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Thursday, 7 September 2017

*★★ पितृ-पक्ष - श्राद्ध 2017*

•• इस सृष्टि में हर चीज का अथवा प्राणी का जोड़ा है । जैसे - रात और दिन, अँधेरा और उजाला, सफ़ेद और काला, अमीर और गरीब अथवा नर और नारी इत्यादि बहुत गिनवाये जा सकते हैं । सभी चीजें अपने जोड़े से सार्थक है अथवा एक-दूसरे के पूरक है । दोनों एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं । इसी तरह दृश्य और अदृश्य जगत का भी जोड़ा है । दृश्य जगत वो है जो हमें दिखता है और अदृश्य जगत वो है जो हमें नहीं दिखता । ये भी एक-दूसरे पर निर्भर है और एक-दूसरे के पूरक हैं । पितृ-लोक भी अदृश्य-जगत का हिस्सा है और अपनी सक्रियता के लिये दृश्य जगत के श्राद्ध पर निर्भर है ।
•• धर्म ग्रंथों के अनुसार श्राद्ध के सोलह दिनों में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है। वर्ष के किसी भी मास तथा तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों के लिए पितृपक्ष की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है
•• पूर्णिमा पर देहांत होने से भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को श्राद्ध करने का विधान है। इसी दिन से महालय (श्राद्ध) का प्रारंभ भी माना जाता है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितृगण वर्षभर तक प्रसन्न रहते हैं। धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि पितरों का पिण्ड दान करने वाला गृहस्थ दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन-धान्य आदि की प्राप्ति करता है।
•• श्राद्ध में पितरों को आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्ड दान तथा तिलांजलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे। इसी आशा के साथ वे पितृलोक से पृथ्वीलोक पर आते हैं। यही कारण है कि हिंदू धर्म शास्त्रों में प्रत्येक हिंदू गृहस्थ को पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य रूप से करने के लिए कहा गया है।
•• श्राद्ध से जुड़ी कई ऐसी बातें हैं जो बहुत कम लोग जानते हैं। मगर ये बातें श्राद्ध करने से पूर्व जान लेना बहुत जरूरी है क्योंकि कई बार विधिपूर्वक श्राद्ध न करने से पितृ श्राप भी दे देते हैं। आज हम आपको श्राद्ध से जुड़ी कुछ विशेष बातें बता रहे हैं, जो इस प्रकार हैं--

1- श्राद्धकर्म में गाय का घी, दूध या दही काम में लेना चाहिए। यह ध्यान रखें कि गाय को बच्चा हुए दस दिन से अधिक हो चुके हैं। दस दिन के अंदर बछड़े को जन्म देने वाली गाय के दूध का उपयोग श्राद्ध कर्म में नहीं करना चाहिए।
2- श्राद्ध में चांदी के बर्तनों का उपयोग व दान पुण्यदायक तो है ही राक्षसों का नाश करने वाला भी माना गया है। पितरों के लिए चांदी के बर्तन में सिर्फ पानी ही दिए जाए तो वह अक्षय तृप्तिकारक होता है। पितरों के लिए अर्घ्य, पिण्ड और भोजन के बर्तन भी चांदी के हों तो और भी श्रेष्ठ माना जाता है।
3- श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाते समय परोसने के बर्तन दोनों हाथों से पकड़ कर लाने चाहिए, एक हाथ से लाए अन्न पात्र से परोसा हुआ भोजन राक्षस छीन लेते हैं।
4- ब्राह्मण को भोजन मौन रहकर एवं व्यंजनों की प्रशंसा किए बगैर करना चाहिए क्योंकि पितर तब तक ही भोजन ग्रहण करते हैं जब तक ब्राह्मण मौन रह कर भोजन करें।
5- जो पितृ शस्त्र आदि से मारे गए हों उनका श्राद्ध मुख्य तिथि के अतिरिक्त चतुर्दशी को भी करना चाहिए। इससे वे प्रसन्न होते हैं। श्राद्ध गुप्त रूप से करना चाहिए। पिंडदान पर साधारण या नीच मनुष्यों की दृष्टि पडने से वह पितरों को नहीं पहुंचता।
6- श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाना आवश्यक है, जो व्यक्ति बिना ब्राह्मण के श्राद्ध कर्म करता है, उसके घर में पितर भोजन नहीं करते, श्राप देकर लौट जाते हैं। ब्राह्मण हीन श्राद्ध से मनुष्य महापापी होता है।
7- श्राद्ध में जौ, कांगनी, मटरसरसों का उपयोग श्रेष्ठ रहता है। तिल की मात्रा अधिक होने पर श्राद्ध अक्षय हो जाता है। वास्तव में तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं। कुशा (एक प्रकार की घास) राक्षसों से बचाते हैं।
