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Saturday, 9 September 2017


कृष्णा आपकी पुकार सुन रहे है,,,,,,
मीरा जी जब भगवान कृष्ण के लिए गाती थी तो भगवान बड़े ध्यान से सुनते थे।
सूरदास जी जब पद गाते थे तब भी भगवान सुनते थे।
और कहाँ तक कहूँ कबीर जी ने तो यहाँ तक कह दिया:- चींटी के पग नूपुर बाजे वह भी साहब सुनता है।
एक चींटी कितनी छोटी होती है अगर उसके पैरों में भी घुंघरू बाँध दे तो उसकी आवाज को भी भगवान सुनते है।
यदि आपको लगता है की आपकी पुकार भगवान नहीं सुन रहे तो ये आपका वहम है या फिर आपने भगवान के स्वभाव को नहीं जाना।
कभी प्रेम से उनको पुकारो तो सही, कभी उनकी याद में आंसू गिराओ तो सही।
मैं तो यहाँ तक कह सकती हूँ की केवल भगवान ही है जो आपकी बात को सुनता है।
एक छोटी सी कथा संत बताते है:-
एक भगवान जी के भक्त हुए थे, उन्होंने 20 साल तक लगातार भगवत गीता जी का पाठ किया।
अंत में भगवान ने उनकी परिक्षा लेते हुऐ कहा:- अरे भक्त! तू सोचता है की मैं तेरे गीता के पाठ से खुश हूँ, तो ये तेरा वहम है।
मैं तेरे पाठ से बिलकुल भी प्रसन्न नही हुआ।
जैसे ही भक्त ने सुना तो वो नाचने लगा, और झूमने लगा।
भगवान ने बोला:- अरे! मैंने कहा की मैं तेरे पाठ करने से खुश नही हूँ और तू नाच रहा है।
वो भक्त बोला:- भगवान जी आप खुश हो या नहीं हो ये बात मैं नही जानता।
लेकिन मैं तो इसलिए खुश हूँ की आपने मेरा पाठ कम से कम सुना तो सही, इसलिए मैं नाच रहा हूँ।
ये होता है भाव....
थोड़ा सोचिये जब द्रौपती जी ने भगवान कृष्ण को पुकारा तो क्या भगवान ने नहीं सुना?
भगवान ने सुना भी और लाज भी बचाई।
जब गजेन्द्र हाथी ने ग्राह से बचने के लिए भगवान को पुकारा तो क्या भगवान ने नहीं सुना?
बिल्कुल सुना और भगवान अपना भोजन छोड़कर आये।
कबीरदास जी, तुलसीदास जी, सूरदास जी, हरिदास जी, मीरा बाई जी, सेठजी, भाई पोद्दार जी, राधाबाबा जी, श्री रामसुखदास जी और न जाने कितने संत हुए जो भगवान से बात करते थे और भगवान भी उनकी सुनते थे।
इसलिए जब भी भगवान को याद करो उनका नाम जप करो तो ये मत सोचना की भगवान आपकी पुकार सुनते होंगे या नहीं?
कोई संदेह मत करना, बस ह्रदय से उनको पुकारना, तुम्हे खुद लगेगा की हाँ, भगवान आपकी पुकार को सुन रहे है।
🌹 जय श्री राधा माधव 🌹
🌿 हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे 🌿
🌿 हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे 🌿
श्री राधे राधे जी
भगवान परशुराम द्वारा 21 बार क्षत्रियो का संहार
भगवान परशुराम को भगवन विष्णु का छठवां अवतार माना जाता हैं। भगवान परशुराम के बारे में यह प्रसिद्ध है कि उन्होंने तत्कालीन अत्याचारी और निरंकुश क्षत्रियों का 21 बार संहार किया। लेकिन क्या आप जानते हैं भगवान परशुराम ने आखिर ऐसा क्यों किया?
