्य स: रामेश्वर:।राम जिसके स्वामी है, उनको रामेश्वर कहते है, मै रामदास हु, मै सब दिन राम-नाम जा जप किया करता हु. रामजी का ही ध्यान धर्ता हु. शिवजी कहते है - राम जिसके स्वामी है, उनको रामेश्वर कहते है और रामजी कहते है - रामके जो स्वामी है, उन्हें रामेश्वर कहते है, दोनों में मूल रूप झगड़ा खड़ा हो गया. भगवान शंकर कहते है कि तुम मेरे स्वामी हो, मै तुम्हारा सेवक हु. रामजी कहते है कि नहीं. नहीं ऐसा नहीं... तुम मेरे स्वामी हो, मै तुम्हारा सेवक हु..ऋषियो ने पीछे निर्णय किया कि तुम दोनों एक ही हो इसलिए ऐसा कहते है .. शिव और राम दोनों एक ही है, हरि - हर में भेद रखने वाले का कल्याण नहीं होता, रामायण का यह दिव्या सिद्धांत है.भागवत में भी अनेक बार इस सिद्धांत का वर्णन किया गया है. कितने ही वैष्णवों को शिवजी की पूजा करने में संकोच होता है, अरे वैष्णवों के गुरु तो शिवजी है.शिवजी कि पूजा से श्रीकृष्ण-श्रीराम क्या नाराज हो जायेगे... उन्हों ने तो कहा है शिव और हममे जो भेद रखता है वह नरकगामी बनता है .
शंकर प्रिय मम द्रोही, शिव द्रोही मम दास
 ते नर करिहहि कल्प भरि, घोर नरक महु वास  ।

Saturday, 15 September 2012

'' राजा प्रसून के जीवन की घटना ''


प्रसिद्ध राजा प्रसून के जीवन की घटना है। अपने गुरु के विचारों से प्रभावित होकर राजा ने राज्य का त्याग कर दिया, साधु-संन्यासियों के जैसे गेरुए कपड़े पहनकर हाथ में कमंडलु और भिक्षा पात्र लेकर निकल पड़े। शाम होने पर नियत से भजन-कीर्तन, जप-तप और पूजा-पाठ करते। यही सब कुछ करते हुए एक लंबा समय गुजर गया, लेकिन राजा प्रसून के मन को वह शांति नहीं मिली जिसके लिये उसने अपना राज-पाट छोड़ा था। राजा दुखी होकर एक दिन अपने गुरु के पास पहुंचा और अपनी मन की तकलीफ सुनाने लगा। राजा की सारी बात सुनने के बाद गुरु हंसे और बोले – ”जब तुम राजा थे और अपने उद्यान का निरीक्षण करते थे, तब अपने माली से पौधे के किस हिस्से का विशेष ध्यान रखने को कहते थे?” अपने गुरु की बात ध्यान से सुनकर राजा प्रसून बोला – ”गुरुदेव! वैसे तो पौधे का हर हिस्सा महत्वपूर्ण होता है, लेकिन फिर भी यदि जड़ों का ठीक से ध्यान न रखा जाए तो पूरा पौधा ही सूख जाएगा।”राजा का जवाब सुनकर गुरु प्रसन्न हुए और बोले – ”वत्स! पूजा-पाठ, जप-तप, कर्मकांड और यह साधु-सन्यासियों का पहनावा भी सिर्फ फूल-पत्तियां ही हैं, असली जड़ तो आत्मा है। यदि इस आत्मा का ही शुद्धिकरण नहीं हुआ तो बाहर की सारी क्रियाएं सिर्फ आडम्बर बन कर ही रह जाते हैं। आत्मा की पवित्रता का ध्यान न रखने के कारण ही बाहरी कर्मकांड बेकार चला जाता है।”इस सच्ची व बेहद कीमती सुन्दर कथा का सार यही है कि यदि मनुष्य का प्रयास अपनी आत्मा के निखार और जागरण में लगे तो ही उसके जीवन में सच्चा सुख-शांति और स्थाई समृद्धि आ सकती है। अन्यथा बाहरी पूजा-पाठ यानी कर्मकांड सिर्फ मनोरंजन का साधन मात्र ही बन जाते हैं।