8- दूसरे की भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए। वन, पर्वत, पुण्यतीर्थ एवं मंदिर दूसरे की भूमि नहीं माने जाते क्योंकि इन पर किसी का स्वामित्व नहीं माना गया है। अत: इन स्थानों पर श्राद्ध किया जा सकता है।
9- चाहे मनुष्य देवकार्य में ब्राह्मण का चयन करते समय न सोचे, लेकिन पितृ कार्य में योग्य ब्राह्मण का ही चयन करना चाहिए क्योंकि श्राद्ध में पितरों की तृप्ति ब्राह्मणों द्वारा ही होती है।
10- जो व्यक्ति किसी कारणवश एक ही नगर में रहनी वाली अपनी बहिन, जमाई और भानजे को श्राद्ध में भोजन नहीं कराता, उसके यहां पितर के साथ ही देवता भी अन्न ग्रहण नहीं करते।
11- श्राद्ध करते समय यदि कोई भिखारी आ जाए तो उसे आदरपूर्वक भोजन करवाना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसे समय में घर आए याचक को भगा देता है उसका श्राद्ध कर्म पूर्ण नहीं माना जाता और उसका फल भी नष्ट हो जाता है।
12- शुक्लपक्ष में, रात्रि में, युग्म दिनों (एक ही दिन दो तिथियों का योग)में तथा अपने जन्मदिन पर कभी श्राद्ध नहीं करना चाहिए। धर्म ग्रंथों के अनुसार सायंकाल का समय राक्षसों के लिए होता है, यह समय सभी कार्यों के लिए निंदित है। अत: शाम के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए।
13- श्राद्ध में प्रसन्न पितृगण मनुष्यों को पुत्र, धन, विद्या, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष और स्वर्ग प्रदान करते हैं। श्राद्ध के लिए शुक्लपक्ष की अपेक्षा कृष्णपक्ष श्रेष्ठ माना गया है।
14- रात्रि को राक्षसी समय माना गया है। अत: रात में श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए। दोनों संध्याओं के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए। दिन के आठवें मुहूर्त (कुतपकाल) में पितरों के लिए दिया गया दान अक्षय होता है।
15- श्राद्ध में ये चीजें होना महत्वपूर्ण हैं- गंगाजल, दूध, शहद, दौहित्र, कुश और तिल। केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है। सोने, चांदी, कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं। इनके अभाव में पत्तल उपयोग की जा सकती है।
16- तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णु लोक को चले जाते हैं। तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं।
17- रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं। आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।
18- चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं।
19- भविष्य पुराण के अनुसार श्राद्ध 12 प्रकार के होते हैं, जो इस प्रकार हैं-
1- नित्य, 2- नैमित्तिक, 3- काम्य, 4- वृद्धि, 5- सपिण्डन, 6- पार्वण, 7- गोष्ठी, 8- शुद्धर्थ, 9- कर्मांग, 10- दैविक, 11- यात्रार्थ, 12- पुष्टयर्थ
20- श्राद्ध के प्रमुख अंग इस प्रकार :
तर्पण- इसमें दूध, तिल, कुशा, पुष्प, गंध मिश्रित जल पितरों को तृप्त करने हेतु दिया जाता है। श्राद्ध पक्ष में इसे नित्य करने का विधान है।
भोजन व पिण्ड दान-- पितरों के निमित्त ब्राह्मणों को भोजन दिया जाता है। श्राद्ध करते समय चावल या जौ के पिण्ड दान भी किए जाते हैं।
वस्त्रदान-- वस्त्र दान देना श्राद्ध का मुख्य लक्ष्य भी है।
दक्षिणा दान-- यज्ञ की पत्नी दक्षिणा है जब तक भोजन कराकर वस्त्र और दक्षिणा नहीं दी जाती उसका फल नहीं मिलता।
21 - श्राद्ध तिथि के पूर्व ही यथाशक्ति विद्वान ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलावा दें। श्राद्ध के दिन भोजन के लिए आए ब्राह्मणों को दक्षिण दिशा में बैठाएं।
22- पितरों की पसंद का भोजन दूध, दही, घी और शहद के साथ अन्न से बनाए गए पकवान जैसे खीर आदि है। इसलिए ब्राह्मणों को ऐसे भोजन कराने का विशेष ध्यान रखें।
23- तैयार भोजन में से गाय, कुत्ते, कौए, देवता और चींटी के लिए थोड़ा सा भाग निकालें। इसके बाद हाथ जल, अक्षत यानी चावल, चन्दन, फूल और तिल लेकर ब्राह्मणों से संकल्प लें।
24- कुत्ते और कौए के निमित्त निकाला भोजन कुत्ते और कौए को ही कराएं किंतु देवता और चींटी का भोजन गाय को खिला सकते हैं। इसके बाद ही ब्राह्मणों को भोजन कराएं। पूरी तृप्ति से भोजन कराने के बाद ब्राह्मणों के मस्तक पर तिलक लगाकर यथाशक्ति कपड़े, अन्न और दक्षिणा दान कर आशीर्वाद पाएं।
