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Saturday, 23 March 2013

एक बार एक स्वामी जी भिक्षा माँगते हुए एक घर के सामने खड़े हुए और उन्होंने आवाज लगायी, भीक्षा दे दे माते!!   घर से महिला बाहर आयी। उसने उनकी झोली मे भिक्षा डाली और कहा, “महात्माजी, कोई उपदेश दीजिए!”  स्वामीजी बोले, “आज नहीं, कल दूँगा।” दूसरे दिन स्वामीजी ने पुन: उस घर के सामने आवाज दी – भीक्षा दे दे माते!!  उस घर की स्त्री ने उस दिन खीर बनायीं थी, जिसमे बादाम- पिस्ते भी डाले थे, वह खीर का कटोरा लेकर बाहर आयी। स्वामी जी ने अपना कमंडल आगे कर दिया। वह स्त्री जब खीर डालने लगी, तो उसने देखा कि कमंडल में गोबर और कूड़ा भरा पड़ा है। उसके हाथ ठिठक गए। वह बोली, “महाराज ! यह कमंडल तो गन्दा है।”स्वामीजी बोले, “हाँ,गन्दा तो है, किन्तु खीर इसमें डाल दो।” स्त्री बोली, “नहीं महाराज, तब तो खीर ख़राब हो जायेगी। दीजिये यह कमंडल, में इसे शुद्ध कर लाती हूँ।”स्वामीजी बोले, मतलब जब यह कमंडल साफ़ हो जायेगा, तभी खीर डालोगी न?” स्त्री ने कहा : “जी महाराज !” स्वामीजी बोले,“मेरा भी यही उपदेश है। मन में जब तक चिन्ताओ का कूड़ा-कचरा और बुरे संस्करो का गोबर भरा है, तब तक उपदेशामृत का कोई लाभ न होगा।यदि उपदेशामृत पान करना है, तो प्रथम अपने मन को शुद्ध करना चाहिए,कुसंस्कारो का त्याग करना चाहिए, तभी सच्चे सुख और आनन्द की प्राप्ति होगी।

Friday, 22 March 2013

नंदी की स्थापना गर्भ-गृह के बाहर क्यों?


यह बात देखने में अटपटी लग सकती है कि शिव परिवार का महत्वपूर्ण और अभिन्न हिस्सा होने के बावजूद असीम शक्तियों के स्वामी नंदी शिव परिवार के साथ न होकर गर्भ-गृह के बाहर क्यों स्थापित होते हैं। इसके पीछे भी रहस्य है। नंदी गर्भ-गृह के बाहर खुली आंखों की अवस्था में समाधि की स्थिति में होते हैं, लेकिन उनकी दृष्टि शिव की ओर ही रहती है।महाभारत के रचयिता के अनुसार खुली आंखों से ही आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है और इस आत्मज्ञान के सहारे जीवन मुक्ति पाना सरल हो जाता है। शिव दर्शन से पहले नंदी के दर्शन करना शास्त्रसम्मत है, ताकि व्यक्ति अपने अहंकार सहित समस्त बुराइयों से मुक्त हो जाए। मद, मोह, छल, कपट और ईर्ष्या जैसे अपने विकारों को नंदीश्वर के चरणों में त्याग कर वह शिव के पास जाए और उनकी कृपा प्राप्त करे। नंदी का अर्थ है— प्रसन्नता यानी जिनके दर्शन मात्र से ही समस्त दुख दूर हो जाते हों। नंदी जीवन में प्रसन्नता और सफलता के प्रतीक हैं। ऋषि शिलाद के अयोनिज पुत्र नंदी शिव के ही अंश हैं, इसलिए अजर-अमर हैं। नंदी के सींग विवेक और वैराग्य के प्रतीक हैं। दाहिने हाथ के अंगूठे और तजर्नी से नंदी के सींगों को स्पर्श करते हुए शिव के दर्शन किए जाते हैं। नंदी की कृपा के बिना शिव कृपा संभव नहीं। आपने मंदिरों में अक्सर देखा होगा कि कुछ लोग नंदी के कान के पास जाकर कुछ बुदबुदाते हैं। यह बुदबुदाना और कुछ नहीं, एक तरह से सिफारिश की गुहार लगाना ही है। इससे भक्त नंदी के जरिये अपनी मनोकामना महादेव तक पहुंचाते हैं। भोले बाबा अपने नंदी की बात को कभी नहीं टालते। दरअसल नंदी, शिव और भक्तों के बीच उस सेतु का कार्य करते हैं, जिसके सहारे व्यक्ति शिव की शरण में पहुंच कर उनकी कृपा का पात्र हो जाता है।