महिष्मती नगर के राजा सहस्त्रार्जुन क्षत्रिय समाज के हैहय वंश के राजा कार्तवीर्य और रानी कौशिक के पुत्र थे । सहस्त्रार्जुन का वास्तवीक नाम अर्जुन था। उन्होने दत्तत्राई को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की। दत्तत्राई उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उसे वरदान मांगने को कहा तो उसने दत्तत्राई से 10000 हाथों का आशीर्वाद प्राप्त किया। इसके बाद उसका नाम अर्जुन से सहस्त्रार्जुन पड़ा । इसे सहस्त्राबाहू और राजा कार्तवीर्य पुत्र होने के कारण कार्तेयवीर भी कहा जाता है ।
कहा जाता है महिष्मती सम्राट सहस्त्रार्जुन अपने घमंड में चूर होकर धर्म की सभी सीमाओं को लांघ चूका था । उसके अत्याचार व अनाचार से जनता त्रस्त हो चुकी थी । वेद - पुराण और धार्मिक ग्रंथों को मिथ्या बताकर ब्राह्मण का अपमान करना, ऋषियों के आश्रम को नष्ट करना, उनका अकारण वध करना, निरीह प्रजा पर निरंतर अत्याचार करना, यहाँ तक की उसने अपने मनोरंजन के लिए मद में चूर होकर अबला स्त्रियों के सतीत्व को भी नष्ट करना शुरू कर दिया था ।
एक बार सहस्त्रार्जुन अपनी पूरी सेना के साथ झाड - जंगलों से पार करता हुआ जमदग्नि ऋषि के आश्रम में विश्राम करने के लिए पहुंचा । महर्षि जमदग्रि ने सहस्त्रार्जुन को आश्रम का मेहमान समझकर स्वागत सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी । कहते हैं ऋषि जमदग्रि के पास देवराज इन्द्र से प्राप्त दिव्य गुणों वाली कामधेनु नामक अदभुत गाय थी । महर्षि ने उस गाय के मदद से कुछ ही पलों में देखते ही देखते पूरी सेना के भोजन का प्रबंध कर दिया । कामधेनु के ऐसे विलक्षण गुणों को देखकर सहस्त्रार्जुन को ऋषि के आगे अपना राजसी सुख कम लगने लगा। उसके मन में ऐसी अद्भुत गाय को पाने की लालसा जागी। उसने ऋषि जमदग्नि से कामधेनु को मांगा। किंतु ऋषि जमदग्नि ने कामधेनु को आश्रम के प्रबंधन और जीवन के भरण-पोषण का एकमात्र जरिया बताकर कामधेनु को देने से इंकार कर दिया। इस पर सहस्त्रार्जुन ने क्रोधित होकर ऋषि जमदग्नि के आश्रम को उजाड़ दिया और कामधेनु को ले जाने लगा। तभी कामधेनु सहस्त्रार्जुन के हाथों से छूट कर स्वर्ग की ओर चली गई।
जब परशुराम अपने आश्रम पहुंचे तब उनकी माता रेणुका ने उन्हें सारी बातें विस्तारपूर्वक बताई। परशुराम माता-पिता के अपमान और आश्रम को तहस नहस देखकर आवेशित हो गए। पराक्रमी परशुराम ने उसी वक्त दुराचारी सहस्त्रार्जुन और उसकी सेना का नाश करने का संकल्प लिया। परशुराम अपने परशु अस्त्र को साथ लेकर सहस्त्रार्जुन के नगर महिष्मतिपुरी पहुंचे। जहां सहस्त्रार्जुन और परशुराम का युद्ध हुआ। किंतु परशुराम के प्रचण्ड बल के आगे सहस्त्रार्जुन बौना साबित हुआ। भगवान परशुराम ने दुष्ट सहस्त्रार्जुन की हजारों भुजाएं और धड़ परशु से काटकर कर उसका वध कर दिया।
सहस्त्रार्जुन के वध के बाद पिता के आदेश से इस वध का प्रायश्चित करने के लिए परशुराम तीर्थ यात्रा पर चले गए। तब मौका पाकर सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने अपने सहयोगी क्षत्रियों की मदद से तपस्यारत महर्षि जमदग्रि का उनके ही आश्रम में सिर काटकर उनका वध कर दिया । सहस्त्रार्जुन पुत्रों ने आश्रम के सभी ऋषियों का वध करते हुए, आश्रम को जला डाला । माता रेणुका ने सहायतावश पुत्र परशुराम को विलाप स्वर में पुकारा । जब परशुराम माता की पुकार सुनकर आश्रम पहुंचे तो माता को विलाप करते देखा और माता के समीप ही पिता का कटा सिर और उनके शरीर पर 21 घाव देखे।
यह देखकर परशुराम बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने शपथ ली कि वह हैहय वंश का ही सर्वनाश नहीं कर देंगे बल्कि उसके सहयोगी समस्त क्षत्रिय वंशों का 21 बार संहार कर भूमि को क्षत्रिय विहिन कर देंगे। पुराणों में उल्लेख है कि भगवान परशुराम ने अपने इस संकल्प को पूरा भी किया।
पुराणों में उल्लेख है कि भगवान परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करके उनके रक्त से समन्तपंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर को भर कर अपने संकल्प को पूरा किया । कहा जाता है की महर्षि ऋचीक ने स्वयं प्रकट होकर भगवान परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दिया था तब जाकर किसी तरह क्षत्रियों का विनाश भूलोक पर रुका । तत्पश्चात भगवान परशुराम ने अपने पितरों के श्राद्ध क्रिया की एवं उनके आज्ञानुसार अश्वमेध और विश्वजीत यज्ञ किया ।
जय जय श्री राधेकृष्णा .....

