Sponcered Links

Thursday, 5 September 2013

पिप्पलाद ऋषि



पिप्पलाद ऋषि वैदिक सनातन काल के परम तपस्वी एवं ज्ञानी ऋषि थे. पिप्पलाद का जन्म पीपल के वृक्ष के नीचे हुआ पीपल के पत्तों का सेवन भोजन रूप में किया और पीपल के नीचे ही कठोर तपस्या की जिस कारण इन्हें पिप्पलाद नाम प्राप्त हुआ. ऋषि पिप्पलाद जी को भगवान शिव का अवतार भी माना गया है जिस कारण इन्हें पूजनीय स्थान प्राप्त हुआ.
पिप्पलाद जन्म कथा |

पिप्पलाद जी के संबंध में कुछ कथाएं प्रचलित हैं जिसमें से एक के अनुसार जब एक समय त्रेतायुग में अकाल पड़ा तब कौशिक मुनि अपने परिवार समेत गृहस्थान को छोड़कर अन्यत्र परिवार का भरण-पोषण करने के लिए निकल पड़ते हैं परंतु लालन पालन में असमर्थ होने पर वह दुखी मन से अपने एक पुत्र को बीच राह में ही पीपल के वृक्ष के नीचे छोड़ कर चले जाते हैं.

वह बालक जब निंद्रा से जागा तो अपने माता पिता को वहां न पाकर रोने लगता है. थोडी़ देर में उसे भूख-प्यास सताने लगती है तब उसे अपने पास पडे़ पीपल के पत्ते दिखाई पड़ते हैं भूख से व्याकुल वह बालक उन पत्तों से अपनी भूख शांत करता और समीप ही स्थित एक जल कुण्ड का जल पीकर अपनी प्यास बुझाता है. वह बालक प्रतिदिन इसी तरह पत्ते और पानी पीकर भगवान की साधना में लगा रहता है.

एक बार वहां देवर्षि नारद जी उस बालक के पास पहुंचते हैं तथा विपरीत दशा में भी बालक के विनय भाव से प्रभावित हो उस बालक के सभी यथोचित संस्कार पूर्ण करते हैं और उन्हें वेद एवं पुराण का ज्ञान देते हैं. वह बालक को भगवान विष्णु की भक्ति करने को कहते हैं अत: वह बालक नियमित रूप से भगवान विष्णु की भक्ति किया करता और तप में लीन रहता उस बालक की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु उसके समक्ष प्रकट होते हैं तथा उस बालक को योग और ज्ञान की शिक्षा देते हैं जिससे वह बालक ज्ञानी महर्षि बनता है.
पिप्पलाद एवं शनिदेव

समय व्यतीत होने के उपरांत वह बालक जिज्ञासा विवश अपने इस कष्टों का करण पूछता है. वह नारद मुनि जी से प्रश्न करता है कि क्यों उसे इतनी कम उम्र में अनेक कष्टों एवं माता-पिता से अलगाव को सहना पडा़, क्यों मुझे इतनी पीड़ा भोगनी पड़ रही हैं. उस बालक के प्रश्न सुन नारद उनसे कहते हैं कि तुम्हारे कष्टों का कारण शनि देव हैं जिसके कारण तुम्हें अनेक कष्ट सहने पडे़ हैं, नारद मुनि के कथन को सुन कर पिप्पलाद क्रोधित हो जाते हैं और शनि देव को श्राप देतें हैं जिस कारण शनि ग्रह पिप्पलाद के तेजोबल से पृथ्वी पर एक पर्वत पर गिरते हैं जिससे उनका एक पांव चोटिल हो जाता है.

शनि की ऐसी दुर्दशा देखकर ब्रह्मदेव अन्य देवों समेत पिप्पलाद के पास आकर उसका क्रोध शांत करते हैं. वह उनसे कहते हैं कि इसमें शनि का कोई दोष नहीं हैं वह तो केवल व्यक्ति को उसके कर्म अनुसार ही फल प्रदान करते हैं अत: तुम धराशायी हुए शनि को उनके स्थान पर प्रतिष्ठित कर दो पिप्पलाद मुनि ब्रह्मदेव के आदेश का पालन करते हैं. इसलिए जो भी व्यक्ति शनिवार के दिन पिप्पलाद नाम का ध्यान करते हैं उन्हें शनि ग्रह के कष्टों से छुटकारा प्राप्त होता है शनि ग्रह की शांति के लिए शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष के साथ ही शनिदेव के पूजन की परंपरा का विधान है.
पिप्पलाद संबंधि अन्य कथा

पिप्पलाद मुनि के साथ एक अन्य कथा भी जुडी़ हुई है जिसमें पिप्पलाद को महर्षि दधीचि का पुत्र कहा गया है. महर्षि दधीचि ने वृत्रासुर आदि दैत्यों के वध के लिए अपनी हड्डियां देवताओं को दान कर दी थी और जब उनकी पत्नी सुवर्चा पति के साथ सती होने के लिए चिता की ओर जाने लगीं तभी आकाशवाणी होती है कि तुम्हारे गर्भ में महर्षि दधीचि का तेज है जो भगवान शिव का अवतार है.