Tuesday, 11 September 2012

''नारद जी का भगवान को शाप ''


श्री रामचरितमानस में यह कथा आयी है कि देवर्षि नारदजी को कामपर विजय करने से गर्व हो गया था. और वे शंकर जी को इसलिए हेय समझने लगे कि उन्होंने कामदेव को क्रोध से जला दिया, इसलिए वे क्रोधी तो ही ही, किन्तु मै काम और क्रोध दोनों से उपर उठा हुआ हु. पर मूल बात यह थी कि जहाँ नारदजी ने तपस्या की थी, शंकर जी ने उस तप:स्थली को कामप्रभाव से शुन्य होने का वर दे दिया था और नारदजी ने जब शंकर जी से यह बात कह डाली, तब भगवान शंकर ने उन्हें इस बात को विष्णु भगवान को कहने से रोका. इस पर नारदजी ने सोचा के ये मेरे महत्त्व को नष्ट करना चाहते है. अत: यह बात उन्हों ने भगवान विष्णु से कह डाली. भगवान विष्णु ने उनके कल्याण के लिए अपनी माया से श्रीमतिपुरी नाम कि एक नगरी खड़ी कर दी, जहाँ विश्वमोहिनी के आकर्षण में नारदजी भी स्वयंवर में पधारे, पर साक्षात भगवान विष्णु ने वहां जाकर विश्वमोहिनी स
े विवाह कर लीया, यह सब देखकर नारदजी को बड़ा क्रोध आया. काम के वश में तो वे पहले ही हो चके थे. अब क्रोध में आकर उन्होंने भगवान विष्णु को अनेक अपशब्द कहे और स्त्री-वियोग में विक्षिप्त सा होने का भी शाप दे दिया, तब भगवान ने अपनी माया दूर कर दी और विश्वमोहिनी के साथ लक्ष्मी भी लुप्त हो गई. तब नारदजी की बुद्धि भी शुद्ध और शांत हो गयी. उन्हें सारी बीती बाते ध्यान में आ गई. वे अत्यंत सभीत होकर भगवान विष्णु के चरणों में गिर पड़े और प्रार्थना करने लगे कि भगवान मेरा शाप मिथ्या हो जाये और मेरे पापो कि सीमा नहीं रही. क्योकि मैंने आपको अनेक दुर्वचन कहे
इस पर भगवान विष्णु ने कहा कि शिवजी मेरे सर्वाधिक प्रिय है, वे जिस पर कृपा नहीं करते है उसे मेरी भक्ति प्राप्त नहीं होती. अत: आप शिवशतनाम का जप कीजिये , इससे आपके सब दोष-पाप मिट जायेंगे और पूर्ण ज्ञान -वैराग्य तथा भक्ति की राशी सदा के लिए आपके हृदय में स्थित हो जाएगी
तब भगवान विष्णु ने अपने भगत नारद जी के श्राप को पूरा करने के लिए धरती पर श्री राम जी का अवतार लिए और माँ सीता के वियोग में श्राप को पूरा किया.

Friday, 7 September 2012

'' हनुमान जी की आयु:सीमा ''