Thursday, 21 March 2013

संजय सोनी
एक राजा की सवारी निकल रही थी। आगे आगे सेना की एक टुकड़ी मार्ग में आनेवाले लोगों को रोककर मार्ग खाली करने के काम पर लगी थी। एक महात्मा बीच रास्ते में बैठे थे। अपनी ही मस्ती में थे। एक सैनिक उनके पास जाकर चिल्लाया, ‘‘उठो! रास्ता खाली करो !! राजा की सवारी आ रही है।’’ महात्मा हटे नहीं और उस सैनिक से पूछा, ‘‘तूम कौन हो?’’ सिपाही अपनी अकड़ में बोला, ‘‘मूझे नहीं जानते? मै राजा की विशेष रक्षा वाहिनी का सिपाही हूँ। हटो! नहीं तो. . .’’ महात्मा ने मुस्कुराकर कहा, ‘‘तभी’’। सिपाही कुछ समझा नहीं, अपने सुबेदार को ले आया। सुबेदार अकड़कर बोला, ‘‘ना जाने कहाँ कहाँ से आ जाते है, भीखमंगे ? अरे इतनी सी बात नहीं समझते, राजा की सवारी आ रही है। फूटों यहाँ से ! दिखना मत कही आसपास भी।’’ महात्मा ने फिर पुछा, ‘‘तुम कौन?’’ सुबेदारी का परिचय पाकर फिर वही टिप्पणी की, ‘‘तभी!’’ जब महात्मा फिर ध्यानमग्न हो गये और राह से ड़िगे नहीं तो सेनापति आया। ठसन तो थी पर भाषा सभ्य थी, ‘‘महात्माजी हमारी विवशता को समझें, आप नहीं हटेंगे तो राजा की सवारी में विघ्न आयेगा। कृपया राह दें।’’ महात्मा ने फिर परिचय मांगा और परिचय पाने पर फिर वही, ‘‘तभी!’’ अब मंत्री की बारी थी। मन्त्री ने प्रणाम कर बड़ी विनम्रता से राह छोड़ने की प्रार्थना की। राजा के गन्तव्य का महत्व भी बताया और राष्ट्रीय आवश्यकता की भी दूहाई दी। महात्मा ने मुस्कुराकर परिचय पूछा। पता चलने पर फिर, ‘‘तभी!’’
अब बात राजा तक पहुँची। महात्मा है कि हटता नहीं और केवल ‘तभी’ ‘तभी’ कहता है। राजा ने रथ से उतरकर साष्टांग दण्डवत किया और महात्मा का आशिर्वाद मांगा। कहा, ‘‘मै राह बदलकर चला जाउंगा पर जिस कार्य पर जा रहा हूँ उसकी सफलता का आशिष दें।’’ महात्मा केवल मुस्कुराये और परिचय पुछा। राजा ने उत्तर दिया, ‘‘महाराज प्रजा का सेवक हूँ। धर्म के अनुसार राज्यपालन का दायित्व है।’’ महात्मा मुस्कुराये और आशिर्वाद का हाथ उठाकर बोले, ‘‘तभी!’’
राजा मार्ग बदलकर आगे बढ़ा। रथ में साथ विराजमान राजगुरु से बोला, ‘‘इस ‘तभी’ का क्या रहस्य है?’’ राजगुरु ने समझाया, ‘‘अपने आप में तो ‘तभी’ कुछ नहीं कहता पर उसके पूर्व के विधान के साथ जोड़कर देखें तो पता चलेगा। सिपाही हो ‘तभी’। सुबेदार हो ‘तभी’। सबके स्तर के अनुसार उनके व्यवहार पर यह टिप्पणी थी। राजन् , महात्मा ने अपने ‘तभी’ से सदाचार पर भाष्य किया है। व्यक्ति का शील ही उसका वास्तविक परिचय है। यह शील उसके व्यवहार में झलकता है। आप राजन् है, विनम्रता और सेवाभाव आपका शील है। ‘तभी’ ! इसको उलटा देखने से भी बड़ी शिक्षा मिलती है। उद्दण्ड व्यवहार है तभी केवल सिपाही हो। ठसन है तभी सुबेदार हो। विनम्रता है पर पूर्ण अधिकार नहीं तभी मंत्री हो।’’ राजा मन ही मन गुनगुनाता रहा ‘तभी’।