एक बार शुकदेव जी के पिता भगवान
वेदव्यासजी महाराज कहीं जा रहे थे। रास्ते में
उन्होंने देखा कि एक कीड़ा बड़ी तेजी से सड़क
पार कर रहा था।
वेदव्यासजी ने अपनी योगशक्ति देते हुए उससे
पूछाः
"तू इतनी जल्दी सड़क क्यों पार कर रहा है?
क्या तुझे किसी काम से जाना है? तू
तो नाली का कीड़ा है। इस नाली को छोड़कर
दूसरी नाली में ही तो जाना है, फिर इतनी तेजी से
क्यों भाग रहा है?"
कीड़ा बोलाः "बाबा जी बैलगाड़ी आ रही है।
बैलों के गले में बँधे घुँघरु तथा बैलगाड़ी के
पहियों की आवाज मैं सुन रहा हूँ। यदि मैं धीरे-धीर
सड़क पार करूँगा तो वह बैलगाड़ी आकर मुझे
कुचल डालेगी।"
वेदव्यासजीः "कुचलने दे। कीड़े की योनि में जीकर
भी क्या करना?"
कीड़ाः "महर्षि! प्राणी जिस शरीर में होता है
उसको उसमें ही ममता होती है। अनेक
प्राणी नाना प्रकार के कष्टों को सहते हुए
भी मरना नहीं चाहते।"
वेदव्यास जीः "बैलगाड़ी आ जाये और तू मर जाये
तो घबराना मत। मैं तुझे योगशक्ति से महान
बनाऊँगा। जब तक ब्राह्मण शरीर में न पहुँचा दूँ,
अन्य सभी योनियों से शीघ्र
छुटकारा दिलाता रहूँगा।"
उस कीड़े ने बात मान ली और बीच रास्ते पर रुक
गया और मर गया। फिर वेदव्यासजी की कृपा से
वह क्रमशः कौआ, सियार आदि योनियों में जब-
जब भी उत्पन्न हुआ, व्यासजी ने जाकर उसे
पूर्वजन्म का स्मरण दिला दिया। इस तरह वह
क्रमशः मृग, पक्षी, जातियों में जन्म
लेता हुआ क्षत्रिय जाति में उत्पन्न हुआ। उसे
वहाँ भी वेदव्यासजी दर्शन दिये। थोड़े दिनों में
रणभूमि में शरीर त्यागकर उसने ब्राह्मण के घर
जन्म लिया।
भगवान वेदव्यास जी ने उसे पाँच वर्ष की उम्र में
Diksh दि जिसका जप करते-करते
वह ध्यान करने लगा।
उसकी बुद्धि बड़ी विलक्षण होने पर वेद,
शास्त्र, धर्म का रहस्य समझ में आ गया।
सात वर्ष की आयु में वेदव्यास जी ने उसे कहाः
"कार्त्तिक क्षेत्र में कई वर्षों से एक ब्राह्मण
नन्दभद्र तपस्या कर रहा है। तुम जाकर
उसकी शंका का समाधान करो।"
मात्र सात वर्ष का ब्राह्मण कुमार कार्त्तिक
क्षेत्र में तप कर रहे उस ब्राह्मण के पास पहुँच
कर बोलाः
"हे ब्राह्मणदेव! आप तप क्यों कर रहे हैं?"
ब्राह्मणः "हे ऋषिकुमार! मैं यह जानने के लिए
तप कर रहा हूँ कि जो अच्छे लोग है, सज्जन लोग
है, वे सहन करते हैं, दुःखी रहते हैं और
पापी आदमी सुखी रहते हैं। ऐसा क्यों है?"
बालकः "पापी आदमी यदि सुखी है, तो पाप के
कारण नहीं, वरन् पिछले जन्म का कोई पुण्य है,
उसके कारण सुखी है। वह अपने पुण्य खत्म कर
रहा है। पापी मनुष्य भीतर से
तो दुःखी ही होता है, भले ही बाहर से
सुखी दिखाई दे।
धार्मिक आदमी को ठीक समझ नहीं होती,gyan diksha नहीं मिलता इसलिए वह
दुःखी होता है। वह धर्म के कारण
दुःखी नहीं होता, अपितु समझ की कमी के कारण
दुःखी होता है। समझदार को यदि कोई गुरु मिल
जायें तो वह नर में से नारायण बन जाये, इसमें
क्या आश्चर्य है?"