25- ब्राह्मणों को भोजन के बाद घर के द्वार तक पूरे सम्मान के साथ विदा करके आएं। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मणों के साथ-साथ पितर लोग भी चलते हैं। ब्राह्मणों के भोजन के बाद ही अपने परिजनों, दोस्तों और रिश्तेदारों को भोजन कराएं।
26- पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है। पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में सपिंडो (परिवार के) को श्राद्ध करना चाहिए । एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राध्दकर्म करें या सबसे छोटा ।
(((((( प्रेम के भूखे )))))) . वृन्दावन में बिहारी जी की अनन्य भक्त थी । नाम था कांता बाई... . बिहारी जी को अपना लाला कहा करती थी उन्हें लाड दुलार से रखा करती और दिन रात उनकी सेवा में लीन रहती थी। . क्या मजाल कि उनके लल्ला को जरा भी तकलीफ हो जाए। . एक दिन की बात है कांता बाई अपने लल्ला को विश्राम करवा कर खुद भी तनिक देर विश्राम करने लगी तभी उसे जोर से हिचकिया आने लगी ... . और वो इतनी बेचैन हो गयी कि उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा था ... . तभी कांता बाई कि पुत्री उसके घर पे आई जिसका विवाह पास ही के गाँव में किया हुआ था तब कांता बाई की हिचकिया रुक गयी। . अच्छा महसूस करने लग गयी तो उसने अपनी पुत्री को सारा वृत्तांत सुनाया कि कैसे वो हिच कियो में बेचैन हो गयी . तब पुत्री ने कहा कि माँ मैं तुम्हे सच्चे मन से याद कर रही थी उसी के कारण तुम्हे हिचकिया आ रही थी और अब जब मैं आ गयी हू तो तुम्हारी हिचकिया भी बंद हो चुकी है। . कांता बाई हैरान रह गयी कि ऐसा भी भला होता है ? तब पुत्री ने कहा हाँ माँ ऐसा ही होता है जब भी हम किसी अपने को मन से याद करते है तो हमारे अपने को हिचकिया आने लगती है। . तब कांता बाई ने सोचा कि मैं तो अपने ठाकुर को हर पल याद करती रहती हू यानी मेरे लल्ला को भी हिचकिया आती होंगी ?? . हाय मेरा छोटा सा लल्ला हिचकियो में कितना बेचैन हो जाता होगा ! . नहीं ऐसा नहीं होगा अब से मैं अपने लल्ला को जरा भी परेशान नहीं होने दूंगी और ... . उसी दिन से कांता बाई ने ठाकुर को याद करना छोड़ दिया। . अपने लल्ला को भी अपनी पुत्री को ही दे दिया सेवा करने के लिए। . लेकिन कांता बाई ने एक पल के लिए भी अपने लल्ला को याद नहीं किया ... . और ऐसा करते करते हफ्ते बीत गए और फिर एक दिन ... . जब कांता बाई सो रही थी तो साक्षात बांके बिहारी कांता बाई के सपने में आते है और कांता बाई के पैर पकड़ कर ख़ुशी के आंसू रोने लगते है....? . कांता बाई फौरन जाग जाती है और उठ कर प्रणाम करते हुए रोने लगती है और कहती है कि... . प्रभु आप तो उन को भी नहीं मिल पाते जो समाधि लगाकर निरंतर आपका ध्यान करते रहते है... . फिर मैं पापिन जिसने आपको याद भी करना छोड़ दिया है आप उसे दर्शन देने कैसे आ गए ?? . तब बिहारी जी ने मुस्कुरा कर कहा- . माँ कोई भी मुझे याद करता है तो या तो उसके पीछे किसी वस्तु का स्वार्थ होता है . या फिर कोई साधू ही जब मुझे याद करता है तो उसके पीछे भी उसका मुक्ति पाने का स्वार्थ छिपा होता है . लेकिन धन्य हो माँ तुम ऐसी पहली भक्त हो जिसने ये सोचकर मुझे याद करना छोड़ दिया कि कहीं मुझे हिचकिया आती होंगी। . मेरी इतनी परवाह करने वाली माँ मैंने पहली बार देखी है . तभी कांता बाई अपने मिटटी के शरीर को छोड़ कर अपने लल्ला में ही लीन हो जाती है। . इसलिए बंधुओ वो ठाकुर तुम्हारी भक्ति और चढ़ावे के भी भूखे नहीं है वो तो केवल तुम्हारे प्रेम के भूखे है उनसे प्रेम करना सीखो। . उनसे केवल और केवल किशोरी जी ही प्रेम करना सिखा सकती है। ~~~~~~~~~~~~~~~~~ ((((((( जय जय श्री राधे ))))))))
धर्म के चार पांव कहे गए हैं- सत, तप, दया और दान.
इनमें से सतयुग में सत चला गया. त्रेता में तप चला गया. फिर द्वापर युग में महाभारत में भाइयों द्वारा भाइयों के वध से दया भी चली गई. कलियुग चल रहा है जिसमें धर्म का एकमात्र पांव दान बचा है इसलिए मनुष्य को भवसागर पार करने के लिए अपने सामर्थ्य अनुसार दान अवश्य करना चाहिए.
सनातन नियम रहा है- प्रत्येक धर्मनिष्ठ को अपनी आय का दशांश एवं भोजन का चतुर्थांश प्रत्येक दान कर देना चाहिए. दानशीलता उनके लिए कई प्रकार से रक्षा कवच तैयार करती है।
चिडिया चोंच भर ले गयी नदी न घटयो नीर
दान दिए धन और बढे कह गये संत कबीर .......

Wednesday, 7 September 2016

श्रद्धेय श्री मोरारी बापू द्वारा .......