आकाशवाणी को सुन सुवर्चा अपने मनोरथ को कुछ समय के लिए टाल देती है और पुत्र के जन्म पश्चात उसे पीपल के वृक्ष के नीचे छोड़ कर सती हो जाती हैं. वह बालक पीपल के वृक्ष के नीचे निवास करने लगा और पीपल के पत्तों का सेवन करता है जिस कारण उस बालक को पिप्पलाद नाम प्राप्त होता है. पिप्पलाद अपने पिता की मृत्यु के कारण अत्यंत क्षुब्ध थे अत: वह देवताओं से अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए भगवान शंकर की तपस्या करते हैं.

उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न हो भगवान शिव उनसे वरदान मांगने को कहते हैं इस पर पिप्पलाद पिता के हत्यारे देवताओं को भस्म करने की इच्छा व्यक्त करता है. शिवजी उसकी इच्छा पूर्ति हेतु अपने तीसरे नेत्र को खोल देते हैं इस भीषण अग्नि से संपूर्ण सृष्टि नष्ट होने लगती है और पिप्पलाद का शरीर भी आग से जलने लगता है.

इस संकट से मुक्ति के लिए पिप्पलाद भगवान शिव को पुकरते हैं भगवान शिव प्रकट हो कर उससे कहते हैं कि तुमने जैसा चाहा मैने तो वैसा ही किया है और तुम्हें इस लिए कष्ट मिल रहा है क्योंकि तुमने दूसरों का विनाश चाहा और इस कष्ट को तुम्हें भी भुगतना होगा. भगवान शिव के वचन सुनकर पिप्पलाद उनसे अपने कृत की क्षमा मांगते हैं और अपनी भूल का पश्चाताप करते हैं.


Tuesday, 3 September 2013

सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु ने एक बार सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के साथ निर्गुण, निराकार शिव से प्रार्थना की, प्रभु आप कैसे प्रसन्न होते हैं। भगवान शिव बोले मुझे प्रसन्न करने के लिए शिवलिंग का पूजन करो। जब किसी प्रकार का संकट या दु:ख हो तो शिवलिंग का पूजन करने से समस्त दु:खों का नाश हो जाता है।(शिवमहापुराण सृष्टिखंड )जब देवर्षि नारद ने भगवान श्री विष्णु को शाप दिया और बाद में पश्चाताप किया तब विष्णु ने नारदजी को पश्चाताप के लिए शिवलिंग का पूजन, शिवभक्तों का सत्कार, नित्य शिवशत नाम का जाप आदि उपाय सुझाये। (शिवमहापुराण सृष्टिखंड )एक बार सृष्टि रचयिता ब्रह्माजी सभी देवताओं को लेकर क्षीर सागर में श्री विष्णु के पास परम तत्व जानने के लिए पहोच गये। श्री विष्णु ने सभी को शिवलिंग की पूजा करने का सुझाव दिया और विश्वकर्मा को बुलाकर देवताओं के अनुसार अलग-अलग द्रव्य पदार्थ के शिवलिंग बनाकर देने का आदेश देकर सभी को विधिवत पूजा से अवगत करवाया। (शिवमहापुराण सृष्टिखंड )ब्रह्मा जी ने देवर्षि नारद को शिवलिंग की पूजा की महिमा का उपदेश देते हुवे कहा। इसी उपदेश से जो ग्रंथ कि रचना हुई वो शिव महापुराण हैं। माता पार्वती के अत्यन्त आग्रह से, जनकल्याण के लिए निर्गुण, निराकार शिव ने सौ करोड़ श्लोकों में शिवमहापुराण की रचना कि। जो चारों वेद और अन्य सभी पुराण शिवमहापुराण की तुलना में नहीं आ सकते। भगवान शिव की आज्ञा पाकर विष्णु के अवतार वेदव्यास जी ने शिवमहापुराण को २४६७२ श्लोकों में संक्षिप्त किया हैं।