ब्राह्मणः "मैं इतना बूढ़ा हो गया, इतने वर्षों से
कार्त्तिक क्षेत्र में तप कर रहा हूँ। मेरे तप
का फल यही है कि तुम्हारे जैसे सात वर्ष के
योगी के मुझे दर्शन हो रहे हैं। मैं तुम्हें प्रणाम
करता हूँ।"
बालकः "नहीं... नहीं, महाराज! आप तो भूदेव हैं।
मैं तो बालक हूँ। मैं आपको प्रणाम करता हूँ।"
उसकी नम्रता देखकर ब्राह्मण और खुश हुआ।
तप छोड़कर वह परमात्मचिन्तन में लग गया। अब
उसे कुछ जानने की इच्छा नहीं रही। जिससे सब
कुछ जाना जाता है उसी परमात्मा में
विश्रांति पाने लग गया।
इस प्रकार नन्दभद्र ब्राह्मण को उत्तर दे,
निःशंक होकर सात दिनों तक निराहार रहकर वह
बालक सूर्यमन्त्र का जप करता रहा और
वहीं बहूदक तीर्थ में उसने शरीर त्याग दिया।
वही बालक दूसरे जन्म में कुषारु पिता एवं
मित्रा माता के यहाँ प्रगट हुआ। उसका नाम
मैत्रेय पड़ा। इन्होंने व्यासजी के
पिता पराशरजी से 'विष्णु-पुराण' तथा 'बृहत्
पाराशर होरा शास्त्र' का अध्ययन किया था।
'पक्षपात रहित अनुभवप्रकाश' नामक ग्रन्थ में
मैत्रेय तथा पराशर ऋषि का संवाद आता है।
कहाँ तो सड़क से गुजरकर नाली में गिरने
जा रहा कीड़ा और कहाँ संत के सान्निध्य से वह
मैत्रेय ऋषि बन गया। सत्संग की बलिहारी है!
इसीलिए तुलसीदास जी कहते हैं –
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिली जो सुख लव सतसंग।।
यहाँ एक शंका हो सकती है कि वह
कीड़ा ही मैत्रेय ऋषि क्यों नहीं बन गया?
अरे भाई! यदि आप पहली कक्षा के
विद्यार्थी हो और आपको एम. ए. में बिठाया जाये
तो क्या आप पास हो सकते हो....? नहीं...।
दूसरी, तीसरी, चौथी... दसवीं... बारहवीं... बी.ए.
आदि पास करके ही आप एम.ए. में प्रवेश कर
सकते हो।
किसी चौकीदार पर कोई प्रधानमन्त्री अत्यधिक
प्रसन्न हो जाए तब भी वह उसे सीधा कलेक्टर
(जिलाधीश) नहीं बना सकता, ऐसे ही नाली में
रहने वाला कीड़ा सीधा मनुष्य
तो नहीं हो सकता बल्कि विभिन्न
योनियों को पार करके ही मनुष्य बन सकता है।
हाँ इतना अवश्य है कि संतकृपा से उसका मार्ग
छोटा हो जाता है।
संतसमागम की, साधु पुरुषों से संग
की महिमा का कहाँ तक वर्णन करें, कैसे बयान
करें? एक सामान्य कीड़ा उनके सत्संग को पाकर
महान् ऋषि बन सकता है तो फिर यदि मानव
को किसी सदगुरु का सान्निध्य मिल जाये....
उनके वचनानुसार चल पड़े तो मुक्ति का अनुभव
करके जीवन्मुक्त भी बन सकता है।,,,,,,,,

Thursday, 7 September 2017

*भजन-चिन्तन मोक्ष का मूल*

  एक महात्मा थे। जीवन भर उन्होंने भजन ही किया था। उनकी कुटिया के सामने एक तालाब था। जब उनका शरीर छूटने का समय आया तो देखा कि एक बगुला मछली मार रहा है। उन्होंने बगुले को उड़ा दिया। इधर उनका शरीर छूटा तो नरक गये। उनके चेले को स्वप्न में दिखायी पड़ा; वे कह रहे थे- "बेटा! हमने जीवन भर कोई पाप नहीं किया, केवल बगुला उड़ा देने मात्र से नरक जाना पड़ा। तुम सावधान रहना।"
  जब शिष्य का भी शरीर छूटने का समय आया तो वही दृश्य पुनः आया। बगुला मछली पकड़ रहा था। गुरु का निर्देश मानकर उसने बगुले को नहीं उड़ाया। मरने पर वह भी नरक जाने लगा तो गुरुभाई को आकाशवाणी मिली कि गुरुजी ने बगुला उड़ाया था इसलिए नरक गये। हमने नहीं उड़ाया इसलिए नरक में जा रहे हैं। तुम बचना!