एक कबूतर कबूतरनी का जोड़ा आकाश में विचरण कर रहा था, तभी उनके ऊपर एक बाज उनको खाने के लिए उनके ऊपर उड़ने लगा।
तब वह दोनों जेसे-तेसे भागने लगे तब जमीन पर एक शिकारी भी उनको मारने के लिए आ गया ।
उस समय कबूतर भगवत नाम का स्मरण कर रहा था। और उसे कोई भय नही था,
पर उसकी पत्नी को डर लग रहा था। वह सोच रही थी की की मेरा पति तो गुरु का जप कर रहा है इसे कोई डर नही है। और हमारी दोनों और से मृत्यु निश्चित है।
या तो हमें बाज मार डालेगा या वो नीचे शिकारी है वो मार देगा, अब हमारा क्या होगा हम तो मरने वाले हैं।
तभी सदगुरू की कृपा से वहाँ जमीन पर एक सांप आ जाता है और वह सांप वहां खड़े शिकारी को ढस लेता है। और उसने जो तीर अपने धनुष पर लगा रखा था वो हाथ से छूट कर उस बाज के लग जाता है। और उनके पास दोनों तरफ से आई हुई मृत्यु टल जाती है।
इस पद से मुझे ये शिक्षा मिली कि चाहे कितनी भी विपत्ति क्यों ना आ जाए सदगुरू का स्मरण नही छोड़ना चाहिए,
श्री सदगुरू हमें सारी विपत्तियों ये निकाल लेते हैं। बस उनका ही आसरा होना चाहिए।
भूत-प्रेतो को निमंत्रण देता है घर के
फ्रिज में रखा हुआ आटा ।
वर्तमान में बहुत सी गृहिणियां खाना
बनाते समय रात को बचा हुआ अतिरिक्त
आटा गोल लोई बनाकर उसे फ्रिज में रख
देती है और उसका प्रयोग अगले दिन करती
है। कई बार सुबह के समय भी आटा बचने पर
ऎसा ही किया जाता है। धर्मशास्त्रों
के अनुसार गूंथा हुआ आटा पिण्ड माना
जाता है जिसे मृतात्मा के भक्षण के
लिए अर्पित किया जाता है।
जिन भी घरों में लगातार या अक्सर
गूंथा हुआ आटा फ्रिज में रखने की
परंपरा बन जाती है वहां पर भूत, प्रेत
तथा अन्य ऊपरी हवाएं भोजन करने के लिए
आने लग जाती है। इनमें अधिकतर वे
आत्माएं होती है जिन्हें उनके
घरवालों ने भुला दिया या जिनकी अब
तक मुक्ति नहीं हो सकी है। ऎसी
आत्माओं के घर में आने के साथ ही घर
में अनेकों समस्याएं भी आनी शुरू हो
जाती हैं।
बचे हुए आटे को इस तरह रखने वाले सभी
घरों में किसी न किसी प्रकार के
अनिष्ट देखने को मिलते हैं। वहां
अक्सर बीमारियां, क्रोध, आलस आदि बने
रहते हैं और घर में रहने वालों की भी
तरक्की नहीं हो पाती है।
शास्त्रों के अनुसार ऎसे किसी भी
चीज को घर में स्थान नहीं देना चाहिए
जो मृतात्माओं का भोजन हो अथवा
उन्हें किसी भी प्रकार से आमंत्रित
करने की क्षमता रखती हो। इसके ही रात
के बासी बचे आटे से रोटी बनाना शरीर
के लिए भी नुकसानदेह होता है। ऎसा
भोजन तामसिकता को तो बढ़ावा देता
ही है साथ में शरीर को भी रोगों का घर
बना देता है जबकि ताजा बना भोजन शरीर
को स्फूर्ति, शक्ति और स्वास्थ्य
देता है। इन सभी चीजों को देखते हुए
हमें घर में बासी आटा नही रखना चहिये ।

Sunday, 4 September 2016

पंचमुखी क्यो हुए हनुमान
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लंका में महा बलशाली मेघनाद के साथ बड़ा ही भीषण युद्ध चला. अंतत: मेघनाद मारा गया. रावण जो अब तक मद में चूर था राम सेना, खास तौर पर लक्ष्मण का पराक्रम सुनकर थोड़ा तनाव में आया.
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रावण को कुछ दुःखी देखकर रावण की मां कैकसी ने उसके पाताल में बसे दो भाइयों अहिरावण और महिरावण की याद दिलाई. रावण को याद आया कि यह दोनों तो उसके बचपन के मित्र रहे हैं.
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लंका का राजा बनने के बाद उनकी सुध ही नहीं रही थी. रावण यह भली प्रकार जानता था कि अहिरावण व महिरावण तंत्र-मंत्र के महा पंडित, जादू टोने के धनी और मां कामाक्षी के परम भक्त हैं.
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रावण ने उन्हें बुला भेजा और कहा कि वह अपने छल बल, कौशल से श्री राम व लक्ष्मण का सफाया कर दे. यह बात दूतों के जरिए विभीषण को पता लग गयी. युद्ध में अहिरावण व महिरावण जैसे परम मायावी के शामिल होने से विभीषण चिंता में पड़ गए.
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विभीषण को लगा कि भगवान श्री राम और लक्ष्मण की सुरक्षा व्यवस्था और कड़ी करनी पड़ेगी. इसके लिए उन्हें सबसे बेहतर लगा कि इसका जिम्मा परम वीर हनुमान जी को राम-लक्ष्मण को सौंप दिया जाए. साथ ही वे अपने भी निगरानी में लगे थे.
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राम-लक्ष्मण की कुटिया लंका में सुवेल पर्वत पर बनी थी. हनुमान जी ने भगवान श्री राम की कुटिया के चारों ओर एक सुरक्षा घेरा खींच दिया. कोई जादू टोना तंत्र-मंत्र का असर या मायावी राक्षस इसके भीतर नहीं घुस सकता था.
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अहिरावण और महिरावण श्री राम और लक्ष्मण को मारने उनकी कुटिया तक पहुंचे पर इस सुरक्षा घेरे के आगे उनकी एक न चली, असफल रहे. ऐसे में उन्होंने एक चाल चली. महिरावण विभीषण का रूप धर के कुटिया में घुस गया.
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राम व लक्ष्मण पत्थर की सपाट शिलाओं पर गहरी नींद सो रहे थे. दोनों राक्षसों ने बिना आहट के शिला समेत दोनो भाइयों को उठा लिया और अपने निवास पाताल की और लेकर चल दिए.
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विभीषण लगातार सतर्क थे. उन्हें कुछ देर में ही पता चल गया कि कोई अनहोनी घट चुकी है. विभीषण को महिरावण पर शक था, उन्हें राम-लक्ष्मण की जान की चिंता सताने लगी.