इस कथा से एक बात और पता चलती है। वो ये कि आम तौर पर मनुष्य जितने छोटे पद पर है, उतन ही अकडू और दम्भी है और जैसे 2 वह ऊँचे पद पर पहुँचता है, उतना ही विनम्र होता जाता है।


Wednesday, 20 March 2013

माखन - मिश्री


श्री राम बहुत शर्मीले है, कौशल्या माँ माखन - मिश्री देना भूल जाए तो रामजी मांगते नहीं. बहुत मर्यादा में रहते है. अनेक बार एसा हुआ की कौशल्या जी लक्ष्मीनारायण की सेवा में इसी तन्मय हो जाती है की रामजी कौशल्या माँ का वन्दन करने आवे, पास बैठ जाए परन्तु माँ रामजी को माखन - मिश्री देना भूल जाती है परन्तु रामजी कभी भी मांगते नहीं ..

कन्हैया तो यशोदा माँ के पीछे पड़ जाते थे कि 'माँ! माखन-मिश्री मुझे दे. लाला कि सभी लीला विचित्र है, ये तो प्रेम - मूर्ति है. श्रीराम  मर्यादा पुर्शोतम है , माता कि भी मर्यादा रखते है श्रीराम और श्री कृष्ण दोनों को माखन-मिश्री बहुत भाती है . दोनों माखन-मिश्री आरोगते है. श्रीबालकृष्णलाल तो माखन - मिश्री हाथ में ही रखते है. कन्हैया जगत को ज्ञान देते है कि 'तुम मिश्री जैसे मधुर बनो तो मै तुमको हाथ मै रखु. जीवन में मिठास सयम से आती है, सबका मान रखने से आती है. सबको मान देने से और सब इन्द्रियों का सयम करने से जीवन मिश्री जैसा मधुर बनता है. जिसके जीवन में कड़वाहट है, उसकी भक्ति भगवान् को प्रिय लगती नहीं. जिसका जीवन मिश्री जैसा मधुर है, जिसका ह्रदय माखन जैसा कोमल है, वही परमात्मा को प्यारा है, कन्हैया माखन-चोर अर्थात म्रदुल मनका चोर है. म्रदुल मन, कोमल ह्रदय भगवान श्री राम , भगवान श्री कृष्ण दोनों को प्रिय लगता है .