  गुरुभाई का शरीर छूटने का समय आया तो संयोग से पुनः बगुला मछली मारता दिखाई पड़ा। गुरुभाई ने भगवान् को प्रणाम किया कि भगवन्! आप ही मछली में हो और आप ही बगुले में भी। हमें नहीं मालूम कि क्या झूठ है? क्या सच है? कौन पाप है, कौन पुण्य? आप अपनी व्यवस्था देखें। मुझे तो आपके चिन्तन की डोरी से प्रयोजन है। वह शरीर छूटने पर प्रभु के धाम गया।
  नारद जी ने भगवान से पूछा, "भगवन्! अन्ततः वे नरक क्यों गये? महात्मा जी ने बगुला उड़ाकर कोई पाप तो नहीं किया?" उन्होंने बताया, "नारद! उस दिन बगुले का भोजन वही था। उन्होंने उसे उड़ा दिया। भूख से छटपटाकर बगुला मर गया अतः पाप हुआ, इसलिए नरक गये।" नारद ने पूछा, "दूसरे ने तो नहीं उड़ाया, वह क्यों नरक गया?" बोले, "उस दिन बगुले का पेट भरा था। वह विनोदवश मछली पकड़ रहा था, उसे उड़ा देना चाहिए था। शिष्य से भूल हुई, इसी पाप से वह नरक गया।" नारद ने पूछा, "और तीसरा?" भगवान् ने कहा, "तीसरा अपने भजन में लगा रह गया, सारी जिम्मेदारी हमारे ऊपर सौंप दी। जैसी होनी थी, वह हुई; किन्तु मुझसे सम्बन्ध जोड़े रह जाने के कारण, मेरे ही चिन्तन के प्रभाव से वह मेरे धाम को प्राप्त हुआ।।"
अतः-
पाप-पुण्य की चिन्ता में समय को न गँवाकर जो निरन्तर चिन्तन में लगा रहता है, वह पा जाता है। भगवान् का भजन ही पुण्य है, बाकी सब पाप है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- "यज्ञार्थात्कर्मणोsन्यत्र लोकोsयं कर्मबन्धन:''- यज्ञ के अतिरिक्त जो कुछ भी किया जाता है वह इसी लोक में बाँधकर रखने वाला है, जिसमें खाना-पीना सभी कुछ आ जाता है। जब बंधनकारी हर कार्य कर ही रहे हैं तो हत्या की ही इतनी चिंता क्यों? वह नियत कर्म कीजिये जो भव-बन्धन से छुड़ा दे........,
         
                              ।।ॐ शांति।।
*★★ पितृ-पक्ष - श्राद्ध 2017*

•• इस सृष्टि में हर चीज का अथवा प्राणी का जोड़ा है । जैसे - रात और दिन, अँधेरा और उजाला, सफ़ेद और काला, अमीर और गरीब अथवा नर और नारी इत्यादि बहुत गिनवाये जा सकते हैं । सभी चीजें अपने जोड़े से सार्थक है अथवा एक-दूसरे के पूरक है । दोनों एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं । इसी तरह दृश्य और अदृश्य जगत का भी जोड़ा है । दृश्य जगत वो है जो हमें दिखता है और अदृश्य जगत वो है जो हमें नहीं दिखता । ये भी एक-दूसरे पर निर्भर है और एक-दूसरे के पूरक हैं । पितृ-लोक भी अदृश्य-जगत का हिस्सा है और अपनी सक्रियता के लिये दृश्य जगत के श्राद्ध पर निर्भर है ।
•• धर्म ग्रंथों के अनुसार श्राद्ध के सोलह दिनों में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है। वर्ष के किसी भी मास तथा तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों के लिए पितृपक्ष की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है
•• पूर्णिमा पर देहांत होने से भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को श्राद्ध करने का विधान है। इसी दिन से महालय (श्राद्ध) का प्रारंभ भी माना जाता है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितृगण वर्षभर तक प्रसन्न रहते हैं। धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि पितरों का पिण्ड दान करने वाला गृहस्थ दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन-धान्य आदि की प्राप्ति करता है।
•• श्राद्ध में पितरों को आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्ड दान तथा तिलांजलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे। इसी आशा के साथ वे पितृलोक से पृथ्वीलोक पर आते हैं। यही कारण है कि हिंदू धर्म शास्त्रों में प्रत्येक हिंदू गृहस्थ को पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य रूप से करने के लिए कहा गया है।