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विभीषण ने हनुमान जी को महिरावण के बारे में बताते हुए कहा कि वे उसका पीछा करें. लंका में अपने रूप में घूमना राम भक्त हनुमान के लिए ठीक न था सो उन्होंने पक्षी का रूप धारण कर लिया और पक्षी का रूप में ही निकुंभला नगर पहुंच गये.
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निकुंभला नगरी में पक्षी रूप धरे हनुमान जी ने कबूतर और कबूतरी को आपस में बतियाते सुना. कबूतर, कबूतरी से कह रहा था कि अब रावण की जीत पक्की है. अहिरावण व महिरावण राम-लक्ष्मण को बलि चढा देंगे. बस सारा युद्ध समाप्त.
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कबूतर की बातों से ही बजरंग बली को पता चला कि दोनों राक्षस राम लक्ष्मण को सोते में ही उठाकर कामाक्षी देवी को बलि चढाने पाताल लोक ले गये हैं. हनुमान जी वायु वेग से रसातल की और बढे और तुरंत वहां पहुंचे.
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हनुमान जी को रसातल के प्रवेश द्वार पर एक अद्भुत पहरेदार मिला. इसका आधा शरीर वानर का और आधा मछली का था. उसने हनुमान जी को पाताल में प्रवेश से रोक दिया.
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द्वारपाल हनुमान जी से बोला कि मुझ को परास्त किए बिना तुम्हारा भीतर जाना असंभव है. दोनों में लड़ाई ठन गयी. हनुमान जी की आशा के विपरीत यह बड़ा ही बलशाली और कुशल योद्धा निकला.
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दोनों ही बड़े बलशाली थे. दोनों में बहुत भयंकर युद्ध हुआ परंतु वह बजरंग बली के आगे न टिक सका. आखिर कार हनुमान जी ने उसे हरा तो दिया पर उस द्वारपाल की प्रशंसा करने से नहीं रह सके.
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हनुमान जी ने उस वीर से पूछा कि हे वीर तुम अपना परिचय दो. तुम्हारा स्वरूप भी कुछ ऐसा है कि उससे कौतुहल हो रहा है. उस वीर ने उत्तर दिया- मैं हनुमान का पुत्र हूं और एक मछली से पैदा हुआ हूं. मेरा नाम है मकरध्वज.
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हनुमान जी ने यह सुना तो आश्चर्य में पड़ गए. वह वीर की बात सुनने लगे. मकरध्वज ने कहा- लंका दहन के बाद हनुमान जी समुद्र में अपनी अग्नि शांत करने पहुंचे. उनके शरीर से पसीने के रूप में तेज गिरा.
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उस समय मेरी मां ने आहार के लिए मुख खोला था. वह तेज मेरी माता ने अपने मुख में ले लिया और गर्भवती हो गई. उसी से मेरा जन्म हुआ है. हनुमान जी ने जब यह सुना तो मकरध्वज को बताया कि वह ही हनुमान हैं.
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मकरध्वज ने हनुमान जी के चरण स्पर्श किए और हनुमान जी ने भी अपने बेटे को गले लगा लिया और वहां आने का पूरा कारण बताया. उन्होंने अपने पुत्र से कहा कि अपने पिता के स्वामी की रक्षा में सहायता करो.
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मकरध्वज ने हनुमान जी को बताया कि कुछ ही देर में राक्षस बलि के लिए आने वाले हैं. बेहतर होगा कि आप रूप बदल कर कामाक्षी कें मंदिर में जा कर बैठ जाएं. उनको सारी पूजा झरोखे से करने को कहें.
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हनुमान जी ने पहले तो मधु मक्खी का वेश धरा और मां कामाक्षी के मंदिर में घुस गये. हनुमान जी ने मां कामाक्षी को नमस्कार कर सफलता की कामना की और फिर पूछा- हे मां क्या आप वास्तव में श्री राम जी और लक्ष्मण जी की बलि चाहती हैं ?
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हनुमान जी के इस प्रश्न पर मां कामाक्षी ने उत्तर दिया कि नहीं. मैं तो दुष्ट अहिरावण व महिरावण की बलि चाहती हूं.यह दोनों मेरे भक्त तो हैं पर अधर्मी और अत्याचारी भी हैं. आप अपने प्रयत्न करो. सफल रहोगे.
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मंदिर में पांच दीप जल रहे थे. अलग-अलग दिशाओं और स्थान पर मां ने कहा यह दीप अहिरावण ने मेरी प्रसन्नता के लिए जलाये हैं जिस दिन ये एक साथ बुझा दिए जा सकेंगे, उसका अंत सुनिश्चित हो सकेगा.
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इस बीच गाजे-बाजे का शोर सुनाई पड़ने लगा. अहिरावण, महिरावण बलि चढाने के लिए आ रहे थे. हनुमान जी ने अब मां कामाक्षी का रूप धरा. जब अहिरावण और महिरावण मंदिर में प्रवेश करने ही वाले थे कि हनुमान जी का महिला स्वर गूंजा.
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हनुमान जी बोले- मैं कामाक्षी देवी हूं और आज मेरी पूजा झरोखे से करो. झरोखे से पूजा आरंभ हुई ढेर सारा चढावा मां कामाक्षी को झरोखे से चढाया जाने लगा. अंत में बंधक बलि के रूप में राम लक्ष्मण को भी उसी से डाला गया. दोनों बंधन में बेहोश थे.