जय श्री राम
जय श्री कृष्ण

Wednesday, 13 March 2013

'किसी समय स्वर्ग के राजा इंद्र ने अपने गुरु के प्रति कोई अपराध किया तो गुरु ने उन्हें सुअर योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया। जब इंद्र सुअर बनकर पृथ्वी लोक पर चले आए तो स्वर्ग का सिंहासन खाली हो गया। यह स्थिति देखकर ब्रह्मा पृथ्वी पर आए और उन्होंने सुअर रूपी इंद्र से कहा, भद्र! तुम पृथ्वी पर सुअर बनकर आए हो। अब मैं तुम्हारा उद्धार करने आया हूं। तुम तुरंत मेरे साथ चलो। लेकिन सुअर रूपी इंद्र हाथ जोड़ कर खड़े हो गए, मैं आपके साथ नहीं जा सकता। मुझ पर अनेक उत्तरदायित्व हैं। मेरे बच्चे हैं, पत्नी है और यह अपना सुंदर शूकर समाज है।
इसी प्रकार श्रीकृष्ण आते हैं और हमसे कहते हैं, तुम दुखों से भरे इस भौतिक संसार में क्या कर रहे हो? तुम मेरे पास चले आओ तो मैं तुम्हारी हर प्रकार से रक्षा करूंगा। किंतु हम कृष्ण के उपदशों पर ध्यान नहीं देते और सोचते हैं, हमें यहां कई दूसरे कहीं ज्यादा जरूरी कार्य करने हैं। यही विस्मृति है।विस्मृति का कारण है बार-बार मृत्यु का ग्रास बनना। यह वास्तविकता है कि पिछले जीवन में हमें अन्य परिवारों, माताओं, पिताओं अथवा देशों में अन्य शरीर मिले थे, किंतु हमें कुछ याद नहीं है। हो सकता है कि हम कुत्ते या बिल्ली, मनुष्य या देवता रहे हों, किंतु अब हमें कुछ भी याद नहीं है। विस्मृति के चलते हम भूल जाते हैं कि पिछले जन्म अथवा जन्मों में हम इसी प्रकार झूठी आशा अर्थात मृगतृष्णा के पीछे भागते रहे कि अमुक कार्य करने से हम सुखी होंगे, अमुक कार्य करने से नित्य आनंद की प्राप्ति होगी। किंतु इसी विस्मृति के कारण हम अपने वर्तमान का अमूल्य मानव जीवन भी व्यर्थ के कार्यों में गवां रहे हैं और कष्ट पा रहे हैं। तो क्यों न भगवद् भजन कर हम विस्मृति को सदा के लिए अलविदा कह दें।


Friday, 1 March 2013

'' लक्ष्मी की शिव - निष्ठा ''

लक्ष्मी की शिव - निष्ठा '' 
एक बार लीलामय भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी को भूलोक में अश्व्योनी में जन्म लेने का शाप दे दिया, भगवान कि प्रत्येक लीला में जो रहस्य होता है, उसको तो वे ही जानते है. श्री लक्ष्मी जी को इससे बहुत क्लेश हुआ, पर उनकी प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने कहा - 'देवि! यद्यपि मेरा वचन अन्यथा तो हो नहीं सकता, तथापि कुछ काल तक तुम अश्व्योनी में रहोगी, पश्चात् मेरे समान ही तुम्हारे एक पुत्र उत्पन्न होगा . उस समय उस शाप से तुम्हारी मुक्ति होगी और फिर तुम मेरे पास आ  जाओगी ।

भगवान के शाप से लक्ष्मी जी ने भूलोक में आकर अश्व्योनी में जन्म लिया  और वे काल्न्दी तथा तमसा के संगम पर भगवान शंकर की आराधना करने लगी, वे भगवान सदाशिव त्रिलोचन का अनन्य-मन से एक हजार वर्षो तक ध्यान करती रही  ....
उनकी तपस्या से महादेव जी बहुत प्रसन्न हुए और लक्ष्मी के सामने वृषभ पर आरूढ़ हो, पार्वती समेत दर्शन देकर कहने लगे - 'देवि   , आप तो जगत कि माता है और भगवान विष्णु कि परम प्रिय है. आप भक्ति-मुक्ति देनेवाले, सम्पूर्ण चराचर जगत के स्वामी विष्णु भगवान कि आराधना छोड़कर मेरे भजन क्यों कर रही है? वेदों का कथन है कि स्त्रियों को सर्वदा अपने पति कि उपासना करनी चाहिए. उनके लिए पति के अतिरिक्त और कोई देवता ही नहीं है, पति कैसा भी हो वह स्त्री का आराध्य देव होता है. भगवान नारायण तो मेरे पुर्शोतम है, ऐसे देवेश्वर पति कि उपासना छोड़कर आप मेरे उपासना क्यों करती है
लक्ष्मी जे ने कहा - हे आशुतोष! मेरे पतिदेव ने मुझे अश्व्योनी में जनम लेने का शाप दे दिया है, इस शाप का अंत पुत्र होने पर बताया है, वे वैकुण्ठ में निवास कर रहे है, हे महादेव! आपकी उपासना मैंने इसलिए की है की आपमें और श्री हरि में किंचिन्त मात्र भी भेद-भाव नहीं है. आप और वे एक ही है. केवल रूप भेद है, यह बात श्री हरि ने ही मुझे बताई थी .. आपका और उनका एकत्व जानकार ही मैंने आपकी आरधना की है. हे भगवान! यदि आप मुझपर प्रसन्न है तो मेरा यह दुःख दूर कीजिये  आशुतोष भगवान शिव ने लक्ष्मी के इन वचनों को सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और विष्णुदेव से इस विषये में प्रार्थना करने का वचन दिया और श्री हरि को प्राप्त करने तथा एक महान प्रकर्मशाली पुत्र प्राप्त करने का वर भी उन्हें प्रदान किया. भगवान शिव का सन्देश पाकर तथा देवि लक्ष्मी की स्तिथि जानकार भगवान विष्णु अश्व का रूप धारणकर लक्ष्मी जी के पास गये और कालान्तर में देवि लक्ष्मी को 'एकवीर' नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, उसी से "हैहय-वंश" की उत्पति हुई. अनन्तर लक्ष्मी के शाप की निव्रती हो गई और वे दिव्या शरीर धारणकर भगवान के साथ वैकुण्ठ पधार गई. उनकी शिव-साधना सफल हो गईअब बोलिए जय माँ महालक्ष्मी की           