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हनुमान जी की आयु:सीमा
हनुमान जी की आयु के रहस्य का विवेचन करना एक समस्या है, ऐसे तो ये अश्व्थामा , बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, क्रिपाचार्य, परशुराम और मार्कंडेय -- इन आठ चिरजिवियो में एकतम है. पर हनुमान जी को केवल चिरजीवी कहना पर्याप्त नहीं है - इन्हें नित्याजिवी अथवा अजर-अमर कहना भी असंगत नहीं, क्यों की लंका - विजय के पश्चात् हनुमान जी ने एकमात्र श्रीराम में सदा के लिए अपनी निश्छल भक्ति की याचना की थी और श्रीराम ने इन्हें ह्रदय से लगाकर कहा था - कपिश्रेष्ठ ऐसा ही होगा. संसार में मेरी कथा जबतक प्रचलित रहेगी, तब तक तुम्हारी कीर्ति भी अमित रहेगी और तुम्हारे शरीर में प्राण भी रहेंगे. तुमने मुझपर जो उपकार किये है, उनका बदला मै नहीं चूका सकता. इस प्रकार जब श्रीराम ने चिरकालतक संसार में प्रसन्नचित्त होकर जीवित रहने का इन्हें आशीर्वाद दिया, तब इन्होने भगवान से कहा - जबतक संसार में आपकी पावन कथा का प्रचार होता रहेगा, तबतक मै आपकी आज्ञा का पालन करता हुआ पृथ्वी पर रहूँगा. इंद्र से भी हनुमान जी को वरदान मिला था की इनकी मृत्यु तबतक नहीं होगी. जब तक स्वयं इन्हें मृत्यु की इच्छा नहीं होगी.भगवान श्री राम ने इनकी नैष्ठिक की भगति के कारण अत्यंत प्रसन्न होकर कहा - 'हनुमान! मै तुमसे अत्यंत प्रसन्न हु, तुम जो वर चाहो मांग लों, जो वर त्रिलोकी में देवताओं को भी मिलना दुर्लभ है, वह भी मै तुम्हे अवश्य दूंगा. तब हनुमान जी ने अत्यंत हर्षित होकर भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणिपात करके कहा - 'प्रभो! आपका नामस्मरण करते हुए मेरा मन तृप्त नहीं होता. अत: मै निरंतर आपके नाम का स्मरण करता हुआ पृथ्वी पर सथित रहूँगा. राजेन्द्र! मेरा मनोवांछित वर यही है की जब तक संसार मे आपका नाम सिथत रहे, तब तक मेरा शरीर भी विद्यमान रहे. इस पर भगवान श्रीराम ने कहा - ऐसा ही होगा, तुम जीवन्मुक्त होकर संसार में सुखपूर्वक रहो. कल्प का अंत होने पर तुम्हे मेरे सायुज्य की प्राप्ति होगी. इसमें संदेह नहीं.श्री राम जी के समान ही भगवती जानकी जी ने भी अपने सच्चे भक्त हनुमान जी को आशीर्वाद देते हुए कहा - मारुते! तुम जहाँ कही भी रहोगे, वही मेरी आज्ञा से सम्पूर्ण भोग तुम्हारे पास उपस्थित हो जायेंगे.इन प्रमाणों से ज्ञात होता है की हनुमान जी ना केवल चिरजीवी ही है , अपितु नित्याजिवी, इच्छा-मृत्यु तथा अजर-अमर भी है, भगवान श्रीराम उन्हें कल्प के अंत में सायुज्य मुक्ति का वरदान प्राप्त है, अत: उनकी अजरता-अमरता में कोई संशेय नहीं ... जनश्रुतियो से ज्ञात होता है आज भी वे अपने नैष्ठिक भक्त-उपासको को यदा-कदा जिस किसी रूप में दर्शन देते है