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हनुमान जी ने तुरंत उन्हें बंधन मुक्त किया. अब पाताल लोक से निकलने की बारी थी पर उससे पहले मां कामाक्षी के सामने अहिरावण महिरावण की बलि देकर उनकी इच्छा पूरी करना और दोनों राक्षसों को उनके किए की सज़ा देना शेष था.
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अब हनुमान जी ने मकरध्वज को कहा कि वह अचेत अवस्था में लेटे हुए भगवान राम और लक्ष्मण का खास ख्याल रखे और उसके साथ मिलकर दोनों राक्षसों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया.
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पर यह युद्ध आसान न था. अहिरावण और महिरावण बडी मुश्किल से मरते तो फिर पाँच पाँच के रूप में जिदां हो जाते. इस विकट स्थिति में मकरध्वज ने बताया कि अहिरावण की एक पत्नी नागकन्या है.
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अहिरावण उसे बलात हर लाया है. वह उसे पसंद नहीं करती पर मन मार के उसके साथ है, वह अहिरावण के राज जानती होगी. उससे उसकी मौत का उपाय पूछा जाये. आप उसके पास जाएं और सहायता मांगे.
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मकरध्वज ने राक्षसों को युद्ध में उलझाये रखा और उधर हनुमान अहिरावण की पत्नी के पास पहुंचे. नागकन्या से उन्होंने कहा कि यदि तुम अहिरावण के मृत्यु का भेद बता दो तो हम उसे मारकर तुम्हें उसके चंगुल से मुक्ति दिला देंगे.
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अहिरावण की पत्नी ने कहा- मेरा नाम चित्रसेना है. मैं भगवान विष्णु की भक्त हूं. मेरे रूप पर अहिरावण मर मिटा और मेरा अपहरण कर यहां कैद किये हुए है, पर मैं उसे नहीं चाहती. लेकिन मैं अहिरावण का भेद तभी बताउंगी जब मेरी इच्छा पूरी की जायेगी.
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हनुमान जी ने अहिरावण की पत्नी नागकन्या चित्रसेना से पूछा कि आप अहिरावण की मृत्यु का रहस्य बताने के बदले में क्या चाहती हैं ? आप मुझसे अपनी शर्त बताएं, मैं उसे जरूर मानूंगा.
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चित्रसेना ने कहा- दुर्भाग्य से अहिरावण जैसा असुर मुझे हर लाया. इससे मेरा जीवन खराब हो गया. मैं अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलना चाहती हूं. आप अगर मेरा विवाह श्री राम से कराने का वचन दें तो मैं अहिरावण के वध का रहस्य बताऊंगी.
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हनुमान जी सोच में पड़ गए. भगवान श्री राम तो एक पत्नी निष्ठ हैं. अपनी धर्म पत्नी देवी सीता को मुक्त कराने के लिए असुरों से युद्ध कर रहे हैं. वह किसी और से विवाह की बात तो कभी न स्वीकारेंगे. मैं कैसे वचन दे सकता हूं ?
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फिर सोचने लगे कि यदि समय पर उचित निर्णय न लिया तो स्वामी के प्राण ही संकट में हैं. असमंजस की स्थिति में बेचैन हनुमानजी ने ऐसी राह निकाली कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.
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हनुमान जी बोले- तुम्हारी शर्त स्वीकार है पर हमारी भी एक शर्त है. यह विवाह तभी होगा जब तुम्हारे साथ भगवान राम जिस पलंग पर आसीन होंगे वह सही सलामत रहना चाहिए. यदि वह टूटा तो इसे अपशकुन मांगकर वचन से पीछे हट जाऊंगा.
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जब महाकाय अहिरावण के बैठने से पलंग नहीं टूटता तो भला श्रीराम के बैठने से कैसे टूटेगा ! यह सोच कर चित्रसेना तैयार हो गयी. उसने अहिरावण समेत सभी राक्षसों के अंत का सारा भेद बता दिया.
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चित्रसेना ने कहा- दोनों राक्षसों के बचपन की बात है. इन दोनों के कुछ शरारती राक्षस मित्रों ने कहीं से एक भ्रामरी को पकड़ लिया. मनोरंजन के लिए वे उसे भ्रामरी को बार-बार काटों से छेड रहे थे.
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भ्रामरी साधारण भ्रामरी न थी. वह भी बहुत मायावी थी किंतु किसी कारण वश वह पकड़ में आ गई थी. भ्रामरी की पीड़ा सुनकर अहिरावण और महिरावण को दया आ गई और अपने मित्रों से लड़ कर उसे छुड़ा दिया.
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मायावी भ्रामरी का पति भी अपनी पत्नी की पीड़ा सुनकर आया था. अपनी पत्नी की मुक्ति से प्रसन्न होकर उस भौंरे ने वचन दिया थ कि तुम्हारे उपकार का बदला हम सभी भ्रमर जाति मिलकर चुकाएंगे.
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ये भौंरे अधिकतर उसके शयन कक्ष के पास रहते हैं. ये सब बड़ी भारी संख्या में हैं. दोनों राक्षसों को जब भी मारने का प्रयास हुआ है और ये मरने को हो जाते हैं तब भ्रमर उनके मुख में एक बूंद अमृत का डाल देते हैं.
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उस अमृत के कारण ये दोनों राक्षस मरकर भी जिंदा हो जाते हैं. इनके कई-कई रूप उसी अमृत के कारण हैं. इन्हें जितनी बार फिर से जीवन दिया गया उनके उतने नए रूप बन गए हैं. इस लिए आपको पहले इन भंवरों को मारना होगा.