Tuesday, 26 February 2013

''मन को वश में रखना बहुत कठिन ''

यह मन बहुत अशांत है, अतिशय चंचल है, सुख दुःख मन ही लाया करता है, मन विषयों में भटका करता है, यह स्थिर रह सकता नहीं, यह धन के पीछे दौड़ता है. और धन मिल जाये तो उससे इसे संतोष प्राप्त होता नहीं, और वहा अन्य किसी भोग - पदार्थ या विषय की तरफ दौड़ जाता है, मन कूदफांद करता ही रहता है, इस प्रकार चारो तरफ दौड़ा ही करता है, मन को तनिक भी शांति नहीं. मन अनेक तरंगे लीया करता है, मन मोह प्राप्त करता है, क्रोध करता है, लोभ करता है, कामना करता है, आसक्ति करता है, द्वेष करता है, अनेक प्रकार की चिंताए करता है, इस मन को वश में रखना बहुत कठिन है, असम्भव जैसा है. वह क्षण में सुख पाता है, क्षण में दुखी हो जाता है, इस की एक उदाहरन यह है
दो बचपन के दोस्त लम्बे समय बाद मिले, दोनों में वार्तालाप चलने लगा.
पहला मित्र : भाई! हम बहुत लम्बे समय बाद मिले है, इस बीच मेरी शादी हो चुकी है :)
दूसरा - यह तो बड़ी ख़ुशी की बात है, तुम चतुर्भुज बन गये :)
पहला - परन्तु जो स्त्री मिली है, वह बड़ी कर्कशा, कटुभाषिणी और क्ल्ह्कारिणी है :(
दूसरा - यह तो बहुत चिंता की बात है :(
पहला - पर वह बड़े धनी बाप की इकलोती बेटी है , बहुत माल साथ लाई है
दूसरा - तब तो तुम बहुत भाग्यशाली हो, अनायास मालामाल हो गये :)
पहला - मालामाल क्या ख़ाक हो गया, वह बड़ी कंजूस है, उसने सारी सम्पति अपने नियंत्रण में ले रखी है :(
दूसरा - तब तो सारा मामला ही गडबडा गया :(
पहला - हां , उसने एक सुंदर बिल्डिंग अवश्य बनवा ली :)
दूसरा - चलो , कोठी वाले तो तुम बन गये :)
पहला - हां, आफत भी साथ ही आ गई, उस कोठी में आग लग गई :(
दूसरा - तब तो बड़ा नुक्सान हुआ होगा :(
पहला - नहीं, हमने उसकी बीमा करवा रखी थी :)
                 सांसारि आदमी की प्रियता और अप्रियता की यह स्थिति है, उसके सुख और दुःख दोनों क्षणिक है