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Wednesday, 3 April 2013

क्यों पीया था शिव ने कालकूट विष?

देवताओं और दानवों द्वारा किए गए समुद्र मंथन से निकला विष भगवान शंकर ने अपने कण्ठ में धारण किया
था। विष के प्रभाव से उनका कण्ठ नीला पड़ गया और वे नीलकण्ठ के नाम से प्रसिद्ध हुए।
विद्वानों का मत है कि समुद्र मंथन एक प्रतीकात्मक घटना है। समुद्र मंथन का अर्थ है अपने मन को मथना, विचारों का मंथन करना। मन में असंख्य विचार और भावनाएं होती हैं उन्हें मथकर निकालना और अच्छे विचारों को अपनाना। हम जब अपने मन से विचारों को निकालेंगे तो सबसे पहले बुरे विचार निकलेंगे।
यही विष हैं, विष बुराइयों का प्रतीक है। शिव ने उसे अपने कण्ठ में धारण किया। उसे अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। शिव का विष पान हमें यह संदेश देता है कि हमें बुराइयों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए। हमें बुराइयों का हर कदम पर सामना करना चाहिए।
शिव द्वारा  विष पान हमें यह सीख भी देता है कि यदि कोइ बुराई पैदा हो रही हो तो उसे दूसरों तक नहीं पहुंचने देना चाहिए।

Tuesday, 26 March 2013

                 
              ..........'' आप सभी को हमारी मंगल कामनाओं के साथ .होली की बहुत बहुत बधाई ''..............

                                 "लाल" आपके गालों के लिए...."काला" आपके बालों के लिए...
                                 "नीला" आपके आँखों के लिए..."पीला" आपके हाथों के लिए...
                                 "गुलाबी" आपके सपनों के लिए...."सफेद" आपके मन के लिए....
                                                       "हरा" आपके जीवन के लिए....
                                      "होली" के इन सात रंगों के साथ"जिंदगी" रंगीन हो ...

                                       सभी  को सपरिवार होली की हार्दिक शुभकामनाएँ....

Monday, 25 March 2013

         
आप सभी को हमारी मंगल कामनाओं के साथ .
होली की बहुत बहुत बधाई ..............

Saturday, 23 March 2013

एक बार एक स्वामी जी भिक्षा माँगते हुए एक घर के सामने खड़े हुए और उन्होंने आवाज लगायी, भीक्षा दे दे माते!!   घर से महिला बाहर आयी। उसने उनकी झोली मे भिक्षा डाली और कहा, “महात्माजी, कोई उपदेश दीजिए!”  स्वामीजी बोले, “आज नहीं, कल दूँगा।” दूसरे दिन स्वामीजी ने पुन: उस घर के सामने आवाज दी – भीक्षा दे दे माते!!  उस घर की स्त्री ने उस दिन खीर बनायीं थी, जिसमे बादाम- पिस्ते भी डाले थे, वह खीर का कटोरा लेकर बाहर आयी। स्वामी जी ने अपना कमंडल आगे कर दिया। वह स्त्री जब खीर डालने लगी, तो उसने देखा कि कमंडल में गोबर और कूड़ा भरा पड़ा है। उसके हाथ ठिठक गए। वह बोली, “महाराज ! यह कमंडल तो गन्दा है।”स्वामीजी बोले, “हाँ,गन्दा तो है, किन्तु खीर इसमें डाल दो।” स्त्री बोली, “नहीं महाराज, तब तो खीर ख़राब हो जायेगी। दीजिये यह कमंडल, में इसे शुद्ध कर लाती हूँ।”स्वामीजी बोले, मतलब जब यह कमंडल साफ़ हो जायेगा, तभी खीर डालोगी न?” स्त्री ने कहा : “जी महाराज !” स्वामीजी बोले,“मेरा भी यही उपदेश है। मन में जब तक चिन्ताओ का कूड़ा-कचरा और बुरे संस्करो का गोबर भरा है, तब तक उपदेशामृत का कोई लाभ न होगा।यदि उपदेशामृत पान करना है, तो प्रथम अपने मन को शुद्ध करना चाहिए,कुसंस्कारो का त्याग करना चाहिए, तभी सच्चे सुख और आनन्द की प्राप्ति होगी।

Friday, 22 March 2013

नंदी की स्थापना गर्भ-गृह के बाहर क्यों?