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हनुमान जी रहस्य जानकर लौटे. मकरध्वज ने अहिरावण को युद्ध में उलझा रखा था. तो हनुमान जी ने भंवरों का खात्मा शुरू किया. वे आखिर हनुमान जी के सामने कहां तक टिकते.
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जब सारे भ्रमर खत्म हो गए और केवल एक बचा तो वह हनुमान जी के चरणों में लोट गया. उसने हनुमान जी से प्राण रक्षा की याचना की. हनुमान जी पसीज गए. उन्होंने उसे क्षमा करते हुए एक काम सौंपा.
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हनुमान जी बोले- मैं तुम्हें प्राण दान देता हूं पर इस शर्त पर कि तुम यहां से तुरंत चले जाओगे और अहिरावण की पत्नी के पलंग की पाटी में घुसकर जल्दी से जल्दी उसे पूरी तरह खोखला बना दोगे.
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भंवरा तत्काल चित्रसेना के पलंग की पाटी में घुसने के लिए प्रस्थान कर गया. इधर अहिरावण और महिरावण को अपने चमत्कार के लुप्त होने से बहुत अचरज हुआ पर उन्होंने मायावी युद्ध जारी रखा.
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भ्रमरों को हनुमान जी ने समाप्त कर दिया फिर भी हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों अहिरावण और महिरावण का अंत नहीं हो पा रहा था. यह देखकर हनुमान जी कुछ चिंतित हुए.
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फिर उन्हें कामाक्षी देवी का वचन याद आया. देवी ने बताया था कि अहिरावण की सिद्धि है कि जब पांचो दीपकों एक साथ बुझेंगे तभी वे नए-नए रूप धारण करने में असमर्थ होंगे और उनका वध हो सकेगा.
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हनुमान जी ने तत्काल पंचमुखी रूप धारण कर लिया. उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख.
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उसके बाद हनुमान जी ने अपने पांचों मुख द्वारा एक साथ पांचों दीपक बुझा दिए. अब उनके बार बार पैदा होने और लंबे समय तक जिंदा रहने की सारी आशंकायें समाप्त हो गयीं थी. हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों शीघ्र ही दोनों राक्षस मारे गये.
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इसके बाद उन्होंने श्री राम और लक्ष्मण जी की मूर्च्छा दूर करने के उपाय किए. दोनो भाई होश में आ गए. चित्रसेना भी वहां आ गई थी. हनुमान जी ने कहा- प्रभो ! अब आप अहिरावण और महिरावण के छल और बंधन से मुक्त हुए.
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पर इसके लिए हमें इस नागकन्या की सहायता लेनी पड़ी थी. अहिरावण इसे बल पूर्वक उठा लाया था. वह आपसे विवाह करना चाहती है. कृपया उससे विवाह कर अपने साथ ले चलें. इससे उसे भी मुक्ति मिलेगी.
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श्री राम हनुमान जी की बात सुनकर चकराए. इससे पहले कि वह कुछ कह पाते हनुमान जी ने ही कह दिया- भगवन आप तो मुक्तिदाता हैं. अहिरावण को मारने का भेद इसी ने बताया है. इसके बिना हम उसे मारकर आपको बचाने में सफल न हो पाते.
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कृपा निधान इसे भी मुक्ति मिलनी चाहिए. परंतु आप चिंता न करें. हम सबका जीवन बचाने वाले के प्रति बस इतना कीजिए कि आप बस इस पलंग पर बैठिए बाकी का काम मैं संपन्न करवाता हूं.
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हनुमान जी इतनी तेजी से सारे कार्य करते जा रहे थे कि इससे श्री राम जी और लक्ष्मण जी दोनों चिंता में पड़ गये. वह कोई कदम उठाते कि तब तक हनुमान जी ने भगवान राम की बांह पकड़ ली.
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हनुमान जी ने भावा वेश में प्रभु श्री राम की बांह पकड़कर चित्रसेना के उस सजे-धजे विशाल पलंग पर बिठा दिया. श्री राम कुछ समझ पाते कि तभी पलंग की खोखली पाटी चरमरा कर टूट गयी.
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पलंग धराशायी हो गया. चित्रसेना भी जमीन पर आ गिरी. हनुमान जी हंस पड़े और फिर चित्रसेना से बोले- अब तुम्हारी शर्त तो पूरी हुई नहीं, इसलिए यह विवाह नहीं हो सकता. तुम मुक्त हो और हम तुम्हें तुम्हारे लोक भेजने का प्रबंध करते हैं.
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चित्रसेना समझ गयी कि उसके साथ छल हुआ है. उसने कहा कि उसके साथ छल हुआ है. मर्यादा पुरुषोत्तम के सेवक उनके सामने किसी के साथ छल करें यह तो बहुत अनुचित है. मैं हनुमान को श्राप दूंगी.
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चित्रसेना हनुमान जी को श्राप देने ही जा हे रही थी कि श्री राम का सम्मोहन भंग हुआ. वह इस पूरे नाटक को समझ गये. उन्होंने चित्रसेना को समझाया- मैंने एक पत्नी धर्म से बंधे होने का संकल्प लिया है. इस लिए हनुमान जी को यह करना पड़ा. उन्हें क्षमा कर दो.
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क्रुद्ध चित्रसेना तो उनसे विवाह की जिद पकड़े बैठी थी. श्री राम ने कहा- मैं जब द्वापर में श्री कृष्ण अवतार लूंगा तब तुम्हें सत्यभामा के रूप में अपनी पटरानी बनाउंगा. इससे वह मान गयी.