अब बोलिए श्री राम जी की

Monday, 3 September 2012

  एक बार नारद जी बैकुण्ठ गए| द्वार के बाहर उन्होंने एक रजिस्टर देखा. उसमें भक्तों की लिस्ट थी तो उसे खोल कर देखा तो उन्होंने देखा कि उनका नाम सबसे पहले था, तो वो बहुत खुश हुए. जब वापस जाने लगे तो रास्ते में हनुमान जी मिले. नारदजी ने कहा कि मै भगवान के पास से आ रहा हॅ. वहाँ भगवान के भक्तों की लिस्ट मे मेरा नाम सबसे उपर था और आपका नाम तो था ही नही.हनुमान जी कहते है- कि मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि मेरा नाम लिस्ट में ऊपर है कि नीचे है,या है भी कि नहीं. मै तो परमात्मा को याद कर रहा हूँ और उनकी कृपा मुझ पर बरस रही है । मेरे लिए यहीं काफी है .कुछ समय बाद नारद जी पुन: बैकुण्ठ गए, तो अंदर एक रजिस्टर और रखा था.नारदजी ने उसे खोला तो उसमें उनका नाम ही नही था. उसमें हनुमान जी का नाम सबसे उपर था , उन्होंने भगवान जी से पूछा कि ये क्या है । बाहर मेरा नाम सबसे ऊपर था अन्दर वाले में हनुमान जी का नाम सबसे पर है.भगवान जी ने कहा- कि नारद, जो बाहर वाला रजिस्टर है वो उन भक्तों का है जो मुझे याद करते है । और अंदर वाला रजिस्टर उन भक्तों का है जिन्हें मै याद करता हूँ ।कहने का तात्पर्य है कि हम तो भगवान को याद करते है पर हमे उस स्तर का बनना है कि उसकी दया हमें पर विशेष रूप से बरसे, और भगवान जी हमें याद करे. वो ही सच्चा भक्त है ।

Saturday, 1 September 2012

'' जो जाए बद्री, उसकी काया सुधरी ''

जो जाए बद्री, उसकी काय सुधरी
बद्रिकाश्रम अति दिव्या भूमि है, तपोभूमि है. जिसको लोग बद्रिकाश्रम कहते है, उसका मूल नाम विशाल क्षेत्र है, विशाल राजा ने वहां तपश्चर्या की थी. इसलिए उसे विशालाक्षेत्र कहते है, विशाल राजा को वहां प्रभु ने जब उनसे वरदान मांगने को कहा तब राजा ने कहा - नाथ! मै तुम्हारा सतत दर्शन करता रहू, यह वरदान दीजिये. प्रभु प्रसन्न हुए और अन्य अधिक कुछ मांगने को कहा - राजा ने कहा - हजारो वर्षो तक मैंने तपश्चर्या की तब आपके दर्शन हुए है, परन्तु प्रभु! ऍसी परीक्षा सबकी मात करना. इस क्षेत्र में मैंने तप किया है, यहाँ जो कोई तप करे उसे तुरंत आपके दर्शन हो जाया करे. प्रभु ने कहा - तथास्तु -- बद्रिकाश्रम की ऍसी महिमा है
भारत के प्रधान देव नारायण. सब अवतारों की समाप्ति होती है, इन नारायण की समाप्ति नहीं होती है होनी ही नहीं है, भारत की प्रजा का कल्याण करने के लिए नारायण आज भी तपश्चर्या करते है, बद्रीनारायण तप ध्यान का आदर्श जगत को बतलाते है, वे बतलाते है की मै इश्वर हु, फिर भी ध्यान तप करता हु, तपश्चर्या बिना शान्ति नहीं मिलती


पीछे फिर शंकराचार्य महाराज ने बद्रिकाश्रम में बद्रीनारायण भगवान की स्थापना की है. शंकराचार्य जी ने नर-नारायण के दर्शन किये, शंकराचार्य तो महान योगी थे. उन्हों ने भगवान से कहा - मैंने तो आपके दर्शन किये परन्तु कलियुग के भोगी मनुष्य भी आपके दर्शन कर सके ऍसी कृप्या करो
भगवान ने तब शंकराचार्य को आदेश दिया की बद्रीनारायण में नारायण -कुंड है, उसमे स्नान करो, वहां से तुमको मेरी जो मूर्ति मिले उसकी स्थापना करो, मेरी मूर्ति का जो दर्शन करेगा उनको मेरे प्रत्यक्ष दर्शन करने जितना फल मिलेगा. उसी के अनुसार श्री शंकराचार्य जी ने बद्रीनारायण भगवान की स्थापना की . जो जाए बद्री, उसकी काया  सुधरी
 
संजय मेहता