•• श्राद्ध से जुड़ी कई ऐसी बातें हैं जो बहुत कम लोग जानते हैं। मगर ये बातें श्राद्ध करने से पूर्व जान लेना बहुत जरूरी है क्योंकि कई बार विधिपूर्वक श्राद्ध न करने से पितृ श्राप भी दे देते हैं। आज हम आपको श्राद्ध से जुड़ी कुछ विशेष बातें बता रहे हैं, जो इस प्रकार हैं--

1- श्राद्धकर्म में गाय का घी, दूध या दही काम में लेना चाहिए। यह ध्यान रखें कि गाय को बच्चा हुए दस दिन से अधिक हो चुके हैं। दस दिन के अंदर बछड़े को जन्म देने वाली गाय के दूध का उपयोग श्राद्ध कर्म में नहीं करना चाहिए।
2- श्राद्ध में चांदी के बर्तनों का उपयोग व दान पुण्यदायक तो है ही राक्षसों का नाश करने वाला भी माना गया है। पितरों के लिए चांदी के बर्तन में सिर्फ पानी ही दिए जाए तो वह अक्षय तृप्तिकारक होता है। पितरों के लिए अर्घ्य, पिण्ड और भोजन के बर्तन भी चांदी के हों तो और भी श्रेष्ठ माना जाता है।
3- श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाते समय परोसने के बर्तन दोनों हाथों से पकड़ कर लाने चाहिए, एक हाथ से लाए अन्न पात्र से परोसा हुआ भोजन राक्षस छीन लेते हैं।
4- ब्राह्मण को भोजन मौन रहकर एवं व्यंजनों की प्रशंसा किए बगैर करना चाहिए क्योंकि पितर तब तक ही भोजन ग्रहण करते हैं जब तक ब्राह्मण मौन रह कर भोजन करें।
5- जो पितृ शस्त्र आदि से मारे गए हों उनका श्राद्ध मुख्य तिथि के अतिरिक्त चतुर्दशी को भी करना चाहिए। इससे वे प्रसन्न होते हैं। श्राद्ध गुप्त रूप से करना चाहिए। पिंडदान पर साधारण या नीच मनुष्यों की दृष्टि पडने से वह पितरों को नहीं पहुंचता।
6- श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाना आवश्यक है, जो व्यक्ति बिना ब्राह्मण के श्राद्ध कर्म करता है, उसके घर में पितर भोजन नहीं करते, श्राप देकर लौट जाते हैं। ब्राह्मण हीन श्राद्ध से मनुष्य महापापी होता है।
7- श्राद्ध में जौ, कांगनी, मटरसरसों का उपयोग श्रेष्ठ रहता है। तिल की मात्रा अधिक होने पर श्राद्ध अक्षय हो जाता है। वास्तव में तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं। कुशा (एक प्रकार की घास) राक्षसों से बचाते हैं।
8- दूसरे की भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए। वन, पर्वत, पुण्यतीर्थ एवं मंदिर दूसरे की भूमि नहीं माने जाते क्योंकि इन पर किसी का स्वामित्व नहीं माना गया है। अत: इन स्थानों पर श्राद्ध किया जा सकता है।
9- चाहे मनुष्य देवकार्य में ब्राह्मण का चयन करते समय न सोचे, लेकिन पितृ कार्य में योग्य ब्राह्मण का ही चयन करना चाहिए क्योंकि श्राद्ध में पितरों की तृप्ति ब्राह्मणों द्वारा ही होती है।
10- जो व्यक्ति किसी कारणवश एक ही नगर में रहनी वाली अपनी बहिन, जमाई और भानजे को श्राद्ध में भोजन नहीं कराता, उसके यहां पितर के साथ ही देवता भी अन्न ग्रहण नहीं करते।
11- श्राद्ध करते समय यदि कोई भिखारी आ जाए तो उसे आदरपूर्वक भोजन करवाना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसे समय में घर आए याचक को भगा देता है उसका श्राद्ध कर्म पूर्ण नहीं माना जाता और उसका फल भी नष्ट हो जाता है।
12- शुक्लपक्ष में, रात्रि में, युग्म दिनों (एक ही दिन दो तिथियों का योग)में तथा अपने जन्मदिन पर कभी श्राद्ध नहीं करना चाहिए। धर्म ग्रंथों के अनुसार सायंकाल का समय राक्षसों के लिए होता है, यह समय सभी कार्यों के लिए निंदित है। अत: शाम के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए।