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हनुमान जी ने चित्रसेना को उसके पिता के पास पहुंचा दिया. चित्रसेना को प्रभु ने अगले जन्म में पत्नी बनाने का वरदान दिया था. भगवान विष्णु की पत्नी बनने की चाह में उसने स्वयं को अग्नि में भस्म कर लिया.
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श्री राम और लक्ष्मण, मकरध्वज और हनुमान जी सहित वापस लंका में सुवेल पर्वत पर लौट आये. (स्कंद पुराण और आनंद रामायण के सारकांड की कथा)

जय जय श्री राधे
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.जय श्री राम

Saturday, 22 August 2015


-----गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस लिखकर मानव जीवन मे उजाला कर दिया है--- अगर कोई व्यक्ति सदगुरु की शरण मे जाकर रामचरितमानस को जीवन मे उतार लेता है तो उसके जीवन मे साक्षात् प्रभु प्रकट हो जाते है---
मनुष्य का मन अगर हरि कथाएं सुनते सुनते थक जाए या बोर हो जाए तो ये समझ लेना की वो सच्चा प्रेमी नही है--
तुलसीदास जी कहते है-- राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं
जीवनमुक्त महामुनि जेऊ। हरि गुन सुनहिं निरंतर तेऊ----
तुलसीदास जी कहते है की जो हरि कथा सुनकर बोर हो जाते है उन्होने कथा रस को अच्छी तरह नही पीया लेकिन जो जीवन्मुक्त यानि जो प्रभु से सच्चा प्रेम करते है वो निरंतर कथा श्रवण करते रहते है--
बिलकुल ठीक कहा है की जब मनुष्य भोजन करना नही छोड सका तो भजन क्यो छोड देता है---
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी--
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना--
तुलसीदास जी कहते है की जिसके हर्दय मे भक्ति नही है वो ईंसान मुर्दे के समान है ओर जिसकी जीभ हरिनाम नही गाती वो जीभ मेढंक की तरह टर टर करती रहती है----
बिलकुल सत्य कहा है क्योकि भक्ति जब जीवन मे आती है तो मनुष्य के जीवन मे आनंद के साथ साथ उत्साह,,धैर्य,,
संतोष,शांति,,सरलता,,शीतलता आदि गुण आ जाते है --
भक्ति का जीवन मे आना बहुत ही भाग्य की बात है ओर जिसके जीवन मे भक्ति आ जाये उसपर विशेष कृपा होती है क्योकि प्रभु ने कहा है की मै मुक्ति बहुत जल्दी दे देता हूं पर भक्ति नही ओर जिसको भक्ति मिल गयी वो धन्य है--
निर्धना अपि ते धन्या-- वो भाग्यशाली है जिसके जीवन मे भक्ति है क्योकि रुपया पैसा घर गाडी ये सब चाहे कितना भी आ जाये लेकिन प्रभु को बांधने मे समर्थ नही है-- प्रभु सोने या चांदी की जंजीरो से नही बंधेगे ,,प्रभु अगर बंधते है तो आंसुओ की लडियो मे बंध जाते है--
जब हरि लगन लगेगी ओर लगन मे जब अगन आ जायेगी तो आंसु खुद गिरने लगेंगे--
ओर भक्ति मे शर्म भी नही करनी चाहिये क्योकि अगर मीरा शर्म करती तो फिर कैसे वो महलो को छोड पाती- ,,,भक्ति संसार को दिखाने के लिए नही होती,,भक्ति तो प्रभु के लिए होती है-- अगर प्रभु के लिए चलें है तो ये चलना भी भक्ति हो जाती है-- जो क्रिया भगवान से जुड गयी वो भक्ति हो गयी,--
संसार के लिए तो ये जीभ कितना कुछ बोलती रहती है लेकिन प्रभु का नाम गाने मे संकोच करती है ईसलिए विवेकपुर्वक जितना ज्यादा हो सके तो हरिनाम मे ईसका प्रयोग करना चाहिये------ सुत दारा अरु लक्ष्मी पापी घर भी होय
संत समागम हरि कथा तुलसी दुर्लभ दोय |----
तुलसीदास जी कहते है की पुत्र,,पत्नी,,ल
क्ष्मी ये सब तो पापी के घर भी होते है लेकिन हरि कथा ओर संत दर्शन ये दुर्लभ है---
जब भी हरि कथा श्रवण करने का मौका मिले तो समझ लेना की प्रभु की बहुत कृपा है---
हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता---
भगवान अनंत है ओर उनकी कथा भी अनंत है---
वैसे तो भगवान के 24 अवतारो का वर्णन है शास्त्रो मे लेकिन भगवान के अवतार अनंत ओर अनगिनत है ओर वो कहीं भी ओर किसी भी समय प्रकट हो सकते है---
कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहि पारा!-- कलियुग मे हरिनाम की बहुत महिमा है---
जिस तरह अमृत को जानबुझकर पीयो या अनजाने मे अमृत अमर करता है उसी प्रकार भगवान का नाम चाहे जैसे भी लो भगवान का नाम कभी खाली नही जाता---
सांकेतं परिहास्यं वा---
रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी।-- भगवान की कथा हाथ की एक ताली है जो संदेह रुपि पक्षियो को उडा देती है---
सत्य है क्योकि हरि कथा का अगर श्रवण मनन चिंतन ओर धारण किया जाए तो मन से सारे संशय निकलकर प्रभु प्रेम जागृत होता है ओर जिस तरह कुल्हाडी से वृक्ष काटा जाता है उसी प्रकार हरिकथा से मनुष्य के जीवन से संसार रुपि विष का मोह दुर होता है---
शेष सब भगवद् कृपा ओर गुरुजी का आशीर्वाद---