यह बात देखने में अटपटी लग सकती है कि शिव परिवार का महत्वपूर्ण और अभिन्न हिस्सा होने के बावजूद असीम शक्तियों के स्वामी नंदी शिव परिवार के साथ न होकर गर्भ-गृह के बाहर क्यों स्थापित होते हैं। इसके पीछे भी रहस्य है। नंदी गर्भ-गृह के बाहर खुली आंखों की अवस्था में समाधि की स्थिति में होते हैं, लेकिन उनकी दृष्टि शिव की ओर ही रहती है।महाभारत के रचयिता के अनुसार खुली आंखों से ही आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है और इस आत्मज्ञान के सहारे जीवन मुक्ति पाना सरल हो जाता है। शिव दर्शन से पहले नंदी के दर्शन करना शास्त्रसम्मत है, ताकि व्यक्ति अपने अहंकार सहित समस्त बुराइयों से मुक्त हो जाए। मद, मोह, छल, कपट और ईर्ष्या जैसे अपने विकारों को नंदीश्वर के चरणों में त्याग कर वह शिव के पास जाए और उनकी कृपा प्राप्त करे। नंदी का अर्थ है— प्रसन्नता यानी जिनके दर्शन मात्र से ही समस्त दुख दूर हो जाते हों। नंदी जीवन में प्रसन्नता और सफलता के प्रतीक हैं। ऋषि शिलाद के अयोनिज पुत्र नंदी शिव के ही अंश हैं, इसलिए अजर-अमर हैं। नंदी के सींग विवेक और वैराग्य के प्रतीक हैं। दाहिने हाथ के अंगूठे और तजर्नी से नंदी के सींगों को स्पर्श करते हुए शिव के दर्शन किए जाते हैं। नंदी की कृपा के बिना शिव कृपा संभव नहीं। आपने मंदिरों में अक्सर देखा होगा कि कुछ लोग नंदी के कान के पास जाकर कुछ बुदबुदाते हैं। यह बुदबुदाना और कुछ नहीं, एक तरह से सिफारिश की गुहार लगाना ही है। इससे भक्त नंदी के जरिये अपनी मनोकामना महादेव तक पहुंचाते हैं। भोले बाबा अपने नंदी की बात को कभी नहीं टालते। दरअसल नंदी, शिव और भक्तों के बीच उस सेतु का कार्य करते हैं, जिसके सहारे व्यक्ति शिव की शरण में पहुंच कर उनकी कृपा का पात्र हो जाता है।