13- श्राद्ध में प्रसन्न पितृगण मनुष्यों को पुत्र, धन, विद्या, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष और स्वर्ग प्रदान करते हैं। श्राद्ध के लिए शुक्लपक्ष की अपेक्षा कृष्णपक्ष श्रेष्ठ माना गया है।
14- रात्रि को राक्षसी समय माना गया है। अत: रात में श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए। दोनों संध्याओं के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए। दिन के आठवें मुहूर्त (कुतपकाल) में पितरों के लिए दिया गया दान अक्षय होता है।
15- श्राद्ध में ये चीजें होना महत्वपूर्ण हैं- गंगाजल, दूध, शहद, दौहित्र, कुश और तिल। केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है। सोने, चांदी, कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं। इनके अभाव में पत्तल उपयोग की जा सकती है।
16- तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णु लोक को चले जाते हैं। तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं।
17- रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं। आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।
18- चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं।
19- भविष्य पुराण के अनुसार श्राद्ध 12 प्रकार के होते हैं, जो इस प्रकार हैं-
1- नित्य, 2- नैमित्तिक, 3- काम्य, 4- वृद्धि, 5- सपिण्डन, 6- पार्वण, 7- गोष्ठी, 8- शुद्धर्थ, 9- कर्मांग, 10- दैविक, 11- यात्रार्थ, 12- पुष्टयर्थ
20- श्राद्ध के प्रमुख अंग इस प्रकार :
तर्पण- इसमें दूध, तिल, कुशा, पुष्प, गंध मिश्रित जल पितरों को तृप्त करने हेतु दिया जाता है। श्राद्ध पक्ष में इसे नित्य करने का विधान है।
भोजन व पिण्ड दान-- पितरों के निमित्त ब्राह्मणों को भोजन दिया जाता है। श्राद्ध करते समय चावल या जौ के पिण्ड दान भी किए जाते हैं।
वस्त्रदान-- वस्त्र दान देना श्राद्ध का मुख्य लक्ष्य भी है।
दक्षिणा दान-- यज्ञ की पत्नी दक्षिणा है जब तक भोजन कराकर वस्त्र और दक्षिणा नहीं दी जाती उसका फल नहीं मिलता।
21 - श्राद्ध तिथि के पूर्व ही यथाशक्ति विद्वान ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलावा दें। श्राद्ध के दिन भोजन के लिए आए ब्राह्मणों को दक्षिण दिशा में बैठाएं।
22- पितरों की पसंद का भोजन दूध, दही, घी और शहद के साथ अन्न से बनाए गए पकवान जैसे खीर आदि है। इसलिए ब्राह्मणों को ऐसे भोजन कराने का विशेष ध्यान रखें।
23- तैयार भोजन में से गाय, कुत्ते, कौए, देवता और चींटी के लिए थोड़ा सा भाग निकालें। इसके बाद हाथ जल, अक्षत यानी चावल, चन्दन, फूल और तिल लेकर ब्राह्मणों से संकल्प लें।
24- कुत्ते और कौए के निमित्त निकाला भोजन कुत्ते और कौए को ही कराएं किंतु देवता और चींटी का भोजन गाय को खिला सकते हैं। इसके बाद ही ब्राह्मणों को भोजन कराएं। पूरी तृप्ति से भोजन कराने के बाद ब्राह्मणों के मस्तक पर तिलक लगाकर यथाशक्ति कपड़े, अन्न और दक्षिणा दान कर आशीर्वाद पाएं।
25- ब्राह्मणों को भोजन के बाद घर के द्वार तक पूरे सम्मान के साथ विदा करके आएं। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मणों के साथ-साथ पितर लोग भी चलते हैं। ब्राह्मणों के भोजन के बाद ही अपने परिजनों, दोस्तों और रिश्तेदारों को भोजन कराएं।
26- पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है। पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में सपिंडो (परिवार के) को श्राद्ध करना चाहिए । एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राध्दकर्म करें या सबसे छोटा ।
(((((( प्रेम के भूखे )))))) . वृन्दावन में बिहारी जी की अनन्य भक्त थी । नाम था कांता बाई... . बिहारी जी को अपना लाला कहा करती थी उन्हें लाड दुलार से रखा करती और दिन रात उनकी सेवा में लीन रहती थी। . क्या मजाल कि उनके लल्ला को जरा भी तकलीफ हो जाए। . एक दिन की बात है कांता बाई अपने लल्ला को विश्राम करवा कर खुद भी तनिक देर विश्राम करने लगी तभी उसे जोर से हिचकिया आने लगी ... . और वो इतनी बेचैन हो गयी कि उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा था ... . तभी कांता बाई कि पुत्री उसके घर पे आई जिसका विवाह पास ही के गाँव में किया हुआ था तब कांता बाई की हिचकिया रुक गयी। . अच्छा महसूस करने लग गयी तो उसने अपनी पुत्री को सारा वृत्तांत सुनाया कि कैसे वो हिच कियो में बेचैन हो गयी . तब पुत्री ने कहा कि माँ मैं तुम्हे सच्चे मन से याद कर रही थी उसी के कारण तुम्हे हिचकिया आ रही थी और अब जब मैं आ गयी हू तो तुम्हारी हिचकिया भी बंद हो चुकी है। . कांता बाई हैरान रह गयी कि ऐसा भी भला होता है ? तब पुत्री ने कहा हाँ माँ ऐसा ही होता है जब भी हम किसी अपने को मन से याद करते है तो हमारे अपने को हिचकिया आने लगती है। . तब कांता बाई ने सोचा कि मैं तो अपने ठाकुर को हर पल याद करती रहती हू यानी मेरे लल्ला को भी हिचकिया आती होंगी ?? . हाय मेरा छोटा सा लल्ला हिचकियो में कितना बेचैन हो जाता होगा ! . नहीं ऐसा नहीं होगा अब से मैं अपने लल्ला को जरा भी परेशान नहीं होने दूंगी और ... . उसी दिन से कांता बाई ने ठाकुर को याद करना छोड़ दिया। . अपने लल्ला को भी अपनी पुत्री को ही दे दिया सेवा करने के लिए। . लेकिन कांता बाई ने एक पल के लिए भी अपने लल्ला को याद नहीं किया ... . और ऐसा करते करते हफ्ते बीत गए और फिर एक दिन ... . जब कांता बाई सो रही थी तो साक्षात बांके बिहारी कांता बाई के सपने में आते है और कांता बाई के पैर पकड़ कर ख़ुशी के आंसू रोने लगते है....? . कांता बाई फौरन जाग जाती है और उठ कर प्रणाम करते हुए रोने लगती है और कहती है कि... . प्रभु आप तो उन को भी नहीं मिल पाते जो समाधि लगाकर निरंतर आपका ध्यान करते रहते है... . फिर मैं पापिन जिसने आपको याद भी करना छोड़ दिया है आप उसे दर्शन देने कैसे आ गए ?? . तब बिहारी जी ने मुस्कुरा कर कहा- . माँ कोई भी मुझे याद करता है तो या तो उसके पीछे किसी वस्तु का स्वार्थ होता है . या फिर कोई साधू ही जब मुझे याद करता है तो उसके पीछे भी उसका मुक्ति पाने का स्वार्थ छिपा होता है . लेकिन धन्य हो माँ तुम ऐसी पहली भक्त हो जिसने ये सोचकर मुझे याद करना छोड़ दिया कि कहीं मुझे हिचकिया आती होंगी। . मेरी इतनी परवाह करने वाली माँ मैंने पहली बार देखी है . तभी कांता बाई अपने मिटटी के शरीर को छोड़ कर अपने लल्ला में ही लीन हो जाती है। . इसलिए बंधुओ वो ठाकुर तुम्हारी भक्ति और चढ़ावे के भी भूखे नहीं है वो तो केवल तुम्हारे प्रेम के भूखे है उनसे प्रेम करना सीखो। . उनसे केवल और केवल किशोरी जी ही प्रेम करना सिखा सकती है। ~~~~~~~~~~~~~~~~~ ((((((( जय जय श्री राधे ))))))))
धर्म के चार पांव कहे गए हैं- सत, तप, दया और दान.
इनमें से सतयुग में सत चला गया. त्रेता में तप चला गया. फिर द्वापर युग में महाभारत में भाइयों द्वारा भाइयों के वध से दया भी चली गई. कलियुग चल रहा है जिसमें धर्म का एकमात्र पांव दान बचा है इसलिए मनुष्य को भवसागर पार करने के लिए अपने सामर्थ्य अनुसार दान अवश्य करना चाहिए.
सनातन नियम रहा है- प्रत्येक धर्मनिष्ठ को अपनी आय का दशांश एवं भोजन का चतुर्थांश प्रत्येक दान कर देना चाहिए. दानशीलता उनके लिए कई प्रकार से रक्षा कवच तैयार करती है।
चिडिया चोंच भर ले गयी नदी न घटयो नीर
दान दिए धन और बढे कह गये संत कबीर .......