Thursday, 21 March 2013

संजय सोनी
एक राजा की सवारी निकल रही थी। आगे आगे सेना की एक टुकड़ी मार्ग में आनेवाले लोगों को रोककर मार्ग खाली करने के काम पर लगी थी। एक महात्मा बीच रास्ते में बैठे थे। अपनी ही मस्ती में थे। एक सैनिक उनके पास जाकर चिल्लाया, ‘‘उठो! रास्ता खाली करो !! राजा की सवारी आ रही है।’’ महात्मा हटे नहीं और उस सैनिक से पूछा, ‘‘तूम कौन हो?’’ सिपाही अपनी अकड़ में बोला, ‘‘मूझे नहीं जानते? मै राजा की विशेष रक्षा वाहिनी का सिपाही हूँ। हटो! नहीं तो. . .’’ महात्मा ने मुस्कुराकर कहा, ‘‘तभी’’। सिपाही कुछ समझा नहीं, अपने सुबेदार को ले आया। सुबेदार अकड़कर बोला, ‘‘ना जाने कहाँ कहाँ से आ जाते है, भीखमंगे ? अरे इतनी सी बात नहीं समझते, राजा की सवारी आ रही है। फूटों यहाँ से ! दिखना मत कही आसपास भी।’’ महात्मा ने फिर पुछा, ‘‘तुम कौन?’’ सुबेदारी का परिचय पाकर फिर वही टिप्पणी की, ‘‘तभी!’’ जब महात्मा फिर ध्यानमग्न हो गये और राह से ड़िगे नहीं तो सेनापति आया। ठसन तो थी पर भाषा सभ्य थी, ‘‘महात्माजी हमारी विवशता को समझें, आप नहीं हटेंगे तो राजा की सवारी में विघ्न आयेगा। कृपया राह दें।’’ महात्मा ने फिर परिचय मांगा और परिचय पाने पर फिर वही, ‘‘तभी!’’ अब मंत्री की बारी थी। मन्त्री ने प्रणाम कर बड़ी विनम्रता से राह छोड़ने की प्रार्थना की। राजा के गन्तव्य का महत्व भी बताया और राष्ट्रीय आवश्यकता की भी दूहाई दी। महात्मा ने मुस्कुराकर परिचय पूछा। पता चलने पर फिर, ‘‘तभी!’’
अब बात राजा तक पहुँची। महात्मा है कि हटता नहीं और केवल ‘तभी’ ‘तभी’ कहता है। राजा ने रथ से उतरकर साष्टांग दण्डवत किया और महात्मा का आशिर्वाद मांगा। कहा, ‘‘मै राह बदलकर चला जाउंगा पर जिस कार्य पर जा रहा हूँ उसकी सफलता का आशिष दें।’’ महात्मा केवल मुस्कुराये और परिचय पुछा। राजा ने उत्तर दिया, ‘‘महाराज प्रजा का सेवक हूँ। धर्म के अनुसार राज्यपालन का दायित्व है।’’ महात्मा मुस्कुराये और आशिर्वाद का हाथ उठाकर बोले, ‘‘तभी!’’
राजा मार्ग बदलकर आगे बढ़ा। रथ में साथ विराजमान राजगुरु से बोला, ‘‘इस ‘तभी’ का क्या रहस्य है?’’ राजगुरु ने समझाया, ‘‘अपने आप में तो ‘तभी’ कुछ नहीं कहता पर उसके पूर्व के विधान के साथ जोड़कर देखें तो पता चलेगा। सिपाही हो ‘तभी’। सुबेदार हो ‘तभी’। सबके स्तर के अनुसार उनके व्यवहार पर यह टिप्पणी थी। राजन् , महात्मा ने अपने ‘तभी’ से सदाचार पर भाष्य किया है। व्यक्ति का शील ही उसका वास्तविक परिचय है। यह शील उसके व्यवहार में झलकता है। आप राजन् है, विनम्रता और सेवाभाव आपका शील है। ‘तभी’ ! इसको उलटा देखने से भी बड़ी शिक्षा मिलती है। उद्दण्ड व्यवहार है तभी केवल सिपाही हो। ठसन है तभी सुबेदार हो। विनम्रता है पर पूर्ण अधिकार नहीं तभी मंत्री हो।’’ राजा मन ही मन गुनगुनाता रहा ‘तभी’।

इस कथा से एक बात और पता चलती है। वो ये कि आम तौर पर मनुष्य जितने छोटे पद पर है, उतन ही अकडू और दम्भी है और जैसे 2 वह ऊँचे पद पर पहुँचता है, उतना ही विनम्र होता जाता है।


Wednesday, 20 March 2013

माखन - मिश्री


श्री राम बहुत शर्मीले है, कौशल्या माँ माखन - मिश्री देना भूल जाए तो रामजी मांगते नहीं. बहुत मर्यादा में रहते है. अनेक बार एसा हुआ की कौशल्या जी लक्ष्मीनारायण की सेवा में इसी तन्मय हो जाती है की रामजी कौशल्या माँ का वन्दन करने आवे, पास बैठ जाए परन्तु माँ रामजी को माखन - मिश्री देना भूल जाती है परन्तु रामजी कभी भी मांगते नहीं ..

कन्हैया तो यशोदा माँ के पीछे पड़ जाते थे कि 'माँ! माखन-मिश्री मुझे दे. लाला कि सभी लीला विचित्र है, ये तो प्रेम - मूर्ति है. श्रीराम  मर्यादा पुर्शोतम है , माता कि भी मर्यादा रखते है श्रीराम और श्री कृष्ण दोनों को माखन-मिश्री बहुत भाती है . दोनों माखन-मिश्री आरोगते है. श्रीबालकृष्णलाल तो माखन - मिश्री हाथ में ही रखते है. कन्हैया जगत को ज्ञान देते है कि 'तुम मिश्री जैसे मधुर बनो तो मै तुमको हाथ मै रखु. जीवन में मिठास सयम से आती है, सबका मान रखने से आती है. सबको मान देने से और सब इन्द्रियों का सयम करने से जीवन मिश्री जैसा मधुर बनता है. जिसके जीवन में कड़वाहट है, उसकी भक्ति भगवान् को प्रिय लगती नहीं. जिसका जीवन मिश्री जैसा मधुर है, जिसका ह्रदय माखन जैसा कोमल है, वही परमात्मा को प्यारा है, कन्हैया माखन-चोर अर्थात म्रदुल मनका चोर है. म्रदुल मन, कोमल ह्रदय भगवान श्री राम , भगवान श्री कृष्ण दोनों को प्रिय लगता है .

जय श्री राम
जय श्री कृष्ण